कृष्ण बलदेव वैद हिन्दी के आधुनिक, किन्तु विरल रचनाकार हैं। उन्होंने बिना किसी लाग-लपेट और भय के अपने लिए एक अलग रास्ता बनाया और उस पर जीवनपर्यन्त चलते रहे। दस उपन्यासों, पन्द्रह कहानी संग्रहों, सात नाटकों और डायरी के साथ उनका प्रभूत रचना-संसार जिस ठसक के साथ पाठक के सम्मुख उपस्थित होता है, उसे देखकर वैद के अविचल व्यक्तित्व का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। मानव-मनोविज्ञान की उन्हें गहरी समझ थी। इसकी पुष्टि उनकी रचनाओं को देखकर होती है। उनका रचनात्मक विकास बाह्य से आन्तरिक की ओर हुआ है। ‘उसका बचपन’ उनके औपन्यासिक लेखन का प्रस्थान-बिन्दु है। इस उपन्यास में उनकी सामाजिक चेतना का विस्तीर्ण रूप देखने को मिलता है। मनुष्य के व्यक्तित्व के निर्माण में उसके बचपन और किशोरावस्था में होने वाली घटनाओं की निर्णायक भूमिका होती है। इस दृष्टि से वैद का लघु उपन्यास ‘उसका बचपन’ उल्लेखनीय है। बाद में चलकर वे व्यक्ति के भीतरी संसार की गतिविधियों के अंकन की ओर उन्मुख होते गये। वे निरन्तर सृजनशील बने रहे। फिर भी साहित्यिक विमर्श में उन्हें गम्भीरता से नहीं लिया गया। विजयमोहन सिंह ने लिखा है कि ‘‘अपनी दुर्दान्त प्रयोगधर्मिता के कारण उनके उपन्यासों को मान्यता नहीं मिल सकी जो इतने वरिष्ठ तथा निरन्तर सक्रिय उपन्यासकार को मिलनी चाहिए थी।’’ (बीसवीं शताब्दी का हिन्दी साहित्य, पृ.157) कारण जो भी रहे हों, कृष्ण बलदेव वैद उपेक्षा से विचलित हुए बिना निरन्तर लिखते रहे। उनके अनुसार ‘प्रयोग परम्परा के हर रूढ़ रूप को तोड़ने-लताड़ने के लिए ज़रूरी है।’ वे प्रयोग को परम्परा की प्रत्येक रूढ़ि का भंजन करने के लिए आवश्यक मानते हैं। उन्होंने परम्परागत और प्रचलित में भेद करते हुए प्रचलित के प्रति गहरा असन्तोष व्यक्त किया है। प्रचलित से उनका आशय बासी, ढीला-ढाला और बदसूरत से है। प्रचलित ढाँचे में उन्हें कर्कशता सुनायी पड़ती है। कर्कशता वैद को अप्रिय लगती है। इसके स्थान पर वे कोमलता के प्रति आग्रह दिखाते हैं। वैद ने अपनी रचनाओं को प्रचलित ढाँचे से मुक्त रखने के लिए प्रयोग किया है। उन्होंने परम्परा में निरन्तर रचाव की आवश्यकता पर बल दिया है। उनकी कहन शैली सांकेतिकता, नवीन भावबोध और आधुनिक जीवन-स्थितियों को व्यक्त करने समर्थ लगती है। वे यथार्थ के नहीं, यथार्थवादी रूढ़ियों के विरोधी हैं। प्रतीक, रूपक और एकालाप उनकी रचनाशीलता के प्रमुख अवयव हैं। अत्यन्त क्षीण कथानकों से भी वे अपनी रचनाओं को विस्तार देने में सिद्धहस्त हैं।
‘उसका बचपन’ के बाद प्रकाशित वैद के उपन्यासों में जुगुप्सा और यौन-विकृतियों की सीमा तक यौन-आक्रान्तता देखी जा सकती है। उन्होंने मुक्त साहचर्य की शैली अपनायी है। इसलिए उनके वर्णन में पूर्वापर सम्बन्ध नहीं है। एक सामान्य पाठक के लिए उनकी कृतियों से गुजरना आसान नहीं होता। इसका एक कारण पाठक के समझ की सीमा भी है। उनकी रचनाओं को समझने के लिए न्यूनतम बौद्धिक धरातल की आवश्यकता है। उनका वर्णन आवृत्तिमूलक है। लगता है जैसे वे एक ही बात को बार-बार दुहरा रहे हैं। हालाँकि वे ऐसा प्रयोग पात्रों की उलझी हुई मनोदशा को दिखाने के लिए करते हैं। इससे पाठक को आशय ग्रहण करने में कठिनाई होती है। उन्होंने