साहित्य को समाज का दर्पण माना गया है, ठीक उसी तरह सिनेमा समाज का चित्रण करने वाला तकनीकी कलारूप है। देश के इतिहास निर्माण में सिनेमा का भी बड़ा योगदान रहा है। सिनेमा में दृष्टिकोण बदलने की शक्ति समाहित है। हमारे पूर्वजों ने नवजागरण काल में समाज में आसानी से कुछ संदेश फैलाने के लिए नाटक का ही सहारा लिया था। भारतेंदु काल के वरिष्ठ साहित्यकारों का नाटकों के ज़रिए लोगों को जाग्रत करने में सफलता पाना इसकी ओर संकेत करता है। गांधी जी ने अपने आत्मकथा में सूचित किया है कि उन पर भारतेंदु जी का ‘सत्य हरिश्चंद्र’ नाटक का बड़ा प्रभाव रहा। तकनीक  के विकास के साथ ही चलचित्र ने नाटकों का दायित्व पूरा करना शुरू किया। तत्कालीन समाज को दर्शाते हुए चलचित्र को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी ने दिल खोल के अपनाया।

        प्रारंभ से ही इन मुद्दों से निपटने का तरीका और कहानियों के चयन को लेकर मलयालम सिनेमा की अपनी विशिष्टता रही है। केरल की स्थापना से पहले ही मलयालम सिनेमा का जन्म हो चुका था। सन् 1928 में जे.सी ड़ानियल ने ‘विगथ कुमारन’ तथा सन् 1933 में पी० वी राव द्वारा निर्देशित  ‘मार्ताण्ड़ वर्मा’ का निर्माण हुआ, ये दोनों ही मूक सिनेमा का उदाहरण है। साल 1938 में पहली बार सवाक सिनेमा का आगमन हुआ फिल्म थी ‘बालन’ और इसे निर्देशित किया था एस. नत्तानी ने। इसके बाद 1948 में ‘निर्मला’ फिल्म आई जिसके निर्देशक थे पी. वी. कृष्णा, ‘वेल्लिनक्षत्रम्’ 1949 में आई फेलिक्स जे बेय्से के निर्देशन में। इन सिनेमाओं में भारत के अन्य भाषा सिनेमाओं का प्रभाव भी रहा। सन् 1951 में केरल के समाज एवं संयुक्त परिवार को चित्रित करने वाली ‘जीवंथ नौका’ प्रदर्शन में आया। सन् 1954 में रामू कार्याट एवं पी. भास्करन के निर्देशन में बनी ‘नीलकुयिल’ राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत हुआ। यह मलयालम सिनेमा में मील का पत्थर स्थापित हुआ। ध्यान देने की बात यह है कि भारत में उस समय विमल रॉय आदि सामाजिक सिनेमा का निर्माण कर चुके थे। सन् 1965 में प्रदर्शित ‘चेम्मीन’ मलयालम के प्रथम रंगीन सिनेमा था। मच्छुआरों के जीवन को चित्रित करने वाला चेम्मीन तत्कालीन समाज के स्त्री जीवन को भी दर्शाता है। शेष जितने भी सिनेमा कालाक्रमानुसार प्रदर्शित होती गयी उसमें समाज के कई मुद्दों को दिखाया। पितृसत्ता, स्त्री समस्या, जाति प्रथा, आन्दोलन आदि से लेकर हर छोटी-बड़ी सामाजिक कुरीतियों, विडम्बनाओं को मलयालम सिनेमा चित्रित करता चला गया।

