सारांश :

सूरदास कृष्‍णकाव्‍यधारा के अप्रति‍म कवि‍ हैं। उनके पदों की वि‍रहानुभूति मार्मि‍क, सहज और प्रभावी हैं। ‍यह प्रेम का दर्पण है। प्रेम ऐसा भाव है जिससे कोई भी अछूता नहीं है। प्रेम से ज्ञान और भक्ति का प्रभाव उत्पन्न होता है। प्रेम के दोनों आयामों में ‘वियोग’ सबसे महत्वपूर्ण होता है। वियोग में ही प्रेम अपनी तपिश के साथ निर्मल होता है। अतः वियोग प्रेम की कसौटी है। इस वियोग का अपना एक मनोविज्ञान है। यह एक ऐसी मानसिक अवस्था है जिसमें संपूर्ण संसार का उस दशा में रूपांतरण हो जाता है। सूरदास को ऐसी दशा का चित्रण करने में महारत हासिल है। उनके अधिकांश पदों का आंतरिक भाव जहां श्रृंगार वात्सल्य है, वही विरह की भी चेतना मौजूद है। कृष्ण काव्य की आंतरिक चेतना विछोह की पृष्ठभूमि पर ही निर्मित है। कृष्ण के जन्म से ही यह बिछोह विद्यमान है और उसी बिछोह में समूचा ब्रजमंडल अपने आपको तपाता है और वर्तमान समय के लिए आदर्श प्रस्तुत करता है। वियोग इन सभी दशाओं में इतना प्रखर है कि सूरदास ब्रज जीवन के प्रत्येक आयाम में इसका समावेश दिखाते हैं। ‘विरह पदावली’ ऐसी मनोदशा का महत्वपूर्ण उदाहरण है। कंस ने कृष्ण और बलराम के लिए मथुरा आने का निमंत्रण अक्रूर से भेजा। अचानक होने वाली घटना परिजन और पुरजन सभी दुखी हो जाते हैं। यह अचानकता से उत्पन्न मनोविज्ञान है। यहां चकित और दुखी होने का कारण केवल यही नहीं है कि मथुरा जाने का संदेश आया है बल्कि उसके भीतर का निहितार्थ कंस की क्रूरता है। यह केवल विरह का ही मनोविज्ञान नहीं है बल्कि तत्कालीन समाज और शासन की क्रूरता से उत्पन्न ब्रजवासियों की ‘मनोदशा’ है। मनस में होने वाले परिवर्तन का संकेत भाषा और भाव में दिखने लगता है। सूरदास की काव्यात्मक रचना प्रक्रिया में अंतर और बाहर दोनों ही अपनी सूक्ष्म अर्थ प्रक्रिया के साथ विद्यमान हैं। वियोग की मनोदशा के साथ ही स्मृतियों का प्रभाव दिखने लगता है। इस प्रकार सूरदास ने प्रेम के वि‍‍योगावस्था का मनोविश्लेषणात्मक पक्ष प्रस्तुत किया है।

बीज शब्‍द  : 

वियोग, सार्वभौमीकरण, जड़  और चेतन, घनीभूत प्रेम, उदात्त प्रेम।

परि‍चय:

अष्टछाप के कवियों में समादृत कृष्णभक्तिधारा के सूरदास ऐसे कवि हैं जिनमें परिस्थिति के अनुरूप बदलती मानव चेतना की सूक्ष्म समझ गहरी संवेदना के साथ दृष्टिगोचर होती है। सूरदास ने जागतिक प्रसंगों में बदलते समय और उसके समस्त जीवों पर पड़ने वाले प्रभाव को अपने पदों के माध्यम से अभिव्यक्त किया है। प्रेम ऐसा भाव है जिससे कोई भी अछूता नहीं है। प्रेम से ज्ञान और भक्ति का प्रभाव उत्पन्न होता है। यही कारण है कि भक्तिकाल के सभी कवियों ने प्रेम को अपनी-अपनी मति के अनुरूप अभिव्यक्त किया है और ऐसा सबने स्वीकार किया कि प्रेम के दोनों आयामों में ‘वियोग’ सबसे महत्वपूर्ण होता है। वियोग में ही प्रेम अपनी तपिश के साथ निर्मल होता है। अतः वियोग प्रेम की कसौटी है। इस सामान्य अवधारणा के साथ यह भी बात समझ में आती है कि वियोग का अपना एक मनोविज्ञान है। यह एक ऐसी मानसिक अवस्था है जिसमें संपूर्ण संसार वैसा ही नजर आता है या ऐसा कहा जाए कि उस दशा का रूपांतरण सभी जीवो में हो जाता है। इसलिए यह कहना सार्थक समझ में आता है कि वियोग की दशा ऐसी दशा है जिसमें सार्वभौमीकरण का भाव छिपा रहता है। सूरदास ने जितनी गहनता के साथ उसका (विरह का) चित्रण किया है शायद ही कहीं और ऐसा चित्रण मौजूद होगा। ‘भ्रमरगीत’ में विरह का सार्वभौमीकरण नहीं होता तो गोपियां उलाहना देने लगती हैं-

