सिनेमा विचारों की अभिव्यक्ति का प्रभावशाली माध्यम है। सिनेमा का उद्देश्य चाहें जो भी हो व्यवसाय/मनोरंजन करना, या कोई सामाजिक सन्देश प्रदान करना लेकिन उसका अपने समय के यथार्थ से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। सिनेमा को मोटे तौर पर दो भागों में बांटा जाता है-
1. मुख्यधारा का सिनेमा
२. समानांतर सिनेमा
जहाँ मुख्यधारा का सिनेमा मनोरंजन को ध्यान में रखकर कहानियां गढ़ता है। वहीं समानान्तर सिनेमा को परिवर्तन या बदलाव के सिनेमा के रूप में देखा जाता है। यह समाज की समस्याओं को न सिर्फ गहराई से उठाता है, बल्कि उस पर प्रश्न भी छोड़ जाता है।
समानान्तर सिनेमा की उत्पत्ति व अर्थ को समझने से पहले हमें हिन्दी सिनेमा के इतिहास, उत्पत्ति व उसके विकास की पृष्ठभूमि को समझना होगा। भारतीय सिनेमा के इतिहास के लिए 7 जुलाई 1896 का दिन महत्त्वपूर्ण है। जब बंबई के वाॅटसन थिएटर में लुमीयर ब्रदर्स नाम के फ्रांसीसी अपनी फिल्में लेकर भारत आये, टिकट दर 2 आने से लेकर 2 रुपये तक थी, फिल्मों में ‘अराइवल आॅफ ट्रेन द: सी बाथ’ तथा ‘लेड़िज एवं सोल्जर्स आन हृील’ प्रमुख थी। पहली बार लोग पर्दे पर चलती फिरती तस्वीरों को देखकर दंग रह गये, नतीजा फिल्मों की लोकप्रियता बढ़ने लगी और विदेशों से और संख्या में फिल्में आने लगी। विदेश से आयी फिल्म- ‘आई लाइफ आॅफ काइस्ट’ को देखकर ही दादा साहेब फाल्के के मन में फिल्म बनाने के विचारों की नींव पड़ी। 1913 में दादा साहब फाल्के ने पहली फिल्म ‘हरिश्चन्द्र’ बनाई, उस समय देश और दुनिया में महिलाओं की भूमिका भी पुरुष ही निभाते थे। 1931 ई. में भारत में पहली बोलने वाली फिल्म ‘आलमआरा’ बनी।
पहले फिल्मों की कहानियां धार्मिक पृष्ठभूमि पर बनती थी। जैसे- 1942 में बनी ‘सावित्री’ और पहली फिल्म ‘हरिश्चन्द्र’ भी एक तरह की धार्मिक फिल्म थी। अन्य धार्मिक फिल्मों में लंका दहन, कृष्ण-जन्म, सावित्री-पद्मिनी, दक्ष-प्रजापति भी प्रमुख है। उस समय के समाज में लोगों को धर्म पर गहरी आस्था थी, धर्म उनके मन में गहरी पैठ बना चुका था। यही कारण है कि लोग धार्मिक फिल्मों को बहुत पसन्द किया करते थे, परन्तु कुछ समय बाद ही बेरोजगारी, बेकारी बढ़ने से लोगों का अब इन धार्मिक फिल्मों से मोहभंग होने लगा क्योंकि लगभग 60ः बेरोजगार युवा रोजी रोटी के लिए काम की तलाश में जुट गये और फिल्में उन्हें उनके वास्तविक परिस्थिति से जोड़ नहीं पाती थी, इसलिए उन्हें धार्मिक फिल्मों से संतुष्टि नहीं मिलती थी, और ये फिल्में सिर्फ बुजुर्गों तक सीमित हो गयी।
धार्मिक फिल्मों के बाद इतिहास की घटनाओं, राजा-महाराजाओं, उनके युद्धों पर फिल्म बननी शुरू होती है। सोहराब मोदी की फिल्म ‘पुकार’ भी (1939) ऐतिहासिक फिल्मों में अग्रणी है। इन ऐतिहासिक फिल्मों का दौर मुगले आज़्ाम से लेकर सत्यजित राय के ‘शतरंज के खिलाड़ी’ तक चलता रहा।
