अलका सरावगी का अद्यतन उपन्यास ‘जानकीदास तेजपाल मैनशन’ (2015) कलकत्ता के बड़ाबाजार (सेंट्रल एवेन्यू) में स्थित 80 परिवारोंवाली एक पुरानी जर्जर इमारत का नाम है। वह लगातार झुक रही है, उजड़ रही है, उखड़ रही है। 70 के दशक में भूमिगत मेट्रो का प्रोजेक्ट कलकत्ता में शुरू होता है और उसके प्रभाव से ऊपर बनी पुरानी इमारतें हिलने लगती हैं। सेठ जानकीदास का उत्तराधिकारी शेखर रतन इस इमारत को एस.वी.बिल्डर को बेचकर जा चुका है और बिल्डर ने इसे खाली करवाने का काम आफताब हुसैन जैसे गुंडो के हाथ सौंप दिया है।
अपने पिता की बीमारी की खबर सुनकर जयगोविंद ‘सिस्टम इंजीनियरिंग’ पर अपना रिसर्च अधूरा छोड़कर इसी दबड़े में रहने के लिए लौट आता है। कथानक का यह पक्ष ज्यादा महत्वपूर्ण है। अगर जयगोविंद अमेरिका से वापस नहीं आता या आकर फिर अमेरिका चला जाता तो कहानी की दिशा कुछ और होती। ‘मैनशन’ एडवोकेट बाबू की बनाई हुई और विरासत में दी हुई जगह थी। जयगोविंद इसलिए लड़ रहा था क्योंकि उसे ‘अपनी जगह के बदले हर कीमत पर उतनी ही जगह चाहिए थी। इससे कम कोई सौदा उसे करना ही नहीं था’। जयदीप ‘मेट्रोपीड़ित बंधु एसोसियेशन’ का प्रेसीडेंट बनता है और ‘मैनशन’ को बचाने के लिए कोर्ट-कचहरी, पुलिस-थाना, कॉरपोरेशन और मेट्रो रेल के दफतर के कई चक्कर लगाता है। इस तरह के अनुभव से गुजरते हुए वह स्वयं को एक ‘नये जयदीप’ के रूप में पाता है, जिसपर लोग विश्वास करते हैं- ‘लोग आफताब हुसैन और पप्पू भैया बनाने के लिए अपने पैसे लगाते हैं, लोग जय बाबू बनाने के लिए इससे भी ज्यादा पैसे लगा सकते हैं’।
अंतर्विरोध तब पैदा होता है जब प्रीतम भंसाली की जमीन खाली कराने और बेचने में जयगोविंद की भूमिका लगभग आफताब हुसैन या तिवारी जैसे गुंडे की तरह हो जाती है। वह दिवाकर घोष की मदद से बेहाला की जमीन खाली करवाता है। यह अनायास नहीं कि वहॉं रहने वाली बुढियों जयगोविंद को अपना प्रतिरूप लगने लगती है क्योंकि वह भी उसी की तरह किसी हाल में अपनी जगह छोड़ने को तैयार नहीं है। ‘उधर बुढिया भागी, इधर जयदीप। एक ही रात में दोनों बेघर हो गए थे।‘ अंत में लेखिका जीवन के इस शाश्वत सत्य को अर्जित करती है कि ‘बेदखल होना और बेदखल करना दोनों एक साथ होते ही हैं।‘
यह अंतर्विरोध ही इस युग का यथार्थ है यानी मनुष्य अंतर्विरोंधों में जीता है जो उसके अस्तिस्व के लिए जरूरी है। यह अंतर्विरोध तब और भी स्पष्ट हो जाता है जब आफताब हुसैन के जवाब में जयगोविंद कहता है कि यदि वह जानकीदास का पुत्र शेखर रतन होता तो वह भी यही करता यानी जानकीदास तेजपाल मैनशन से सबको बाहर निकालने की कवायद!
