संस्कृत के आलोचकों ने सौंदर्य को इस प्रकार परिभाषित किया है- ‘सुन्दरस्य भावः सौंदर्यम्’। अर्थात् सुन्दर के भाव को सौंदर्य कहते हैं। सौंदर्य अपने मूल चरित्र में नयनधर्मी होता है। आँखिन देखी सौंदर्य कानों से सुनी सुन्दरता के बखान से कई गुणा प्रभावी होता है। प्लेटो ने सौंदर्य की परिभाषा करते हुए कहा है- ‘अगर कोई वस्तु सुन्दर है तो इसका केवल एक कारण हो सकता है कि वह अत्यंत सुन्दर है। सौंदर्य की व्याख्या नहीं हो सकती, उसका विश्लेषण नहीं किया जा सकता, वह अनुभव की वस्तु है, उसमें रमा जा सकता है। सौंदर्य वस्तु का नहीं अपितु व्यक्ति का धर्म है, जो इसे सोचता है, समझता है।’ अतः यह कहा जा सकता है कि सौंदर्य मूलतः व्यक्तिनिष्ठ होता है। यह द्रष्टा या प्रेक्षक की चेतना पर निर्भर करता है।

सौंदर्य वर्णन की परम्परा बहुत पहले से संस्कृत साहित्य से चली आ रही है। कालिदास संस्कृत साहित्य में सौंदर्य के शिखर कवि हैं। इनके बाद जयदेव आते हैं। मधुर कोमलकांत पदावली के गायक जयदेव ने ‘गीतगोविंद’ के प्रथम पृष्ठ पर ही पाठकों के लिए दो शर्तेंरखी है-

पहला, ‘पाठक का मन हरिस्मरण में प्रसन्न होता है’ और दूसरा यह कि ‘कामकला में कुतूहल हो।’ यही वह प्रस्थान बिन्दु है जहाँ से हरिस्मरण और कामकला-कुतूहल की दो धाराओं का संगम होता है।यही मिश्रित धारा आनेवाले युग के साहित्य को दूर तक प्रभावित करती है। इस रूप में जयदेव यदि काव्य परम्परा में भक्ति और शृंगार के बीच की खाई को पाटने का काम करते हैं तो विद्यापति उनके उत्तराधिकारी के रूप में आगे बढ़कर इस समतल काव्यभूमि पर लोकसाहित्य का विशाल महल खड़ा करते हैं।

विद्यापति का काव्य प्रेम का काव्य है। प्रेम का मूल प्रेरक तत्व है- सौंदर्य। सौंदर्य का आश्रय है- यौवन।यौवन और सौंदर्य का समन्वित रूप ही प्रेम या रति है। सौंदर्य इन्द्रियों के माध्यम से उतरकर देखनेवाले के मन पर प्रभाव छोड़ता है। सौंदर्य दो तरह के हैं- बाह्य और अंतः। विद्यापति इन दोनों के वर्णन में कुशल हैं।विद्यापति की पदावली में भक्ति और शृंगार दोनों है, लेकिन परिमाण के स्तर पर शृंगारिक पद ही ज्यादा है।निराला ने पदावली की मादकता को ‘नागिन की लहर’ कहा है।इसमें राधा और कृष्ण के प्रेम तथा उनके अपूर्व सौंदर्य चित्रों की भरमार है।पदावली का केन्द्रीय विषय प्रेम और सौंदर्य है। इन पदों में माधव, राधा, कृष्ण, कन्हाई, गिरिधर आदि नाम आए हैं, लेकिन ये प्रतीक मात्र है। अंतर्वस्तु के धरातल पर विद्यापति की नायक-नायिका किसी पारलौकिक ईश्वरीय सत्ता का प्रतिनिधि न होकर ठेठ मिथिला समाज के साधारण युवक औरयुवतीहै।धर्मसत्ता और राजसत्ता के गलियारे से कवि संवेदना को सुरक्षित निकालकर वे लोक से जुड़ते हैं।लोक से जुड़ने के क्रम में वे सामान्य युवती के सौंदर्य का, उसके लज्जाशील क्रिया-व्यापारों का, उसके सहज चपलता का बारीकी से चित्रण करते हैं।