फिल्मों के विकास के दौर के साथ फिल्मों की विविधता भी बदलती गयी, एक समय बाद प्रेमकथाओं पर बनी फिल्मों की भरमार होती है- हीर-रांझा, सोहनी-महिवाल, आधुनिक प्रेमकथाओं पर भी फिल्में बनती है जैसे- आनन्द, मिली, बरसात, रोमांटिक फिल्मों में प्रमुख है। यहीं से फिल्में समाज का दर्पण बनना शुरू हो जाती है। 1941 में बनी ‘आदमी’ फिल्म में वेश्यावृत्ति को मानवीय नजरिये से देखने का प्रयास किया गया है। इन फिल्मों के माध्यम से हमें पता चलता है कि फिल्में सिर्फ मनोरंजन या व्यवसाय का काम नहीं करती थी, अपितु उनका ध्यान समाज की समस्याओं पर भी था।
अब सिनेमा सिर्फ मनोरंजन का ही साध्न नहीं रह गया था, बल्कि सामाजिक समस्याओं पर भी फिल्में बननी शुरू हो गयी थी। जैसे- ग्रामीण पृष्ठभूमि पर बनी प्रमुख फिल्में जैसे- ‘मजदूर’ (1934), ‘औरत’ (1940), ‘रोटी’ (1942), ‘धरती के लाल’ (1946), सिर्फ आजादी के पहले ही नहीं बल्की आजादी के बाद भी इन फिल्मों की संख्या में बढ़ोत्तरी होती हैं। जैसे- ‘दहेज’ (1950), ‘आवारा’ (1951), ‘दो बीघा जमीन’, ‘मदर इण्डिया’ (1957), ‘वंदिनी’ (1963), ‘प्यासा’ (1951) आदि ऐसी अनेक फिल्में बनी जो समाज के सच या वास्तविकता को दर्शकों के सामने प्रस्तुत कर रही थी। यानी आजादी के बाद लगभग 50 के दशक में फिल्मकार कल्पना व यथार्थ के बीच एक रचनात्मक स्थान खोज रहे थे और आजादी के बाद लगभग 50 के दशक में ‘दो बीघा जमीन’, ‘मदर इण्डिया’, ‘जागते रहो’, ‘श्री 420’, ‘सुजाता’ आदि अनेक फिल्मों ने यथार्थ से सीधा संपर्क स्थापित किया और निर्देशकों ने भी यथार्थ से अपनी पकड़ को साबित किया।
हिन्दी में लोकजीवन से जुड़ी पहली फिल्म बनाने का श्रेय निर्माता हिमांशु राय तथा निर्देशक फ्रेंज आस्टिन को दिया जाना चाहिए, जो सन् 1936 में ‘अछूत कन्या’ फिल्म लेकर आये। इस फिल्म में दलित रेलवे चैकीदार दुधिया की पुत्री कस्तूरी (देविका रानी) का ब्राह्मण मोहन के पुत्र प्रताप (अशोक कुमार) से प्रेम को दर्शाया गया है।
सन् 1939 में आयी फिल्म रोटी में निर्देशक ज्ञान मुखर्जी एक औद्योगिक सभ्यता तथा आदिवासी संस्कृति की तुलना अत्यन्त प्रभावशाली तरीके से करते हुए निष्कर्ष निकालते है कि न तो आदिवासी संस्कृति शहर में आकर सुखी हो सकती है न ही एक तबाह उद्योगपति आदिवासी सभ्यता में खुशियाँ हासिल कर सकता है। दोनों की मुक्ति अपने-अपने बोलों के भीतर ही है।
सन् 1953 में विमल राॅय ‘दो बीघा जमीन’ लेकर आये जो वास्तव में कृषक जीवन की कारुणिक गाथा है। हिन्दी में ‘गोदान’ के बाद यदि किसानों की व्यथा कहीं अपने पूर्ण भयावह स्वरूप में आयी है, वह इस फिल्म में देखने को मिलेगी। 65 रुपये के साहूकार के कर्ज को चुकाने के लिए एक किसान को किन अमानुषिक परिस्थितियों से होकर गुजरना पड़ता है; यह देखकर एक साधारण व्यक्ति व्यथित हुए बिना नहीं रहता।
सन् 1957 ई. महबूब खान द्वारा निर्देशित फिल्म ‘मदर इण्डिया’ भारतीय लोक संस्कृति की परदे पर हुई सबसे सटीक और सशक्त व्याख्या है; फिल्म में लोक के सभी रंग मौजूद है। गाँव अपनी संपूर्णता में फिल्म में उपस्थित है। फिल्म में लोकधुनों पर आधारित गीत है जिन्हें आज भी लोग गुनगुनाते हैं। घूंघट नहीं खोलूँगी सैयाँ तोरे आगे, पी के घर आज प्यारी दुल्हनिया चली, दुख भरे दिन बीते रहे भैया जैसे गीत आज भी आम जनता की जुबान पर हैं।