         भारत में नारी जीवन का सुधार एवं समाज के दोयम दर्जे से उसे एक मनुष्य का दर्जा दिलाने में लगभग सौ से भी ज्यादा सालों से कोशिश ज़ारी है। सिमोन दी बोउवार (1949 ) कहती है- “मानवता पुरुष है और पुरुष स्त्री को अपने आप में नहीं, बल्कि अपने सापेक्ष के रूप में परिभाषित करता है; उसे एक स्वायत्त प्राणी के रूप में नहीं माना जाता है। वह विषय है, वह निरपेक्ष है – वह अन्य है।’’ स्त्री की इस अवस्था को सिनेमाकारों ने अपने सिनेमाओं का मुद्दा बनाया। शुरुआती दौर में स्त्री का जो चित्र ख़ींचा गया वह महज़ पुरुष सत्तात्मक समाज के एक आदर्श स्त्री के रूप में था, लेकिन समय-समय पर स्त्रियों का सरोकार बदलने लगा। सिनेमा भी तमाम वर्गों में बंटी हुई औरत की छवि सामने लाने लगा। कस्बे की औरतों की समस्या एवं शहरी पढ़ी-लिखी औरतों की समस्याएं बिल्कुल अलग है, इसे बारीकी से दिखाने में मलयालम सिनेकार कामयाब रहे। पिछले दशक यानी साल 2010 तक में मलयालम फिल्म उद्योग में पुरुष केन्द्रित सिनेमा को दर्शकों ने ज्यादा स्वीकारा। इसके बाद साल 2010 के पश्चात महिला-उन्मुख सामग्री में तबदील होता देखा गया। इस उद्योग की सिल्वर स्क्रीन आज महिला सशक्तिकरण और नारीवाद में चमक रही है। इस शैली ने मॉलीवुड की कई प्रतिभाशाली अभिनेत्रियों के लिए दरवाजे खोल दिए। दोहरी जिन्दगी के बीच में उलझती स्त्री, शादी के पश्चात घर में बंद होती स्त्री, घरेलू यौन शोषण, सत्ता और समाज के दोयम नीति के खिलाफ सशक्त प्रतिरोध करने वाली तथा समाज में अपनी स्वतंत्र वजूद बनाने वाली अनेक स्त्रियों की कहानी को मलयालम के कई सिनेकारों ने अपने सिनेमा के जरिए दिखाया।

साल 2012 में आई ‘22फिमेल कोट्टयम’ फिल्म में केरल की उन महिलाओं को दिखाया गया जो वहाँ अधिक संख्या में अस्पतालों में नर्सिंग का काम करती है, इनमें अधिकांश भारत के अन्य राज्यों तथा विदेशों में नौकरी भी करती है। अपने घर से दूर रह रही इन सफेद कोट वाली परियों की जिन्दगी को ‘22फिमेल कोट्टयम’ के जरिए निर्देशक ‘आशिक अबू’ हमारे सामने खोलने की कोशिश करते है। आर्थिक स्वतंत्रता को ध्यान में रखते हुए स्त्री को समाज में अपनी जगह बनाने में अहम योगदान देती है, लेकिन उसके लिए महिलाओं को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। फिल्म की नायिका एक युवा नर्स ‘टेक्सा’ है। उसको अपने प्रेमी से धोखा मिलता है और उसे काम पर रखने वाला उसके साथ छेड़छाड़ करता है। यह फिल्म दर्शकों के लिए नया अंदाज़ लिए थी। क्योंकि प्रतिकूलताओं का सामना करने वाली नारी कई फिल्मों का विषय रही है, ज्यादातर महिलाओं ने न्याय के लिए लड़ाई की या उनके पुरुष समकक्षों ने किया। यह पहली बार था कि जिसमें बलात्कार और हिंसा शामिल है और प्रतिशोध को एक कठोर वास्तविकता के साथ संभाला गया था। 2013  में रिलीज हुई ‘ज़करियायुड़े गर्भिणिकल’ मलयालम फिल्म उद्योग के लिए यह फिल्म अपने आप में एक बड़ी छलांग है। इसमें पाँच महिला पात्रों में से ‘सायरा’ जो हमारा सबसे अधिक ध्यान खींचती है। 18 साल की ‘सायरा’ अपनी गर्भावस्था को समाप्त करने के बजाय बच्चे को जन्म देने का निर्णय लेती है। फिल्म में बाल यौन शोषण का मुद्दा उठाया है। ‘सायरा’ अपने घर में ही यौन शोषण का शिकार होती है। छोटी उम्र में इतना बड़ा हादसा उसके अंदर बड़ा घाव देता है कि वह उसे हर पल घायल करता रहता है, लेकिन बहरहाल वह एक जिद्दी लड़की सी पेश आती है। फिल्म में गर्भावस्था के दौरान महिलाओं की कठिनाइयों तथा वास्तविकताओं को मनोवैज्ञानिक तरीके से दिखाया गया है। इस खूबसूरत फिल्म का निर्देशन ‘अनवर रशीद’ ने किया था। इस तरह नाबालिग लड़कियों का शारीरिक, मानसिक उत्पीड़न का चित्रण 2004 में ‘मांजुपोलोरु पेनकुट्टी’ में भी आया था। इस में सोलह वर्षीय निधी के साथ उसके सौतेले पिता मोहन का दुर्व्यवहार का चित्रण हुआ है। वह इसे चुपचाप बर्दाश करते थक जाती है और घटना का बदला लेने का फैसला करती है। सन् 2014 में ‘इम्तिआज़ अली’ के निर्देशन में रिलीज़ हुई हिन्दी की ‘हाईवे’  फिल्म को  भी इसी विषय के आधार पर बनाया गया था।

