डॉ. उडुपी राजगोपालाचार्य अनंतमूर्ति (यू.आर.अनंतमूर्ति) द्वारा रचित उपन्यास ‘संस्कार’ मूल रूप से कन्नड़ भाषा में रचित है। ‘चन्द्रकांता कुसनूर’ ने इसका हिंदी अनुवाद किया है। जब यह उपन्यास सन् 1965 ई. में कन्नड़ में प्रकाशित हुआ तब यह युगांतकारी उपन्यास के रूप में पाठकों के सामने आया। ‘संस्कार’ में यथार्थ ब्यौरों से भरी हुई दक्षिण भारत के ब्राह्मण ह्रास की प्रतीकात्मक कथा है। 1970 ई. में संस्कार नाम से ही इस पर फिल्म भी बन चुकी है।

      ज्ञानापीठ पुरस्कार विजेता यू. आर. अनंतमूर्ति सिर्फ कन्नड़ साहित्य के ही नहीं बल्कि आधुनिक साहित्य के भी प्रमुख साहित्यकारों में से एक है। लेखक के साथ- साथ वह एक अध्यापक, समीक्षक और चिंतक भी है। हालांकि डॉ. अनंतमूर्ति अपने पहले कहानी-संग्रह ‘प्रश्न’ से ही चर्चा में आ चुके थे। परंतु  उन्हें विशेष ख्याति मिली उनके उपन्यास ‘संस्कार’ से। मूल रूप से कन्नड़ में लिखे गए इस युगांतकारी उपन्यास को डॉ. अनंतमूर्ति ने फैलोशिप के दौरान इंग्लैण्ड में रहते हुए पूरा किया था। वस्तुत: अनंतमूर्ति का लेखन परस्पर विरोधी समझी जाने वाले परंपरागत एवं आधुनिकता के अंत:संबंधों की व्याख्या करना है। अपने उपन्यास ‘संस्कार’ में उन्होंने भारतीय समाज और खासकर स्वातंत्र्योत्तर युग की भारतीयता में आने वाले तनाव का बेहद संवेदनशील चित्रण किया है। ‘संस्कार’ में लेखक ने ब्राह्मणवाद,अंधविश्वास और रूढ़िगत संस्कारों पर इतनी पैनी चोट की है कि सनातन मान्यताओं के समर्थकों के लिए उसे सह पाना कहीं-कहीं मुश्किल हो जाता है। अंग्रेजी के अध्यापक और कन्नड़ के लेखक होने की वजह से ही उनकी रचनाओं के ग्रामीण परिवेश को वैज्ञानिक आधार मिल सका है और वे संवृद्ध हुई हैं। डॉ. अनंतमूर्ति ने संस्कार (1965 ई.), भारतीपुर (1973 ई.), अवस्था (1978 ई.), भाव (1997 ई.) और दिव्य (2001 ई.) जैसी महत्त्वपूर्ण औपन्यासिक कृतियों की रचना की है। इसके अतिरिक्त उन्होंने कहानियाँ, कविताएँ और नाटक की भी रचना की है। कन्नड़ साहित्य की सुदीर्घ परंपरा को आधुनिकता को जामा पहनाने वालो में डॉ. अनंतमूर्ति की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है।

                                   वस्तुत: सांस्कृतिक संघर्ष उसे कहते हैं जब दो सांस्कृतिक विचारधारा या उससे ज्यादा विचारधाराएँ आपस में टकराती है। ‘संस्कार’ में हमें सांस्कृतिक संघर्ष तीनों भागों में देखने को मिलता है। पहले भाग में दुर्वासापुर के समस्त ब्राह्मण और मरे हुए नारणप्पा के बीच तो दूसरे भाग में ब्राह्मण श्रेष्ठ प्राणेशाचार्य के चंद्री के साथ शारीरिक मिलन के उपरांत  उनके दिमाग में होने वाली सांस्कृतिक संघर्ष जिसके केंद्र में नारणप्पा ही था तो वहीं तीसरे भाग में प्राणेशाचार्य के मन में और उन्हें रास्ते में मिले हुए साथी पुट्ट की सांस्कृतिक विचारधारा के साथ।

                                  ‘संस्कार’ उपन्यास मुख्यत: एक सांस्कृतिक संघर्ष का उपन्यास है। उपन्यास का आरंभ  ही वस्तुत: सांस्कृतिक संघर्ष से होता है। नारणप्पा के मरने के कारण ही जो दुर्वासापुर में सांस्कृतिक संघर्ष आरंभ  होता है वह अंत तक प्राणेशाचार्य के वापस अपने गाँव लौटने तक बना रहता है। नारणप्पा के मृत्यु से ही समस्त दुर्वासापुर के ब्राह्मणों जिनका प्रतिनिधित्व प्राणेशाचार्य करते है और मरे हुए नारणप्पा के कारण सांस्कृतिक संघर्ष शुरू हो जाता है। नारणप्पा ब्राह्मण था जो कि शिवमोग्या गाँव से ज्वर लेकर आता है, चार दिन तक ज्वर रहने के उपरांत उसका प्राणांत हो जाता है। उसकी पत्नी चंद्री प्राणेशाचार्य के पास आकर इसकी खबर देती है और फिर समूचे दुर्वासापुर और फिर परिजातपुर तक यह खबर फैल जाती है। समूचे अग्रहार के ब्राह्मण प्राणेशाचार्य के चबूतरे पर जमा होते है। वहाँ पर समस्या यह उठती है कि नारणप्पा के शव का दाह- संस्कार कौन करेगा? प्राणेशाचार्य कहते हैं कि, “कोई रिश्तेदार न हो तो और कोई ब्राह्मण यह कार्य कर सकता है- ऐसी बात धर्मशास्त्र में है।”(संस्कार, पृष्ठ-15) परंतु कोई भी ब्राह्मण उसके शव-संस्कार के लिए पूर्ण रूप से तैयार नहीं होता है।

