‘… हर चीज मुझे तुम तक ले जाती है

मनो हर मौजूद चीज

खूशबू, रोशनी, धातुएं

स्बकी सब नन्हीं किश्तियाँ हों

जे मुझे ले जाती हों तुम तक’

– पाब्लो नेरूदा

‘प्रेम’ पर सैकड़ों हजारों सालों से लिखा जा रहा है और मुझे उम्मीद है जब तक आदमी के शरीर में एक धड़कता हृदय है लिखा जाता रहेगा। इतनी गहराई, इतनी उत्तेजना, इतनी संवेदनशीलता है इस मनोभाव में कि ‘सिमटे तो दिले-ए-आशिक फैले तो जमाना है।’ सीधा इतना कि जहाँ ‘नेक सँयापन बाँक नहीं’ है और कठिन इतना कि ‘एक आग का दरिया है और डूब के जाना है’ या फिर ‘प्रेम को पंथ कराल महा तरवार की धार पे धावनो है।’ शायद ही इस सृष्टि में कोई हो जिसे प्रेम नहीं हुआ हो। इतनी विविधता, इतना विस्तार की सारी छायावादी उपमाएँ माथा टेक लें, दण्डवत हों जाए, फिर भी वह हाथी का एक हिस्सा जानने का दावा कर दे वही उनके लिए बहुत है। ‘अन्ना केरेनिना’ के इस कथन पर मेरा गहरा विश्वास है ‘मैं तो ये सोचती हूँ कि जितने सिर हैं उतनी ही अक्लें हैं, तो जितने दिल हैं उतने ही किस्म के प्रेम भी हैं।’

          इतने असाधारण परन्तु उतने ही सहज विषय पर इस बार का ‘सहचर…’ अंक केंद्रित है चूंकि यह पत्रिका साहित्यिक भी है और अनुवाद व सिनेमा के विविध आयामों को भी समेटती है और यही इस पत्रिका को खास बनाती है। खास तो इसलिए भी है क्योंकि यह बौद्धिक आतंक नहीें फैलाता, यह खुद किसी होड़ में शामिल नहीं है और न ही यह पगी-पगाई रचनाओं को प्रकाशित करने का दावा करता है, यह तो उन नए साहित्यिकारों को उंगली थमाता है आ जाओ भाई, डरो मत, लिखना शुरू करो। यह तो उन शोध पत्रों के लिए जगह मुहैया कराता है जो बेहतर होने के बावजूद प्रकाश में नहीं आ पाते, यह बाॅलीवुड की उस दुनिया में ले जाता है जहाँ जीवन की दिनोंदिन पुर्नव्याख्या होती है जहाँ प्रेम के लिए इतना जगह जैसे तारों के लिए आसमान में, मछलियों के लिए समुद्र में और चिड़ियों के लिए पेड़ों पर।

          उर्दू में शायरी अक्सर प्रेम पर ही एक अरसे तक की जाती रही, हमारी हिन्दी का रीतिकाल इसी में रगा-पगा साहित्य है इसके बावजूद उसमें मासंलता व अश्लीलता के आरोप लगते रहे हैं, लगने भी चाहिए। इसके विपरीत भक्तिकालीन साहित्य व छायावादी साहित्य पर अलौकिक व वायवीय प्रेम होने का दावा किया जाता है, यह दावा बहुत हद तक सच भी है। आधुनिक युग में खासकर नई कविता में आने के बाद जो प्रेम पर कवितायें लिखीं गईं वह वास्तविकता के ज्यादा निकट थीं जिसमें आदमी के फेफडे़ हवा ले रहे थे और उसका दिल धड़क रहा था। प्रेम केवल आध्यात्म नहीं है और न ही सिर्फ वह आत्मा की चीज़ है उसमें देह भी बराबर मात्रा में शामिल है और उसकी व्याप्ति हर जगह है। ‘आप जहाँ भी रहें जो भी करें प्रेम में करें।’ (रूमी) यह दुनिया को बेहतर बनाये रखने का, स्वर्गादपि गरियसी करने का मेरे हिसाब से सबसे अच्छा तरीका है। जायसी ने तो यहाँ तक कहा था ‘मानुष प्रेम भयो बैकुंठी, नाहिं त का छार एक मूठी।’ और इसीलिए जब दिल्ली का बादशाह जिसके आगे हिन्दुस्तान सर झुकाता था रत्नसेन को जीत तो लेता है पर पद्मावती जौहर कर लेती है और तब खिलजी उसकी राख की एक मुठ्ठी उठा लेता है और बड़ी तड़प व वेदना के साथ उड़ाते हुए कहता है ‘- लीन्ह उठाई छार एक मूठी, दीन्ह उठाइ पृथमी झूठी।’

