साहित्य के इतिहास में जब भी वाइमार क्लासिक की बात की जाती है, तो उसमे ग्योटे और शिलर के पहले विंकेलमान का नाम आता है. हालाकि बहुत से विद्वान यह मानते हैं, कि ग्योटे के इटली यात्रा से ही वाइमार क्लासिक की शुरुवात होती है, लेकिन इस बात से भी कोई इनकार नहीं कर सकता, कि यदि विंकेलमान 1755 में इटली नहीं गए होते और वहां पर ग्रीक कला का अध्ययन नहीं किया होता, तो साहित्य में वाइमार क्लासिक की शायद ही कल्पना की जाती. हालाकि विंकेलमान और ग्योटे दोनों इटली की यात्रा करते हैं, लेकिन कला के क्षेत्र में वे हमेशा प्राचीन यूनान की तरफ देखते हैं. इसका यह मतलब बिल्कुल भी नहीं है, कि वे इटली को एक देश के रूप में कला और संस्कृति के क्षेत्र में कम आंकते हैं. दोनों ही विद्वान और खासकर ग्योटे इटली के लोगों और वहां की संस्कृति के बारे में भी बातें करते हैं और बहुत हद तक खुद को भी उसी परिवेश में ढालने की कोशिश भी करते हैं. अपनी यात्रा के अंत में वे इटली की संस्कृति में कोई कमी है, ऐसा बिल्कुल नहीं लिखते. वे यह जरुर कहते हैं, कि इटली की संस्कृति और वहां के लोग जर्मन लोगों से काफी अलग है, जिन्हें समय का पाबंद होने की जगह मौज मस्ती करना ज्यादा पसंद है.

विंकेलमान की इटली यात्रा और प्राचीन यूनान दोनों एक दूसरे के पूरक हैं. एक के बिना दूसरे की कल्पना भी नहीं की जा सकती. हालाकि वह प्राचीन यूनान की यात्रा पर भी जाना चाहते थे, लेकिन उस समय के राजनितिक परिदृश्य के चलते ऐसा संभव नही हो सका. चूकी इटली के विभिन्न शहरों में पहले से ही यूनानी कला के ढेर सारे अवशेष विद्यमान थे, तो इसलिए उन्होंने यूनान के कला और संस्कृति के अध्ययन के लिए इटली को चुना. रोम, सिसली, और कई ऐसे शहर प्राचीन यूनान के याद दिलाते थे. इन शहरों के खुबसूरत संग्रहालयों में यूनानी कला और साहित्य के बारे में ज्ञान का एक बहुत बड़ा जखीरा था, जो विद्वानों को काफी आकर्षित करता था. हालाकि इसमें दिलचश्प बात यह है कि जो जर्मन विद्वान फ्रांसीसी और अंग्रेजी विद्वानों की एक तरफ आलोचना करते थे, ताकि वह खुद को उनसे बेहतर दिखा सकें, वही लोग उन विद्वानों और खासकर फ्रांसीसी विद्वानों से प्रेरणा लेते नजर आते है. विंकेलमान भी इसमें कोई अपवाद नही हैं. यह बात ज्यादातर जर्मन विद्वानों के बारे में सही है, लेकिन ग्योटे ने इस बारे में जर्मन लोगों को चेतावनी दी थी और ऐसा करने से बचने की सलाह भी दी थी. लेकिन फिर भी यह परम्परा जारी रही और अंत में इसका परिणाम दो महायुद्धों के रूप में सामने आया, जिस पर कोई भी गर्व नही कर सकता.

एक तरफ विंकेलमान सत्रहवीं शताब्दी में प्रकाशित फ्रेंच क्लासिक रचनाओं से प्रभावित भी नजर आते हैं, और दूसरी तरफ वह रोम और पेरिस पर एथेंस को तरजीह भी देते हैं. बारोक कला को तो वह हर तरह से नकारते हैं और कहते हैं, कि केवल यूनानी कला में ही वह काबिलियत है, कि वह पूरे विश्व और खासकर यूरोप को शांति, आजादी और भाईचारा का पाठ पढ़ा सकती है. यूनानी भाषा, साहित्य, कला और संगीत को वह जर्मन लोगों ले लिए एक आदर्श के रूप में प्रस्तुत करते हैं, जिससे जर्मन समाज को सीखना चाहिए और आगे बढ़ना चाहिए. उनकी नजर में प्राचीन यूनान का अनुकरण किये बिना जर्मन समाज का सर्वांगीण विकास कभी संभव नही है, क्योंकि प्राचीन यूनानी समाज हर क्षेत्र में बाकि दूनिया से मीलों आगे रहा है. वह यहाँ तक कहते हैं, कि महान बनने का जर्मन लोगों के पास एक ही तरीका है और वह है, यूनानी कला और संस्कृति का सम्पूर्ण अनुकरण.

