वैश्वीकरण और आर्थिक उदारीकरण के इस युग में जहां हर तरफ विभिन्न कंपनियों में गलाकाट प्रतियोगिता चल रही है, उसमें विज्ञापन एक ऐसा हथियार बनकर सामने आया है जिसकी जितनी धार होगी वह उतना ही अपना असर दिखलाएगा । इसी रेस में आगे निकलने की होड़ में अश्लीलता परोसने में लगे हुए है । विज्ञापन आज के समय में कमाई का बहुत बड़ा अड्डा भी बन चुका है । मिनटों-मिनटों में आने वाले एड सेकेंडों के करोड़ों रुपए लेते हैं । सारा खेल अब टीआरपी का हो चला है । पहले इतना सब कुछ नहीं था, पहले के विज्ञापनों जहां ध्यान आकर्षित करते थे, हमें सूचित करते थे, वहीं आज के अधिकांश विज्ञापन ध्यान भटकाने का ही कार्य मुख्य रूप से कर रहे हैं । जींस, टीशर्ट, रेज़र, ब्लेड, अंडरवीयर, साबुन, शैंपू, परफ्यूम, आदि किसी भी वस्तु का विज्ञापन हो, सबमें जो चीज सामान्य  नज़र आती है वह है स्त्री । विज्ञापनों कि दुनिया में जिस तरह से स्त्री के देह का प्रयोग हो रहा है उससे विज्ञापनकर्ता जरूर अपने मुनाफे को देखकर कहते होंगे कि ‘तू चीज बड़ी है मस्त मस्त’ । अनावश्यक रूप से स्त्रियों के अंग प्रदर्शन, कामुकता पूर्ण व्यवहार और सेक्सुआलिटी को बढ़ावा देकर अपने उत्पादों को प्रचारित-प्रसारित करना विज्ञापनों का पसंदीदा जरिया बनता जा रहा है । आज के दौर में विज्ञापन उस मेनका की तरह उन सभी कलाओं में निपुण है जो किसी अमीर घराने की फैमिली ही नहीं बल्कि सीधे-साधे मीडिल क्लास फैमिली की अर्थव्यवस्था को भंग करने में माहिर है । पूरे दौर में भाषा को लाभ और हानि के होड में झोक दिया जाता है | भाषा को वैश्विक दुनिया के नजरिया से प्रस्तुत करने के नाम पर नजाने क्या-क्या बोला और लिखा जा रहा है | लेकिन शायद हम यह भूलते जा रहे हैं कि भाषा महज अभियक्ति का माध्यम मात्र नहीं वरन यह एक जीवन शैली और कुछ मायने में उससे भी ज्यादा है |

नब्बे के दशक में तकनीक उपलब्धता, फैलते बाजार तथा सरकार की उदारीकरण की नीतियों के कारण देश में हिंदी के दर्जनों खबरिया चैनलों का प्रवेश हुआ | हिंदी अखबारों की भाषा पर इन चैनलों का खासा प्रभाव दिखता है |

अस्सी के दशक के किसी भी अखबार की सुर्खियां स्पष्ट, वस्तुनिष्ठ और अभिधापरक हुआ करती थी | अखबार की सुर्खियों से खबरों का आभास अच्छी तरह मिल जाता था | अंग्रेजी के उन्हीं शब्दों का इस्तेमाल होता था जो सहज और सरल हों, जिससे पूरी पंक्ति के प्रवाह में बाधा नहीं पड़ती हो | प्रभाष जोशी, राजेंद्र माथुर और सुरेंद्र प्रताप सिंह जैसे पत्रकारों ने इस दशक में ऐसी भाषा का प्रयोग शुरू किया जिसकी पहुँच हिंदी के बहुसंख्य पाठकों तक थी | इन पत्रकारों ने बोलियों और लोक से जुड़ी हुई भाषा का इस्तेमाल किया जिससे अखबार की भाषा लोगों के सरोकारों से जुड़ी |

