भारत में उपन्यास विधा की शुरूआत पाश्चात्य शिक्षण, साहित्य और संस्कृति का देश के प्राचीन साहित्य और संस्कृति के साथ संयोग होने पर हुई। इस तरह जो नए साहित्य के स्वरूप का जन्म हुआ, उनमें उपन्यास का स्थान प्रमुख है। प्रेमचंद ने भी इस बात की पुष्टि करते हुए कहा है ‘‘ भारत-निवासियों ने यूरोपियन साहित्य के किसी अंग को इतना ग्रहण नहीं किया जितना उपन्यास को। यहाँ तक की उपन्यास अब हमारे साहित्य का एक अभिन्न अंग हो गया है।”  पद्म झीनी के मराठी उपन्यास ‘यमुना पर्यटन’ (१८५७ई.) को प्रथम भारतीय उपन्यास के रूप में देखा जा सकता है। इसके बाद दूसरे उपन्यास के तौर पर प्यारे चंद के बांग्ला उपन्यास ‘अलालेर घरेले दुलाल’ (१८५८ई.) को माना जाता है। इस उपन्यास में लेखक ने विधवाओं की दयनीय दशा का चित्रण करते हुए समाज में अपना प्रतिरोध दर्ज किया है। बंकिमचंद्र चटर्जी के उपन्यास ‘आनंद मठ’ (१८७६ई.) में सत्ता से त्रस्त आम लोगों के प्रतिरोध को संन्यासी विद्रोह के रूप में दिखाया गया है।

हिंदी में उपन्यास की शुरूआत श्रद्धाराम फुल्लौरी के ‘भाग्यवती’ (१८७७ई.) से होती है। ‘भाग्यवती’ के रूप में स्त्री-चेतना की पहली मुखर अभिव्यक्ति हिंदी उपन्यास में होती है। तत्पश्चात् लाला श्रीनिवासदास का ‘परीक्षा गुरू’ (१८८२ई.) भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों का खंडन करता है। इस प्रकार हम पाते हैं कि उपन्यास का प्रारंभ समाज में प्रतिरोधात्मक शक्ति के साथ आता है और आम लोगों की चेतना के विकास में अपनी भागीदारी दर्ज़ कराता है। इसके बाद कुछ मनोरंजनपरक उपन्यास लिखे गए। प्रेमचंद की उपस्थिति के बाद उपन्यास समाज के यथार्थ से जुड़कर अपनी अलग पहचान बनाने लगा। सर्वप्रथम, प्रेमचंद ने ही किसानों, मजदूरों, स्त्रियों और दलितों के पक्ष में आवाज़ बुलंद की। इसके परिणामस्वरूप समकालीन उपन्यासों में भी ये मुद्दे खुलकर सामने आए। यहाँ से हिंदी उपन्यास के क्षेत्र में एक नये दौर की शुरुआत होती है जिसमें जीवन के यथार्थ पक्ष को बखूबी दिखाया जाने लगा।  इस संबंध में अजित कुमार अपने लेख ‘उपन्यास की विकास यात्रा: रोमांस से सामाजिक यथार्थ तक‘ में कहते है ‘‘परीक्षागुरु से प्रारंभ करके बाबा बटेसरनाथ तक कथा-साहित्य की परंपरा भले ही बहुत गौरवपूर्ण न हो, स्वस्थ अवश्य रही है। उसने उपदेश, नीति और सुधारवादिता से प्रारंभ किया था और आज वह श्रमिक, कृषक एवं मध्यमवर्गों के यथार्थवादी चित्रणों में से विकसित हो रही है। वर्णन की सच्चाई और विवरणों की यथातथ्यता हिंदी उपन्यास के सहज अंग रहे हैं।”