मधुबन तुम कत रहत हरे।[1]

तो विरह में ऐसा मानस बनता है जहां ‘जड़’ और ‘चेतन’ का भाव समाप्त हो जाता है। सूर को ऐसी दशा का चित्रण करने में महारत हासिल है। यही नहीं, मुझे लगता है कि उस युग के लगभग सभी कवियों (सगुण भक्ति) में यह चेतना मौजूद है। सीता के वियोग में राम भी जड़/चेतन के भाव को भूल जाते हैं और स्थावर और जंगमों से पूछते फिरते हैं –

हे खग! हे मृग! हे मधुकर श्रेणी

 तुम देखी सीता मृगनयनी[2]

सूरदास के अधिकांश पदों का आंतरिक भाव जहां श्रृंगार वात्सल्य है, वही विरह की भी चेतना मौजूद है। मुझे यह बात ठीक-ठीक जान पड़ती है कि प्रेम के संयोग पक्ष की जो चेतना होती है उसमें ‘विरह’ की सजगता मौजूद होती है और वह बराबर बनी रहती है। सूरदास की काव्य-चेतना के निर्माण में इस भाव को देखा जा सकता है। सूरदास के काव्य निर्मिति में जितना सामंजस्य वात्सल्य और श्रृंगार का है, उससे कहीं अधिक विरह का है। कृष्ण काव्य की आंतरिक चेतना विछोह की पृष्ठभूमि पर ही निर्मित है और यह सच भी है कि जब हम सामान्य धरातल पर किसी से स्नेह करते हैं तो उसके साथ रहते हुए वियोग की पीड़ा का अनुमान बराबर बना रहता है। कृष्ण के जन्म से ही यह बिछोह विद्यमान है और उसी बिछोह में समूचा ब्रजमंडल अपने आपको तपाता है और हमारे सामने वर्तमान समय के लिए आदर्श प्रस्तुत करता है। इसलिए मैं कहता हूं कि सूरदास के काव्य निर्मिति का सबसे बड़ा आधार ‘वियोग’ है। प्रत्येक क्षण वियोग की चिंता ब्रजवासियों के मानस का हिस्सा है। जितना प्रेम है उससे कहीं अधिक वियोग की चिंता है। तो सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इसी चिंता से प्रेम अपनी उदात्त पराकाष्ठा को प्राप्त करता है। अतः ध्यान दिया जाए तो यही सूरदास की काव्यात्मक दृष्टि है।

वियोग इन सभी दशाओं में इतना प्रखर है कि सूरदास ब्रज जीवन के प्रत्येक आयाम में इसका समावेश दिखाते हैं। ‘विरह पदावली’ ऐसी मनोदशा का महत्वपूर्ण उदाहरण है। सम और विषम परिस्थितियों में जब कोई घटना अनुमान के बाहर की होती है तो वह बहुत प्रभावित करती है। कंस ने कृष्ण और बलराम के लिए मथुरा आने का निमंत्रण अक्रूर से भेजा। ऐसी स्थिति को देख परिजन और पुरजन सभी वियोग की अनुमिति के आधार पर दुखी हो जाते हैं। विरह पदावली में इसका मनोवैज्ञानिक चित्रण सूरदास ने प्रस्तुत किया है।

जैसा कि हमने उपरोक्त चर्चा किया कि अचानक होने वाली घटना प्रभावित बहुत करती है। कृष्ण के मथुरा जाने का समाचार सबको चकित कर देता है-

सुन्यौ ब्रज लोग कहत यह बात।

चकित भय नर-नारी ठाड़े, पांच न आवे सात।।

चक्रित नंद जसुमति भई चक्रित, मन ही मन अकुलात।

दै दै सैन स्याम बलरामहि, सबै बुलावत जात।।[3]

