आज़ाद और जवान होता सिनेमाई पर्दा
सिनेमा हमारे आम जीवन का अब एक अभिन्न अंग बन चुका है। एक शतकीय पारी से ज़्यादा का जीवन जी चुका यह एक ऐसा शख़्स/माध्यम या कहें जरिया है जो आने वाले दिनों, सालों और सदियों के साथ और जवान होता जाएगा। भला समय के साथ ऐसे कौन जवान होता है।
लेकिन जब बरसों पहले इसे फालके साहब लेकर आए तो यह मूक बघिर था बाद में इसे आर्देशिर ईरानी के रूप में मां मिली। जिसने इसे बोलना सिखाया। बोलते, तुतलाते, हकलाते यह बीच में कुछ लोगों के लिए कहें कि चीखने, चिल्लाने का काम करने लगा। ऐसा कहना भी गलत नहीं होगा।
सिने और मा के जुड़ने से मुक्कमल हुई यह सिनेमा तथा इसकी यात्रा रोचक रही है। एक दौर था जब औरतों को आगे नहीं आने दिया जाता था। सभ्रांत वर्ग के लोग इससे कतराते थे। लेकिन बाद में समय बदला और सभ्रांत वर्ग आज सबसे ज़्यादा इस दुनिया में नजर आता है। एक बड़ा कारण इसके साथ नेम और फेम जुड़ना भी है। हर कोई चाहता है वहां जाए ,पैसे कमाए, नाम कमाए। वैसे भी देखा जाए तो हमारे भारतीय समाज में न तो दर्शकों का और न ही सिनेमा बनाने वालों का सिनेबोध ठीक से विकसित हुआ है। दर्शकों को जहां उस कला का बोध नहीं वहीं उसे बनाने वालों के बीच इधर-उधर का जोड़ तोड़ कर बनाने की होड़ लगी रहती है। एक आध कुछ नया आ भी जाए तो वह जनमानस तक ठीक से पहुंच नहीं पाता।
वैसे इसमें जो सभ्रांत वर्ग है कहीं न कहीं तथाकथित सभ्रांत वर्ग का चोला पहने भी बैठा इनके बीच नजर आता है। सैकड़ों लड़कियों ने , लड़कों ने अपने जीवन को कुर्बान किया है यहां और इसे खड़ा किया है। उसमें फिर बड़ा हीरो हो या हीरोइन या साइड रोल कर रहा कोई इंसान। गीत गाने वाले, संगीत बनाने वाले, बैकग्राउंड में धुने जोड़कर कदमताल करने वाले सभी का योगदान अविस्मरणीय रहेगा। यहां किसी एक को महान या किसी एक की आलोचना नहीं की जानी चाहिए।
गीत भी ऐसे मिले हैं जिन्हें हम शादी-ब्याह या दूसरे खुशी के मौकों, तीज-त्यौहारों पर गाते-गुनगुनाते जरूर हैं। जैसे मिठाई खाए बिना कोई शुभ काम शुरू नहीं होता वैसे ही बिना गीत-संगीत कोई फ़िल्म नहीं बनती। फिल्मों में ऐसा कोई भी रंग-रूप नहीं बचा है आज जो हमने देखा न हो। खुशी-ग़म हर रंग इसमें निहित हैं। यही वजह है कि अभिनय के क्षेत्र में मेधा की कमी कभी नहीं रही है। बलराज साहनी से लेकर नसीरुद्दीन शाह तक तथा आज के समय में मनोज वाजपेयी , संजय मिश्रा, यशपाल शर्मा सरीखे कलाकार भी हमारे बीच हैं। वहीं महिलाओं में मीना कुमारी से लेकर रेखा तक एक लंबी फेरहिस्त हमारे पास है। लेकिन बावजूद इसके बड़ा कारण यह है कि आज के सिनेमा का जीवन काल बेहद कम हो गया है। उसका वैभव जल्द ही खत्म हो जाता है सिनेमाई पर्दे से। यही कारण है कि न तो कोई सिनेमा और न ही कोई कलाकार जुबली बना और बन पा रहे हैं।