फिल्म राधा के परिवार का पल्लू पकड़े तो जरूर रहती है पर उसकी नजर से गाँव-गिरांव की कोई भी चीज़्ा मजाल है जो छूट गयी हो। संघर्षशील राधा (नरगिस) ने पसीने और आँसू से जो गाथा लिखी है। वह पूरे गाँव के लिए आदर्श है, आज गाँव में जो थोड़ी बहुत खुशहाली है तो वो राधा की बदौलत। जिस गाँव में आज पक्की सड़के, लहलहाते खेत, पानी की नहर तक आ गई है, वहाँ कर्ज के बोझ से दबे किसानों के आह के सिवाय कुछ भी न था, किसान कर्ज में मरने को अभिशप्त था। सभी का पेट भरने वाला किसान घुट-घुट कर जीने को विवश क्यों है? इसका जवाब अपने को किसान का हिमायती मानने वाली सरकारें न तब दे पाई थी और न आज ही दे पा रही।
हिन्दी के प्रतिष्ठित साहित्यकार रेणु की कहानी ‘तीसरी कसम’ उर्फ मारे गये गुलफाम पर निर्देशक बासु भट्टाचार्य द्वारा निर्देशित ‘तीसरी कसम’ फिल्म निर्माता शैलेन्द्र की आत्मा के चित्त कविता थी। वे गाँव के दुःख दर्द, वहाँ की पीड़ा, भोलेपन, निश्चलता सहजता के साथ-साथ उद्दात प्रेम को दर्शाया है। मेला जाते समय समेटे गये कजरी नदी प्रसंग, नटुआ नाच प्रसंग तथा गाँव के छोटे बच्चों द्वारा टप्पर के पीछे दौड़कर गाये गए गीत लाली लाली डोलिया पे लाली रे दुल्हनियां… प्रसंग लोक जीवन के बेहद मार्मिक और सहज बिंब है जिन्हें फिल्म गहराई से पकड़ सकी है। नौटंकी जैसे उत्तर प्रदेश के लोक नाट्य को फिल्म द्वारा भारतीय जनमानस से परिचय कराना लोक संस्कृति के प्रति निर्माता निर्देशक के अगाध श्रद्धा को प्रकट करता है।
जिस समाज में आज परिवार ही नहीं पति-पत्नी के रिश्तों में दरारें आ चुकी हो वहाँ परिवार के बने रहने के लिए अपने प्रेम, चाहत को आत्मोत्सर्ग करने वाले चरित्रों को हम सन् 1982 में राज श्री बैनर की फिल्म ‘नदिया के पार’ में देख सकते हैं। यह पूरी फिल्म लोक के रंग में रंगी है, फिल्म में जहां सोहर, विवाह- गीत, ग्राम देवी गीत, मनौती गीत और प्रसिद्ध लोक पर्व होली के अवसर पर गाये जाने वाले फाग गीत का सुन्दर दृश्यांकन हुआ है वही संवादों में अवधी, भोजपुरी, जैसी क्षेत्रीय बोलियों के शब्दों का प्रयोग फिल्म को लोक सापेक्ष बनाता है।
समानांतर सिनेमा के विस्तृत अर्थ पर जाये तो यह होगा कि इस सिनेमा के द्वारा समाज की गंभीर समस्याओं पर फिल्में बनती है जिसे कला या समानांतर सिनेमा कहा गया। जिसे व्यावसायिक अथवा मुख्यधारा के सिनेमा के बरअक्स प्रतिरोध का सिनेमा माना गया। वैसे तो समानांतर सिनेमा की उत्पत्ति 60 के दशक के अंत में मृणाल सेन की फिल्म ‘भुवन शोम’ से मानी जाती है, परन्तु, इसके पूर्व ही ऐसी फिल्मों की तैयारी होने लगी थी। कई फिल्मकारों ने यह महसूस किया कि समाज की गंभीर समस्याओं को फिल्म में शामिल करना चाहिए, तभी दर्शक भी स्वयं को उससे जोड़ पायेंगे उस समय समाज की गंभीर समस्या साहूकार, जमींदार थे जो किसानों का शोषण करते थे, इसी को आधर बनाकर समानांतर सिनेमा की शुरूआत इन्हीं ग्रामीण पृष्ठभूमि की वास्तविक घटनाओं पर बनी फिल्मों से होती है। सिनेमा एक सशक्त व मजबूत माध्यम है जिससे पूरा यथार्थ व इतिहास का वातावरण सामने आ जाता है जितना की यह वातावरण अन्य माध्यमों से नहीं आ पाता है।