यह अचानकता से उत्पन्न मनोविज्ञान है। इसमें आनुमानिक बुद्धि बाधित हो जाती है। यही कारण है कि सभी चकित हैं। पुरजनों के साथ ही साथ माता-पिता भी। यहां चकित और दुखी होने का कारण केवल यही नहीं है कि मथुरा जाने का संदेश आया है बल्कि उसके भीतर का निहितार्थ कंस की क्रूरता है। अगर वह आततायी ना होता तो सबके मन में इतनी चिंता ना होती। अतः यह सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह केवल विरह का ही मनोविज्ञान नहीं है बल्कि तत्कालीन समाज और शासन की क्रूरता से उत्पन्न ब्रजवासियों की ‘मनोदशा’ है। इस प्रकार सामान्य सूचना के बीच भी सूर कितना मर्म और संश्लेष वर्णित किया है, यह देखा जा सकता है। यह सूर के रचनात्मक विवेक का परिचायक है।

सूरदास ने केवल परिजन और पुरजन के मानस की चिंता को ही अभिव्यक्त नहीं किया, बल्कि उसकी भी चर्चा की है जिसे अक्रूर लेने आए हैं, यानी जो प्रभावित होने वाला मुख्य पात्र है, उसकी क्या स्थिति है –

व्याकुल भय ब्रज के लोग।

स्याम मन नहिं नैकु आनत; ब्रह्म पूरन जोग।।

……………………………… …

हँसत दोनों अक्रूर के संग, नवल नेह बिसारि।[4]

आप देख सकते हैं कि विषम मनोदशा के बीच कृष्ण पर इसका कोई प्रभाव नहीं है। ऐसा इसलिए कि यह एक योद्धा का लक्षण है, वीर पुरुष का लक्षण है। सूर ने कृष्ण के चरित्र में ऐसा तनाव उत्पन्न कर उनके चरित्र को अभिव्यक्त किया है। यहां कृष्ण की चारित्रिक अभिव्यक्ति है। विरह पदावली में सूरदास ने इस प्रसंग को तथ्यात्मक अभिव्यक्ति दी है और इस पूरी कथा में ब्रज वासियों की बनती बिगड़ती मनोदशा का चित्रण किया है। लोग कह रहे हैं कि नंद भवन में कोई आया है कृष्ण को ले जाने। यह चर्चा का विषय है जिसमें ब्रजमंडल का मन व्याकुल हो उठा है –

चलन चलन स्याम कहत, लैन कोई आयौ।

…………. ……….. ………

ब्रज की नारि, गृह विसारि, व्याकुल डठि धाई।।

समाचार बूझन को आतुर ह्वै आईं।।[5]

इस व्याकुल चिंता की अवस्था से कृष्ण के प्रति प्रेम और विरह की आसन्नता तथा कंस के क्रूर चरित्र का आसंग अनुमान लगाया जा सकता है।

मनस में होने वाले परिवर्तन का संकेत भाषा और भाव में दिखने लगता है। कृष्ण के जाने की सूचना से जहां ब्रजवासियों के मन बदलने की सूचना सूरदास ने दी वहीं यह भी संकेत किया कि –

चलत जानि चितवंति ब्रज-जुबती,  मानौ लिखीं चितेरे।

जहां सु तहां एकटक रहि गईं, फिरत न लोचन फेरे।।

विसारि गई गति भांति देह की, सुनति न श्रवननि टेरें।[6]

इस एक ही सूचना से देह की गति ही बदल गई। तो यहां यह कहना अप्रासंगिक नहीं हैं कि सूर जितने अंतरमन के सार्थक चित्रकार हैं उतने ही उससे उत्पन्न में बाह्य परिवेश में आए परिवर्तन के चित्रकार हैं। एक ऐसी अद्भुत रचना प्रक्रिया इनकी काव्य निर्मिति में दिखती है जिसमें आभ्यांतरिक जीवन सार्थक अभिव्यक्ति पाता है और इस सूचना और प्रसंग का इतना व्यापक प्रभाव पड़ता है कि ब्रजवासी यह सोचने लगते हैं कि-

अब देखि  लै री, स्याम कौ मिलनौ बड़ी दूरि।

मधुबन चलत कहत है सजनी, इन नैननि की मूरि।।[7]

अब कृष्ण से मिलना संभव नहीं हो पाएगा। चलो अभी देख आते हैं। यह बिछोह की अंतिम अवस्था है जिसमें चित्त अपनी गहनतम संवेदना के साथ आशा और उम्मीद का परित्याग कर देता है। ऐसी स्थिति में मन और देह ताप के प्रभाव से रक्ताभ हो जाता है-

अनल तैं विरह अगिनि अति ताती।

माधौ चलन कहत मधुबन कौं

सुनें तपति अति छाती।।[8]

हृदय व्याकुल हो उठता है और इस ताप का प्रभाव यहां तक होता है कि ब्रज की नारियां यहां तक सोचने लगती है कि –