स्कूल कॉलेज हर जगह आगे रहती लडकियाँ शादी के बाद गृहस्थी, बच्चे  और उनकी परवरिश के बीच अपने लिए जीना भूल जाती है। रोषन आंड्रूस के निर्देशन में (2014 ) निकली ‘हाउ ओल्ड आर यू’ ऐसी ही एक कहानी लेकर आती है। ‘निरुपमा’ राजीव सरकार के राजस्व विभाग में अप्पर डिवीज़न क्लर्क के रूप में कार्यरत है। उनके पति  राजीव  ऑल इंडिया रेडियो स्टेशन में एक समाचार उद्घोषक हैं। उनकी एक किशोर बेटी लच्छू है, जो अकादमिक रूप से अच्छा कर रही है। निरुपमा की कहानी उन भारतीय महिलाओं के जीवन को दर्शाती है जिन्हें हल्के में लिया जाता है। यह सिनेमा  निरुपमा की अपने भूले हुए स्व की खोज के बारे में है। उसकी स्कूल की सहेली, सुसान डेविड उसकी मदद करती है। फिल्म में निरुपमा पूछती हैं  “एक महिला के सपनों की समाप्ति तिथि कौन तय करता है?” और क्या वास्तव में उम्र मायने रखती है?”  वह अपने पड़ोस की महिलाओं से कहती है कि “आप अभी भी सपने देख सकते है।” वह एक छोटा व्यवसाय शुरू करती है, जो उनकी छतों पर उगाई जाने वाली जैविक सब्जियों की आपूर्ति करती है। यह सिनेमा आपको उन महिलाओं के साथ जोड़ती है, जो स्वतंत्र और आत्मविश्वासी नहीं होने के कारण अपने जीवनसाथी और बच्चों द्वारा उपेक्षित हैं। हाल ही में आई ‘द ग्रेट इंडियन किचन’ समाज द्वारा विवाहित महिलाओं के लिए निर्धारित परंपराओं का चित्रण करता है। इस फिल्म के केंद्र में एक शादी-शुदा जोड़ा है। घर-परिवार के सदस्यों के रिश्ते, धर्मसत्ता, पितृसत्ता और खास कर स्त्रियों के साथ मध्यवर्गीय परिवार में जो लैंगिक भेदभाव है उसे रसोईघर के माध्यम से दिखाया है। इस संदर्भ में हिंदी के कवि रघुवीर सहाय की कविता ‘पढ़िए गीता’ की याद आती है :