                                   ‘संस्कार’ उपन्यास में सांस्कृतिक संघर्ष वहाँ के ब्राह्मणों और नारणप्पा के कारण उत्पन्न होता है। दुर्वासापुर में रहनेवाले ब्राह्मण लोभी, स्वार्थी, ईष्यालु और संकुचित मानसिकता के हैं। उनका ब्राह्मणत्व सिर्फ इस बात पर टिका हुआ है कि वे सैकड़ो हजारों साल पुरानी परंपराओं तथा नियमों का पालन करने में है। वह नियमों का पालन सिर्फ इसलिए करते हैं कि वह इन नियमों से यदि कहीं भटक जाए  तो अनर्थ हो जाएगा। शव के संस्कार करने कि बात सुनकर गरूड़ा चार्य नारणप्पा के विरूद्ध कहते हैं, “–अभी इस प्रश्न को छोड़ दें कि मुझे संस्कार करना चाहिए या नही—-। पहला सवाल तो यह है कि यह ब्राह्मण है भी या नहीं? क्या कहते हैं—- शूद्रा से निरंतर सहवास किया था इसने—–।” (संस्कार, पृष्ठ-15)

                                     वस्तुत: दुर्वासापुर के ब्राह्मण असमंजस कि स्थिति में है कि नारणप्पा का संस्कार करें कि नहीं क्योंकि नारणप्पा अपने बरामदे में बैठकर मुसलमानों के साथ मांस, मदिरा लेता था, अछूत कन्या चन्द्री से शादी की थी तथा उसने शालिग्राम को नदी में फेंक दिया था। उसने ब्राह्मणत्व के सभी संस्कार छोड़े थे किंतु ब्राह्मणत्व ने उसे नहीं छोड़ा था और यही सांस्कृतिक संघर्ष का प्रमुख कारण था। यू. आर. अनंतमूर्ति ने ‘संस्कार’ में सांस्कृतिक संघर्ष को बखूबी दिखाया है। दुर्वासापुर के समस्त ब्राह्मण को डर था कि वह उसका संस्कार करने के कारण अपना ब्राह्मणत्व नष्ट कर लेंगे। किसी गैर ब्राह्मण को भी दाह-संस्कार करने के लिए नहीं कह सकते, क्योंकि अपनी मृत्यु तक नारणप्पा ब्राह्मण ही था। दासाचार्य कहते हैं, “अब अगर एकदम बिना सोचे-समझे या जल्दी में इसका दाह-संस्कार करना तय कर लें तो बस हम ब्राह्मणों को कभी भी कोई भोजन-श्राद्ध पर नहीं बुलाए गए, यह निश्चित है। लेकिन शव को इसी तरह पड़े रहने देकर हम उपवास पर तो नहीं रह सकते।”(संस्कार, पृष्ठ-18) वास्तव में दासाचार्य का कहना यहाँ समूचे अग्रहार के ब्राह्मणों का कथन है जो कि सांस्कृतिक संघर्ष की उपज है क्योंकि नारणप्पा जैसे ब्राह्मण का दाह-संस्कार करना कोई भी नहीं चाहता था, क्योंकि नारणप्पा ने ब्राह्मण के सभी आचार-विचार को त्याग दिया था।