इस उपन्यास का दूसरा पक्ष मकानों के दुकानों में तब्दील होते जाने की व्यथा को भी दर्शाता है जो पूरे कथाचक्र में समानांतर गति से चलती रहती है। रहने की जगह अगर बाजार में बदल जाए तो आदमी के लिए वह घर ‘घर’ नहीं रह जाता। बड़ाबाजार दरअसल होलसेल मार्केट का एक बडा़ बाजार है, जहॉ रोज करोड़ों रूपयों का लेन-देन होता है। वहॉं के रिहायशी इलाके कारोबार की जगह में तब्दील होते जा रहे हैं। दिल्ली के लाजपतनगर, कमला नगर या रजौरी गार्डेन की कोठियों का बड़े आउटलेट और मॉल में तब्दील हो जाना या पुरानी दिल्ली के चॉंदनीचौक की अ़ंदरूनी गलियों में तमाम तरह की दुकानें, गोदाम और फैक्ट्री का चलना न केवल बाजारीकरण के फैलाव की ओर संकेत कर रहा है बल्कि बढ़ती आबादी की जरूरतों को पूरा करने में नाकाम सिस्टम को भी दर्शाता है। इस उपन्यास में 200 परिवारों वाले ‘हनुमानगढ हाउस’ का भी यही अंजाम होता है, जिसे तोडकर शॉपिंग मॉल बना दिया जाता है। इसी तरह ‘भालोटिया हाऊस’ को भी तोड़कर धाराशायी कर दिया जाता है। ‘जानकीदास तेजपाल मैनशन’ का भी यही भविष्य है। यहॉं रहनेवाला जयगोविंद किसी कीमत पर इसे छोड़ने के लिए तैयार नहीं होता, बावजूद इसके कि रहने की यह जगह ‘चूजों का दबड़ा’ बनकर रह गया था और जहॉं सामूहिक पाखाने में जाना एक मजबूरी थी। पर यह भी एक सच्चाई है कि जयगोविंद ‘मैनशन’ को नहीं बचा पाता है क्योंकि यह अधिकार से जुड़ी हुई लड़ाई नहीं थी और ‘ऐसी लड़ाई की गुंजाइश न किसी के दिमाग में थी न हकीकत में।‘
इस उपन्यास का नायक है जयगोविंद जो अपने आत्मकथात्मक उपन्यास में जयदीप को रचता है। कथानक में इन दोनों की भूमिका एक ही चरित्र का प्रतिनिधित्व करती है। जयदीप एक ऐसा नायक है जिसमें ‘गुस्सा फूटते फूटते फुस्स’ हो जाता है। वह अमेरिका रिटर्न है मगर अपने मुहल्ले में चीख-चीखकर कहना चाहता है कि ‘यकीन करो मैं तुममें से ही एक हूँ’। दूसरी तरफ उसका ‘निछोह गोरा रंग’ अमेरिकियों की नजर में ‘ब्राउन’ ही रहेगा यानी वह उनके बीच भी पूरी तरह नहीं जम सकता। इस तरह वह उनके बीच ‘हीन’ और अपने लोगों के बीच ‘दीन’ बने रहने की नियति से ग्रस्त है। यही कारण है कि ‘मैनशन’ के अहाते में घुसते ही उसे राहत मिलती है। इसे वह ‘निरी अपनी दुनिया’ लगती है जहॉं वह फब्तियाँ कसती निगाहों से बच सकता है।
यह स्थिति कमोबेश उस युग के अधिकांश युवावर्ग की है जो स्वयं से निर्वासित है। जयदीप जानता है कि अमेरिका से सिस्टम्स इंजीनियरिंग की रिसर्च अधूरी छोड़कर वह मॉं-बाप के लिए वापस लौट आया मगर उसका बेटा रोहित उसकी तरह उसके कहने पर भी लौटकर नहीं आएगा। अपने आप को पुरानी पीढ़ी से काटना आसान नहीं होता, वे संस्कार के रूप में मौजूद होते हैं। जयगोविंद इस बेड़ी से बंधा हुआ है पर उसका बेटा रोहित इससे मुक्त। रोहित वर्तमान समय की मांग के अनुरूप प्रोफेशनल है, जबकि जयगोविंद इमोशनल! एडवोकेट बाबू या जयगोविंद के लिए जानकीदास मैनशन में रहना जीवन-मरन का प्रश्न है मगर रोहित के लिए वहॉं रहना समस्या, इसलिए उसकी पसंद की जगह कहीं और हो सकती है मगर ‘मैनशन’ नहीं। जयदीप का भी मोहभंग होता है मगर समय निकल जाने के बाद। बाद के दिनों में उसके लिए ‘पुरानी बातें, पुराने मूल्य, पुरानी पीढी और उनका इतिहास’ – ये सब चीजें उसके कोई काम की नहीं है। समय का निकल जाना जयदीप के लिए एक बडी त्रासदी है। आधुनिक समय में परिवार बिखर रहा है, कस्बों में, शहरों में, देशों में। इस बिखराव से बचने का कोई रास्ता नजर नहीं आता क्योंकि न विकल्प मौजूद है और न ही चुनाव के अवसर। मनुष्य इसे अपनी नियति मान लेता है।