आज वैश्वीकरण  के दौर में हिन्दी पत्रकारिता की चुनौतियां न सिर्फ बढ़ गई हैं वरन उनके संदर्भ भी बदल गए हैं। पत्रकारिता के सामाजिक उत्तरदायित्व जैसी बातों पर सवालिया निशान हैं तो उसकी नैसर्गिक सैद्धांतिकता भी कठघरे में है। वैश्वीकरण और नई प्रौद्योगिकी के घालमेल से एक ऐसा वातावरण बना है जिससे कई सवाल पैदा हुए हैं। इनके वाजिब व ठोस उत्तरों की तलाश कई स्तरों पर जारी है। वैश्वीकरण व बाजारवाद की इन चुनौतियों ने हिन्दी पत्रकारिता को कैसे और कितना प्रभावित किया है इसका अध्ययन किया जाना अत्यंत महत्वपूर्ण है।

वैश्वीकरण ने विगतदशकों में भारत जैसे  विकासशील देश के समक्ष जो नई चुनौतियाँ खड़ी की हैं उनमें सूचना विस्फोट से उत्पन्न हुई अफ़रा-तफ़री और उसे सँभालने के लिए भाषा माध्यमों के पल-प्रतिपल बदलते रूपों का महत्वपूर्ण स्थान है। इसमें संदेह नहीं कि वर्तमान संदर्भ में वैश्वीकरण का अर्थ व्यापक तौर पर बाज़ारीकरण है।

“वैश्वीकरण की बात शुरू की जाए तो सबसे पहले हम भाषा का ही सवाल ले लें – अंग्रेजी और भारतीय भाषाओं का अंतरसंबंध। जब मैकॉले ने भारत में अंग्रेजी शिक्षा की शुरूआत की थी, तब वैश्वीकरण का सवाल नहीं था। अंग्रेजी सत्ता हमें विश्व- नागरिक बनाने के लिए अंग्रेजी नहीं पढ़ा रही थी। उपनिवेशवादी दौर में उन्हें अपने लिए अंग्रेजी पढ़े-लिखे कारकुन चाहिए थे। इंग्लिस्तान के विधि-विधान और कानून को देश में लागू करने के लिए न्यायाधीश और वकील चाहिए थे। भारत में वकीलों का तबका ही पहला अंग्रेजी पढ़ा-लिखा तबका था। तब की अंग्रेजी शिक्षा और आज की अंग्रेजी शिक्षा में अंतर है। आज भारत की अंग्रेजी हमें अपने ही देश में व्यक्तित्वहीन बनाती है और साथ ही हमें विश्व-बाजार में विश्व-नागरिक बनाती है। वैश्वीकरण की स्पर्धा में यह हमारी सहायक भी है।

लेकिन वैश्वीकरण से अलग जब राष्ट्रीयकरण का सवाल आता है तो अंग्रेजी के कारण हमारा संपर्क और संबंध अपने ही देश के दलित, शोषित और अशिक्षित वर्ग से टूट जाता है, इतना ही नहीं सभी भारतीय भाषाओं में हमारी सोच का प्राकृतिक प्रवाह बाधित होता है।  |कहे-अनकहे तरीके से, यहीं से हमारा सांस्कृतिक संकट शुरू होता है। हम विभाजित व्यक्ति बन जाते हैं। खुद अपने सांस्कारिक स्रोतों, आस्था के प्रतीकों, अपने आस-पास की संवदेनाजन्य ध्वनियों और अपने जन-सामान्य से कट जाते हैं। सच्चाई यही है कि वैश्विक बाजार की पूरी परिकल्पना उस अमीर को लेकर की गई है जो साधन-सम्पन्न है। उसे ही इस बाजार में ‘मानव’ होने का दर्जा दिया गया है। उसी के अधिकार मानवाधिकार हैं। मानव मूल्य अब गौण हो गए हैं।

इस बाजारवाद का गरीब देशों और उसके गरीब से कोई लेना-देना नहीं है। सही अर्थों और संदर्भों में यदि इस बाजारवाद और वैश्वीकरण को देखा जाय तो यह पूंजीवादी देशों के अमीरों की क्रांति है। जब इसका अपने ही देशों के गरीबों से कुछ लेना-देना नहीं है, तो हम जैसे गरीब देशों से उसका क्या सरोकार हो सकता है ?