विद्यापति के काव्य में एक ओर मांसल सौंदर्य का वर्णन है, तो दूसरी ओर सामाजिक आचार-विचार और  व्यावहारिक  ज्ञान का सौंदर्य  है।                                                                                      ये दो सरहदें हैं जिनके बीच विद्यापति का कवि मन अपनी रचना संसार की निर्मिति करता है।विद्यापति अपनी पदावली में सौंदर्य का वर्णन नायिका के वयःसंधि अवस्था से शुरू करते हैं।हिन्दी साहित्य में वयःसंधि का वर्णन करने वाले कवियों की श्रेणी में संभवतः विद्यापति अकेले हैं।  वे अपने शृंगार वर्णन की शुरूआत सीधे कामदेव की पाठशाला से करते हैं।उनका यह वर्णन नायिका को इस पाठशाला में प्रवेश दिलाने से शुरू होता है।वे वयःसंधि के बेजोड़ चित्रकार हैं। वयःसंधि वर्णन में वे कायिक, व्यवहार और भाव इन तीनों परिवर्तनों को बाँधने की कोशिश करते हैं।

सैसव जौवन दरसन भेल। दुह दल-बलहि दंद-परि गेल।।

विद्यापति के सौंदर्य वर्णन में लगभग सभी पारम्परिक विधानों का निर्वाह किया गया है, लेकिन उनके सौंदर्य वर्णन की विशेषता का उद्घाटन उन सभी बिंदुओं के माध्यम से ही सही रूप में उभरकर सामने आता है जहाँ-जहाँ वे परम्परा से हटकर हैं।जहाँ कहीं वे परम्परा से अवांतर अपने सौंदर्य चित्रण की नवीन योजना तैयार करते हैं वही उनकी अपनीविशेषता है। इस रूप में विद्यापति की पहली विशेषता यह है कि उन्होंने मनोवैज्ञानिक चेतना को ध्यान में रखकर कविता लिखी है।संस्कृत साहित्य में सौंदर्य के जितने भी वर्णन हैं सब के सब बाह्य, स्थूल और चाक्षुष सौंदर्य हैं। किंतु विद्यापति का वर्णन इस बात में अनोखा है कि यहाँ मांसल सौंदर्य तो है और नायिका का बाह्य क्रिया-व्यापार यानी शारीरिक हरकत भी है, लेकिन  साथ ही  साथ उम्र  परिवर्तन के  कारण   नायिका के  मानसिक हलचलों का भी सहज चित्रण है। इस रूप में विद्यापति हिन्दी साहित्य में पहली बार सौंदर्य और सौंदर्य के मनोविज्ञान के मूल को पकड़ते हैं। यह उनकी मौलिकता का परिचायक है।

कुच-जुग अंकुर उतपति भेल। चरन-चपल-गति लोचन लेल।।

अब सब खन रह आँचर हाथ। लाजे सखिजन न पुछए बात।।

कि कहब माधव वयसक संधि। हेरइत मनसिज मन रहु बंधि।

विद्यापति के पदावली की एक खास विशेषता है जो पदावली के आरम्भ से लेकर अंत तक देखी जा सकती है। यह विशेषता है- नायिका के गतिशील सौंदर्य का वर्णन। इनके यहाँ गतिशील सौंदर्य के वर्णन का एक मूल कारण यह है कि इनकी नायिका अंकुरित नायिका है, विकसनशील नायिका है। यह नायिका प्रौढ़ा नहीं है, जिसका सौंदर्य स्थिर है, एकरूप है।विद्यापति की नायिका ‘पल पल परिवर्तित अबाध धारा’ की तरह विकास कर रही है।नायिका के शरीर का वह भाग जहाँ यौवन अपनी केन्द्रीय सत्ता स्थापित करता है, विद्यापति उस सत्ता के कुशल चितेरे हैं। वे उस मांसल सत्ता की नींव पड़ने से लेकर साम्राज्य विस्तार होने तक के सौंदर्य की गतिशील चित्रण करते हैं। इस रूप में विद्यापति को ‘उद्दाम यौवन’ का कवि कहना ही उचित प्रतीत होता है।