यूनानी कला के संपर्क में आने के बाद उनके पहले शब्द यह थे, की कला के खुबसूरत नमूने जो आज पूरे विश्व में दिन पर दिन फ़ैल रहे हैं, वे सबसे पहले प्राचीन यूनान में अस्तित्व में आए. सम्पूर्ण विश्व में आज जो भी कला और साहित्य के नमूने हैं, वह यूनान में आकर और निखर गए और उसके बाद उन्हें अपार ख्याति मिली. कला के इन खुबसूरत नमूनों ने यहाँ आने के बाद हमेशा कुछ न कुछ पाया ही है, कभी कुछ खोया नहीं. यदि ये उन देशों में रहते जहाँ ये सबसे पहले अस्तित्व में आए, तो शायद उन्हें इतनी ख्याति नही मिलती, जितनी की मिली है. यूनानी कला को वह कला के सबसे खुबसूरत नमूना मानते हैं, और इस विषय पर उनका विचार है, कि वह लोग सचमुच सौभाग्यशाली है, जिन्होनें इन्हें देखा है और नजदीक से अनुभव किया है. इस सन्दर्भ में वह खुद को भी खुशनसीब मानते हैं, कि उनके आसपास इस कला की ढेर सारे नमूने मौजूद हैं.

यूनानी लोगों को वह बाकि दूनिया के लोगों से बेहतर और सभ्य लोग मानते हैं, जिन्हें कला, संस्कृति और दर्शन के बारे में लिखने की तमीज है. यूनान और वहां की कला की प्रशंसा में कभी कभी वह इतना आगे चले जाते है, कि मानो कोई छोटा बच्चा अपनी पसंदीदा वस्तु के बारे में बात कर रहा हो. उनके अनुसार यूनानी कला प्रकृति को ही अपने साथ नही समेटती, बल्कि उसमें तो प्रकृति से ज्यादा चीजें विद्यमान हैं. जिसे भी इस कला के दर्शन हो गए और उसने इसे समझ लिया, वह शोध के क्षेत्र में बहुत आगे जा सकता है. ये वही नमूने हैं, जिसके बारे में प्लेटो ने हमें विस्तृत जानकारी दी है. रोम और यूनान के कलाकृतियों की तुलना करते हुए वह लिखते हैं, कि रोम की सबसे सुन्दर कलाकृतियाँ यूनान की कलाकृतियों का प्रथम चरण भर है. रोम की कला के बारे में पूरे विश्व और खासकर यूरोप के विद्वान बहुत अच्छे विचार रखते आए थे, लेकिन पहली बार विंकेलमान ने इस लोकप्रिय धारणा पर सवाल उठाए, जिसके बारे में उस समय और कोई सोच भी नहीं सकता था.

यूनानी दर्शन को वह और सभी दर्शनों से श्रेष्ठ मानते हैं और कहते हैं, कि इसी दर्शन ने यूनानी कला को और मजबूत बनाया है. जहाँ का दार्शनिक सुकरात जैसा महान हो, वहां की कला भी और जगह की कलाओं से बेहतर ही होगी, इसलिए इस कला और दर्शन का अनुकरण किया जाना चाहिए. इसके अनुकरण से जो कला निकलेगी उसमें अलग तरह का प्रभाव होगा और  कोई दूसरा जल्दी उसका अनुकरण नहीं कर पाएगा. हालाकि ऐसी बात नहीं की वह केवल दर्शन के कला पर प्रभाव की बात करते हैं, वह तो कला और संगीत के भी दर्शन पर प्रभाव की बात करते हैं. विंकेलमान के अनुसार यूनानी भाषा, संस्कृति, कला, संगीत और दर्शन ने एक एक दूसरे को समान रूप से प्रभावित किया है और इसके फलस्वरूप हर क्षेत्र में इस देश ने अपार उन्नति की है.