लेकिन सरोकार है ! उसका सरोकार है हमारे बाजार से। हमारा वह बाजार जो गरीबों ने अपने पुश्तैनी धंधों और श्रम से तैयार किया है। पुश्तैनी धंधों और खेतीबाड़ी के सहारे हमारा स्वदेशी बाजार निर्मित हुआ। इसी स्वदेशी बाजार के मुनाफे पर जीने वाले वर्गों और अंग्रेजी शिक्षा के सहारे हमारा भारतीय मध्यवर्ग पैदा हुआ। यही कुलीन नौकरशाह मध्यवर्ग हमारी नीतियों और जीवित रहने के सिद्धांतों को तय और लागू करता है। यही वर्ग है जो आज वैश्वीकरण का स्वागत कर रहा है। जन्मना भारतीय होते हुए भी यह कर्मणा भारतीय नहीं है। इन मध्यवर्गीय घरों में चलकर देखिए तो आपको देसी-विदेशी पेंटर्स के सस्ते प्रिंट्स तो ज़रूर मिल जाएंगे, पर परिवार के पूर्वजों की तस्वीरें अब इनके घरों में नहीं मिलेंगी। मां-बाप यदि जीवित भी हुए, तो भी वे मध्यवर्गीय बाबुओं के बंगलों या कोठियों में नहीं मिलेंगे। वे गांव या कस्बे में अपनी वृद्धावस्था काट रहे होंगे। सांस्कृतिक दृष्टि से यदि देखें तो इससे हमारे पारिवारिक और सामुदायिक संबंधों के पैमाने बदल गए हैं। हमारी क्षमा, दया और करुणा के आयाम परिवर्तित हुए हैं। जिस घटना-दुर्घटना, अनाचार या अत्याचार पर बूढ़ी दादी के आंसू निकल पड़ते हैं, उसी घटना-दुर्घटना पर नातिन या पोतिन के आसूं नहीं निकलते, पोतिन या नातिन को वो आंसू तर्कसंगत नहीं लगते। इस वैश्वीकरण की दुनिया में क्षमा, धीरज और बर्दाश्त जैसे मूल्य तिरोहित हो गए हैं। दया अब कहां है ? करुणा के लिए हमारे मानस में जगह कहां रह गई है |यही है संस्कृति का वीभत्स विरूपण ! वैश्वीकरण लगातार हमारी संस्कृति को विकृत करता जा रहा है। हमारे सदियों पुराने मानवीय सरोकारों और संस्कारों को तोड़ता जा रहा है। वैश्वीकरण के साथ आई है स्पर्धा, मुनाफे की संस्कृति और मानवाधिकारों का मसला। सवाल यह उठता है कि मानवाधिकार किस मानव के ? स्पर्धा किसकी और किसके साथ ? मुनाफा कहां से और किसके लिए ? अभी कुछ दिन पहले अपने उत्तर भारत में यह हुआ था कि ‘ड्रॉप्सी’ नामक बीमारी एकाएक फैली थी। इस बीमारी का नाम तक पहले नहीं सुना गया था। डॉक्टरों के पास उसका कोई इलाज नहीं था। विशेषज्ञ और प्रयोगशालाएं उस बीमारी का निदान नहीं खोज पाई थीं। तब एकाएक स्वदेशी बाजार में यह खबर फैली थी कि यह मारक बीमारी सरसों के तेल के सेवन के कारण फैली है। सरसों का तेल पूरे उत्तर भारत और बंगाल का मुख्य खाद्य तेल है। शहरों में यह तेल गांवों से आता था। इसे तत्काल प्रतिबंधित किया गया। विदेशी बाजार से तेल आयात किया गया और कहा गया कि यह वैश्वीकरण का नतीजा और फायदा है कि फौरन विदेशी खाद्य तेलों से घरेलू बाजार की आपूर्ति होगई । आज विदेशी खाद्य तेलों ने एक झटके में अपने पैर उत्तर भारत के बाजारों में जमा लिए हैं। आप कहेंगे कि यह तो बाजारी व्यवसाय का मामला है, इससे संस्कृति का क्या लेना-देना है ?