पहिले बदरि कुच पुन नवरंग। दिन-दिन बाढ़ए पिड़ए अनंग।।

से पुन भए गेल बीजकपोर। अब कुच बाढ़ल सिरिफल जोर।।

विद्यापति की नायिका एक राज्य की तरह है जिस पर कामदेव अपना आधिपत्य जमा चुका है।कवि इसी सौंदर्य राज्य का आश्रित कवि है। दूसरे शब्दों में यह कह सकते हैं कि विद्यापति का कवि मन इसी राज्य के प्रति अपनी तमाम वफादारी और जवाबदेही साबित करता है। सौंदर्य वर्णन के साथ-साथ व्यावहारिक ज्ञान देने की कला का अद्भुत संयोग विद्यापति के पदों में ही देखा जा सकता है।

आजुक लाज तोहे के कहब माई। जल दए धोइ जदि तबहु न जाई।।

नहाई उठलि हमें कालिन्दी तीर। अंगहि लागल पातल चीर।।

हंसि मुख मोड़ए ढ़ीठ कन्हाई। तनु-तनु झाँपइते झाँपल न जाई।।

विद्यापति कह तोहे अगेआनि। पुनु काहे पलटि न पैसलि पानि।।

सौंदर्य वर्णन के क्रम में विद्यापति कभी भी नायिका की अवस्था का अतिक्रमण नहीं करते।सारी प्रक्रिया सहज रूप से आगे बढ़ती है। इसी क्रम में नायिका थोड़ी और विकसित होती है तो उसकी स्वाभाविक चेष्टाएँ उभर कर सामने आती है। नायिका के चेष्टाओं का वर्णन करते समय कवि की सहज विशेषता चित्रात्मकता उभर कर सामने आती है। नायिका कभी हँसती है तो कभी अपने अधरों पर वस्त्र रख लेती है, कभी अपने उरोजों को स्वयं ही कनखियों से देखती है तो कभी मुस्कराती है। विद्यापति इन सभी चेष्टाओं का सजीव वर्णन करते हैं-

खने खने नयन कोन अनुसरई। खने खने वसन धूलितनु मरई।।

खने खने दसन छटा छुट हास। खने खने अधर आगे करू वास।।

सौंदर्य के चित्रात्मक योजना की ही अगली कड़ी है- बिम्ब निर्माण। नायिका तालाब से नहाकर निकल रही है, उसके अंगों पर चिपके महीन वस्त्र से निकलती हुई आभा को देखकर कवि का मन मुग्ध हो जाता है। नायिका अपने भींगे केशों से पानी झाड़ती है और उनसे गिरते हुए पानी को देखकर कवि को ऐसा लगता है मानों अंधकार रो रहा है।

कामिनि करए सनाने। हेरितहि हृदय हनए पंचबाने।।

चिकुर गरए जलधारा। जनि मुखससि डरे रोअए अंधारा।।

तत्कालीन समाज में नहाकर आती हुई स्त्री (सद्यःस्नाता) का वर्णन करना विद्यापति जैसे स्वच्छंद कवि की ही विशेषता हो सकती है।पदावली में सौंदर्य वर्णन के दौरान विद्यापति उन्मुक्तता का भरपूर उपयोग करते हैं।सौंदर्य दर्शन के लिए अनिवार्य शर्त है- खुलापन।खुलापन से ही संदर्भित विद्यापति की अगली विशेषता है- पानी के रूपक का व्यापक प्रयोग।पदावली में तमाम ऐसे पद हैं चाहे वह स्नान का वर्णन हो या पावस ऋतु में अभिसार के लिए जाती नायिका का, अधिकांश जगहों पर नायिका का पानी से अनिवार्य संबंध दिखाई पड़ता है।सवाल उठता है कि आखिर ऐसा क्यों है? दरअसल पानी प्रेम का, शुचिता का, पवित्रता का, स्निग्धता का, कोमलता और स्वच्छंदता का प्रतीक है। जिस तरह पानी का अपना सौंदर्य और महत्व है, उसी तरह विद्यापति की नायिका भी पारम्परिक नायिकाओं के सौंदर्य से विशेष है।पदावली में विद्यापति कई जगह ‘अपरूप’ सौंदर्य की बात करते हैं। अपरूप का अर्थ है- सौंदर्य की अपूर्वता का चित्रण। विद्यापति भले ही राधा-माधव के प्रतीक को लेकर ऐहिक सौंदर्य का वर्णन करते हैं, लेकिन कई स्थानों पर उनका अपरूप सौंदर्य इतना विस्तार ग्रहण करता है मानों संपूर्ण त्रिभुवन को उसने जीत लिया है। इस अर्थ में हमें विद्यापति के सौंदर्य वर्णन में सौंदर्य की व्यापकता का चित्रण मिलता है।