          हिन्दी साहित्य में ही नहीं दुनिया के हर साहित्य में प्रेम एक महत्वपूर्ण प्रवृत्ति रही है और प्रेम के विविध रूप, विविध आयाम खोलने की कोशिश हुई। बाॅलीवुड की फिल्मों का तो केंद्रीय कथ्य इस विषय पर ही आधारित है इसका पल्ला पकड़े बिना कोई फिल्म हिट बड़े ही मुश्किल से हो पाती है। अन्ना केरनिना जैसी महान रचनायें प्रेम पर आती हैं भारत में भी कविताओं, कहानियों और उपन्यासों में इसे खूब उकेरा गया। कबीर, सूर, तुलसी, जायसी में जहाँ ईश्वर के माध्यम से प्रेम का प्रकटीकरण है वहीं मीरा के प्रेम से आज कौन नहीं विदित। पहली बार रीतिकाल में देवी की जगह इस दुनिया में स्त्री को प्रतिष्ठा मिली और आधुनिक युग ने रीतिकाल के पंकिल वातावरण से स्त्री को मुक्त किया। स्त्री अब सहगामी थी स्वायत्त थी और उसका प्रेम गुलाम नहीं था उसके पास अपना मस्तिष्क था और वह अपना जीवन साथी चुनने के लिए स्वछंद थी। नई कहानी व नई कविता में यह प्रवृत्ति देखने को मिलती है। ‘तीसरी कसम’ कि हीरामन व हीराबाई को कौन भूल सकता है भला। प्रेम तो मालती व मेहता का भी था, होरी और धनिया का भी और सिलिया व मातादीन का भी पर ‘टूटना’ में प्रेम का दूसरा रूप सामने आता है जो अहम् के बीच में आ जाने से सृजित हुआ है।

          ‘परिन्दें’ की लतिका का प्रेम जो नई कहानी के लिए एक नई चीज थी एक लड़की जो पागल है एक मरे हुए आदमी के लिए, अपनी स्मृतियों को कुरेदती है, जख्मों को हरा करती है और खुद को खीचें ले जा रही है एक मरे हुए फौजी के पास। वह नहीं समझ पा रही वह क्या चाहती है उसके सामने प्रश्न बार-बार आता है ‘वाट डू यू वाण्ट’। इसी में डाॅक्टर का प्रेम एक संयमित, तार्किक व यथार्थवादी प्रेम लगता है जिससे हर तार्किक इंसान सहमत होगा –

          ‘वर्मा से आते हुए जब मेरी पत्नी की मृत्यु हुई थी मुझे अपनी जिन्दगी बेकार सी लगी थी। आज उस बात को अरसा गुजर गया और जैसा आप देखती हैं, मैं जी रहा हूँ उम्मीद है कि काफी अरसा और जिऊंगा। जिन्दगी काफी दिलचस्प लगती है और यदि उम्र की मजबूरी न होती तो शायद मैं दूसरी शादी करने में न हिचकता। इसके बावजूद कौन कह सकता है कि मैं अपनी पत्नी से प्रेम नहीं करता था आज भी करता हूँ।’

          ल्ेकिन प्रेम तर्क कहाँ देखता है कहा तो यह भी गया ‘अनबूड़े बूड़े तिरे जे बूड़े सब अंग’ और यह डूबना इस कदर तक कि ‘तेरे आँखों के सिवाय इस दुनिया में रखा क्या है?’

