आधुनिकता के दौर में सब कुछ जल्दी-जल्दी बदल रहा है। किसी के मुताबिक ढलने का सोचो तब तक तो वह बदल जाता है। समझ नहीं आता बदलाव की ठावं और ठौर कहाँ। यद्यपि यह सच है कि परिवर्तन जीवन का सच है, पर सच ज्यादा नहीं, थोड़ा तो रुके। स्थिति बिल्कुल ठीक वैसे लगती है जैसे किराना की दुकान पर लिखी होती है ‘आज के युग में गारंटी की उम्मीद ना करे।’
पद्मजा जी का ‘हंसो ना तारा’ चित्रों का संग्रह पढ़ा। उनको पढ़ते हुए लगता है जैसे कल ही कहीं ऐसी बात सुनी थी। यह संग्रह हर उम्र की स्त्रियों की बात करता है। स्त्रियाँ अपने साथ सबको जोड़े रखती हैं। मकान भी घर तभी है जब उसमें स्त्री है वरना वह सिर्फ चारदीवारी है। संसार में भी, बाजार में भी, रौनक स्त्रियों से हैं। बाजार से अगर स्त्रियों के सामान की दुकानें हटा दे तो वे बेरौनक हो जाएगे मेले में भी मेले जैसे ना लगेगे। सारे कष्ट सहकर भी स्त्रियाँ अपने मकान को घर बनाने की भरसक कोशिश करती है। ‘हंसो न तारा’ की तारा बीमार है। बीमारी ऐसी कि लोग नाम सुनते ही मरीज को हकारत भाव से देखते हैं। तारा को यह बीमारी पति से लगी है। पूछो, पति को कैसे लगी तो कहती है–“वह दाढ़ी बनवाने दुकान पर जाता था। वही ब्लेड का कट लगा। दूसरी औरतों के पास नहीं गया। वह ऐसा बोलता है।”
तारा को यह भी पता है कि उसे यह बीमारी पति से हुई है। फिर भी पति पर कोई गुस्सा नहीं, कोई शिकायत नहीं। वह पति की मार-पिटाई खा कर भी उसी की सेवा में लगी रहती है। पति पर विश्वास करती है। वह मानती है कि उसका पति पराई औरतों को माँ, बहन-सा मानता है। वह कोई गलत काम नहीं कर सकता। अगर उसने गलत काम किए होते तो पश्चाताप थोड़ी करता”? तारा को लगता है गलती करने वाले अपनी गलती मानते ही नहीं फिर पछतावा कैसा”! ये तो कर्मो के फल हैं। तारा की तारीफ करनी होगी कि इन विपरीत परिस्थितियों में भी वह टूटती नहीं बल्कि अपने छोटे बेटे की इस बीमारी को देखते हुए निर्णय लेती है कि ”अपने बीमार बच्चे का ब्याह नहीं करेगी। पाप लग जाएगा। किसी की बेटी को धोखा नहीं देगी। वह तो नहीं देगी। पर उसे मिला।”
तारा को धोखा मिला, लेकिन फिर भी वह किसी को धोखा नहीं देना चाहती। पद्मजा जी तारा के माध्यम से स्त्रियों के मन की व्यथा को समझाती हैं। मन की विशालता और उसकी पारदर्शिता को शब्दों के चित्रों से अंकित करती हुई कहती है कि ”अधूरे सपनों की राख” में भी जाने कितने शोले दबे हैं। अपने सपनों को पूरा करने का मन हर एक का करता है। लेकिन सब कहाँ कर पाते हैं। स्त्रियों की बात करूं तो अव्वल सपने देखने का अधिकार ही नहीं और देखें लें तो सिर्फ देखें ही, पूरे करने का तो सोच भी नहीं सकतीं। औरत के सपनों का हर तार पति और बच्चों से जुड़ा होता है। जिस औरत का सपना खुद से जुड़ा होता है….. हालात और समय की कड़क धूप उसे जला देती है।”
‘अधूरे सपनों की राख’ में रेवती बाई व्यंग्यात्मक मुस्कान से कहती हैं- “औरतों के सपने पूरे नहीं होते बावली।” रेवती बाई का अपना अनुभव है कि अपने सपने पूरे करने के लिए परिवार तोड़ना पड़ता है। परिवार तोड़कर सपने पूरे कैसे करेंगे? औरत के लिए घर-परिवार भी महत्वपूर्ण है। अपने सपने तो पूरा करना चाहती है लेकिन परिवार की कीमत पर नहीं। औरत में ही वह हुनर है कि वह अपने मन को मारकर भी खुश रह लेती है। मन को मारना या मन को समझाने की कला औरतों में है। तभी वे अपने सपनों के स्वेटर हर सर्दियों में बुनती है भले ही वे स्वेटर, सपनों की तरह अधूरे रह जाए। रेवती बाई के सपने तो पूरे नहीं हुए लेकिन वे अब भी चाहती हैं कि-” हमारी बहू-बेटियों के सपनों का संसार खूब फूले-फले।”