इसका संस्कृति से बहुत गहरा लेना-देना है। मैं आपको बताती हूं- भारत में ही नहीं, पाकिस्तान में भी और खासतौर से उत्तर भारत में वसंत पंचमी का त्यौहार बहुत धूमधाम से मनाया जाता है। यह वह समय है जब मकर संक्रांति के दिन सूर्य उत्तरायण होता है। कड़ाके की सर्दी के मौसम से पूरा उत्तर भारत धीरे-धीरे मुक्त होकर वसंत ऋतु की ओर बढ़ता है। यही वह समय होता है जब उत्तर भारत के सारे खेत सरसों के पीले फूलों का लहराता समुद्र बन जाते हैं। वसंत पंचमी का दिन ही विद्या, ज्ञान और साहित्य की देवी सरस्वती की पूजा का दिन होता है- साहित्योत्सव का दिन !

लेकिन जबसे सरसों के खुले तेल पर पाबंदी लगी है तबसे किसान ने सरसों उगाना लगभग बंद कर दिया है। यह कहना तो ग़लत होगा कि उत्तर भारत में अब सरसों नहीं उगती, पर आपको यह बताना ग़लत नहीं होगा कि उत्तर भारत की सभी भाषाओं में जो वसंत के गीत लिखे जाते थे, वे अब नहीं लिखे जाते। गांव के करघों पर जो सूती कपड़ा बनता था, उसके कुर्ते पीले रंग में रंगकर वसंत के दिन पहने जाते थे। यहां तक कि मध्यवर्गीय कुलीन भी कम से कम अपना रुमाल पीले रंग में रंग लेते थे। लेकिन अब बाजारवाद के चलते सिंथेटिक कपड़ों पर कोई देशी रंग नहीं चढ़ता। कृषि प्रधान भारत में अब बच्चे सरसों के खेत देखते हैं तो खुश तो बहुत होते हैं, पर यह भी पूछते हैं कि इतने सुंदर खेत किस चीज़ के हैं ? बसंत पर सरस्वती पूजा और लेखनी की पूजा की परिपाटी तो अब भी निभाई जाती है, पर साहित्य, ग्रामीण सभ्यता, प्रकृति के साथ जो उत्सवधर्मी तादात्म्य था, वह अब खंडित हो चुका है। यही संस्कृति की क्षति है।

आज दुनिया भर में मनोरंजन का जनसुलभ और सबसे सस्ता माध्यम है सिनेमा। सिनेमा फ्रांस की देन है, लेकिन यह जब भारत में पहली बार आया, तो कई निर्देशक सक्रिय हो गए। फिल्में बहुतेरी बनीं, लेकिन भारत की पहली फीचर फिल्म कहलाई ‘राजा हरिश्चंद्र’, जिसे बनाया था भारत में सिनेमा के जनक कहलाने वाले दादा साहब फाल्के ने। यह एक मूक फिल्म थी जो कि एक हिंदू पौराणिक कहानी पर आधारित थी।

जब हम पीछे मुड़कर देखते हैं तो पाते हैं कि 100 साल की यात्रा हजारों फिल्मों में समाई हुई है। सिनेमा का एक बहुत बड़ा कालखंड हमारे सामने पसरा हुआ है। आसान नहीं है हिंदी सिनेमा की बहुलतावादी इंद्रधनुषीय छवि के भीतर उतरना और उसकी पड़ताल करना। सिनेमा की खूबियों और खामियों पर बात करना किसी भी व्यक्ति के लिए आसान काम नहीं है। आज स्थिति यह है कि एक वाक्य में कहें तो ‘राजा हरिश्चंद्र’ की मूक अभिव्यक्ति से बहुत आगे बढ़कर हिंदी सिनेमा ‘रा वन’ की उच्च प्रौद्योगिकी क्षमता के स्तर तक पहुँच चुका है। सिनेमा अपने आरंभिक दौर के शिक्षणकाल से निकलकर मनोरंजन और प्रोपेगंडा तक पहुँच चुका है। हिंदी सिनेमा के साथ-साथ क्षेत्रीय मसलन – मराठी, गुजराती, मलयालम, तेलुगु, कन्नड, तमिल, उड़िया, बांग्ला, भोजपुरी, गढ़वाली, हरियाणवी, पंजाबी और पूर्वोत्तर की भाषाओं में भी भारतीय सिनेमा की एक समानांतर दुनिया फैली हुई है। हिंदी सिनेमा को देश ही नहीं विदेशों में भी बड़ी बेकरारी के साथ देखा जाता है। विश्व के कई देशों में जहाँ प्रवासी भारतीयों की संख्या बहुत अधिक है वहाँ हिंदी सिनेमा को खासी लोकप्रियता प्राप्त है।