सिनेमा को जवान होना चाहिए, केवल तकनीक के सहारे ही नहीं। किस्से, कहानियों, अभिनय, कॉस्ट्यूम, मेकअप सभी में। नई सदी की शुरुआत में यानी 2001 से लेकर अब तक बहुत बदलाव भारतीय सिनेमा में आए हैं। फ़िल्म इंडस्ट्री में निर्माता, निर्देशकों की एक ऐसी पौध तैयार हुई है जो प्रचलित फार्मूलों पर चलने के बजाए अपने रंग-ढंग उसमें उड़ेल रही है। उनकी सिनेमाई कला समृद्ध जरूर है लेकिन जब-जब वह अपनी मूल जड़ों को ही छोड़ने लगता है तब-तब उसका पतन होता दिखाई दे ही जाता है। यह भी एक बड़ी वजह है ‘रा.वन’, ‘बाहुबली’ जैसी हमारी फिल्में भव्यता के पैमाने में टेक्नोलॉजी का सहारा लेते हुए अफ़ीम की पौध खड़ी कर देते हैं। जो देखने वालों को मंत्रमुग्ध तथा उनकी आंखों को चकाचौंध से भर देती हैं। दर्शक विस्मयकारी बड़े-बड़े नेत्र करके उन्हें देखता रह जाता है, उनकी भव्यता में खो जाता है। यह अफ़ीम की पौध खेतों में किसानों द्वारा उगाई जा रही फसलों की भांति नहीं पनपता, नहीं उगता बल्कि इसे तो उगाया जाता है लेबोरेट्री में, फिर इसमें मसाले मिलाए जाते हैं ग्राफिक्स के जरिए।
वैसे केवल बड़े सितारों को शामिल कर लेने से फिल्में बड़ी हुआ करती तो आज हम भी ऑस्कर के लिए मातम न मना रहे होते। यह भी एक बड़ा कारण है कि विदेशी फिल्में पूरी दुनिया में दिखाई जाती हैं बस एक हमारा ही सिनेमा है जो पूरी दुनिया तक अपनी पहुँच आज भी बनाने के लिए संघर्ष कर रहा है। यहां उन चुनिंदा फिल्मों को छोड़ दें या अब पिछले कुछ बरसों से होने वाले फ़िल्म फेस्टिवल्स को छोड़ दें तब सिनेमाघरों में दिखाई जाने वाली फिल्मों के आंकड़े निकालने लगें तो शायद हाथों की उंगली पर उनके नाम पूरे हो जाएं तो गनीमत समझें। आज के निर्माता, निर्देशकों का काम सिर्फ और सिर्फ 100,200,500 करोड़ के क्लब में शामिल हो जाना रह गया है। गीतों के मामलों में भी यह दौर सबसे ज्यादा रीमिक्स गीतों के लिए याद किया जाएगा। यह भी एक वजह है कि जब दुनिया की सबसे प्रतिष्ठित पत्रिकाएं मसलन ‘टाइम’ मैगजीन सरीखी पत्रिकाएं जब विश्व सिनेमा के इतिहास की सौ फिल्मों की सूची तैयार करती है तब उसमें नब्बे के दशक की एक भी फ़िल्म शामिल नहीं होती। सब फिल्में कम से कम 40-50 साल पुरानी ही शामिल होती हैं। वे फिल्में हैं ‘पथेर पांचाली’, ‘अपराजिता’, ‘अपूर संसार’, ‘प्यासा’, ‘नायकन’।
साथ ही आज हिंदुस्तान अपनी आजादी का अमृत-महोत्सव मना रहा है। यानी हमें आजाद हुए 75 वर्ष हो चले हैं। ऐसे में आज़ादी से जुड़ी फिल्मों का जिक्र न हो ऐसा कैसे सम्भव हो सकता है भला। हमारे अपने देश का राष्ट्रीय पर्व देशवासियों के मन में एक नई ऊर्जा का भाव तो जगाता ही है साथ ही नए जोश एवं उमंग के साथ हम इसके सहारे अपने इतिहास की ओर भी चले जाते हैं। तो फिर याद आती है बॉलीवुड द्वारा इस दिशा में निभाई गई अहम भूमिका वाली फिल्में। इन फिल्मों में नजर आता है देशभक्ति से ओतप्रोत अनेक उन चुनिंदा फिल्मों का नाम जो हमें अंदर तक उन्हें देखते हुए हिलाती है, हमारी मुठ्ठियाँ गर्म करती हैं जोश, जज़्बे और जुनून से।
सबसे पहला और बड़ा नाम ‘किस्मत’ फ़िल्म का, साल 1942 के वक्त भारत छोड़ो आंदोलन हुआ हम सब जानते हैं। उसी दौरान एक फ़िल्म का निर्माण भी हो रहा था और यह फ़िल्म ‘किस्मत’ नाम से 1943 में बनकर हमारे सामने आई। जिसने न केवल देशवासियों अपितु फ़िल्म मेकर्स की भी किस्मत को बदला। लेकिन उस समय में फिल्मों को ब्रिटिश सरकार के सेंसर बोर्ड से भी दो-चार होना पड़ता था। जब यह रिलीज़ हुई तो लंबे समय तक इसके एक गाने के बोल आम हिंदुस्तानियों की जबान पर कंठस्थ हो गए। इस गीत के बोल थे – ”दूर हटो ए दुनिया वालों यह हिन्दुस्तान हमारा है।” उस जमाने में यह आम जन के बीच ब्रिटिश हुकूमत के विरोध का पर्याय बन गया।