                                  ‘संस्कार’ में दूसरी तरफ प्राणेशाचार्य मानते हैं कि नारणप्पा शास्त्रों के अनुसार बिना बहिष्कृत हुए मरा है, इसलिए वह ब्राह्मण रहकर ही मरा है। जो ब्राह्मण नहीं है,उनको उसके शव को स्पर्श करने का अधिकार नहीं है। उनके लिए उसके शव को स्पर्श करने को छोड़ देंगे तो हम अपने ब्राह्मणत्व की ही प्रवंचना करेंगे। ‘संस्कार’ में सांस्कृतिक संघर्ष तब तीव्र होता है जब चंद्री अपने पति नारणप्पा के संस्कार के लिए सोने की माला और हाथों के कंगन प्राणेशाचार्य के सामने रख देती है। सभी ब्राह्मण वहाँ खासकर लक्ष्मणाचार्य और गरूड़ा चार्य लोभ में आ जाते हैं और सोचते हैं कि सोना अगर मिल जाए तो और ब्राह्मणत्व भी बचा रहा तो कोई मामूली सी गाय दान में देकर इहलोक और परलोक दोनों का लाभ मिल सकता है। इसी कारण सभी दूसरे के प्रति नारणप्पा के द्वारा किए गए अन्याय को बढ़ा- चढ़ाकर साफ शब्दों में कहने लगें। लोभ के कारण ब्राह्मण अब दाह-संस्कार करने को तैयार हैं क्योंकि उन्हें फायदा हो रहा है, जो कि उपन्यास में सांस्कृतिक संघर्ष का एक प्रमुख कारण है। वस्तुत: स्वार्थ एकाध व्यक्ति का होता तो प्रश्न जल्दी ही सुलझ जाता, बहुविध स्वार्थ मिलकर शास्त्र की सम्मति की शरण में गए। यह सांस्कृतिक संघर्ष तब भी था जब दुर्वासापुर के लोग नारणप्पा को गाँव से बहिष्कृत करने को तैयार थे, किंतु नारणप्पा ने भी धमकी दी थी कि बहिष्कार करोगे तो मैं मुसलमान हो जाऊँगा और तुम सबको खम्भे से बंधवाकर तुम्हारे मुहँ में गोमाँस ठूंस दूँगा और देखूँगा कि तुम्हारा ब्राह्मणत्व मट्टी-मट्टी हो जाए। वस्तुत: अगर नारणप्पा मुसलमान हो जाता तो सम्पूर्ण ब्राह्मणों को अग्रहार छोड़ना पड़ता।

                                सांस्कृतिक संघर्ष का एक प्रमुख कारण था प्राणेशाचार्य और नारणप्पा। सभी सोचते थे कि अग्रहर में अंतिम विजय प्राणेशाचार्य के सनातन धर्म और उनकी तपस्या की होती है या नारणप्पा के राक्षसी स्वभाव की। एक तरफ नारणप्पा है जो ब्राह्मण धर्म की निंदा करता है, “अब आपका शास्त्र, धर्म नहीं चलेगा। आगे कांग्रेस का राज। अछूतों को देव-स्थान में प्रवेश करने का अधिकार आपको देना पड़ेगा।” (संस्कार, पृष्ठ-31) आगे वह प्राणेशाचार्य से कहता है, “जो लड़की सुख नहीं देती, उसके साथ कौन जिंदगी चलाएगा आचार्य जी, सिर्फ बेकाम ब्राह्मणों के सिवा?” (संस्कार,पृष्ठ-31) साथ ही गरूड़ाचार्य के ब्राह्मणत्व पर व्यंग्य करते हुए नारणप्पा कहता है, “विधवाओं की जायदाद हड़पने वाला, जादू-टोना करवाकर दूसरों की बुराई चाहने वाला गरूड़ आपकी दृष्टि में ब्राह्मण है न।” (संस्कार, पृष्ठ-31) तो दूसरे तरफ वेदांत शिरोमणि प्राणेशाचार्य है जो काशी जाकर अनुलोम-विलोम के विषय में वेदांत पढ़कर आए हुए दिग्गज पंड़ितों के साथ तर्क-चर्चा कर चुके हैं। वस्तुत: उपन्यास में सांस्कृतिक संघर्ष दो बुनियादी तौर पर भिन्न प्रतिक्रियाएँ द्वारा प्रस्तुत की जाती है- एक व्यवस्था तथा संयम पर जोर देने वाली जिसका प्रतिनिधित्व प्राणेशाचार्य करते हैं तो दूसरी तरफ नारणप्पा है जो स्वच्छंदता तथा भावुकतापर जोर देता है।

                                  ‘संस्कार’ में यू. आर. अनंतमूर्ति ब्राह्मणों पर करारी चोट करते हैं तथा यह दिखाते हैं कि उनका आचार-विचार सब कुछ ऊपरी सतह तक ही है। वह नियमों से इतना बंध चुके हैं तथा रूढ़ियों, धर्मशास्त्रों, पुराण तथा मनुस्मृतियों से इतना जकड़ चुके हैं कि केवल उन्हें अपना लाभ स्वार्थ ही दिखाई देता है। वह सिर्फ नाम के ही ब्राह्मण रहते हैं, दूसरों का धन हड़प लेना, जैसा कि गरूड़ाचार्य ने एक विधवा लक्ष्मीदेवम्मा के साथ किया। उसे घर से निकाल दिया और उनकी जायदाद भी हड़प ली। क्या ब्राह्मणत्व इसकी अनुमति देता है? अनंतमूर्ति यह प्रश्न करना चाहते हैं वह दिखाते हैं कि एक तरफ दासाचार्य जैसे ब्राह्मण है जो सिर्फ भोजन के बारे में ही सोचते हैं। ब्राह्मणत्व की दुहाई देने के बावजूद भी अपने पड़ोस के गाँव परिजातपुर में शव-संस्कार से पहले ही अपने से नीची जाति के ब्राह्मण के यहाँ भोजन कर आते हैं और मंजय्या को किसी को भी बताने से मना करते हैं। नाराणप्पा ऐसे ब्राह्मणों को अच्छी तरह जानता है और इसलिए उनका विरोध करते हुए प्राणेशाचार्य से कहता है, “देखें, आखिर कौन  जीतता है- मैं या आप? मैं ब्राह्मणत्व का नाश करके ही हटूँगा। लेकिन मुझे दुख इस बात का है कि विनाश के लिए इस अग्रहार में आपके अतिरिक्त कोई दूसरा ब्राह्मण ही नहीं रहा। गरूड़, लक्ष्मण, दुर्गाभट्ट—- हा हा हा—– ए  ब्राह्मण है?” (संस्कार, पृष्ठ-34)

