“अकंलजी , उठिए ,यह मेरी सीट है, यहाँ मैं रूमाल रखकर गया था । जो अब भी पड़ा है’’ । रामनाथजी  ने चौंक कर पीछे देखा जब युवा लड़के ने  आकर उनको टोका  । सचमुच एक छोटा सा रूमाल पड़ा तो है । ‘’बेटा, अब जब बैठ ही गया तो तुम कोई और सीट देख लो । मेरी थोड़ी तबियत खराब भी है ।” उन्होनें विनम्रता से कहा ।

आप खड़े हो जाइए अंकलजी, मैं यहीं बैठूंगा । मुँह में गुटका उँडेलते हुए वह बोला । आखिर रामनाथजी को खड़े खडे़ यात्रा करनी  पड़ी ।

स्‍टेशन से उतर कर  टेक्सी से वे सीधे अपने  परिचित मि. तिवारीजी के घर चले गए । दरअसल वे अपनी  बेटी संगीता  के लिए लड़का देखने के लिए आए थे । नाश्‍ता –पानी और इधर-उधर की बातों  के बाद तिवारी जी ने लड़के को बुलाया और बोले –‘’यह है मेरा  बेटा चिंटू । पढ़ाई –लिखाई में हमेशा अब्बल रहा है । अभी एक महीने पहले  शारीरिक शिक्षक के पद पर सरकारी स्कूल  में इसका चयन हुआ है ।तब से रोज कहीं न कहीं से रिश्‍ते का प्रस्‍ताव  आ रहे  हैं । रोड़ पर ही स्कूल है इसलिए फिलहाल रोजाना बस से ही  अपडाउन कर रहा  है । अभी वहीं से आ  रहा  है । बड़ा ही सेवा भावी और विनम्र है।

 खाँसी जुकाम की वजह से,  बस यात्रा के दौरान, रामनाथजी के मुँह पर रूमाल बाँध रखा था । इसलिए वह  लड़का उनको ठीक से  पहचान  नहीं  पाया,  पर  रामनाथजी  उसे  पहचान  गए ।

‘’भाई साहब मैं भी सेवा-भावी  और विनम्र लड़के ही की तलाश  में ही  हूँ । आप बहुत भाग्य-शाली हैं कि यदि आपके बेटे में ये सब  गुण  हैं । अन्यथा आजकल के लड़के तो बीमार और बूढ़े  बुजुर्गों  तक  को बस में सीट नहीं  देते । गलती से बैठ भी  गए,तो उठाने में नहीं  हिचकते। लड़के की ओर देखते हुए रामनाथजी बोले ।  अच्‍छा  अब बहुत देर हो गई है । बस का समय भी हो गया है । अब मैं चलता हूं – कहकर वे रवाना  हो गए ।

चिंटू के मस्तिष्क में बस यात्रा  की वह घटना कौंध गई। वह उन सज्‍जन को पहचान चुका था । मन ही मन शर्मिन्दगी ने  उसे चारों ओर से घेर लिया था ।

 

केदार शर्मा ‘निरीह’
राजस्थान

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