          दुनिया का दूसरा सबसे पुराना हत्या करने का कारण प्रेम में धोखे को माना जाता है दुनिया का साहित्य संयोग से ज्यादा वियोग के गीतों से भरा पड़ा है और समर्पण इस कदर कि ‘मेरे होने में किसी तौर से शामिल हो जाओ। तुम मसीहा नहीं होते तो कातिल हो जाओ’ और त्याग इस कदर कि ‘चलो आज दुनिया बाँट लेते हैं तुम हमारे बाकी सब तुम्हारा’ और इसमें यह आइरनी कि ‘मोहब्बत में नहीं है फर्क जीने-मरने का उसी को देखकर जीते हैं जिस काफिर पर दम निकले।’ लेकिन ‘हर किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता, कभी जमीं तो कभी आसमां नहीं मिलता, तेरे जहाँ में ऐसा नहीं कि प्यार नहीं जहाँ तलाश हो इसकी वहाँ नहीं मिलता।’ और इसलिए घनानंद की आंखों में उजाड़ बस गया है और बाॅलीवुड में तो जो विरह का रूदन है कारूणिक है।

          – ‘मुहब्बत की झूठी कहानी पर रोए

          बड़ी चोट खाई जवानी पर रोए।’

– ‘जाने वो कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार मिला

हमने तो जब कलियाँ मांगी काँटों का हार मिला

खुशियों की मंजिल ढूंढी तो गम की गर्द मिली

चाहत के नगमें चाहें तो आहें सर्द मिली।’

          और फिर देवदास, मुगल-ए-आजम, वीर जारा, दिलवाले, दिलवाले दुल्हनियाँ ले जायेंगे, मोहब्बतें … जैसी मूवीज की लंबी फेहरिस्त प्रेम को लेकर और इन मूवीज के डाॅयलोगो की यह प्रसिद्धि हर युवा की जुवान पर राज करने लगी। ‘मौत को मोहब्बत ने करीब कर दिया’ (मुगल-ए-आजम)

          इश्क करने में एक भारी आइरनी भी है कि ‘इश्क पर जोर नहीं है ये वो आतिश गालिब/कि लगाये न लगे बुझाए न बुझे’ और फिर यह रोना ‘इश्क ने गालिब निकम्मा कर दिया…’ और फिर यह भी तो भारी विडम्बना है कि ‘हमको उनसे वफा की है उम्मीद जो नहीं जानते वफा क्या है’। ‘मोहब्बत में नहीं है फर्क जीने-मरने का उसी को देखकर जीते हैं जिस काफिर पर दम निकले’ और फिर अंत में यह कसक ‘अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजै/लौट आती है उधर को भी नजर क्या कीजै’ लेकिन बात यह भी तो है ‘फिर दिल में क्या रहेगा जो हसरत निकल गई…’।

          प्रेम तो कबीर ने भी किया और आज का भी इंसान कर रहा है। कबीर ने जो तन्मयता ईश्वर से दिखायी वही तड़प तो आज भी है बात उनकी नहीं जो आज प्रेम के नाम पर हो रहा है। बात मैं एक सात्विक प्रेम की कर रहा हूँ जहाँ प्रेम से ही सारे गुलशन का कारोबार चलता है, जहाँ मोहब्बत को खुदा माना जाता है। अहम् न तब सही था न अब, ‘प्रेम गली अति सांकरी, जा में दो न समाए’।