सिनेमा की पूरी यात्रा पर नजर डालें तो साफ पता चलता है कि हर दशक के साथ न सिर्फ सिनेमा का रूप स्वरूप बदलता रहा है बल्कि तेवर और सरोकार भी बदलते रहे हैं। सिनेमा पर आठवें और नौंवें दशक के दौरान अडरवर्ल्ड से संबंध और उसकी पूँजी के इस्तेमाल के आरोप भी लगते रहे हैं। सच तो यह है कि सिनेमा की शुरुआत में फिल्मों के निर्माण पर कम पूँजी और अधिक समय लगता था। आगे चलकर जब तकनीकी स्तर पर हिंदी सिनेमा मजबूत हुआ तो फिल्में साल दो साल के बजाय फटाफट वाली रफ्तार से बनने लगीं। यहीं से फिल्म उद्योग पर पूँजी का वर्चस्व इतना अधिक बढ़ा कि उसने कंटेंट और सामाजिक सरोकारों को बहुत पीछे ढकेल दिया। यही वजह है कि आज की फिल्मों में हमें उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड या छत्तीसगढ़ के गाँवों के भारत की तसवीर कम दिखती है जबकि मेट्रो शहरों मुंबई या गोवा की चमक-दमक, शापिंग मॅाल और मल्टीप्लेक्स अधिक दिखता है। हालाँकि कुछ फिल्मकारों ने प्रतिरोध के सिनेमा या सामाजिक सवालों की धारा को अपनी फिल्मों के माध्यम से बरकरार रखा है जिसमें प्रकाश झा का नाम अग्रणी है। कभी-कभार ‘हल्ला बोल’ जैसी सार्थक फिल्में भी आती हैं जिनसे उम्मीद बनती है कि सब कुछ अभी बदला नहीं है। सार्थकता की उम्मीद नए आने वाले युवा फिल्म निर्माताओं से अभी बाकी है जिन्होंने नई-नई शुरुआत की है।

मैं बीते इतिहास में किसी भी ‘स्वर्ण युग’ की अवधारणा को सिद्धांततः अस्वीकार करती हूँ | मैं यह भी नहीं मानती  कि हमारा देश भारत कभी सोने की चिड़िया था और यहाँ दूध-घी की नदियाँ बहा करती थीं | यत्र नार्यस्तु पूज्यंतेए रमंते तत्र देवता जैसी उक्तियों को आगे कर वैदिक काल को स्वर्ण युग बताना वैसा ही है जैसे रामायण में आए पुष्पक विमान का ज़िक्र उद्धृत कर हिन्दुस्तान को वायुयान की तकनीकी का जनक बताना | जो बात इतिहास पर लागू, वही सिनेमा पर | मैं नहीं मानती कि हिन्दी सिनेमा का पहले  आया ;पढ़ें पचास का सुनहरा दशक: सब स्वर्ण युग था और अचानक इस वैश्वीकरण रूपी दैत्य के आने के साथ सब भ्रष्ट हो गया | सिनेमा को लेकर यह समझदारी ठीक वैसी ही है जैसे नेहरू और इंदिरा के लाए, भारतीय पूंजीवादियों द्वारा समर्थित समाजवाद को आदर्श मानना और फिर नब्बे के दशक में आई एलपीजी की नीतियों को तमाम मटियामेट का श्रेय देना | राजनीति के स्तर पर समझने की बात यह है कि दरअसल यह निजीकरण, उदारीकरण, वैश्वीकरण का नया दौर राज्य के उस पुराने कथित लोककल्याणकारी चेहरे का ही स्वाभाविक अगला चरण है |