आदमी अपने लिए परिवार और समाज- दोनों जगह सम्मान चाहता है। लेकिन वह दोनों जगह अकेलेपन से जूझ रहा है। अपनी प्रिय पत्नी दीपा की मृत्यु के बाद दुनिया की नजरों में खुद को ‘छुट्टा सांड’ माननेवाला जयगोविंद जानता है कि ‘इस जीवन में एक पत्नी जीवन की सबसे बड़ी कैरेक्टर सर्टिफिकेट होती है।‘ दूसरी तरफ विलास जैसे लोगों की कमी नहीं है जिनके लिए दूसरी की पत्नियों से रिश्ता कायम करना ‘आर्ट ऑफ लविंग’ मात्र है। पत्नीविहीन जयगोविद में ‘अमेरिका का पूरा वायरस’ घुस जाता तो उसे अकेलापन नहीं सालता। उसे ‘नींद, सपना और मृत्यु’ के विचार से नहीं जूझना पड़ता ! हालॉंकि यह भी उसका भ्रम है।
जयगोविंद अपनी ‘सेल्फ पिटी’ को अपने उपन्यास में जयदीप बनकर अभिव्यक्त करता है। एक जीवन जयदीप के रूप में जो उसका स्वरचित है, जिसमें वह यथार्थ को कल्पना से बेहतर कर सकता है मगर वह ऐसा नहीं करता। जयगोविंद जयदीप को गाली खानेवाला और पिछलग्गू के रूप में दिखाकर यथार्थ की कड़वी सच्चाई को दर्शाता है। व्यक्तित्व के ये दोनों रूप एक-दूसरे से अलग नहीं, जिसका एक हिस्सा नौकरी की तलाश से जुडा़ है, तो दूसरा उसके निवास-स्थान से, जिसके उजड़ने की कहानी में भारत की एक मुकम्मल तस्वीर उभरती है। भारत में नक्सलबाड़ी आंदोलन हो या अमेरिका में वियतनाम की लडा़ई के खिलाफ आवाज, या विकीलीक्स के खुलासे हों, ये सब प्रकारांतर से युवा-वर्ग और सत्ता के बीच असंतोष को जाहिर करता है। यह युवावर्ग अंतर्विरोध से ग्रस्त है मगर रास्ते तलाशने की जीद पर अड़ा है।
जयगोविंद का संबंध ‘पोस्ट-वॉर पीढ़ी’ से है। जयगोविंद के नक्सलवादी मित्र शांतनु बनर्जी और देवनाथ मुखर्जी इसी व्याकुल पीढ़ी के हैं और बाद में जिनका इस बात से मोहभंग हो जाता है कि कम्युनिस्ट भी पॅूजीवाद और साम्राज्यवाद के पोषक हो गए हैं। देवनाथ मुखर्जी नक्सलवाद छोड़कर एम.एन.बाटलीवाला एण्ड कंपनी का अधिकारी बन जाता है। हिंसा की राजनीति उसे नहीं सुहाती- ‘हिंसा को एक बार सही मान लेने से मनुष्य ‘मनुष्य’ नहीं रह जाता’। कहीं न कहीं लेखिका की अपनी पक्षधरता भी देवनाथ के इस कथन से जुड़ी है। वह इस तरह की छद्म क्रांतिकारिता को जायज नहीं मानती। समरेंद्र किल्ला के शब्दों में शांतनु बनर्जी के लिए ‘नक्सलवाद’ ‘एक नया रोमांस’ है (जब उसके साथी ट्राम जला रहे थे, शांतनु अपनी ही कार जलाकर उनका साथ दे रहा था)। जयगोविंद की नजर में शांतनु की यह छटपटाहट हर आदमी की छटपटाहट है।
जयगोविंद की महिला-मित्र मिशेल अमेरिका में वियतनाम के खिलाफ लड़ाई का पुरजोर विरोध करती है। उसका यह कहना कि ‘हमारे सामने फिलहाल जो मुद्दा है उसी से भविष्य के मुद्दे निर्धारित होंगे’ जयगोविंद को ये सोचने पर मजबूर करती है कि ‘एक धारणा के तौर पर, व्यक्ति के अधिकारों की लड़ाई बची हुई है’। और यही बात संतुष्ट करती है कि लेखिका बेघर होने को अंत नहीं मानती। जब तक संघर्ष है, प्रतिरोध है, तबतक रहने की जगह बनी रहेगी, जीने की आस बची रहेगी।
यह उपन्यास राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय घटनाओं का कोई ऐतिहासिक दस्तावेज नहीं है और न ही लेखिका की प्राथमिकता। उनकी थोड़ी-बहुत मंशा तात्कालिक परिवेश में युवाओं के समक्ष रोजगार की चुनौतियों को भी रेखांकित करना है। आजादी के बाद सरकार और प्रशासन के घालमेल के बीच किस तरह कमीशनखोरी, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार ने जगह बनायी है, यह लोकतंत्र में लूटतंत्र की ओर इशारा करती है। रोजगार का प्रश्न जीविका का प्रश्न है। जैसे-जैसे परिवेश बदला है, आजादी के बाद लोगों की प्राथमिकताऍं बदली