फैंटेसी और यथार्थ दोनों ही का प्रयोग किया है। शब्दों से खेलते, भाषा की तुकबन्दियाँ करते वैद कभी-कभी असह्य एवं अपाठ्य लगने लगते हैं। उनके लेखन पर विचार, दर्शन अथवा रचना-दृष्टि के अभाव का भी आरोप लगता है। फिर भी उनकी रचनाएँ विचारहीन नहीं हैं। बचपन, विभाजन और स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की स्वाभाविक अभिव्यक्ति करने वाले कृष्ण बलदेव वैद ने व्यक्ति के अन्तद्र्वन्द्व, छटपटाहट, स्त्री-पुरुष अन्तरंगता और अन्तर्विरोध, अहं एवं महत्वाकांक्षाओं के टकराव, अस्वीकृति, अकेलेपन, अलगावबोध और मानवीय सम्बन्धों में आत्मीयता के क्षरण के जो चित्र खींचे हैं वे मार्मिक, करुण एवं स्वाभाविक हैं। वैद आधुनिक भावबोध के लेखक हैं। कुछ घटनाओं और निष्पत्तियों के द्वारा ही उन्होंने आधुनिकता को प्रस्तुत नहीं किया है, बल्कि उनके समूचे कथ्य, कथाभाषा और कहन की विशिष्ट शैली में आधुनिकता का पुट मिलता है। उनके वस्तु-विन्यास में जटिलता है। उनके पात्र समाज से पृथक् होकर आत्मालाप करते हैं। तब भी वे समाज से पूरी तरह विच्छिन्न कहाँ हो पाते हैं? वैद की रचनाओं की रचना-प्रक्रिया उनके समकालीन लेखकों से भिन्न है। उनका अपना शिल्प-कौशल है। उनके लेखन में हिन्दुस्तानी भाषा की प्रवाहमयता है। भाषा में कोई कृत्रिमता नहीं है, न ही वर्णन में किसी तरह की भावुकता।
कृष्ण बलदेव वैद ने अपठनीयता की हद तक जाकर प्रयोगधर्मिता का दुस्साहस किया है। उन्होंने अपने लेखन से कोई समझौता नहीं किया। अपनी शर्तों पर लेखन किया। लीक से हटकर अपना रास्ता बनाया। वे प्रचलित खाँचों को तोड़ने के लिए ख्यात रहे। उन्होंने हमेशा कुछ नया रचने का साहस दिखाया। वामपन्थ और दक्षिणपन्थ की सीमाओं से बाहर रहते हुए वे बराबर अकेले चलते रहे। उनका लेखन विचारधाराओं का मुखापेक्षी नहीं रहा, तो दूसरी ओर किसी विचारधारा में उन्हें पचाने की सामथ्र्य भी नहीं है। वे अन्त तक निरपेक्ष बने रहे। दरअसल वैद रचना में विचारधारा के हस्तक्षेप को अनावश्यक मानते थे। वे विचार के विरोधी नहीं थे। उनकी रचनाओं में दुःस्वप्न, अवसाद और करुणा की घनी छाया दिखती है। उनके पात्रों में अनिश्चितता, ऊब, विवशता, अनास्था, अविश्वास, उदासी, चिन्ता, चंचलता, दुःस्वप्न, आत्मप्रताड़ना, असमंजस, आशंका, अनिर्णय और मानसिक मैथुन की स्थितियाँ बहुतायत हैं। उनके व्यक्तित्व सुगठित नहीं हैं। कभी स्त्री उनके पुरुष पात्रों को त्रास देने वाली पिशाच के रूप में दिखती है। वैद में आधुनिक व्यक्ति के जीवन-सत्य की गहरी समझ है। उनकी रचनाओं में विस्थापन या निर्वासन का दुःख असह्य बनकर उपस्थित हुआ है। उनके यहाँ स्त्री-मुक्ति का प्रश्न भी है, किन्तु उसका तेवर बिल्कुल अलग है। वैद के स्त्री-पात्र मित्रवत व्यवहार के आकांक्षी हैं। उनके मन में बिना सहारे के जीने का ख्याल आता है जिसे वे चरितार्थ करने का प्रयत्न करते हैं। कृष्ण बलदेव वैद ने स्मृति की आशा और निराशा को अलगाते हुए वर्णन में उनका सधा हुआ उपयोग किया है। हम देखते हैं कि वैद के पात्र प्रायः भ्रमण पर निकल जाते हैं। इससे उनकी बैचैनी का पता चलता है। वैद के अनेक पात्र संवेदना एवं सहानुभूति से वंचित हैं। पुरानी पीढ़ी की उपस्थिति में वैचारिक टकराव और अनुपस्थिति