पढ़िए गीता/ बनिए सीता/ फिर इन सब में लगा पलीता

किसी मूर्ख की हो परिणीता/ निज घर-बार बसाइए/

होय कँटीली/ आँखें गीली/ लकड़ी सीली, तबियत ढीली

घर की सबसे बड़ी पतीली/ भरकर भात पकाइए।।

वैवाहिक जीवन में अधिकतर पुरुष अपनी वासनापूर्ति  एवं संतृप्ति का ही मोहताज़ रहते हैं, लेकिन यह स्वतंत्रता स्त्रियों को नहीं मिलती खासकर मध्यमवर्गीय परिवारों में। अगर इसकी आकांक्षा कोई औरत रखती है या पति से कहने की जुर्रत दिखा भी देती है तो उसे बदचलन घोषित कर दिया जाता है। धार्मिक मामलों में स्त्री को रजोधर्म के नाम पर जितना मानसिक उत्पीडन सहना पड़ता है वह भी हमें इस फिल्म में देखने को मिलता है। हालांकि फिल्म में निमिषा सजयन एक अबला नारी की जगह एक विद्रोही चेतना से भरी है। यह चेतना फिल्म के आखिर में दिखाई पड़ती है जिसे एक ‘डांस सिक्वेंस’ के माध्यम से निर्देशक ने दिखाया है। यह समस्या पूरे भारत में देखने को मिलती है, शायद यही कारण होगा कि इस फिल्म में पात्रों का नाम नहीं रखा है।

सन् 2015 में आई ‘रानी पद्मिनी’ भी उपर्युक्त विषय पर दूसरा पहलू हमारे सामने लाती है।  इस फिल्म में रानी और पद्मिनी दो कैरेक्टर हैं। ‘आशिक अबू’ ने इस फिल्म का निर्देशन किया है। फिल्म में हमें दो स्त्रियों के प्रति समाज द्वारा गढ़े गए रूढ़िवादी ढाँचे को तोड़ते हुए देखते हैं, अकेले यात्रा कर रही ये स्त्रियाँ एक-दूसरे के जीवन के रास्ते में आने वाली हर चीज का समर्थन करते हुए दर्शाई गई हैं। भारत में एक बहुत ही क्रूर लेकिन आम अपराध है एसिड-हमले। भारत में ह़ज़ारों लड़कियों को इसका शिकार होना पड़ता है। इस विषय पर साल 2020 में बॉलीवुड में  मेघना गुलज़ार के निर्देशन में ‘छपाक’ रिलीज़ हुई थी। मालती (दीपिका पादुकोण) एक एसिड हमले का शिकार हो जाती है और खुद को सम्हालने की कोशिश करते हुए अदालती प्रक्रियाओं से गुजरने के लिए मजबूर हो जाती है। बाद में वह अपने जैसे लोगों के लिए न्याय की लड़ाई लड़ने का फैसला करती है। इस फिल्म के एक साल पहले ही मलयालम में इसी मुद्दे को लेकर एक सिनेमा आ चुका था। फिल्म का नाम था उयरे (2019),  कहानी पल्लवी रवींद्रन (पार्वती) के जीवन के इर्द-गिर्द घूमती है, जो छोटी उम्र से पायलट बनने की ख्वाहिश रखती है। उसे मुंबई के एक पायलट ट्रेनिंग सेंटर में प्रवेश मिलता है। जहाँ वह अपने प्रेमी के तानाशाही स्वभाव से डरने लगती है, और अंततः उससे बचने का साहस जुटा लेती है। लेकिन प्रेमी उसके चेहरे पर तेजाब फेंक देता है। फिल्म इस हादसे से गुजरने वालों को हौसला देती है, साथ में यह संदेश भी देती है कि इन्हें भी आम जिन्दगी जीने का हक है और हमें उन्हें मौका देना चाहिए।