है, तत्कालीन युवावर्ग अपनी जरूरतों और मौजूदा राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों के दबाव में जोखिम-भरे कदम उठाने के लिए मजबूर है। इसलिए लोकतंत्र के समक्ष नक्सलवाद, उग्रवाद और आतंकवाद जैसी समस्या है। रोजगार के रूप और मायने बदल रहे है। आफताब हुसैन एक छोटा-सा कपड़ा व्यापारी है लेकिन बाजार में बने रहने के लिए वह प्रशासन और ठेकेदारों से सॉंठगाँठ रखता है और उनका गुर्गा बन जाता है। इसी तरह पप्पू, भोला और तिवारी जैसे छुटभैये गुंडे व्यापारियों या मकान-मालिकों की छत्रछाया में पलकर ताकत अर्जित कर रहे हैं। रोजगार के घटते अवसर के बीच दादागीरी का यह नया धंधा है। ध्यान देनेवाली बात ये है कि लेखिका ने आफताब हुसैन, दिवाकर घोष जैसे असामाजिक तत्वों के चरित्र को नकारात्मक बनाकर पेश करने की बजाए उसे परिस्थिति की उपज माना है।
रोजगार के अवसर सीमित हो रहे हैं। जो क्रीम हैं, उनके पास कई-कई नौकरियों के ऑफर हैं। अमेरिका में रिसर्च करनेवाला दीपंकर सेन एक वैज्ञानिक का बेटा है, भारत में नौकरी उसका इंतजार कर रही है, मगर जयदीप के लिए यह बात नहीं। उसके पास दो विकल्प है, अपना बिजनेस या किसी कंपनी में नौकरी। जयगोविंद का छोटा बेटा सुमित बंबई में कई नौकरी बदल चुका है और हर बार उसे पहले से ज्यादा सैलरी पर रखा जाता है। दूसरी तरफ बड़ा बेटा रोहित अमेरिका में अच्छी पोस्ट पर है लेकिन उसके लिए वहॉ परेशानी कुछ और ही है-’नीद ही मेरे लिए एक ऐसी महंगी कमोडिटी है, जिसे मैं खरीद नहीं सकता।‘
अमेरिका में एसिस्टेंट प्रोफेसर की नौकरी करने के बाद जयगोविंद भारत आकर आयरन पाउडर की फैक्ट्री लगाता है लेकिन सरकार की आयात नीतियों की वजह से वह बंद हो जाता है। इसके बाद वह बिड़ला जी के ‘हिंद मोटर कंपनी’ में नौकरी करता है और वहॉं के सिस्टम को अपग्रेड करना चाहता है। वहॉं के अधिकारी और कर्मचारी उसे पचा नहीं पाते हैं। लेकिन ’जब उसने अमरिका की सुविधाओं को छोड़कर इस देश में रहने का फैसला कर ही डाला था, तो जो हो उसे सहना था। सहना ही नहीं, बदलना भी था।‘ जयदीप के एक शिफ्ट के पैसे बचाने वाले प्रस्ताव पर उसे शाबाशी की बजाए एक कप चाय की प्याली के लिए फटकारा जाता है। जयदीप वहॉं से त्यागपत्र देकर निकल जाता है। किसी कंपनी में अपने लिए जगह बनाना आसान नहीं होता, चाहे आप हुनरमंद ही क्यों न हों – यह इस तथ्य को रेखांकित करता है।
आस्था और पूँजी में भी एक घालमेल है। अपने पड़ोसी व्यास जी के मार्फत जयदीप राजाराम बाबू से मिलता है और वह उनके जूट मिलों में कंप्यूटर लगाने और चलाने का काम करने लगता है। ये वही व्यास जी हैं जिन्होंने जयदीप की ‘चिर-दरिद्रता’ की जन्मपत्री राजाराम बाबू को बताई थी। यह बात मालूम होने के बाद वह खिन्न हो जाता है और व्यास जी को सोने की कंठी देकर उसकी भविष्यवाणी पर प्रश्नचिह्न लगा जाता है। इसके ठीक बाद राजराम बाबू और व्यास जी-दोनों को अपनी जिंदगी से निकालकर वह राहत की सांस लेता है। वह जूट मिलों में कंप्यूटर लगाने के काम शुरू करता है लेकिन जूट मिल का काम ठप्प होने के बाद उसका भी काम ठप्प हो जाता है। वह न समर शुक्ला की दलाली का काम ठीक समझता है न ही बैंक से भारी लोन लेकर काम करनेवाले रमेश खेतान का पार्टनर बनना पसंद करता है। वह प्रीतम भंसाली के साथ भी नहीं जुड़ना चाहता, जिसके कॉल सेंटर और फर्जी कंपनियों पर केस चल रहा है। प्रीतम भंसाली के साथ कंप्यूटर आयात के लिए पार्टनरशीप शुरू होने से पहले ही बंद हो जाती है, क्योंकि सरकार बाद में लायसेंस देना ही बंद कर देती है। इसके बाद वह भंसाली के कलकत्ता की जमीन बिकवाने का काम अपने हाथ में ले लेता है। आश्चर्य की बात यह है कि जयगोविंद जिसे ठीक नहीं समझता, वह उसमें भी किसी न किसी रूप से जाने-अनजाने शामिल हो जाता है। वह नक्सलवादी दोस्तों का साथ देता है। वह शेयर बाजार में भी हाथ आजमाता है। वह स्टील खरीदने-बेचने के दो नंबरी धंधे में जेल भी हो आता है। अखबार ‘विचार शक्ति’ के जरिए ब्लैकमेल का धंधा करनेवाले मिंटू चौधरी के साथ भी उसका उठना-बैठना रहता है।
