जम्मू रेलवे स्टेशन पर एक छोटी सी बच्ची, उम्र लगभग दस साल होगी, कश्मीरी शॉल बेच रही थी | उसकी माँ भी उसके साथ थी, शायद अगले प्लेटफार्म पर ; वह छोटी बच्ची मेरे पास आई और मेरे मना करने पर भी शॉल दिखने लगी | उसके पैरों में चप्पल-जूते नहीं थे, यह देखकर मैं थोडा भावुक सा हो गया | मुझे शॉल की ज़रूरत न थी लेकिन उसके नंगे पैरों को देखकर मैंने उसे कुछ रूपए देना चाहे, सोचा शायद वो खुश हो जाएगी | पर जैसे ही मेरी छोटी सी सोच ने जेब में से कुछ रूपए निकाल कर उसे देने के लिए हाथ बढ़ाए, उस बच्ची ने तपाक से पैसे लेने से इंकार कर दिया और बड़ी खुद्दारी के साथ कहा “ आप अपने लिए नही तो मैम के लिए शॉल ले लीजिए, मैं यह पैसे यूँही नहीं लूंगी |

मैंने उसकी ओर देखा, उसकी आँखों के भाव समझ गया की उसकी आँखों में खुदगर्जी थी पैरों में चप्पल भले ही न थी | उसकी भावनात्मक समझ भी इतनी थी कि मेरे शॉल को खरीदने के इंकार के बाद उसने मुझसे कहा – “ आप मैम के लिए ले लीजिए, उनको अच्छा लगेगा | उसको शायद इस बात का एहसास था कि इस रिश्ते का एहसास जबां उम्र में बेहद ख़ास होता है |’’

पर देखिए हमें भी मैम की तलाश है जिनके लिए हम कुछ कहीं जाएँ तो विशेष खरीददारी कर सकें | फिलहाल तो यह तलाश भविष्य के गर्भ में निहित है | मैं इन्ही खयालों में डूबा हुआ उस लडकी के आत्मसम्मान व स्वाभिमान का प्रतिपल कायल हो रहा था और वो बड़े ही विश्वास से किसी दूसरे व्यक्ति से अपने शॉल का मोल-भाव करने में मशगूल थी |

मैं अपनी मानसिक विकलांगता पर अफ़सोस जताता हुआ दुरंतो एक्सप्रेस में अपना सामान रख रखा था | मुझे यकीन है उस छोटी सी बच्ची की उम्र के साथ उसका आत्मसम्मान भी जवां होगा और इस संस्मरण को याद करके मुझे भी आत्म-चिंतन का मौका मिलता रहेगा |

 

ध्रुव भारद्वाज
दिल्ली विश्वविद्यालय

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