जे जरि मरी प्रगट पावक पर,

ते तिम अधिक सुहाती।।[9]

यानी इस विरह विदग्धता से तो वही स्त्रियां अच्छी हैं जो प्रत्यक्ष अग्नि में जल जाती हैं। आप सूर के इस अंतरमन के चित्रण की गहनता को देख सकते हैं। बिंबों का ऐसा समायोजन किया गया है कि उनको अलग कर पाना या संवेदनात्मक रूप से कमतर आंक पाना संभव नहीं दिखता है। इसलिए मैं बार-बार कहता हूं कि सूरदास की काव्यात्मक रचना प्रक्रिया में अंतर और बाहर दोनों ही अपनी सूक्ष्म अर्थ प्रक्रिया के साथ विद्यमान हैं।

वियोग/बिछोह की मनोदशा के साथ ही स्मृतियों का प्रभाव दिखने लगता है। स्मृतियां आंखों के सामने घूमने लगती हैं और जिसने घूमती हैं, संवेदना और भी घनीभूत होती चली जाती है। ब्रजनारियों का ऐसा ही चित्रण देखें-

स्याम गए सखि प्रान रहैंगे?

अरस परस ज्यौ बातें कहियत, तैसे बहुरि कहैंगे।[10]

तो यह मनोवेगों का क्रमिक विकास है। सूर इस प्रकार के चित्रण के सिद्धहस्त हैं। प्राण का उत्सर्ग प्रेम और विरह की यहां कसौटी बनता है। इसी क्रमिक विकास में स्मृतियां इतनी प्रबल होती चली जाती है कि उसमें जीवन कमतर दिखने लगता है-

सखी री, हौं गोपालहिं लागी।

कैसे जिऐं बदन बिनु देखें, अनुदिन छिन अनुरागी।।[11]

लगातार जीवन का प्रश्न खड़ा होता प्रतीत होता है। इसके साथ ही कृष्ण उनके जीवन मे कितने महत्वपूर्ण थे, ये उसकी भी गहनता का चित्रण सूर ने किया है-

मेरौ माई निधनी कौ धन माधौ।

……… ………

करिहैं कहा अक्रूर हमारौं, दैहैं प्रान अबाधौ।[12]

मुझ गरीब के धन हैं कृष्ण। मैं नही चाहती कि वे मथुरा जायें। मैं तो अपना प्राण देकर भी उनको रोकना चाहती हूं। अक्रूर मेरा क्या कर लेंगे। यह भाव प्राणों से भी ऊपर है। कंस की क्रूरता और अक्रूर की मथुरा ले जाने का कोई दबाव नही दिखता। प्रेम की पराकाष्ठा इतनी घनीभूत है कि उसे कंस के द्वारा बांधे जाने का भी भय नही है। भय है तो केवल इस बात का कि मथुरा जाने के बाद पुनः कृष्ण का दीदार नही होगा। प्रेम का ऐसा संगुम्फन अन्यत्र दिखना असंभव है।

प्रेम करना मतलब दुखों का पहाड़ उठाना है। प्रेम करना मतलब तलवार की धार पर दौड़ना है-

प्रेम की धार कराल महा।

तरवार की धार पे धावतो है।।[13]

घनानंद ने रीतिकालीन परिवेश के बावजूद इस बात को सामने रखा। ठीक इसी प्रकार जायसी ने भी प्रेम को गगन से ऊंचा साबित करते हुए कहा कि अपनी सार्वभौमिक सत्ता, उदात्तता और ईश्वरीय चेतना के बावजूद, प्रीति करने के बावजूद अपनी मृत्यु को दावत देना है-

प्रीति बेलि अरुझे जनि कोई।

जे अरुझे से मुए से होई।।[14]

तो यह कहना समीचीन है कि कृष्ण का प्रेम उनके लिए ऐसे समय में मृत्यु-सम कष्ट का कारक है लेकिन यही तो प्रेम की अर्थवत्‍ता है जिसमें व्यक्ति से व्यक्ति के अलगाव की सत्ता समाप्त हो जाती है। बची रहती है तो केवल चेतना। सूरदास ने तमाम दृष्टांतों के माध्यम से इसी चेतना की अभिव्यक्ति करने का सफल प्रयास किया है। ठीक इसी प्रकार कृष्ण के वियोग की मारी ब्रजनारियां कहती है कि –

नैना बि‍रह की बेलि‍ बई।

सींचत नैन नीर के सजनी, मूल पताल गई।। [15]