          प्रेम केवल दो युवा लोग ही नहीं करते युवा हृदय करते हैं जो किसी भी उम्र में हो सकते हैं। प्रेम तो माँ-बेटे, पिता-पुत्र, भाई-बहन, भाई-भाई, बहन-बहन, इंसान-प्रकृति के बीच भी होता है पर माँ-बेटे के प्रेम के सिवाय साहित्य में और आयामों पर पूरा प्रकाश नहीं डाला। दुनिया का शायद सबसे गहरा व पवित्र रिश्ता माँ-बेटे का होता है इसमें कहने की जरूरत नहीं शायद रिश्ता शब्द का आविष्कार भी इस शब्द से हुआ होगा। माँ हमेशा भारतीय साहित्य व सिनेमा में कारूणिक, दयामयी व वात्सल्य की देवी ही रही है सिवाय सौतेली माँ के, जिसे बहुत बढ़ा-चढ़ाकर व एक पक्षीय रूप से प्रस्तुत किया गया है खैर प्रेम के असल मायने क्या होते हैं उनका विस्तार क्या होता है और उसमें कितना सामथ्र्य है इस संबंध के जरिये देखा जा सकता है। परिवार, विवाह, समाज जैसी संस्थाओं की बुनियाद दरअसल यही है। साहित्य में देखें तो भक्तिकाल में माँ देवी हो गई और रीतिकाल से तो गायब ही। सूर का वात्सल्य वर्णन पूरे विश्व के साहित्य में एक अद्वितीय स्थान रखता है। आधुनिक काल में इस संबंध पर एक अच्छी खासी रचनाओं की उपस्थिति है ‘आद्र्रा’ में माँ ‘आषाढ़ का एक दिन की माँ’, ‘गोदान’ की धनिया के चरित्रों को हम देख सकते हैं। बाॅलीवुड में माँ की बड़ी सशक्त भूमिका रही है ‘मदर इंडिया’ में नरगिस के किरदार को कौन भूला होगा भला।

          बहरहाल प्रेम शाश्वत मनोभाव है और इसका अस्तित्व मानव के अस्तित्व के बने रहने की गारंटी है। दुनिया में जो युद्ध थोपे जा रहे हैं, दुनिया ने जो वल्र्ड वार देखा है और अभी जो दुनिया में आतंक देखा जा रहा है वह घृणा व नफरत की देन है। कोई मजहब यह नहीं सिखाता कि हम एक-दूसरे से घृणा करें, पर इसकी गलत व्याख्याओं व शैतान बुद्धियों ने धर्म को और इस दुनिया को तबाह कर रखा है, नरक की आग में धकेला जा रहा है। प्रेम ही एकमात्र रास्ता है दुनिया को बेहतर बनाये रखने के लिए, इंसान को इंसान बनाये रखने के लिए, शेष सृष्टि से उसके रिश्ते को बनाये रखने के लिए व पूरी दुनिया को एकजुट करने के लिए। इस अंक को निकालने का तमाम उद्देश्य यह भी था कि प्रेम के विविध पक्षों को भरा जाये, जिनके दिलों में मौजूद है उसे अभिव्यक्त कराया जाये और उसे आप तक पहुंचाया जाये।

          ‘सहचर…’ पत्रिका जितना बड़ा उद्देश्य सम्मानित व नामी पत्रिकाओं की फेहरिस्त में शामिल होना है उससे बढ़कर उसे ऐसे प्लेटफाॅर्म के रूप में खड़ा करना है जहाँ से साहित्यिक जगत में कदम रखने वालों को प्रेरित किया जाये। लोगों की अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया जाये, उनके कलम से निकली आवाज को आप तक पहुंचाया जाये। हर बड़ा लेखक शुरूआत में बस एक लेखक ही होता है। हमारी उम्मीद आप हैं हमें आशा है कि हमारा आज का पाठक कल का लेखक होगा और लेखक एक बड़ा लेखक। इस अंक के लिए इतने ढे़र सारे शोध लेख, कवितायें, कहानियों का आना हमें और आशान्वित कर रहा है, प्रेरित कर रहा है हम अपने प्रयास को दोगुना करेंगाये और सहचर टीम आपकी अभिव्यक्ति को पाठकों तक ले जायेगी।

          मुझे खुशी है इतने गहरे और व्यापक विषय को सहचर पत्रिका ने चुना, गुरुवर आलोक सर का आभार जिन्होंने इस विषय में मुझे गहरे उतरने व जीने का मौका दिया और उन सभी लेखकों का भी विशेष आभार जिनकी वजह से यह पत्रिका आप तक पहुंच सकी है।

 

दीपक जायसवाल

 

 

 

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