आधुनिक युग में शिक्षा के प्रचार-प्रसार के कारण लोगों में उन परंपराओं और रूढ़ियों के प्रति आक्रोश पैदा हुआ है। जिसमें स्त्रियों, दलितों, आदिवासियों के साथ-साथ किसानों और मजदूरों का शोषण किया जा रहा था। इनसे इतर हमारे समाज में एक और वर्ग है, जो सदियों से मुख्यधारा का अंग नहीं माना गया। इन तबके को समाज ने किन्नर, खोजा, हिजड़ा आदि नाम से संबोधित किया है। फलतः समकालीन उपन्यासों में इन शोषित और वंचित लोगों के प्रतिरोध को साफ तौर पर देखा जा सकता है। समकालीन उपन्यास नए विमर्शों के दौर से गुज़र रहा है, जिसमें स्त्री, दलित, आदिवासी अपनी अस्मिता के लिए स्वयं लड़ रहे हैं, साथ ही मजदूरों और किसानों के लिए भी आज का लेखक-समाज सजग व सतर्क दिखाई पड़ता है। इसी कड़ी में हाशिये से भी हाशिये पर गया किन्नर समाज पर आज कुछ लेखकों का ध्यान गया है तथा उन्होंने उसे मुख्यधारा के समाज में जोड़ने का भरसक प्रयास किया है। इस दृष्टि से देखा जाए तो मैत्रेयी पुष्पा ने अपने उपन्यासों में स्त्री के अलग-अलग रूपों को दर्शाया है। स्त्री के संघर्षों की पैरवी करता हुआ इनका समस्त उपन्यास स्त्री मुक्ति की कामना करता है। जिसमें ‘बेतवा बहती रही’, ‘इदन्नमम’, ‘झुलानट’, ‘अल्माकबूतरी’, ‘चाक’ आदि प्रमुख है। इसी कड़ी में प्रभा खेतान के उपन्यास स्त्री चेतना और प्रतिरोध को दर्शाता है। ‘पीली आंधी’ और ‘छिन्नमस्ता’ इसके उदाहरण हैं। कृष्णा सोबती के उपन्यासों में परिवार और समाज से विद्रोह करती हुई स्त्रियों का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है। स्त्री के मांसल रूप को दिखाने का साहस सर्वप्रथम सोबती ने ही किया। उनके प्रमुख उपन्यासों में ‘जिन्दगीनामा’, ‘मित्रो-मरजानी’, ‘दिलोदानिश’, ‘ऐ लड़की’, ‘डार से बिछुरी’, ‘सूरजमुखी अँधेरे में’ आदि है। नासिरा शर्मा का उपन्यास नारी जीवन की अंतर्जटिलता को बयाँ करता है। उनके लेखन में सांप्रदायिकता और विभाजन की त्रासदी का दंश झेलती हुई स्त्रियाँ अपनी अस्मिता बनाए रखने का प्रयास करती है। ‘सात नदियाँ एक समंदर’, ‘शाल्मली’, ‘ठीकरे की मँगनी’, ‘जिंदा मुहावरे’, ‘अक्षयवट’, ‘कुइयाँजान’ आदि उपन्यासों के माध्यम से नासिरा ने स्त्री जीवन के संघर्ष को एक अलग तरीके से प्रस्तुत किया है। ममता कालिया के उपन्यास रोजमर्रा के स्त्री जीवन के संघर्ष को अभिव्यक्त करता है। इनका लेखन पुरुष से स्त्री के संघर्ष को कमतर नहीं आँकता। इनकी रचना स्त्री के जीवन को पुरुष की अपेक्षा अधिक जटिल और विकट दिखाती है। ममता जी के उपन्यासों में ‘दुक्खम-सुक्खम’, ‘बेघर’, ‘एक पत्नी के नोटस’ आदि प्रमुख हैं। मृदुला गर्ग के लेखन में स्त्री अपने स्वत्व की पहचान करती हुई नजर आती है। शोषण का प्रतिरोध करती हुई ये स्त्रियाँ अपना मार्ग खुद तलाश करती हैं। अपनी गौरव और अस्मिता बनाए रखने के लिए मृदुला जी की स्त्री समाज के खोखले नियमों को नकारती है। उनकी उपन्यासों में इस चेतना को देखा जा सकता है – ‘उसके हिस्से की धूप’,’ कठगुलाब’, ‘मैं और मैं’ आदि। उषा प्रियवंदा एक ऐसी लेखिका है, जो मध्यम वर्गीय स्त्रियों के जीवन के संघर्ष से जुड़ी पहलूओं पर विचार करती है। पढ़े-लिखे होने के बावजूद भी किस प्रकार पितृसत्तात्मक समाज इसे रुढ़ियों से बांधे रखना चाहता है, इसे उन्होंने बखूबी दिखाया है। इस संदर्भ में ‘पचपन खंबे लाल दीवारें’, ‘रुकोगी नहीं राधिका’, ‘शेषयात्रा’, ‘अंतर्वंशी’ आदि उपन्यासों को देखा जा सकता है। चित्रा मुद्गल की रचनाओं में स्त्री के शहरी संघर्ष को दर्शाया गया है। ‘आवाँ’, और ‘एक ज़मीन अपनी‘ में इसकी झलक मिलती है। इस संदर्भ में स्त्रियों की मुक्ति की पैरवी करती हुई प्रभा खेतान कहती हैं ‘‘स्त्री को पहचान तभी मिलेगी जब वह मंच पर अपने निजी जीवन की समस्याओं को अभिव्यक्त करें और इसी आधार पर राजनैतिक रूप से एकबद्ध होकर संघर्ष करें।”