सुधामुखि के बिहि निरमल बाला

अपरूप रूप मनोमय मंगल त्रिभुवन विजयी माला।

कवि की नायिक (राधा) का अपरूप पारस  मणि  का  रूप  है  जिसकी दीप्ति से निखिल सृष्टि प्रदीप्त    हो उठता है।                                                                                      इस प्रसंग में विद्यापति का सौंदर्य वर्णन दिव्यता का उद्घाटन करता नजर आता है-

जहाँ जहाँ पग-जुग धरई, तँहि तँहि सरोरूह अरई।

जहाँ जहाँ झलकत अंग, तँहि तँहि विपुरि तरंग।

भाषा के स्तर पर विद्यापति के सौंदर्य वर्णन की विशेषता है- शब्दों का लालित्य। एक पद में वर्णन है- अचानक हवा चलती है और नायिका के वस्त्र खिसक जाते हैं। नायक को पहली बार नायिका का देह-दर्शन होता है। विद्यापति की यह खासियत है कि सिर्फ दृश्य-विधान में ही नायिका का वस्त्र नहीं खिसकता, बल्कि शब्द योजना भी इस तरह की है जिससे लगता है कि एक-एक शब्द से नायिका के एक-एक वस्त्र खिसक रहे हैं-

ससन परस खसु अम्बर रे देखल धनि देह।

नव जलधर तर चमकाए रे जनि बिजुरि गेह।।

शब्दों का लालित्य तो देखिए, वर्णन तो हो रहा है नायिका के अनावृत्त होने का, देहयष्टि के अनावरण का लेकिन बिम्ब अद्भुत है। नायिका के वस्त्र ऐसे हैं मानों काले-काले बादल हों और उसके खिसकने से ऐसा लगा जैसे अचानक बिजली चमक गई हो। अचानक बिजली चमकने से विज्ञान के अनुसार नायक के मन में कामदेव की गर्जना होना लाजिमी है।

विद्यापति परम्परा के पोषक हैं, परम्परा का निर्वाह करते हैं। लेकिन उनका यह परम्परा-पालन ‘नकल’ न होकर अनुकरण के माध्यम से पुराने शब्दों में ही नए भाव गढ़ने की कोशिश है। इसी कारण उन्हें ‘अभिनव जयदेव’ भी कहा जाता है। अपने सौंदर्य वर्णन में विद्यापति सीधे-सीधे जयदेव से जुड़ते दिखाई पड़ते हैं। जयदेव अपने ‘गीतगोविन्द’ में एक जगह लिखते हैं-

प्रलय पयोधि जले धृतवामसिवेदम्

विहित वहित्र चरित्रखेदम्

केशव धृत मीनशरीरम् जय जगदीश हरे।

विद्यापति अपने पदावली में एक जगह लिखते हैं-

प्रनय-पयोधि-जलहिं तन झाँपल, ई नहि जुग अवसान।

के विपरित कथा पतिआएत, कवि विद्यापति भान।।

वस्तुतः जयदेव और विद्यापति के इन दोनों पंक्तियों के भाव में कुछ समानता है, लेकिन दोनों का संकेत बिल्कुल अलग है। जयदेव यहाँ जलप्लावन की घटना का रूपक प्रस्तुत करते हुए विष्णु के मीन अवतार लेने का वर्णन करते हैं। किंतु विद्यापति यहाँ इस पद की दिशा ही बदल देते हैं। वे प्राकृतिक उपादानों के माध्यम से नायिका के प्रथम समागम और उसके बाद की स्थिति का वर्णन करते हैं। यहाँ कवि प्रणय भाव के यानी मिलन भाव के वेग और समागम के उद्वेग की तुलना सृष्टि के प्रलय की घटना से करते हैं। लेकिन साथ ही यह भी कहते हैं कि यह किसी युग की समाप्ति नहीं थी, बल्कि दो शरीरों के, दो भावों के मिलन से रस की इतनी तेज धारा बही जिससे ऐसा लगा मानों प्रलय आ गया हो।यह प्रलय विध्वंस का नहीं था, अपितु सृजन के लिए किया गया पूर्व शारीरिक क्रिया-व्यापार था।विद्यापति कहते हैं कि यह विपरित कथा है, इसे कौन मानेगा।लेकिन इसके भीतर जो मिलन का सौंदर्य है, सृजन का सौंदर्य है, वह पद से बार-बार बाहर झाँक रहा है।