      यू. आर. अनंतमूर्ति दुर्वासापुर के सांस्कृतिक संघर्ष को दिखाते हुए ब्राह्मणों की खोखली मान्यताओं और परंपराओं पर चोट करते हैं। वह दखाते हैं कि नारणप्पा जो कि ब्राह्मणत्व को त्याग चुका है और डंके कि चोट पर जो काम करता है वही अन्य ब्राह्मण ब्राह्मणत्व के आड़ में करते है। प्राणेशाचार्य को अछूत कन्या चंद्री के साथ उपभोग करना और फिर लोगों के जान लेने के भय से घबराना इसी बात का उदाहरण है। स्मार्त और माहव ब्राह्मणों का आपस में संघर्ष भी तत्कालीन सांस्कृतिक संघर्ष को दिखाता है। दुर्गाभाट्ट माहवों की हँसी उड़ाते हुए कहता  है, “छी: छी: छी:, उतावले मत होईए , आचार्य जी। शूद्रा को रखैल बनाकर रखने से ही ब्राह्मणत्व नष्ट नहीं होता। उत्तर से इस ओर आए  हुए हमारे पूर्वज—-। द्रविड़ स्त्रियों के साथ सहवास हुआ है उनका—- ऐसा इतिहास बताता है।” (संस्कार, पृष्ठ-16) तो वही दूसरी तरफ जब दुर्वासापुर के सभी ब्राह्मण परिजातपुर के ब्राह्मणों से दाह-संस्कार करने के लिए निवेदन करते हैं तो दुर्गाभट्ट को बड़ी चिंता होती है क्योंकि परिजातपुर के ब्राह्मण स्मार्त है और अगर वह दाह-संस्कार कर देंगे तो वह जाति-भ्रष्ट हो जायेंगे, इसलिए वह स्मार्तों को ब्राह्मणत्व का डर दिखाकर भयभीत करते हैं।

      वस्तुत: इन्हीं सब सांस्कृतिक संघर्ष पर चोट करते हुए साने गुरू ने लिखा है, “जो संस्कृति महान होती है, वह दूसरों की संस्कृति को भय नहीं देती, बल्कि उसे साथ लेकर पवित्रता देती है। गंगा महान क्यों है? दूसरे प्रवाहों को अपने से मिला लेने के कारण ही वह पवित्र रहती है।” ( सूक्तिसागर, संग्रहकर्त्ता- रमाशंकर गुप्त, पृ.-653) चंद्री का एक मुसलमान से दाह-संस्कार कराना भी इस बात को दर्शाता है कि ब्राह्मणों में आपस में ही सांस्कृतिक संघर्ष इतना बढ़ गया है कि कोई दाह-संस्कार करने को तैयार नहीं है। नारणप्पा जहाँ आधुनिकता विद्रोही संस्कृति का प्रतीक है वहीं दूसरी तरफ प्राणेशाचार्य पुरातन संस्कृति के पक्षधर हैं।

         ‘संस्कार’ में सांस्कृतिक संघर्ष का दूसरा रूप हमें प्राणेशाचार्य के रूप में दिखाई देता है। चंद्री के साथ शारिरिक मिलन के उपरांत ही उनके जीवन में परिवर्तन आने लगता है। इसका प्रमुख कारण है प्राणेशाचर्य के मन में अपनी और नारणप्पा की सांस्कृतिक विचारधारा का टकराव। अत: नारणप्पा की मृत्यु के बाद गिनती के क्षणों में ही प्राणेशाचार्य के अंदर नारणप्पा जैसा ही एक पुरूष खड़ा होता है। चंद्री के साथ उपभोग करने के बाद प्राणेशाचार्य की अपनी संस्कृति के साथ संघर्ष होना शुरू हो जाता है। वह जान जाते है कि ऊपर से लादे गए आवरणों के नीचे हाड़-माँस के इंसान हैं। चंद्री के साथ शारिरिक मिलन में परिस्थिति ही आचार्य जी के मन: स्थिति को प्रेरित करती है। शास्त्रज्ञान और संकल्प के पास से सूत्र छूट जाता है। समग्र उपन्यास की सृष्टि की धुरी यह है कि पुरानी समतुला टूटती है और नए  संचलन यहाँ जागते हैं।