इस तरह इस उपन्यास में रोजगार के बनते-बिगड़ते अवसर के बीच सत्ता और ठेकेदारों की मिलीभगत, लाइसेंस राज और मोनोपोली भी उजागर हुई है। जयदीप इसी देश में रहकर विमल कोठारी या समर शुक्ला बनना चाहता है लेकिन समस्या ये है कि भारत ‘दलालों का देश है’। इसमें जमने के लिए दूसरे को उखाड़ना पड़ता है और यह पूँजी से संभव है। विमल कोठारी की डलहौजी में आलीशान दफतर इस बात का परिचायक है कि ‘पैसा होना ही इस देश में सबसे बड़ी काबिलियत है’।
नवसाम्राज्यवाद धीमे जहर की तरह फैल रहा है और अपनी लुभावनी छवि प्रस्तुत कर रहा है। अमेरिका आउटसोर्सिंग के जरिए भारत में अपने एजेण्ट पैदा कर रहा है, जो खाते-पीते हैं भारतीय की तरह, मगर सोचते हैं अमेरिकन की तरह। एन.आर.आई. की नई पौध अपनी जड़े जमाने में लगी हुई है जो भारत की अर्थ-व्यवस्था को मजबूत करेगी या कमजोर, इस पर राय कायम करना जल्दबाजी होगी। इसकी एक झलक इस उपन्यास में दिखाई देता है जब जयगोविंद को विजेन राव की बातों से पता चलता है कि एक बड़ी योजना के तहत उसे अमेरिका भेजा गया था। अमेरिका भारत में खाद, बीज आदि उत्पादों के लिए अपना बाजार तैयार करना चाहता है और इसके लिए वह भारत की अर्थव्यवस्था में अपने एजेण्ट तैयार कर रहा है। विजेन राव की नजर में अमेरिका एक नवसाम्राज्यवादी देश है जो अपनी दौलत के जोर से दुनिया पर अपनी पैठ कायम करना चाहता है –‘अमेरिका के पास धन की ही तो ताकत है कि वह सच को झूठ और झूठ को सच बता रहा है। क्या किसी की ताकत है कि अमेरिका को ऐसा करने से रोक सके?’
विस्थापन, प्रवास और पलायन में मामूली फर्क है। स्वेच्छा से अपना स्थान छोड़ना प्रवास कहलाता है और किसी के द्वारा निकाल दिए जाने पर विस्थापन या पलायन। दोनों ही स्थितियों में जगह छूटती है, पर उस जगह की यादें और मोह शायद ही छूटता हो- ‘क्या इतना आसान है एक शहर को छोड़ देना- सारे परिवार, दोस्तों, हवा, पानी को? उसका जैसा भी जितना भी कुछ है, सब यहीं है। यहॉं उसकी अपनी बनायी दुनिया है’।
इस उपन्यास में एन.आर.आई. की मन:स्थिति का भी जायजा लिया गया है। लंदन में ‘जैगुअर’ कंपनी में काम करनेवाला जयंत भाई इंफेक्शन के डर से भारत आने से घबराता है। समरेंद्र किल्ला इंडिया और अमेरिका के बीच त्रिशंकु-सा जीवन जीता है। यह केवल उसका अंतर्द्वंद्व नहीं बल्कि उसकी पीढ़ी के सभी लोगों की है। विजय जैन अमेरिका में बस गया मगर वह हमेशा यही कहता रहा कि-‘मैं अपने देश में मरना चाहता हूँ। साली ये भी कोई जिंदगी है’। लेकिन वह भारत कभी नहीं आ सका। दूसरी तरफ अमेरिका से वापस लौटे जयदीप को भी यह अहसास है कि अमेरिका ने उससे उसका देश छिन लिया है। उसका बेटा रोहित भारत वापस नहीं आना चाहता क्योंकि उसे भारत जातियों का एक ‘चिड़ियाघर’ लगता है। जयगोविंद ने अपनी जिंदगी कलकत्ता में बिताई है। ‘मैनशन’ उनके पिता की विरासत है। ‘मैनशन’ से निकलकर वह अपने छोटे बेटे सुमित के पास मुंबई जाने की तैयारी कर लेता है। लेकिन वह जानता है कि ‘मुंबई जाने का मतलब है एक दूसरा जन्म लेना।‘