2020-21 में भी कई स्त्री प्रधान सिनेमा पर्दे पर दिखाई दी, उसमें ‘वाँग’ और ‘बिरयानी’ उल्लेखनीय है। ‘काव्या प्रकाश’ के निर्देशन में बनी ‘वाँग’ इस्लाम धर्म के भीतर की स्त्री विरोधी पक्ष को दर्शकों के सामने बयान करता है। मन में उठी एक धार्मिक इच्छा को सफल करने की कोशिश में लगी, ईश्वर में आस्था रखनेवाली एक इस्लामी लड़की को घर तथा समाज में कई विरोधों का सामना करना पड़ता है। हालांकि उसकी माँ और दादी उसके साथ खड़े रहते है। सजिन बाबु के निर्देशन में बनी फिल्म ‘बिरयानी’ में इस्लाम धर्म के कट्टरपन में जकड़े गये इन्सानों की कहानी कही गई है। फिल्म बताती है कि कैसे एक ही धर्म में स्त्री और पुरूष को अलग–अलग  स्थान प्रदान किया जाता है तथा उसके भीतर स्त्री किन समस्याओं का सामना करती है, को दिखाया गया है। किस तरह धर्म पुरुषों को प्राथमिकता देकर स्त्री को दोयम दर्जा प्रदान करता है इसका एक उदाहरण फिल्म के किरदार कदीज़ा की बातचीत में देख सकते है – कदीज़ा “मर्दों को कितनी भी शादी करने से धर्म रोकती नही है।” तब दूसरा व्यक्ति कहता है – “अगर पैसा है तो” तब कदीजा-  “मेरे पास पैसे हो तो मैं कर सकती हूँ” तब दूसरा  “नही-नही तुम औरत हो” इस तरह पूरी पिक्चर बिना कोई गुनाह  किए अपने परिवार, बिरादरी, मोहल्ले तथा समाज से उपेक्षित औरत का संघर्ष दिखाती है। अंत में कदीजा अपने बच्चे के भ्रूण से  सब को बिरयानी की दावत देकर बदला लेती है। यह एक प्रतीक है स्त्री को भेड़िए की तरह जो पुरुष सत्तात्मक समाज अलग–अलग बहाने से चीरफाड़ कर अपनी मंशा की पूर्ती  करता है।

निष्कर्ष स्वरूप मलयालम सिनेमा जिसे मॉलीवुड कहा जाता है, में पिछले एक दशक में आए सिनेमा में स्त्री को प्रमुखता दी गई है। सिनेमा के उपर्युक्त विश्लेषण में हम देखते हैं कि एक-एक फिल्म के मुद्दे आज हमारे ही चारों तरफ साक्षात घट रही घटनाओं को लेकर बनाये जाते हैं। इनको सिनेमा के ज़रिए दर्शकों के सामने रखने की मलयालम के सिनेकारों की कोशिश सराहनीय है। सायरा और नीति जैसे किरदार  यौन शोषण के शिकार बच्चे, निरुपमा जैसी घरेलू उत्पीड़न और कदीजा जैसी धार्मिक उत्पीडन के शिकार महिलाएं हमारे चारो तरफ होंगे। यहां जितने भी सिनेमा का विश्लेषण हुआ है उसके सारी नायिकाएं सशक्त है, ये कहीं भी हार नहीं मानती, जरूरत आने पर प्रतिरोध कर आगे बढ़ती दिखती है, जो जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्ठिकोण है।  इस तरह सभी फिल्में हमें इन पेचीदे एवं गंभीर समस्याओं को समझने, विचार करने तथा उत्सुकता बढाने में सफल हुए है और सिनेमा के पारंपरिक ढांचे को तोड़ एक नई किरण की ओर बढ़ता है।

विनीजा विजयन
तोट्टप्पिल्लियिल हाऊस, ऊन्नुकल
कोतमंगलम, एरणाकुलम , केरल

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