          यू. आर. अनंतमूर्ति ने प्राणेशाचार्य के माध्यम से सांस्कृतिक संघर्ष के द्वंद्व को बखूबी दिखाया है। प्राणेशाचार्य दो सांस्कृतिक अव्ययों के बीच फँस जाते है। एक तरफ उनका धर्म, कर्म, संन्यासी बनकर रहने और आत्मदान का जीवन बिताने की अपनी बचपन से ही उपजी चुनौती जिसके कारण उन्होंने जानते-बूझते हुए भी जन्म से पंगु और बीमार स्त्री भागीरथी से शादी कर ली तो दूसरी तरफ पुन: चंद्री के साथ मिलने तथा उसका उपभोग करने की इच्छा। यह वस्तुत: प्राणेशाचार्य के भीतर ही दो तरफ की संस्कृति की टकराहट है। चंद्री के उपभोग के बाद जीवन में पहली बार उन्हें अपनी पत्नी असुंदर लगी थी। पहली बार उनकी आँखों में सुंदर और असुंदर का भेद दिखाई पड़ा। उपन्यास जैसे जैसे आगे बढ़ता है प्राणेशाचार्य के दिमाग में सांस्कृतिक संघर्ष जोर पकड़ लेता है और उनका परंपरा तथा कर्मकांड का खोल फूट जाता है और अब उनके लिए श्रेणीबद्ध तथा नेमबद्ध जीवन में अंटना मुश्किल हो जाता है। इसके बाद आचार्यजी को अपने लिए एक भूमिका की तलाश करनी पड़ती है। लेकिन कोई ऐसा सुरक्षित सामाजिक कोना नहीं है जहाँ वह बैठ सकें। प्राणेशाचार्य की सूखी हुई भागीरथी और रसभरी चंद्री ही के कारण प्राणेशाचार्य के मन में सांस्कृतिक संघर्ष चलता रहता है।

          जंगल में जब चंद्री की बाँहों में उनकी नींद खुलती है तब उनकी समझ में आ जाता है कि वह नारणप्पा से लड़ाई हार चुके हैं क्योंकि उन्हें अहंकारपूर्ण तथा हठपूर्ण विश्वास था कि वह अपनी निष्ठा एवं तपस्याओं से नारणप्पा को सही मार्ग पर ला सकते हैं,परंतु वह पराजित हुए तथा पराजित होकर मुँह के बल गिरे। वस्तुत: उनकी यह हार ही उनके मन में एक सांस्कृतिक संघर्ष को बढ़ाती है क्योंकि इस हार का आधार बहुत पीछे उनके आरम्भिक जीवन तक जाता है,जब पवित्रता के जोश में उन्होंने अपनी पुरूष की स्वभाविक भावनाओं को कुंठित कर दिया था। यह पराजय कम से कम उस खोल को तोड़ देती है, जिसकी आड़ में वह इन तमाम वर्षों तक छुपे हुए थे। प्राणेशाचार्य समझ जाते हैं कि एक अपंग से विवाह करने का बलिदान एक प्रकार का निवेश था। जीवन के एक निर्लिप्त प्रेक्षक से अब वह एक संलिप्त हिस्सेदार बनने के लिए संघर्ष करते हैं। उनकी इच्छा होती है कि वह झूठ बोलें, चीजें छुपाएं, अपने हित की बात सोचें और यह करते हुए वह भी नारणप्पा की तरह खुलेआम और निर्भय होकर जीयें पर साथ ही उन्हें इस बात का डर है कि अगर चंद्री ने सबकुछ किसी से कह दिया तो क्या होगा। यह सांस्कृतिक संघर्ष वस्तुत: प्राणेशाचार्य के अंदर अंत तक चलता रहता है।

           गाँव छोड़कर अनजानी दिशा में निकल पड़े आचार्य जी किसी क्षण पापग्रंथि से छूटने का प्रायश्चित भाव अनुभव करते हैं तो किसी क्षण चंद्री के शरीर की कामना कर उठते हैं। प्राणेशाचार्य न सिर्फ स्वयं को दो सत्यों के बीच लटका हुआ पाते हैं, बल्कि अपनी स्थिति की तुलना ऋषियों और स्त्रियों के साथ उनके संबंधों की स्थिति से भी करते हैं। एक तरह से प्राणेशाचार्य मृतक नारणप्पा का स्थान ले लेते हैं और उसी तरह नियमों का उल्लंघन करने में लग जाते हैं जिसका कारण उनके मन में उनकी और नारणप्पा के बीच सांस्कृतिक विचारधारा में टकराहट का होना। डॉ. नामवर सिंह लिखते हैं, “ संस्कार का नायक प्राणेशाचार्य ब्राह्मण पुरोहित की तरह बर्ताव करने के लिए तमाम कोशिश करता है, पर नैतिकता से च्युत होकर वह साधरण मनुष्य रह जाता है।” (आलोचना पत्रिक: नामवर सिंह,जनवरी-मार्च, 1972) तमाम सांस्कृतिक संघर्ष से जूझने के कारण ही उनकी यह दशा होती है।