पिलानी से पढी ‘इंजीनियर बहू’ दीपा के मन में जॉब करने का ख्याल नहीं आता। हैरत की बात नहीं कि जयदीप के बिजनेस में नुकसान को वह शुक्र दशा का दोष मानकर दुखी होती है। साथ ही उसका यह कहना कि ’आदमी की असफलता सिर्फ उसी की जिम्मेदारी नहीं होती, यह पूरे ‘सिस्टम’ की नाकामी है’ – दीपा की कार्य क्षमता और संभावनाओं पर भी संकेत करता है।
उन स्त्रीविमर्शकारों को थोड़ा निराश होना पड़ेगा जो ‘शेष कादंबरी’ की तरह इस उपन्यास में जेंडर-विभेद के मसले को ढूँढ़ने की कोशिश करेंगे। साथ ही यह बात एक सुखद एहसास कराती है कि जयगोविंद की आत्मकथा यानी एक पुरूष की आत्मकथा लिखना एक लेखिका के लिए कितना चुनौतीपूर्ण रहा होगा। पात्र और उसकी सोच को इतनी गहराई से स्पर्श किया गया है कि आप उनके लेखन के कायल हो सकते हैं। यह उपन्यास उन धारणाओं को ध्वस्त करती नजर आती है जहॉ लेखन को लिंग के आधार पर आलोचना का विषय बनाया जाता है। जेंडर विभेद का मसला कही नजर भी आता है तो बहुत मामूली। जेंडर विभेद एक सामाजिक सच्चाई है जिसमें लिंग के आधार पर भेदभाव किया जाता है। यह भी संस्कार में नीहित होता है। जैसे- रोहित का सॉवला रंग उसकी शादी की राह में एक अड़ंगा है। फिर भी उसके पिता जयदीप को इस बात की तसल्ली है कि रोहित अगर लड़की होता तो उसकी ‘मुसीबत दुगुनी’ होती। एक अन्य प्रसंग में बताया गया है कि प्रेम जैसी चीज पुरानी पीढ़ी के लिए नर-मादा का संबंध और वंश-वृद्धि से ज्यादा कुछ नहीं। तब ‘पति परमेश्वर होता है- यह बात तो उन दिनों मॉं के दूध से ही लड़कियों में चली आती होगी।‘ दीपा में अपने पति के लिए अगाध प्रेम है जो मैनशन के जर्जर इमारत में गुजारा करती है। बकौल लेखिका, ‘अमेरिका से लौटे नायक को दिल्ली में बंगले में रहनेवाली पत्नी का इस बावत शिकायत न करना उसके प्रेम का प्रमाण लगता है।‘ ( फेसबुक, 10 जून 2015) दूसरी तरफ दाम्पत्य जीवन के विनोद को भी रेखांकित किया गया है- ‘एडवोकेट बाबू के लिए चुप रहना जीने का एक तरीका था। मॉं के लिए एक नया पाया गया हथियार’।
‘जानकीदास तेजपाल मैनशन’ उपन्यास से पूर्व अलका सरावगी के चार उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं- कलिकथा वाया बाईपास (1998), शेष कादंबरी, कोई बात नहीं और ब्रेक के बाद । ‘मैनशन’ की कथा बहुत कसी हुई और संश्लिष्ट है। इसके आठ अंश एक दूसरे से न केवल गॅूथे हुए है बल्कि अतीत की आवाजाही के बीच ही जयगोविंद और जयदीप की शिफ्टिंग चलती रहती है। अंशों में विभाजन का कोई क्रमिक आधार नहीं है, पर वह उसमें निहित विषयवस्तु का द्योतक अवश्य है। आलोचकों ने इस उपन्यास में रूपक की संभावनाओं को तलाशा है- यानी ‘मैनशन’ इमारत का ढहना पूरे भारत के ढहने का सूचक है, पूरी व्यवस्था के ढहने का संकेत है। नामवर सिंह जी ने अमेरिका के संदर्भ को इसमें मोटिव के रूप में देखा है। मदन कश्यप मानते हैं कि पूँजी की क्रूरता पर टिप्पणी नहीं कर पाने के कारण यह उपन्यास रूपक नहीं बन पाया है, वह मात्र संकेत करके रह गया है। मुझे लगता है कि यह उपन्यास उस युवावर्ग की प्रतिनिधित्व करता है जो आधुनिक भारत में अपने आपको एडजस्ट करने की जद्दोजहद कर रहा है। इसी क्रम में वह कभी सिस्टम से सॉठगॉठ करता है, कभी उसका विरोध करता है तो कभी उसकी कमजोरियों का शिकार होता है।
कथानक 8 अंशों में रचा गया है- जयदीप गुप्ता उर्फ जैग यानी फॉरन रिटर्न्ड इंजीनियर/ क्या पिछला देखा सही देखा था/जहॉ चाहो, वहीं फिर शुरूआत है/ ले देकर आदमी के पास एक ही जिंदगी है/ पहली और अंतिम नौकरी/लेकर दिल का एकतारा: कलकत्ता, बंबई, अमेरिका/सफरनामा: तीस से चालीस यानी अहमक से समझदार/क्या आप मुझे एक मुर्दा दिलवा सकते हैं?