इसके बाद तो जैसे इस मुद्दे पर बनी फिल्मों की लहर सी ही दौड़ पड़ी। ‘मदर इंडिया’ आहा! रिलीज के 60-65 बरस होने को आए लेकिन ऐसा कोई इंसान शायद ही होगा जिसने यह फ़िल्म न देखी हो। साल 1957 में आई इस फ़िल्म ने आजादी के बाद के भारत की ताजा तस्वीर दर्शकों के सामने प्रस्तुत की। इसके बाद ‘हकीकत’, ‘आनंदमठ’, ‘झांसी की रानी लक्ष्मीबाई’, ‘शहीद’, ‘उपकार’, ‘गांधी’, ‘बॉर्डर’, ‘मां तुझे सलाम’, ‘सुभाष चन्द्र बोस फॉरगॉटेन हीरो’, ‘स्वदेश’, प्रहार’, ‘सरदार’ जैसी फिल्में बनी और आज भी गाहे-बगाहे सिनेमा में ऐसी फिल्में बनती रहती हैं। खासकर 15 अगस्त, 26 जनवरी पर आने वाली फिल्में आज भी देशभक्ति जागृत करने का संदेश ही देकर जाती हैं। हाल कि फिल्मों को देखें तो ‘मंगल पांडे’, ‘रंग दे बसंती’, ‘एल ओ सी कारगिल’, ‘पूर्व और पश्चिम’, ‘वीर जारा’, ‘फना’, ‘लक्ष्य’, ‘भाग मिल्खा भाग’, ‘राजी’, उरी-द सर्जिकल स्ट्राइक’ जैसी फिल्मों की लंबी फेहरिस्त हमारे पास मौजूद हैं जिन्होंने किसी न किसी तरीके से देशभक्ति के जज़्बे को कायम रखा है। पूरी फिल्म की कहानी न सही तो कई बार उनका एक-आध गीत भी लोगों की जबान पर इस कदर चढ़ जाता है कि दर्शक देशभक्ति में सराबोर होकर थियेटरों के बाहर लाईनों तक में खड़ा रहता है। हालांकि वर्तमान समय में आधुनिक सुविधाएं मिलने की वजह से दर्शक ऑनलाइन ही टिकटों की खरीद-फ़रोख़्त कर लेता है जिसकी वजह से उसे लाइन में नहीं लगना पड़ता। लेकिन इसे ऑनलाइन टिकट खिड़की की लाईन भी कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
ख़ैर तड़कते-भड़कते सिनेमा के तड़कते-भड़कते प्रदर्शनों के बीच ऐसे ही कुछ लेख इस विशेषांक यानी विशेष अर्थों वाले अंक में शामिल हैं। जिसमें भारतीय सिनेमा से जुड़े हुए विभिन्न पहलुओं को उज़ागर करने वाले लेख तथा फिल्मों को आधार बनाकर लेखकों द्वारा लिखे गए लेखों में से चुनिंदा लेखों को शामिल किया गया है। इस पत्रिका के लिए आए सभी लेख तो शामिल करने योग्य नहीं थे फिर भी कोशिश रही मेरी कि भूल-चुक माफ़ करके नए लेखकों को स्थान दिया जा सके और साथ में कुछ स्थापित लेखकों को भी स्थान दिया जा सके। इन दोनों का सम्मिश्रण और लेखों की विविधताओं ने इस अंक को बेहतर बनाया है।
जाते-जाते आप सभी को आज़ादी के इस पावन पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं। आज़ादी का यह पावन पर्व एवं अमृत महोत्सव न केवल सिनेमा बनाने वालों के लिए अपितु आम दर्शक वर्ग के लिए भी कुछ अमृत रूपी सानन्द आपके जीवन में बिखेर जाए। कोरोना महामारी के इस वैश्विक संकट में सिनेमाघरों पर लगे ताले जल्द टूटें। आम घरों में बैठी महिलाओं की आजादी पर कोई पाबंदी न लगाए, बच्चे फिर से स्कूल-पार्कों में किलकारियां मारते हुए चुहलबाजी करें। आप और हम सिनेमा देखें, दिखाएं लेकिन अच्छा और सच्चा। क्योंकि मेरा मानना है यह भी एक विज्ञान एवं शास्त्र है जिसके चमत्कार दुनिया देख ही रही है सदियों से।