            प्राणेशाचार्य भूख के मारे ग्वाले को दूध और केले देने की बात कहते हैं तो उन्हें इस बात का भी डर है कि अगर शेषप्पा ने उन्हें देख लिया तो तो क्या होगा। यह है एक सांस्कृतिक संघर्ष जो न तो उन्हें अपनी संस्कृति को छोड़ने ही दे रहा है और न ही सही ढ़ंग से अपनाने ही दे रहा है दूसरी संस्कृति को। उनके मन में उठने वाले सांस्कृतिक संघर्ष के कारण ही उन्हें भय होता है, वह कहते हैं- “मैंने ऐसे भय का पहले अनुभव नहीं किया। पहचाने जानेका भय, पकड़े जाने का भय । यह भय कि अपने अंतर के भेद को मैं दूसरों की आँखों से बचाकर कैसे रख पाऊंगा? मैंने अपनी स्वाभाविक, मौलिक निर्भयता खो दी है? कैसे, क्यों? भय के कारण ही मैं वापस अग्रहार नहीं जा सका- इस भय के कारण कि उन ब्राह्मणों की नजरों के सामने मैं जिंदा कैसे रह सकूँगा? हाय, यह भीषण चिंता-कि जब मेरी गोद में गांठ बांधकर एक झूठ पड़ा है, मैं सांस भी कैसे ले सकूँगा?” (संस्कार, पृ-116) प्राणेशाचार्य समझ नहीं पाते कि चंद्री के साथ हुए उस मिलन की घड़ी ने इतना परिवर्तन क्यों कर दिया उन्हें। उनके मन में संघर्ष इस कदर बढ़ जाता है कि वे चंद्री, बेल्ली और पद्मावती को हमेशा वासनापूर्ण नजरों से देखते हैं तथा वे महाबल से पूछ्ना चाहते हैं कि कौन से अनुभव, किस आवश्यकता, किस अदम्य कामना ने उसे वेश्या के साथ रहने के लिए विवश किया था। इस सांस्कृतिक संघर्ष के कारण ही दुर्वासापुर के ब्राह्मण अपने अंधविश्वासों और रूढ़ियो से चिपके रहते हैं तथा सारे गाँव में प्लेग फैला देते हैं।

         ‘संस्कर’ के तीसरे भाग में पुट्ट के मिलने और बातचीत के उपरांत  भी प्राणेशाचार्य के मन में सांस्कृतिक संघर्ष चलता रहता है, “जंगल के अंधेरे में एकाएक मैं पलट गया। लेकिन मेरी दुविधा, मेरा निर्णय, मेरी समस्या मात्र मेरी नहीं थी, इसने सारे अग्रहार को अपनी लपेट में ले लिया। कुल कठिनाई की जड़ यही है- यह चिंता, धर्म की यह दुहरी पकड़। नारणप्पा के शव-संस्कार का जब प्रश्न उठा तो उसका स्वयं समाधान करने की कोशिश मैंने नहीं की। मैं परमात्मा पर भरोसा करता रहा, धर्मशास्त्रों के पन्ने उलटता रहा। लेकिन क्या ठीक इस उद्देश्य से हमने शास्त्रों का निर्माण नहीं किया है? हमारे द्वारा किए  गए  निर्णयों के और समूचे समाज के बीच गहरा संबंध है। जब, मैं चंद्री के साथ सोया था,तो किसी ऐसे संघर्ष का भान हुआ था।—–‘क्या इससे कभी मुक्ति मिलेगी?”(संस्कार,पृ-133) प्राणेशाचार्य सोचते हैं कि जंगल में किए  गए  उस निर्णय से उन्हें कभी मुक्ति मिलेगी। वह यह भी सोचते हैं कि नारणप्पा तो शान से चंद्री के साथ रहता था, परंतु वह तो कभी चंद्री से मेल-मिलाप हो जाए  तो, तो शायद अपना ही चेहरा ढ़ापे रहेंगे। उनके मन में उठने वाले  संघर्ष इस कदर तक बढ़ जाते हैं कि उनका ह्रदय उन्हीं की खिल्ली उड़ाने लगा, “चंद्री से मिलने और उसके साथ रहने का आपका निश्चय एकदम निरर्थक है, बेमानी है। यदि आपको अपने निर्णय पर टिकना है तो पूरे साहस और विश्वास के साथ कदम बढ़ाइए , अन्यथा इस निश्चय से हाथ धो लीजिए । अंतर्विरोधों की खिंचातानी से पार पाने का और कोई साधन नहीं है।” (संस्कार, पृ-142) उनके मन में उठने वाले सांस्कृतिक संघर्ष मुख्यत: नारणप्पा के विचारधारा और खुद के विचारधारा के टकराव से उपस्थित होता है।