 इस प्रकार यह दिखता है कि सूरदास ने प्रेम के वि‍‍योगावस्था का मनोविश्लेषणात्मक पक्ष प्रस्तुत किया है। यह भारतीय साहित्य की अमूल्य निधि है, जहां मनुष्य का चित्त निर्मल होकर उदात्त प्रेम की कसौटी बन जाता है। तो सूरदास के लिए भी कहा जा सकता है कि ये ‘प्रेम के पीर’ के कवि हैं।

नि‍ष्‍कर्ष:

इस प्रकार निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि सूरदास ने विरही चि‍त्त  की जो वेदना है, उसके जागतिक स्वरूप को स्पष्ट किया है। ऐसा स्वरूप जो बिना किसी दबाव और आवरण के अपनी सत्ता को पहचानता है और प्रेम की घनीभूत स्थिति में विलीन होकर मानव की सच्ची अर्थवत्ता को प्रस्तुत करता है। सूर की कविता की रचना प्रक्रिया इसी विरह के साथ संचरित होती है। ब्रज की समूची चेतना इसी भाव से संचालित होती है। गोपियों की जो चेतना है वह समूची मानव जाति की आदर्श चेतना है। भारतीय संस्कृति की मूल चेतना यही है। उसकी विशेषता यही है। सूर ने अपनी काव्य चेतना के माध्यम से भारतीय संस्कृति की प्रतिष्ठा की है।

मानवीय चेतना प्रत्येक परिस्थिति में परिवर्तित होती रहती है। यहां भी पूरा ब्रजमंडल परिवर्तित भाव दशाओं का जीता जागता उदाहरण है। मनुष्य प्रेम के वशीभूत होकर किस प्रकार से नई रचनात्मक ऊर्जा का निर्माण करता है, वह यहां अक्षरश: दिखता है। कंस की क्रूरता फीकी पड़ जाती है ब्रजमंडल की सामूहिक शक्ति के कारण। लेकिन गोपियों की संवेदना वि‍रहाशक्ति के कारण मुक्त होकर निडर बन जाती है। उनको किसी का भी डर नहीं रहता।

सूर के काव्य में विरेचन की स्थिति बहुत है। पूरा ब्रजमंडल वि‍रही है अतः अपनी आंतरिक प्रभाविता में विरेचित होकर आनंद को प्राप्त करने लगता है। वहां वि‍रह भी एक प्रकार का आनंद है। बाकी इसके अतिरिक्त जो कुछ भी बचता है वह उपालंभ का शिकार बनता है या तो कोप का भाजन बनता है। इसलिए वैषम्य सहज ही कोप भाजि‍ता होकर अपनी सत्ता समाप्त कर लेता है। बचता है तो तप्तय और विदग्ध प्रेम की सात्विक चेतना।

         सूर की काव्य रचना प्रक्रिया में बहुरंगी सेड्स हैं, जिनमें से यहां केवल वि‍रह पर बात की गई है, जिसमें यह फलागम होता है कि समूचे हिंदी साहित्य में मनोगत परिवर्तन के साथ हृदय की वैदग्ध अवस्था किस प्रकार बदलती है, इसकी मार्मिक अभिव्यक्ति होती है।

आधार ग्रंथ सूची

  • आचार्य रामचंद्र शुक्ल, भ्रमरगीत।
  • बच्चन सिंह, हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास।
  • सूरदास, विरह पदावली, गीता प्रेस, गोरखपुर, संस्करण-सं. 2071

संदर्भ ग्रंथ सूची

[1] आचार्य रामचंद्र शुक्ल, भ्रमरगीत, पृ.सं. 25

[2] बच्चन सिंह, हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास, पृ.सं. 110

[3] सूरदास, विरह पदावली, पृ.सं. 11 पद संख्या 1

[4] वही, पृ.सं. 12, पद संख्या 2

[5] वही, पृ.सं. 12, पद संख्या 3

[6] वही, पृ.सं. 13, पद संख्या 4

[7] वही, पृ.सं. 13, पद संख्या 5

[8] वही, पृ.सं. 14, पद संख्या 7

[9] वही, पृ.सं. 15, पद संख्या 7

[10] वही, पृ.सं. 15, पद संख्या 8

[11] वही, पृ.सं. 18, पद संख्या 13

[12] वही, पृ.सं. 18, पद संख्या 15

[13] बचन सिंह, हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास, पृ.सं. 223

[14] आचार्य रामचंद्र शुक्ल, पद्मावत, पृ.सं. 115

[15] विरह पदावली, सूरदास, पृ.सं. 104, पद संख्या 148

 

डॉ. तेजनारायण ओझा
सीनियर फैकल्टी, हिंदी विभाग
महाराजा अग्रसेन महाविद्यालय
दिल्ली विश्वविद्यालय

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