स्त्री को बेदिमाग या ‘इमोशनल फूल’ कहकर उसकी निंदा करना बहुत ही उपहासास्पद है। या यूं कहना कि उनमें दिमाग ही नहीं होता, यह केवल समाज की संकीर्ण मानसिकता ही हो सकती है। स्त्री  की संवेदनाओं या इमोशंस का मज़ाक बनाने वाला समाज यह न भूले कि जन्म देने से लेकर उन्नति की सीढ़ियां चढ़ने तक का सफ़र वह स्त्री के सहयोग से ही पूरा कर पाता है। वही उसके लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर पुरुष को पुरुष बनाती है उसके पुरुषत्व को मां, बहन, पत्नी, बेटी बनकर संवारती है। खुद को खपाती है, दुनियाभर के कष्टों को झेलती है तब जाकर पुरुष को गढ़ती है, उसे एक नई पहचान देती है जिसे हरगिज नकारा नहीं जा सकता।
मदर टैरेसा अगर स्त्री न होती तो समाज के लिए उन्होंने जो किया ह, शायद ही कोई पुरुष कर पाता क्योंकि यह स्त्री में छिपा वात्सल्य ही है जो उसे पूजनीय बनाता है। पुरुषों में जिस तरह से पुरुषत्व जरूरी है स्त्रियों में उसी तरह से स्त्रीत्व जरूरी है जो उसकी संवेदनाओं से ही संभव है। पुरातन काल से यूं ही नहीं उसे देवी के रूप में पूजा जाता रहा है। उसके देवी बनने तक की ये यात्रा सामान्य नहीं रही। कभी सीता बनकर पति संग सभी सुख सुविधाओं को त्यागकर उसके दायित्वों का उसके संग वहन करने वाली उसकी संगिनी के रूप में घोर यातनाएं सहने वाली स्त्री के पीछे उसकी संवेदनाएं ही रही हैं। लक्ष्मण आदर्श भाई न होते अगर उर्मिला लक्ष्मण से उनके पति होने के दायित्वों का हवाला देकर उन्हें रोक लेती। उनके आदर्श भाई बनने तक की उस जीवन यात्रा में उर्मिला जो कि एक स्त्री है उसके अमूल्य योगदान को भुला नहीं जा सकता।
हर पुरुष चाहता है कि उसकी पत्नी उसके प्रति उसके सारे दायित्वों को ईमानदारी से निभाए वो चाहे रम्भा के रूप में हों या फिर अन्नपूर्णा के रूप में। और इन सब कसौटियों पर कोई भी असंवेदनशील स्त्री नहीं उतर सकती। युग बदले सोच बदली किन्तु स्त्री के अस्तित्व को नकारकर कभी कोई राज्य या समाज न पनपा और है न ही पनप सकता है।  नेपोलियन बोनापार्ट का यह कथन जो किसी भी समाज में स्त्री के महत्व को दर्शाता है  अत्यन्त प्रशंसनीय एवम् सराहनीय है कि “यदि आप मुझे अच्छी माताएं दो तो मैं अच्छा राष्ट्र समर्पित कर सकता हूं।” अर्थात् स्त्री ही सही मायने में एक आदर्श राष्ट्र की निर्माता है। उसकी कोख से ही संस्कृति और सभ्यता जन्म लेती हैं।
स्त्रियों में इमोशंस नहीं रहे तो कोई रिश्ता या समाज कभी भी उन्नति के पथ पर अग्रसर नहीं हो सकता। क्योंकि प्रैक्टिकल होकर इंसान तरक्की या सुख सुविधाएं तो पा सकता है किन्तु सुकून नहीं। और स्त्री युगों से मां, पत्नी, बेटी, बहन, प्रेमिका बनकर पुरुष को संबल देती आई है। उसके बिना कोई भी रिश्ता या समाज अधूरा एवं कमजोर ही है। इसलिए उसे इमोशनल फूल कहकर या उसके स्त्री होने पर लानत फेंकना ये केवल लोगों की संकीर्ण मानसिकता का ही परिचायक है।
किन्तु जिस दिन उसका इमोशनल होना उनके लिए कितना ज़रूरी है इस विषय पर वे गंभीरतापूर्वक सोचेंगे तो उन्हें ज्ञात होगा उनकी ज़िन्दगी स्त्री के बिना, उसकी संवेदनाओं के अभाव में कितनी बेमानी है। और जिस विकास की वो दुहाई देता है जिसे उसने पाया है उस पर वो खुद ही सर पटक पटकर दम तोड़ देगा।
जब स्त्री संवेदनाओं से ऊपर उठकर एक नवीन पटल पर कदम बढ़ाती है तब लक्ष्मीबाई, अवंतिका, सावित्रीबाई फुले या अनन्य शक्तिशाली, प्रतिभाशाली शक्तियों से युक्त वीरांगनाओं का जन्म होता है जो किसी भी राज्य का प्रतिनिधित्व कुशलतापूर्वक करती हैं।
इसलिए उनकी महत्वकांक्षाओं पर प्रश्नचिह्न विवादित है। वे संवेदनशीलता के कारण नदियों के निर्मल जल प्रवाह की तरह हैं। उन्हें शांत और स्वच्छ बहने दो अन्यथा उनके प्रवाह की रूकावट का अर्थ एक भयानक उत्परिवर्तन की आहट है।
डॉ० दीपा ‘ दीप ‘
सहायक प्राध्यापिका
दिल्ली विश्वविद्यालय

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