आज का दलित लेखक भी अपने अधिकारों की मांग के लिए लगातार संघर्षरत दिखाई पड़ता है। इन लेखकों ने अपने वर्ग में चेतना और प्रतिरोध का प्रकाश फैलाया है। अन्य उपन्यासों की तुलना में दलित उपन्यास संख्या की दृष्टि से कम ही है। परंतु साहित्य में इनकी जड़ें गहरी है। दलित लेखकों ने अपने उपन्यासों में सामाजिक यथार्थ का कुशल चित्रण किया है। डॉ. रामजी लाल सहायक की ‘बंधन मुक्ति’ उपन्यास में शिवराज नामक पात्र जिसमें पढ़ने-लिखने के कारण चेतना का विकास होता है। जो समाज की बनाई गई रुढ़िगत परंपराओं का विरोध करता है। दंगनी प्रसाद वरुण का ‘अमर ज्योति’ उपन्यास का नायक अमर भगवान, भाग्य, अंधविश्वास और कुरितियों पर कोई विश्वास नहीं रखता। वह कहता है कि कुछ स्वार्थी और लोभी लोगों ने अपनी सुविधा के लिए यह सब बना दिया है। डॉ. धर्मवीर ने अपने उपन्यास ‘पहला खत’ में केरल राज्य की अनेक समस्याओं का चित्रण किया है। तथा तात्कालिक समस्याओं की आलोचना करते हुए दलित अफसरों को फटकारा है। जय प्रकाश कर्दम के उपन्यास ‘छप्पर’ में वे दलित सुक्खा और रमिया के माध्यम से दलितों की समस्या और संवेदनाओं के यथार्थ को प्रकट करते है। प्रेम कपाड़िया के ‘मिट्टी की सौगंध’ उपन्यास में दलितों पर हो रहे अन्याय और अत्याचार के विरोध में दलितों का प्रतिरोध दिखाया गया है। इसके अतिरिक्त कुछ अन्य उपन्यास भी हैं जिसमें दलितों की समस्या के साथ-साथ उसके संघर्ष को दिखाया गया है। जैसे सत्यप्रकाश का ‘जस-तस भई सवेर’, जयप्रकाश कर्दम का ‘करुणा’, रूपनारायण सोनकर का ‘सूअरदान’, अजय नावरिया का ‘उधर के लोग’ इत्यादि। इस परिप्रेक्ष्य में जया प्रियदर्शनी की इन पंक्तियों को देखा जा सकता है ‘‘दलितों के शोषण की समस्या नई नहीं है। इतिहास गवाह है कि, निहित स्वार्थों के चलते दलितों को अमानवीय जीवन जीने के लिए विवश किया गया। यह दिलचस्प तथ्य है कि सत्ताएँ परिवर्तित हुई लेकिन दलितों की स्थिति ज्यों की त्यों रही।”