              डॉ. मीनाक्षी मुखर्जी लिखती हैं, “उपन्यास का केंद्रीय पात्र, सामाजिक रूप से व्यवह्रत धार्मिक परंपरा की एक अमानवीकरणकारी विधि-निषेध व्यवस्था को ठुकराने का प्रयास करता है और उपन्यास के आखिर तक हम नहीं जान पाते हैं कि खुद को मुक्त करने में उन्हें कितनी कामयाबी मिल पाएगी। आचार्य का संघर्ष स्वत: स्फूर्तता का गला घोंटने वाले मताग्रह से है।” (Realism and Reality, Meenakshi Mukherjee, संस्कार,अनुवादक- राजेंद्र शर्मा, पृ.-180) प्राणेशाचार्य और पुट्ट में भी दो संस्कृतियों के संघर्ष को दर्शाया गया है। दो अनुभवों के बीच का अंतर यह है कि जहाँ एक अनुभव इंसानों की दुनिया से बाहर का है, दूसरा उस दुनिया के बीचो-बीच का है। जहाँ एक जंगल के ठंडक देने वाले सायों में उन्हें सुकून देता है, तो दूसरा सूरज की नंगी रोशनी में सिर्फ चुभता है और उनका ध्यान भटकता है। प्रणेशाचार्य जिस उत्प्रेरणा से प्रभावित होते हैं, बचपन की पवित्र दृष्टि है और यह दृष्टि उन्हें प्रकृति के साथ एक कर देती है। पुट्ट के साथ जब वह अपने रास्ते पर चलना शुरू करते हैं, ऐंद्रिक अनुभव का ठोसपन पृष्ठभूमि में चला जाता है और उन्हें अमूर्तनों की शरण लेनी पड़ती है क्योंकि पुट्ट की सरल किंतु अनगढ़ मानवीय उष्मा को यह स्वीकर ही नहीं कर पाते। आचार्यजी के लिए मुर्गों की लड़ाई इस दुनिया का सबसे दारूण अनुभव है। पुट्ट स्वाभाविक ररूप से इस दुनिया का हिस्सा है वह इसमें आनंद लेता है तो दूसरे तरफ यही लड़ाई आचार्य जी को आतंकित करती है। जिस दुनिया को प्राणेशाचार्य ने नया-नया खोजा है, उसके दो अलग-अलग पहलुओं को पहचान कर वह अनिश्चय में पड़ जाते हैं कि वासना का एक हिस्सा करूणा है तो दूसरा हिस्सा दानवी इच्छा है। वस्तुत: एक ही समय काल में एक ही स्थान पर एक ही वस्तुओं का साक्षात्कार होने पर भी पुट्ट और प्राणेशाचार्य में अलग-अलग भावों को जगाती है जो कि उनकी सांस्कृतिक संघर्ष का कारण ही होता है क्योंकि उनकी संस्कृति भिन्न-भिन्न है।

        भोजन की प्रतीक्षा करते सैकड़ों भूखे ब्राह्मणों की पात में बैठे प्राणेशाचार्य पर तीन तरह के भयों का हमला होता है। यह भय वस्तुत: उनकी मन में उठने वाली विभिन्न सांस्कृतिक संघर्ष के कारण उत्पन्न होता है। पहला, चूँकि वह मृतक के साथ संबंध से सूतककाल में हैं, उन्हें सब को अपवित्र कर दिया है, भले ही बाकी लोगों को इसका पता चले या न चले। यह उनके पिछ्ले जीवन की विरासत है और वह इस गहरे विश्वास से खुद को मुक्त नहीं कर पाते हैं कि उनका इस तरह पांत में बैठना अपने आप में गलत है। दूसरा, अगर वह पहचान किए जाते हैं तो उनके कृत्य से बहुत सारे लोगों को चोट पहुंचेगी और रथ उत्सव निरस्त करना पड़ेगा। तीसरा, अगर उनके बारे में पता चल गया, तो लोग उनके बारे मेंया संबंध में क्या सोचेंगे?

                                     वस्तुत: प्राणेशाचार्य इन्हीं सब सांस्कृतिक संघर्ष में फँसे रहने के कारण मंदिर में एक व्यक्ति पहचान लिए  जाने पर भी उसका सामना नहीं करते और उठ कर भाग जाते हैं तथा सोचते रहते हैं कि उन्होंने पुट्ट के साथ झूठ बोला है और नारणप्पा का शव वैसे ही सड़ रहा है, मुझे सब कुछ सच बता देना चाहिए, पर वह बता नहीं पाते। प्राणेशाचार्य खुद समझ नहीं पाते कि उन्हें किस संस्कृति को मानना चाहिए किस को नहीं। वह सोचते हैं कि या तो नारणप्पा की तरह भयमुक्त होकर जीऊं या अपनी संस्कृति का पालन करूँ जो कि अब संभव नहीं है। प्राणेशाचार्य ऐसे ब्राह्मण है जो कि धर्म, आचरण, शास्त्र में इतना विश्वास करता है, वह एक घटना के बाद से झूठ बोलने लगते हैं और शोक और सूतक का दूषित समय होने पर भी मंदिर में बैठकर खाना खाते हैं जिसका कारण सांस्कृतिक संघर्ष का जन्म लेना ही है।