श्याम वेनेगल समानांतर सिनेमा बनाने वाले संजीदा फिल्मकार है, जिन्होंने ‘अंकुर’ फिल्म बनाई इस फिल्म के माध्यम से वे ग्रामीण पृष्ठभूमि व जमींदारी प्रथा के कारण शोषित, पिसते किसानों का संजीदा चित्राण किया है जो आज भी हिन्दी सिनेमा की महत्वपूर्ण थाती है। ग्रामीण भारत की समस्याओं और स्त्रियों के ऊपर हो रहे शोषण की भयावता को सबसे पहले कला फिल्म ने ही दिखाया। भारत में स्त्रियों पर हो रहे शेाषण, दलित स्त्री के ऊपर हो रहे साहूकारों, जमींदारों द्वारा मानसिक-शारीरिक शोषण गरीबी आदि का नग्न चित्र हमें कला सिनेमा में मिलता है।
समानांतर सिनेमा का उद्भव हिन्दी सिनेमा में नया था, परन्तु इसके पूर्व ही सत्यजीत राय, ऋत्विक घटक, मृणाल सेन जैसे निर्देशक यथार्थ पर आधारित फिल्मंे बनाया करते थे, परन्तु यह फिल्में बंगाली पृष्ठभूमि पर आधारित हुआ करती थी, अतः सिनेमा में जब सामाजिक घटनाओं एवं लोक जीवन पर आधारित फिल्में बनने लगी तो सिनेमा का पूरा रूख ही बदल गया और यह आन्दोलन के रूप मंे सबके सामने मौजूद था। यद्यपि यह आंदोलन लंबे समय तक नहीं चला परन्तु फिर भी यह सिनेमा के महत्वपूर्ण अध्याय के रूप में है जो कि उस समय हिन्दी सिनेमा के लिए इस आन्दोलन की बहुत आवश्यकता थी।
फिल्मों ने लोगों को वास्तविक भारत के निकट लाकर खड़ा किया। जिसके माध्यम से दर्शक भी असली भारत की तस्वीर, उसकी संस्कृति, धर्म, जाति, परम्परा, से परिचित हो पाये, अनजाने ही सही परन्तु इन फिल्मों से राष्ट्रीय एकता को भी बल मिला।
जहाँ इन फिल्मों में लोक जीवन संस्कृति, गीत संगीत के संरक्षण पर संचयन का काम किया वहीं आज शहरी कृत्रिमता के फैलाव और पैसे की अनकूत इच्छा के चलते फिल्मों का व्यवसायीकरण हो गया है। इस समय फिल्मों का उद्देश्य मात्र पैसा कमाना रह गया है आज की फिल्मों से गाँव एवं क्षेत्रीय समस्याओं का गायब होना बहुत चिंतनीय है। जिस देश की आबादी के अस्सी प्रतिशत लोग गाँवों में रहने वाले लोग किसान मजदूर आदिवासी हो वहाँ पर निर्मित होने वाली फिल्मों का लोक के प्रति उदासीन होना बहुत खलता है। फिल्म जो आम-आदमी की बिल्कुल पहुँच में है उसके द्वारा निम्न-वर्गीय या मध्यवर्गीय लोगों की समस्याओं को परदे का विषय न बनाया जाना सिनेमा को कटघरे में खड़ा करता है। एक दौर था जब हिन्दी सिनेमा में ग्रामीण परिवेश और ग्रामीण समस्याओं को लेकर फिल्मों का निर्माण किया गया था, जिसका प्रभाव समाज के साथ-साथ सरकार पर भी पड़ा था।
वर्तमान हिन्दी सिनेमा में लोक जीवन एवं गैर लोक जीवन की फिल्मों को देखते सुनते परखते हुए लगातार महसूस करता हूँ कि आज लोक जीवन, ग्रामीण चेतना की फिल्में हाशिये पर जा खड़ी है, आज मसाला फिल्मों का बोल बाला है।
फिर भी, पिछले कुछ वर्षों में ग्रामीण परिवेश से संघर्ष करके आये निर्देशकों के प्रयासों की सराहना अनिवार्य हो जाती है। जिन्होंने धन पशुओं के बीच में अपनी जगह बना कर लोक की समस्याओं एवं प्रश्नों को उठाना शुरू किया है। आशा है, आने वाले समय में इस तरह के निर्देशकों की तादात बढ़ेगी जो लोक के विभिन्न रूपों को परदे पर जीवित करते रहेगें।
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