विद्यापति के सौंदर्य योजना की विशेषता यह है कि इनके पद प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से परवर्ती कवियों को भी प्रभावित करता है। उनकी पदावली में कई ऐसे पद हैं जो भाव साम्य की दृष्टि से बाद के कवियों से जुड़ते प्रतीत होते हैं।

कबीरदास से भाव साम्य वाले पद-

दीपक लोभ सलभ जनि धाएल, से फल भुजइत चाई।।

तुलसीदास से भाव साम्य रखने वाले पद-

अपन करम-दोष आपहि भुंजई, जे जन पर बस होई।।

सूरदास से जुड़ने वाले पद-

सजनी कान्ह के कहब बुझाई।

रोपि पेम बिज अंकुर मड़ल, बाँचव कओने उपाई।।

जयशंकर प्रसाद से भाव साम्य वाले पद-

सिकता जल जैसे छनहि सुखाए सखि, तैसन मोर सोहाग।।

विद्यापति के सौंदर्य वर्णन का विश्लेषण करते समय कई बार उनपर अश्लीलता का भी आरोप लगाया जाता है। किंतु ऐसा आरोप लगाना उचित नहीं है। प्रत्येक कवि अपने देशकाल से बंधा होता है और विद्यापति चौदहवीं सदी के कवि हैं। इस समय मुक्त सौंदर्य का वर्णन अश्लील नहीं माना जाता था। इसलिए आज जब हम इक्कीसवीं सदी में नारीवाद और स्त्री विमर्श की छांह में बैठकर विद्यापति के पदावली का मूल्यांकन करते हैं तो वह हमें नैतिकता और मर्यादा की सीमा का बार-बार अतिक्रमण करती नजर आती है। किंतु जैसे ही हम इन पदावलियों को उनके भूगोल और काल के दायरे में रख कर देखते हैं तो वे हमें सामंती समाज के उन्मुक्त मिजाज के अलावा और कुछ भी नहीं लगता। इसकी दूसरी व्याख्या यह भी की जा सकती है कि आज के इस उत्तर-आधुनिकता के दौर में जिस यौन-शिक्षा के माध्यम से समाज को स्वच्छ-स्वस्थ बनाने की कवायद नजर आती है, इसका उत्स हमें विद्यापति के पदावली में मिलता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल अपने इतिहासग्रंथ में सूरसागर में वर्णित रासलीला को ‘जीवनोत्सव’ कहते हैं, जिसमें गोपियाँ समाज के तमाम मर्यादाओं के केंचुल को उतारकर रात्रि में कृष्ण के साथ स्वच्छंद लीला करती नज़र आती है। ठीक वैसे ही विद्यापति की पदावली के नायक-नायिका वासनाओं का गुपचुप खेल नहीं खेलते, बल्कि लालसाओं की स्वच्छंद लीला करते हैं जहाँ न समाज के नैतिकतावादी लठैत खड़े हैं और न ही मर्यादा के कथित रक्षक।

इस तरह विद्यापति सजीव सौंदर्य के वर्णन में अपनी सारी प्रतिभा लगा देते हैं। वे सौंदर्य के मामले में परम्परावाहक के साथ-साथ सृजन की असीम संभावना से युक्त कवि हैं। भाव, भाषा, शैली और शिल्प इन सभी स्तरों पर पदावली के माध्यम से देशभाषा-लोकभाषा में वे एक प्रतिमान स्थापित करते हैं। हिन्दी कविता की शृंगारिक परम्परा के ‘अभिनव जयदेव’ कवि विद्यापति एक ऐसी दुनिया की सृष्टि करतेहैं जो गुलाबों से भरी हुई है। डॉ. रामकुमार वर्मा ने कहा है कि ‘विद्यापति का समूचा संसार गुलाबों से भरा है और विद्यापति के गुलाबों कीदुनिया में कोई कांटे नहीं होते। राधा रात भर जागती है और आकांक्षा करती है कि इस रात की सुबह न हो।’

 

ललन कुमार
शोधार्थी,दिल्ली विश्वविद्यालय

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