                                     यू. आर. अनंतमूर्ति ने प्राणेशाचार्य के मन में सांस्कृतिक संघर्ष को निम्न पंक्ति में बखूबी दिखाया है, “ नारणप्पा की तरह ही, जिसने मंदिर के सरोवर में मछलियाँ पकड़कर समूचे अग्रहार को उलट-पलट दिया था, मुझसे भी ब्राह्मणों के जीवन में आमूल परिवर्तन होने जा रहा है। उनकी आस्था में मुझसे बहुत करारी चोट पड़ेगी। मैं उन्हें क्या बतलाऊंगा? कि चंद्री के साथ मैंने संभोग किया था।? कि मैं अपनी पत्नी से घृणा करने लगा था? कि मैंने बाजार कि एक चालू दुकान से मेले में  कॉफी पी ? मैं मुर्गों की वह भयावह, हिंसक लड़ाई देखता रहा? कि मेरे भीतर पद्मावती के प्रति कामुकता का भाव जगा? कि मैंने एक मालेर लड़के को मंदिर में अपने साथ आने और अपने साथ भोजन करने का न्यौता किया?”(संस्कर, पृ.-162-163) पृ.-162-163) वस्तुत: मीनाक्षी मुखर्जी लिखती हैं, “एक ओर समय से पहले बुढ़ा गए  प्राणेशाचार्य है ,जिन के सिर पर सभी धर्मग्रंथों के ज्ञान का बोझ लदा है और मरणशील अग्रहार की जिम्मेदारी का बोझ कंधों पर है। दूसरी और ऐसा बच्चा है जो सृजन पर प्रतिक्रिया करना सीख ही रहा था। दोनों के बीच सीधा विरोध है। उसके पुनर्जन्म का स्थान, अवरूद्धता के दायरे से बाहर है, उस अग्रहार से बाहर, जहाँ काल रूका हुआ है और दिशाएँ बंद हैं। अग्रहार की मौत की सड़ाध और जंगल में गीली मिट्टी तथा घास की खुशबु, दोनों को रूपक के रूप में आमने- सामने खड़ा किया गया है। इंसानों कि दमनकारी दुनिया और प्रकृति की हरी- हरी सम्पूर्ण के बीच ऐसा ही विरोघ संस्कार में देखने को मिलता है।”( Realism and Reality, Meenakshi Mukherjee, संस्कार, अनुवादक- राजेंद्र शर्मा, पृ.-176) सांस्कृतिक संघर्ष के चरमबिंदु पर जाकर ही उपन्यास का समापन हो जाता है। प्राणेशाचार्य को खुद नहीं पता होता है कि आगे क्या होगा। वस्तुत: प्राणेशाचार्य की सांस्कृतिक संघर्ष में जो पीड़ा तथा कष्ट है, वह अस्तित्व के अन्य रूप से रूपांतरंण की पीड़ा एवं कष्ट है।

                                    अत: डॉ. यू. आर. अनंतमूर्ति ने “संस्कार” में सांस्कृतिक संघर्ष को एक नए  स्तर पर पहुँचाया है। नारणप्पा तथा दुर्वासापुर के समस्त ब्राह्मणों के बीच का सांस्कृतिक संघर्ष हो या चाहे प्राणेशाचार्य के मन को आंदोलित करनेवाले विभिन्न सांस्कृतिक विचारधारा जिसका एक प्रमुख कारण नारणप्पा की विचारधारा से टकराहट था या स्मार्त तथा माहव ब्राह्मणों के बीच होने वाले सांस्कृतिक संघर्ष हो, उसे रचनाकार ने नए  तरीके से तथा उसके द्वारा ब्राह्मणत्व, रूढ़िवादी, अन्धविश्वासों, ढ़ोंग आदि पर प्रहार किया है। ‘संस्कार’ में नारणप्पा के सड़ते हुए शव की तरह ब्राह्मण समाज के ढाँचे का क्षरण भी अवश्यंभावी जान पड़ता है। नारणप्पा के द्वारा अनंतमूर्ति ने एक ऐसे ब्राह्मण को दिखाया है जिसके लिए यह जीवन, यही संसार सब कुछ था ,वह परलोक का विश्वास नहीं करता था और सुखी जीवन को पसंद करता था जिसके कारण उसके और दुर्वासापुर के समस्त ब्राह्मणों के बीच सांस्कृतिक संघर्ष को जन्म देता है तथा उसकी यही विचारधार प्राणेशाचार्य को भी हमेशा आंदोलित करते हुए उनमें भी एक सांस्कृतिक संघर्ष को छोड़े रहती है। अनंतमूर्ति का यह सांस्कृतिक संघर्ष सिर्फ दुर्वासापुर या कन्नड़ का ही संघर्ष नहीं रहता अपितु पूरे भारत के सांस्कृतिक संघर्ष को दर्शाता है।

संदर्भ ग्रंथ:-

1.संस्कार, यू.आर.अनंतमूर्ति, अनुवादक-चंद्राकांता कुसनूर, (राधाकृष्ण प्रकाशन,2011)

2.आलोचना(पत्रिका), नामवर सिंह, जनवरी-मार्च,1972

3.Realism and Reality , Meenakshi Mukherjee( oxford university press,1984)

4.South Asia Research Vol.31, Sharon Pillai( Sage publication, 2011)

५. अधूरे साक्षात्कार,नेमिचंद्र जैन(वाणी प्रकाशन)

6.सूक्तिसागर, संग्रहकर्त्ता रमाशंकर गुप्त(उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ)

अमृत कुमार
शोधार्थी
दिल्ली विश्वविद्यालय

AMRIT KUMAR

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