ठीक इसी प्रकार हमारे लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा का सुनहरा दशक भी सत्ता के प्रति उतना ही आज्ञाकारी है जितना नब्बे के बाद आई सिनेमा की यह नई खेप बाज़ार के शहंशाहों के प्रति | हिन्दी सिनेमा के उसी सुनहरे दौर की सबसे आईकॉनिक फ़िल्म मदर इंडिया की परिणिति एक बांध के निर्माण में है | याद रखिए ऐसे ही एक बांध के निर्माणस्थल पर खड़े होकर तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने संभावित विस्थापितों से कहा था, अगर कष्ट उठाने ही हैं तो उन्हें देश के लिए उठाया जाना चाहिए | और इसी राष्ट्र निर्माण ने अगले पचास वर्षों में पांच करोड़ से ज़्यादा लोगों को अपने घरों से, अपनी दुनिया से बेघर किया | मेरे लिए मदर इंडिया का यह बांध पूर्वज है उस सरदार सरोवर बांध का जिससे नर्मदा बचाओ आन्दोलनके साथी पिछले बीस साल से नर्मदा घाटी में एक अंतहीन लड़ाई लड़ रहे हैं |

उर्दू का लोप सिर्फ़ सिनेमा से ही नहीं है, सम्पूर्ण समाज से उर्दू के निशाँ बड़ी तेज़ी से मिट रहे हैं | पहले इस भाषा को एक धर्म विशेष के लोगों से जोड़ा गया और फिर उस सम्पूर्ण समाज को हाशिए पर धकेलने की कवायद के एक चरण के रूप में उर्दू का वृहत्तर समाज से लोप होता चला गया | साहित्य में नवजागरण काल की बहसों से परिचित दोस्त यह तथ्य अच्छी तरह जानते हैं कि भाषा की लड़ाई भी अंततरू आर्थिक लड़ाई है जिसे आमतौर से लिपि के रणक्षेत्र में लड़ा जाता है | किसी भी लिपि की हार दरअसल उसे इस्तेमाल करने वाले समाज की आर्थिक स्थिति को संकट में डाल देती है | इस्माइल मर्चेंट की एक बहुत की खूबसूरत फ़िल्म इन कस्टडी इस संदर्भ में मुझे रह-रह कर याद आती है | किस तरह एक भाषा का अंत एक पूरी रवायत, सम्पूर्ण संस्कृति के असमय ख़त्म हो जाने का संकेत है, इन कस्टडी इसका मुकम्मल बयान है | हमारी भाषा की लिपि देवनागरी जो खुद उर्दू की लिपि फारसी की हत्या की दोषी है, आज रोमन अंग्रेज़ी के सामने एक बहुत ही मुश्किल लड़ाई लड़ रही है |

लेकिन सब निराशापूर्ण नहीं है | इसी दौर में जब हम समाज और सिनेमा से लोककलाओं के लोप का रोना रो रहे हैं, ‘ओये लक्की लक्की ओये’ में दिबाकर और स्नेहा तू राजा की राजदुलारी जैसी हरियाणवी रागिनी लेकर आते हैं तो अनुषा रिज़वी और महमूद फ़ारुक़ी की पीपली लाइव में नगीन तनवीर का चोला माटी के राम आता है |‘उड़ान’ से लेकर लव सेक्स और धोखा जैसी फ़िल्में हैं जो अपनी कहानी की ईमानदारी को बनाए रखती हैं और सफ़लता पाने के लिए किसी भी तरह का व्यावसायिक समझौता नहीं करतीं |वैश्वीकरण के दौर में सिनेमा के लिए सबसे बड़ी लड़ाई यही है कि कैसे वह सिर्फ़ एक व्यावसायिक उत्पाद की भूमिका तक सीमित हो जाने से बचे और एक सच्चे कलारूप की तरह इस महादेश की विभिन्न कहानियों को पूरी ईमानदारी से कहने की कोशिश करता रहे |

आईए अब जरा बात करते हैं विज्ञापन की जिसे प्रसिद्ध संचार वैज्ञानिक एचजीवेल्स ने शायद सबसे सटीक तरीके से परिभाषित किया है “क़ानूनी तौर पर झूठ बोलने को विज्ञापन कहते हैं”|