पद्माजा औरतों की बात करती हैं तो लड़कियों की बात भी करती है। कहीं औरतों के सपने अधूरे की बात है, तो कहीं लड़कियों के बड़े कदमों की भी बात हुई है। बदलते जमाने की बदलती सोच ने लड़कियों को भी बदलने की मोहलत दी है। अब लड़कियां पिता, भाई, पति के पांव से नहीं अपने पांवों से चलना चाहती हैं। उन्हें अपने कैरियर की चिंता है। वे शादी से पहले अपने पांवों पर खड़ा होना चाहती हैं। अपनी जमीन पर कदम मजबूत करना चाहती हैं। भारती को पढ़ाई की कीमत मालूम है, वह जीवन में आने वाली कठिनाइयों का सामना करने के लिए खुद को मजबूत करना चाहती है। अपनी बुआ के लिए कहती है-“बुआ ने अच्छी पढ़ाई-लिखाई की होती तो फूफा जी की मौत के बाद पराश्रित नहीं होती।”
आज की सारी लड़कियां जॉब करना चाहती है। इसलिए पढ़ाई के साथ-साथ ऐसे कोर्स भी करती हैं जो उन्हें जीवन में आने वाले ‘अप एंड डाउन’ में एक जगह स्थिर रख सकें। वे जानती हैं रोशनी तक पहुंचने के लिए अंधेरों से गुजरना होगा। अंधेरा उन्हें डराता नहीं बल्कि रोशनी की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित करता है। यह प्रेरणा ही उनके बड़े कदमों को कभी पीछे नहीं हटने देती।
‘समय लौटकर नहीं आता’ शब्द-चित्र में भी पद्मजा उन लड़कियों के चित्र खिंचती हैं जो हॉस्टल में रहती हैं। हॉस्टल की जिंदगी के भी अपने सुख-दुख हैं। लेकिन मजा भी है। शुरू में जी नहीं लगता, घरवाले, घर का खाना, आस-पड़ोसी सब याद आते हैं। हॉस्टल में सीनियर्स रैगिंग लेती हैं, तब बगावत करने का मन करता है, कभी मन करता है होस्टल छोड़ कर भाग जाए। लेकिन रिफ्रेशर पार्टी हो जाने के बाद सब माहौल बदल जाता है। जो सीनियर रैगिंग लेते वे ही अब मदद के लिए हमेशा तत्पर है। बहुत कुछ सिखाती है, हॉस्टल की लाइफ। घर में हर काम के लिए मां-बाप का मुंह देखते रहने वाली लड़कियां अपना हर काम खुद करना सीख जाती है। ”पोस्ट ऑफिस, बैंक जाना, टिकट खरीदना, अकेले ट्रेवल करना सब आ गया। काम करना, करवाना भी सीख गए।” हॉस्टल में ही सीखते हैं रिलेशन बनाना और निभाना, टाइम मैनेजमेंट और समझौता करना बुरे से बुरे हालात में भी ‘ कूल’ बने रहना। हॉस्टल जिंदगी को कम संसाधनों में बेहतर तरीके से जीना सिखाता है। पद्मजा जी लड़कियों के मन परत दर परत खोलती हैं। वे उनकी सहेली बन कर उनके मन की बात जान लेती हैं। ‘हंसो तारा हंसो’ में उन्होंने विभिन्न विषयों को अपने शब्दों में मोतियों की तरह पिरोया है। ये मोतियों की लड़ियाँ हैं या औरतों के मानस में दबे-छुपे सपनों की श्रृंखलाऐ है, कहना कठिन है। परन्तु बहुत समय बाद शब्द-चित्रों की कथेतर विधा को पढ़ना सुकून देता है, मन को भाता है।
अत: पद्मजा जी के शब्द-चित्रों को संजय कुमार के शब्दों में कहे तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी,
‘‘कोमल है कमजोर नही तू, शक्ति का नाम ही नारी।
जग को जीवन देने वाली, मौत भी तुमसे हारी।।”

 

डॉ. नीतू परिहार
सहायक आचार्य, हिंदी विभाग,
मोहनलाल सुखाडिया विश्वविद्यालय, उदयपुर

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