आज का आदिवासी समाज जल, जंगल और जमीन के लिए लगातार संघर्षरत है। इसकी अभिव्यक्ति समकालीन हिंदी उपन्यासों में स्पष्टतः देखी जा सकती है। संजीव ने ‘किसनगढ़ की अहेरी’, ‘धार’, ‘सावधान नीचे आग है’, ‘पाँव तले की दूब’, ‘जंगल जहाँ से शुरु होता है’, ‘रह गयी दिशाएँ इसी पार’ इत्यादि उपन्यासों में आदिवासी समुदाय के शोषण-दमन का चित्रण किया है। पीटर पॉल एक्का ने अपनी कृति ‘जंगल के गीत’, ‘परती ज़मीन’,  ‘सोन पहाड़ी’, ‘पलाश के फूल’ जैसे उपन्यासों में पलायन, विस्थापन, खत्म होते जंगल आदि अस्तित्व से जूझ रहे झारखंड के आदिवासी समाज की समस्याओं को दिखाया है। महुआ मांझी ने अपने उपन्यास ‘मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ’ में विकास के नाम पर लगाया गया कारखाना जिससे आदिवासी समाज में बढ़ती जा रही विकिरण, प्रदूषण और विस्थापन की मूल समस्या को उठाया है। ‘धुणी तपे तीर’ उपन्यास में हरिराम मीणा ने आदिवासियों की  हत्या की तरफ ध्यान इंगित कराया है। रणेन्द्र ने अपने उपन्यास ‘ग्लोबल गाँव का देवता’ और ‘गायब होता देश‘ में  आदिवासी समाज के आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक आदि विविध पहलुओं पर हो रहे शोषण-दमन को दिखाया है। मनमोहन पाठक कृत ‘गगन घटा घहरानी‘ उपन्यास में झारखण्ड के सामंती व्यवस्था में पिसती हुई आदिवासी समुदाय के करुण गाथा का चित्रण किया है। पुन्नी सिंह कृत ‘पाथर घाटी का शोर‘, राकेश वत्स कृत ‘जंगल के आस-पास’, तेजिन्दर सिंह कृत ‘काला पादरी’ आदि उपन्यासों में सरकार और पूंजीपति के द्वारा भूमंडलीकरण के दौर में विकास के नाम पर आदिवासियों का शोषण और दमन का चित्रण हुआ है। यह समुदाय वास्तव में सदियों से मुख्यधारा के द्वारा हाशिये पर ढ़केला गया। इस बात को स्पष्ट करते हुए डॉ.विनायक तुकराम कहते हैं ‘‘प्रत्येक सदी में छला-सताया गया, नंगा किया गया और एक सोची समझी साजिश की तहत वनजंगलों में जबरन भगाया गया एक असंगठित मनुष्य। अपनी स्वतंत्र परंपरा सहित सहस्त्रों सालों से गाँव, देहातों से दूर, घने जंगलों में रहने वाला संदर्भहीन मनुष्य।”

समकालीन लेखकों का ध्यान शोषकों के प्रति किसानों में फूट रहे आक्रोश की ओर भी गया है। वर्षों से शोषित किसानों में आज जो नई चेतना का संचार हुआ है, समकालीन उपन्यास उसे अपनी अंतर्वस्तु में जगह दे रहा है। इसी क्रम में शिवमूर्ति की ‘आखि़री छलांग’, संजीव की ‘फाँस’ और पंकज सुबीर का ‘अकाल में उत्सव’ उपन्यासों में किसानों की आत्महत्या का दर्दनाक चित्रण देखा जा सकता है। मैनेजर पाण्डेय इस बात की ओर ध्यान दिलाते हुए कहते हैं ‘…भारत में अब तक तीन लाख से अधिक संख्या में किसानों ने आत्महत्या की है। यह मानवता के इतिहास की एक भयावह त्रासदी है और अमानवीय समाज-व्यवस्था का भीषण अपराध भी।”  कमलाकांत त्रिपाठी का उपन्यास ‘बेदखल’, ‘बाबा रामचंद्र’, और झिंगुरी सिंह द्वारा चलाए गए किसान आंदोलन को केंद्र में रखकर जमींदारों और बटाईदारों के संघर्ष को उजागर करता है। सुरेद्र स्निग्ध का उपन्यास ‘छाड़न’ जमींदारों के द्वारा किए जा रहे  शोषण और महाजनी व्यवस्था पर चोट करने वाला उपन्यास है।

समकालीन हिंदी उपन्यास मजदूर एकता और उसके संघर्ष को भी अपनी रचनात्मकता से नयी आवाज़ दे रहा है। इन लेखकों में जयनंदन का ‘श्रमेव जयते’, चित्रा मुद्गल का ‘आवाँ’,  प्रभा खेतान का ‘तालाबंदी’, आदि का नाम उल्लेखनीय है। आवाँ में कामगार दिहाड़ी मजदूरों के संघर्ष को दिखाते हुए मजदूर यूनियन के अंतर्विरोध को बखूबी बयाँ किया गया है। श्रमेव जयते मालिकों के द्वारा श्रमिकों की एकता को खंडित कर अपना स्वार्थ साधने से संबंध में लिखा गया उपन्यास है। तालाबंदी में मजदूर यूनियन के हड़ताल को दिखाते हुए, उसके अंतर्विरोध को दर्शाया गया है।