विज्ञापन और भाषा का दिलचस्प रिश्ता है। उसकी भाषा में ऐसा लचीलापन है कि गतिशीलता और संभावना की अनचीन्ही परतें दिखाई पड़ती हैं। विज्ञापन-भाषा अपने निश्चित सीमांतों को तोड़कर नित नए मुहावरों में ढलती है। जैसे कवि अपनी कविता में शब्द की अनेक अर्थ-व्यंजनाएँ निर्मित करता है वैसे ही विज्ञापन भी अपने मूल संदेश को सपनों का जामा पहनाकर शब्दों की गलियों से हम तक पहुँचता है। यह भाषा केवल शब्दों की अर्थ-क्रिया से ही नहीं बँधी, यह मीडिया की विशिष्ट प्रकृति से भी जुड़ी है। मीडिया में अर्थ-ग्रहण केवल शब्द के आधार पर नहीं होता। माध्यम की प्रकृति के अनुसार अर्थ-संप्रेषण का आधार – शब्द, ध्वनि, संगीत, चित्र या दृश्य कुछ भी हो सकता है।

एक दौर था जब विज्ञापनों का प्रयोग प्रायः सामाजिक हित, मान मर्यादाओं को ध्यान में रखकर किया जाता था । किन्तु बाजारीकरण के इस अंधी दौड़ में इन सारी बातों को ताक पर रखते हुए अब विज्ञापनों का मुख्य उद्देश्य केवल पैसा कमाना ही होता जा रहा है ।

पिछले कुछ दसकों में पूँजी के असीम विस्‍तार और संचार साधनों के अभूतपूर्व विकास ने विश्‍व बाज़ार और आर्थिक भूमंडलीकरण की जो भूमिका रची है, उसमें मुनाफा आधारित उत्‍पादन प्रणाली को दुनिया के नये बाज़ारों की ज़रूरत है। बंद दरवाजे खुल रहे हैं। सीमाएँ टूट रही हैं, प्रतिबंध समाप्‍त हो रहे हैं। शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद बीसवीं सदी के अंतिम दशक में बदली हुई राजनीतिक स्थि‍तियों और संचार उपकरणों में आयी क्रांति ने देशों के बीच भौगोलिक दूरियों और राष्‍ट्रीय सीमाओं को अप्रासंगिक बना दिया है। नयी बाज़ार संस्‍कृति इस आर्थिक भूमंडलीकरण का एक अनिवार्य हिस्‍सा है। विश्‍व बाज़ार अब तक स्‍वायत्‍त रहे समाजों और संस्‍कृतियों के रहन-सहन, भाषा-भूषा, दैनिक जीवन, आचरण और मूल्‍य-बोध का अपने तरीके से अनुकूलन कर रहा है।

अंततः यह कहना भी कोई त्रुटीपूर्ण नहीं होगा कि भाषा की निर्मिति बाज़ार में हुई है लिकिन यह हमेशा सिर्फ और सिर्फ बाज़ार के लिए और बाज़ार में हीं नहीं । बाज़ार में कुछ ख़ास ज़रूरतों के तहत मनुष्य एक दूसरे से जुड़ते हैं। उनके संबंध विकसित होते हैं। भाषा के रूप बनते हैं। बाज़ार में भाषा चीज़ों को परिभाषित करती है, चीज़ें भाषा को परिभाषित करती हैं। गाँव की हाट से जिले की मंडी तक, जिला मंडी से प्रांतीय बाज़ार तक और वहाँ से राष्‍ट्रीय बाज़ार और अन्‍तर्राष्‍ट्रीय नेटवर्क तक बाज़ार के विकास के साथ-साथ मनुष्य संबंधों की अनेक स्‍तरीय यात्राएँ भी हैं। ये यात्राएँ बोलियों के परम्परागत रूप से प्रांतीय भाषाओं तक की यात्राएँ हैं। बाज़ार बदलते रहते हैं और भाषा भी। मनुष्य व्यवहारों के साथ भाषा हर क्षण बदलती रहती है। उसकी यह गतिशीलता ही उसकी जीवन्तता है।

 

डॉ. कमलिनी पाणिग्राही
विभागाध्यक्ष, हिन्दी
ई डी महिला महाविद्यालय
ओडिशा

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