हिन्दी साहित्य के इतिहास में जब कविताओं के बेहतरीन दौर की बातें की जाती हैं तो सबसे पहले याद आता समाज को आंदोलित करने भक्ति काल,जिसके प्रभाव को आज भी हम महसूस कर सकते हैं। भक्ति काल के बाद 1000 वर्ष के इतिहास में दूसरा सबसे महत्वपूर्ण दौर माना जाता है छायावाद का जिसने स्वर्ण युग माने जाने वाले भक्ति काल के बाद सबसे प्रभावशाली तरीके से अपनी उपस्थिती दर्ज कराई। आज छायावादी काव्य आंदोलन के शुरू हुए 100 वर्ष बीत चुके हैं, इन सबके बीच इस आंदोलन को लेकर,छायावादी काव्य को लेकर बहुत से वाद-विवाद भी उभरे जिनको समझे बिना छायावाद की समझ अधूरी होगी। हिन्दी के महान आलोचक रामचंद्र शुक्ल ने छायावाद को कुछ अधिक गंभीर दृष्टि से देखा किन्तु अपनी सीमा के कारण छायावाद काव्य को दो संकुचित अर्थों में स्वीकार कर के रह गए। पहला यह कि रहस्यवाद के अर्थ में जहां उसका संबंध काव्य वस्तु से होता है अर्थात जहां कवि उस अनंत और अज्ञात प्रीतम को आलंबन बनाकर अत्यंत चित्रमयी भाषा में प्रेम की व्यंजना करता है। शुक्ल जी के अनुसार छायावाद का यह रहस्यवादी रूप पुराने संतों और साधकों की वाणी का अनुकरण है जो समाधि की दशा में नाना रूपकों के रूप में उपलब्ध आध्यात्मिक ज्ञान का आभास देती हुई मानी जाती थी। शुक्ल जी मानते हैं कि संतों की इस वाणी का प्रभाव ब्रह्मसमाज पर पड़ा था अतः वहाँ जो भजन बनते थे वो छायावाद कहलाते थे। धीरे-धीरे यह शब्द धार्मिक क्षेत्र से वहाँ के साहित्य क्षेत्र में आया और फिर रवीन्द्र बाबू की धूम मचने के बाद हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में प्रकट हुआ । दूसरा यह कि शैली के अर्थ में सान 1885 में फ्रांस में रहस्यवादी कवियों का एक दल खड़ा हुआ जो प्रतीकवादी या सिंबोलिस्ट कहलाया। वे अपनी रचनाओं में प्रस्तुत के स्थान पर अधिकतर अप्रस्तुत प्रतीको को लेकर चलते थे। इसी से उनकी शैली की ओर लक्ष्य कर के प्रतीकवाद का व्यवहार होने लगा। आध्यात्मिक या ईश्वर प्रेम संबंधी कविताओं के अतिरिक्त और सब प्रकार की कविताओं के लिए भी प्रतीक शैली की ओर वहाँ प्रवृत्ति रही। हिन्दी में छायावाद शब्द का जो व्यापक अर्थ रहस्यवादी रचनाओं के अतिरिक्त और प्रकार की रचनाओं के संबंध में ग्रहण हुआ वह इसी प्रतीक शैली के अर्थ में। इन समालोचकों ने छायावाद के साथ न्याय नहीं किया।
     छायावाद नाम के चक्कर में न पड़कर उसके द्वारा अभिव्यक्त होने वाले नए जीवन और कला की वस्तुगत व्याख्या प्रस्तुत करने की आवश्यकता थी।छायावाद विदेशी वस्तु नहीं है ,वह शुद्ध रूप से अपने समाज के नए जीवन की कलात्मक अभिव्यक्ति है। सामाजिक जीवन की विवेचना न कर छायावाद को शुद्ध विजातीय द्रव्य को मान लेना ऐतिहासिकबोध के सदोष होने का परिचायक है। छायावाद एकाएक नहीं पैदा हुआ था । उसके विकास के बीज आधुनिक काल के आरंभ से ही विशेषतया द्विवेदी काल से लक्षित होने लगे थे। इसलिए वह हमारी पूर्ववर्ती काव्य परंपरा का ही सहज विस्तार था। स्वछ्न्द्तावादी समीक्षकों तथा प्रगतिशील विचारकों ने छायावाद को तत्कालीन भारतीय जीवन से सम्बद्ध करके देखा – इन सबकी दृष्टि से छायावाद एक नवीन सामाजिक चेतना का परिणाम है। नन्ददुलारे वाजपेयी ने छायावाद की राष्ट्रीय चेतना पर विशेष बल दिया। ‘’खेद और आश्चर्य की बात है कि हमारे कतिपय समीक्षकों ने इस अत्यंत सीधी और सच्ची बात को कभी समझने की चेष्टा नहीं की कि हमारे इस युग के साहित्य की मुख्य प्रेरणा राष्ट्रीय और सांस्कृतिक है तथा इससे भिन्न वह कुछ और हो नहीं सकती थी। राष्ट्रीयता ने हमारे समस्त जीवन को अनेक रूपों से आंदोलित कर रखा था और हमारे कवि और लेखक भी इस दुर्दमनीय प्रयास से बच नहीं सकते थे। छायावाद का अपना जीवन दर्शन है,अपनी भाव संपत्ति है।यह दर्शन और संपत्ति नए युग की देन है।इतना मानते हुए भी वाजपेयी जी ने छायावाद को परंपरा का सहज विकास न मानकर परंपरा की प्रतिकृया माना। द्विवेदी काल मे मध्यकालीन पौराणिक धर्म-भावना और रीतिबद्ध वर्णन शैली विद्यमान थी। छायावाद का आरंभ मध्यकालीन रीतिकाव्य के अत्यधिक विरोध में हुआ । न केवल रचना शैली मे वरन जीवन दृष्टि में और उसकी भावना – कल्पना में छायावाद के कवियों ने वैयकतिक अनुभूतियों को मुख्य साधन माना था जबकि गुप्त जी के पदों में पौराणिक भावना और संस्कार तथा रीतिबद्ध वर्णन शैली का प्रभाव विद्यमान है। प्रतिकृया मान लेने से ऐतिहासिक विकास को सामाजिक सापेक्षता में देखना मुश्किल हो जाता है। बाद में नए समीक्षकों में नामवर सिंह ने छायावाद को प्रवाहमान परंपरा से ही जोड़ा है। जो भी हो वाजपेयी ने पहली बार छायावाद के भाव वैभव ,दृष्टिकोण तथा शिल्प कौशल की नवीनता को तत्कालीन युग के परिवेश में देखा और उसकी व्याख्या करते हुए उसका प्रबल समर्थन किया। छायावाद में व्यक्तिगत अनुभूति की प्रधानता ,मानवतावादी जीवन दर्शन तथा नवीन सौन्दर्य बोध का स्वर है।
अब छायावाद के १०० वर्ष पूरे होने पर आज देश भर में संगोष्ठियाँ आयोजित हो रही हैं,छायावाद के पुनर्मूल्यांकन की एक कोशिश हो रही है।इसी कड़ी में हमने भी अपनी पत्रिका के माध्यम से छायावाद के पुनर्मूल्यांकन का प्रयास किया है।इसमें जिन सुधी शोधार्थियों व अध्यापकों व हिंदी के पाठकों ने अपना सहयोग दिया है उसके लिए उनका हार्दिक आभार।आपके सहयोग व प्यार से हमें मज़बूती मिलती है,आपके ऐसे ही सहयोग से हम आगे भी कुछ बेहतर करते रहेंगे..।
डॉ.आलोक रंजन पांडेय

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