जयगोविंद इस उपन्यास के दूसरे, चौथे, छठे और आठवें अंश में विद्यमान है और पहले, तीसरे, पॉचवे और सातवें अंश में उसी के आत्मकथानक उपन्यास का नायक जयदीप उपस्थित है। देखा जाए तो जयगोविंद और जयदीप की कहानी एक दूसरे में पूरी तरह समाहित है। वे एक-दूसरे के प्रतिरूप हैं, प्रतिनिधि है जो एक ही घटनाक्रम को आगे बढ़ाते हैं। इससे कथा में कहीं व्यवधान नहीं आया है बल्कि इस प्रविधि ने कथानक को और रोचक बना दिया है और तकनीक को मौलिक भी। नामवर सिंह ने इस प्रविधि की तारीफ भी की है।
आत्मकथा लिखते हुए रचनाकार यथार्थ को एडिट करता हुआ चलता है, कहीं कुछ छिपा जाता है और कहीं कुछ न भी हुआ हो तो गढ़ लेता है। रचनाकार यदि एक ही व्यक्ति को दो रूप में प्रस्तुत करता है तो यह केवल शिल्प के नयापन के लिए नहीं है। यह व्यक्तित्व-विभाजन आसानी से दिखा पाता है, साथ ही इस रूप में लेखिका अपने पात्र के अंतर्द्वंद्व को, स्वप्न और यथार्थ को सलीके से निभा जाती है। मुझे लगता है कि उपन्यास का नायक जयगोविंद अपने आत्मकथात्मक उपन्यास के नायक जयदीप से कहीं ज्यादा मजबूत है। जयगोविंद को याद नहीं कि उसके जीवन में किसी ने पीछे से गाली भी दी हो मगर अपने उपन्यास में जयदीप के लिए गाली कहीं न कही उसके अपने अवसाद और निरर्थकताबोध की उपज है। जयगोविंद स्टील खरीदने-बेचने के दो नंबरी धंधे में जेल भी हो आता है। स्टील चोरी में स्वयं को निर्दोष साबित करने की जयदीप की सफाई पर एडवोकेट बाबू ने भरोसा किया या नहीं, उनका चेहरा नहीं देख पाने के कारण उसे स्पष्ट नहीं हो पाया था। पर अपनी आत्मकथा में यह लिखकर वह स्वयं को बरी करना चाहता है कि एडवोकेट बाबू के चेहरे से शिकन मिट चुका था। राधेश्याम बाबू के लिए जयगोविंद दमे की दवा की तरह है जबकि अपने उपन्यास में जयदीप राधेश्याम बाबू उर्फ राजाराम बाबू का ए.डी.सी. बना हुआ है। जयगोविंद वास्तविक जीवन में किसी का ‘पिछलग्गू’ नहीं बना। इस तरह जयदीप के रूप में जयगोविंद उन स्वप्नों को जीना चाहता है जो उसकी कमजोरी और डर से पैदा हुए हैं, जो समय के राजनीतिक और सामाजिक गतिरोध की उपज है।
‘उधर बुढिया भागी, इधर जयदीप। एक ही रात में दोनों बेघर हो गए थे’ – लेखिका ने जयगोविंद के आत्मकथात्मक उपन्यास में ढहते मकानों से बुढिया और जयदीप- दोनों के पलायन के ‘संयोग’ को ‘पुरातनपंथी तरकीब’ माना है। इस तरह कही न कहीं यहॉ प्रविधि के पुराने ढॉचे को तोडे बिना उसमें नया प्रयोग किया गया है। प्रतिरोध का स्वर इस हवा में घुला रहेगा, विरोधी शक्तियों की जीत के बावजूद। यह आने वाले समय में उस आशा को जीवित रखता है जहॉं बाजार की बढ़ती ताकत के सामने कमजोर होते आदमी के पास लड़ने की चुनौती हमेशा रहेगी। यहॉं यह भी कहना प्रासंगिक है कि कथा के नायक में यदि बेदखल होने की पीड़ा है तो बेदखल करने का दुस्साहस भी। इसे जायज ठहराया जाए या नहीं- यह अलग प्रश्न है।