समकालीन समय में स्त्री, दलित, आदिवासी, किसान, मजदूर विमर्शों के दौर से गुजर रहा है। इससे इतर हमारे समाज का एक अंग जिसे किन्नर कहा जाता है, उस वर्ग पर भी बात करने की आवश्यकता है। आज कुछ लेखकों का ध्यान इन  अंतरर्लिंगीय समुदाय की ओर गया है। उन्होंने इन किन्नरों को अपने उपन्यासों की कथावस्तु बनाया है। जिनमें नीरजा माधव का ‘यमदीप’ किन्नर समाज पर हिंदी में लिखा गया प्रथम उपन्यास है। इस उपन्यास में किन्नरों की मानवीय संवेदना से युक्त अभावग्रस्त किन्नरों के जीवन का उल्लेख किया गया है। महेन्द्र भीष्म का उपन्यास ‘किन्नर कथा’ जिसमें राजघराने में पैदा हुई किन्नर सोना के विस्थापन, दुःख और पीड़ा की संवेदनापूर्ण चित्रण किया गया है। प्रदीप सौंरभ का उपन्यास ‘तीसरी ताली’ जिसमें ए. (आरा) बी.(बलिया) सी.(छपरा) डी.(देवरिया) जिलें के नवाबों, लौंडे, लौंडोबाजों, गे, लेस्बियन, तथा किन्नरों की समस्याओं को बखूबी उठाया गया है। इसमें दिल्ली को केंद्र बनाकर पूरे भारत के किन्नर समुदाय की संस्कृति और परंपराओं को दिखाया गया है। वह पहले ऐसे उपन्यासकार हैं जिन्होंने किन्नर समाज के रहस्यमय तहखाने में जाने का प्रयास किया है एवं उनके आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक पहलुओं का शोधपरक अध्ययन  किया है। निर्मला भूराड़िया कृत ‘गुलाम मंडी’ उपन्यास में किन्नरों के दर्दनाक जीवन तथा उनके मृत्यु संस्कार का वर्णन हुआ है। चित्रा मुद्गल के उपन्यास ‘नाला सोपारा पोस्ट बाक्स नं.२०३’ की कथावस्तु गुजराती परिवार में जन्में किन्नर विनोद जो घर से विस्थापित है। उसका पत्रों द्वारा अपनी माँ से संबंध बनाए रखना तथा अंत में उसकी माँ द्वारा उसे अपना लिया जाना, लेखिका ने पत्रात्मक शैली में बखूबी उल्लेख किया है। हाशिये से भी दूर होता हुआ किन्नर विमर्श को आज साहित्य के दायरे में लाने की आवश्यकता है। इस बात की पुष्टि पुनीत बिसारिया के लेख ‘किन्नर विमर्श: समाज के परित्यक्त वर्ग की व्यथा कथा’ लेख में भी मिलता है। वे कहते है ‘‘ साहित्यिक दृष्टिकोण सी आज अनेक विमर्शों की चर्चा की जा रही है और समाज के अनेक उपेक्षित वर्गों पर साहित्य में चिंतन हो रहा है किंतु लिंग निरपेक्ष, समाज बहिष्कृत किन्नर समुदाय के विषय में कोई बड़ी नहीं दिख रही है। ‘‘

समग्रता में यह कहा जा सकता है कि उपन्यास विधा अपने मूल चरित्र में भारतीय समाज की रूढ़िवादी परंपरागत व्यवस्था के खिलाफ प्रतिरोध का रूख अपनाती हुई जन्मी, पली व बड़ी हुई तथा समाज के तमाम सवालों को अपनी रचनात्मकता में जगह देती हुई, उसे उठाती हुई आज समाज के छूटे हुए, हाशिए पर पड़े हुए, अलक्षित प्रश्नों को उठाती हुई आगे बढ़ रही है।

 

मनीष कनौजिया

 

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