में पश्चाताप की द्वन्द्वात्मक स्थितियाँ यथार्थ को विश्वसनीयता देती हैं। ये पात्र पुरानी पीढ़ी के सुरक्षा कवच को उतार फेंकने के लिए उद्यत दिखते हैं। उन्हें अपने निर्णय में बाह्य हस्तक्षेप अस्वीकार्य है। उलझन और उधेडबुन, अर्थात् उनकी उलझी हुई मनःस्थिति का वैद ने स्वाभाविक चित्रण किया है। उनके असन्तोष, विद्रोह, अकेलेपन और दुःख की सघनता को अभिव्यक्त करते हुए वैद ने अपनी सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक पर्यवेक्षण सामथ्र्य का परिचय दिया है। वे आधुनिकता के उपकरणों का सटीक उपयोग करते हैं। वातावरण का उन्होंने जिस तरह निर्माण किया है, उसे देखकर वैद के रचनात्मक कौशल पर सन्देह का कोई कारण नहीं रह जाता।
कृष्ण बलदेव वैद अपनी रचनाओं के लिए अछूते विषय चुनते हैं। पात्रों की मनःस्थितियों के अंकन में उनकी विशेष रुचि रही है। मन की चंचलता कहें या उसकी अबाध गति, वैद की दृष्टि उसे पहचान ही लेती है। उनकी भाषा और शिल्प में भी नवीनता है। उन्होंने विराम चिह्नों का कम से कम प्रयोग किया है। इससे पात्रों के भीतरी संसार की अकुलाहट बिना किसी अवरोध के सतह पर तैरने लगती है। पात्रों की मनोदशा दिखाने के लिए यह एक उपयुक्त प्रविधि है। शब्द-प्रयोग के मामले में उन्होंने मितव्ययिता का परिचय दिया है। वे जोखिम उठाने का साहस दिखाते हैं। उनके पास एक बेधक दृष्टि है। पात्रों के रेशे- रेशे को उन्होंने उघाड़कर रख दिया है। कुछ भी गोपन नहीं रहने पाता। उनके वर्णन में एकरसता, आत्मालाप और एकतानता है। शुद्धतावाद का वे निषेध करते हैं। उनके लेखन में भारतीय परिवेश एवं अपनी भाषा के प्रति लगाव स्पष्ट दिखता है। इस दृष्टि से निर्मल वर्मा से उनकी भिन्नता साफ महसूस की जा सकती है। अँगरेज़ी का अध्यापक होने और विदेश में लम्बा प्रवास करने के बावजूद उनके लेखन में मौलिकता, निजता और देसीपन है। वे अपनी जमीन से अलग नहीं हुए। उनकी भाषा में कृत्रिमता नहीं है। उन्होंने पुरुषवादी सोच का प्रतिकार किया है। उन्हें अतार्किक और परपीड़क पुरुषों से सहानुभूति नहीं है। वे प्रयोगशील, रूढ़िभंजक एवं आधुनिक भावबोध रचनाकार हैं। उनके दृष्टिकोण में उदारता है। उन्होंने हर तरह की संकीर्णता का रचनात्मक विरोध किया है। कथानक, भाषा और शिल्प के स्तर पर वैद भयानक प्रयोगधर्मी हैं। उनके पात्र बोलते कम, सोचते अधिक हैं। वे पछाड़ खाते हैं और अन्तर्मुखी बने रहते हैं। पात्रों की आत्मस्वीकृतियाँ उनकी रचनाशीलता को ईमानदार बनाती हैं। उनके मन में तेजी से आते-जाते, परस्पर टकराते और काटते-पीटते भावों को वैद ने स्वाभाविक ढंग से उभारा है। उनके पात्रों का बाह्य परिवेश से उतना जुड़ाव नहीं है जितना भीतरी परिवेश से है। घटना-क्रम में शिथिलता है। पुरुष का प्रेम स्त्री की देह तक सीमित है। वैद पुरुष की इस प्रवृत्ति पर चोट करते हैं। वे प्रेम की इस परिपाटी के बरअक्स उसकी जनतान्त्रिकता के पक्षधर रचनाकार हैं। यह ठीक है कि राजनीति और समाज के चित्र मानवीय समस्या और चुनौतियों के रूप में वैद की रचनाओं में चटक होकर नहीं उभरे हैं। फिर भी वैद की रचनात्मकता से गुजरना एक नये अनुभव से सम्पन्न होना होता है।

 

राम विनय शर्मा

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