लेखिका कथा और शिल्प, दोनों के प्रति एक साथ सजग है। इसके लिए उनके पास अपने मौलिक पात्र हैं और उन पात्रों का अपना चरित्र। कथानक की बुनावट में फ्लैश बैक प्रविधि का उपयोग किया गया है जिसके भीतर आत्मकथा की शैली उसे और रोचक बनाता है। उपन्यास अपने समय और स्थान में पूरी तरह उपस्थित है, अपने पूरे संदर्भ के साथ। ‘मैनशन’ के नीचे मेट्रो की खुदाई का दृश्य लेखिका ने बखूबी उतारा है- खुदाई की मशीन से रात के सन्नाटे में अजीब-अजीब आवाजें आने लगी- ‘ कभी लगता कि कहीं दूर किसी ने चीत्कार किया हो, तो कभी लगता कि आस-पास में कोई जूते चरमराकर चल रहा हो।‘ जूतों की यह चरमराहट विकास की आहट है, लेकिन उसमें हाशिये पर पड़े लोगों की चीत्कार भी गूँज रही है। हथौड़ों की धमधम और बंद खिड़की से अंदर आता धूल मानो ‘ उनके शरीर, मन, आत्मा सबको दफन’ करने के लिए बेताब हो। हथौड़ा इमारत को नहीं, वहॉं रहनेवाले को झिंझोड़ता है- ‘नींद के अलावा उस मकान में ऐसा कुछ नहीं बचा था, जिसे वे लोग उनसे छीन सकते थे’। कई तकियाकलाम/मुहावरे उपन्यास में यथार्थ को और गहन करते हैं, जैसे-‘रूल्स आर फौलोड बाय फूल्स’, नथिंग कम्स फॉर फ्री, ‘आदमी की बस एक ही समस्या है- दिल लगने या न लगने की’। फुटपाथ के उजड़ने की तुलना ‘सिर मॅुडाई हुई जवान बंगाली विधवा’ से की गई है।
पाठक को दर्शक बनाने की कला कम ही रचनाकारों में होती है। अगर कथानक में नाटकीयता और रोचक घटनाऍं मौजूद हैं तो उसपर कई एपिसोड तैयार किए जा सकते हैं। उपन्यासकार के लिए यह कसौटी बहुत जरूरी नहीं है, फिर भी इस उपन्यास पर सीरियल या फिल्म बनने की गुँजाइश कितनी है, यह जिम्मेदारी डायेक्टर के अलावा रचनाकार को भी वहन करना चाहिए। यह बहुआयामी दृष्टि इस बाजारवादी युग में रचनाकार के लिए भी फायदेमंद है- नाम और मुनाफा, दोनो के लिए।
अलका सरावगी ( फेसबुक 4 जून 2015) ने कुँवरनारायण जी की यह बात उद्धृत की है-‘मैं एक ऐसे उपन्यास की कल्पना करता हूँ जिसकी गति एक थ्रीलर जैसी हो।‘ और उनका स्वयं से यह प्रश्न है कि ‘ क्या साधारण जीवन पर लिखे मोटामोटी घटनाविहीन उपन्यास में ऐसी गति साधी जा सकती है’?
इस प्रश्न का जवाब उनके इस उपन्यास में मौजूद है। यह जरूर है कि वह थ्रील पैदा नहीं करती मगर अपने संश्लिष्ट कथानक को वे कहीं भी शिथिल नहीं पड़ने देती। इसमें घटनाचक्र तेजी से न बदलता हो मगर घटनाक्रम अपनी संक्षिप्तता के कारण पाठकों पर अपनी छाप छोड़ जाते हैं। इस तरह ‘जानकीदास तेजपाल मैनशन’ ढहती हुई इमारत और उसमें रहनेवाले लोगों की दास्तान है जो आधुनिक भारत का निर्माण कर रहे हैं, अपने गहरे असंतोष और बेरोजगारी के बावूजूद। मुझे तो इसमे ढहने की जगह बनने का संदर्भ ज्यादा उपयुक्त लगता है। नया बनाने के लिए पुराने ढॉचे को गिराना ही बेहतर होता है, वर्ना पुरानी नींव पर बनाई गई नई इमारत पर भी ढहने का खतरा बना रहेगा!