यह जर्मन विद्वान प्राचीन यूनानी संस्कृति से इतना प्रभावित लगता है, की वह कभी कभी जर्मन लोगों के रंग और रूप की तुलना यूनानी लोगों से कर देता है. इस तुलना में वह यूनानी लोगों को जर्मन लोगों से श्रेष्ठ बताते है. इसका मतलब यह भी है, कि वह ये साबित करना चाहते हैं, कि उस समय की महाशक्तियां ब्रिटेन और फ्रांस से भी कोई श्रेष्ठ है. इसलिए जर्मन लोगों को अपना आदर्श फ्रांस और ब्रिटेन में नहीं, बल्कि प्राचीन यूनान में देखना चाहिए, जो लोकतंत्र, समरसता, भाईचारा, आजादी और सौन्दर्य के मामलों में और सभी संस्कृतियों से श्रेष्ठ था. हालाकि इस तुलना में वह थोड़े बहुत नस्लवादी भी प्रतीत होते हैं, जिसमे वह काली आँखों वालों को नीली आँखों वालों से ज्यादा सुन्दर बताते हैं. ऐसा करते हुए वह कहते हैं, कि केवल यूनानी लोगों को ही यह महारत हासिल है, कि वह नीली आँखों को काली आँखों में परिवर्तित कर सकते हैं. उनके अनुसार वह सारी बीमारियाँ, जो मनुष्य के सौन्दर्य को किसी भी तरह से थोड़ा सा भी नुकसान पहुंचा सकती है, वह प्राचीन यूनान में  किसी भी जगह नहीं पाई जाती थी.

यूनानी समाज को यहाँ केवल आदर्श के रूप में ही प्रस्तुत नही किया जा रहा, बल्कि उसकी दूसरे समाजों से तुलना भी की जा रही है. उस प्राचीन समाज की तुलना प्राचीन मिस्र या भारत से नही, बल्कि आधुनिक दूनिया के देशों से की जा रही है. यहाँ पर अप्रत्यक्ष रूप से यह कहने की कोशिश हो रही है, कि जितना प्राचीन यूनान उस ज़माने में विकसित था, उतनी तरक्की आज के दूनिया के किसी भी देश ने नही की है. अर्थात फ्रांस और ब्रिटेन आज भी उस आदर्श समाज से बहुत पीछे हैं और जर्मन लोगों को उनसे आगे बढ़ने के लिए केवल उस सभ्य समाज का अनुकरण करना है. प्राचीन समय में जब दूसरे देशों में लोग पेड़ों से उतरे नही थे, तब यह समाज लोकतंत्र और आजादी की बात कर रहा था और आपने नागरिकों को इन मूल्यों का पाठ पढ़ा रहा था. इसका सीधा मतलब यह भी है, कि यूनानी कला ने लोकतंत्र, आजादी, भाईचारा, और शांति की शिक्षा दी है और वहां के विद्वानों ने इन मूल्यों की मदद से लोगों को शिक्षित किया है. इस प्रकार की पूरक शिक्षा से ही लोगों का सर्वांगीण विकास संभव हो पाया है. हर क्षेत्र ने इसमें अपनी भूमिका अदा की है.

यूनानी भाषा, संस्कृति, कला और संगीत के बारे में लिखने के बाद अपना ध्यान वहां के नाटक और साहित्य पर केन्द्रित करते हैं. उनके अनुसार इस खुबसूरत देश में कभी भी नग्नता को अश्लील नहीं समझा गया. ग्रामीण नाटकों में खुबसूरत युवा बिना किसी हिचक के नग्न अवस्था में नृत्य करते थे. आधुनिक युग के पहले ज्यादातर समय इसे लगभग सभी संस्कृतियों में अश्लीलता की ही श्रेणी में रखा जाता था. लेकिन यूनानी लोग हजारों साल पहले बौद्धिक रूप से इतने विकसित थे, कि वह इसे कला की एक प्रस्तुति ही समझते थे. हालाकि स्त्री और पुरुष दोनों ही उन नाटकों में नग्न होकर नृत्य करते थे, लेकिन इस जर्मन विद्वान का मानना यह था, सौन्दर्य का कोई लिंग नही होता और ऐसा हो सकता है, कि किसी परुष का सौन्दर्य किसी स्त्री से अधिक हो.

सबसे दिलचश्प बात उनको यह लगती है, कि इन नाटकों के पात्र केवल आम लोग नही होते थे, इसमें तो बड़े बड़े विद्वान भाग लिया करते थे. यह इस बात को दर्शाता है, कि इस समाज में नाटक और साहित्य को कितनी गंभीरता से लिया जाता था. आज के विश्व में आम जनता और विद्वानों के बिच की जो गहरी खाई है, वह इस समाज में देखने को नहीं मिलती थी. आम लोगों और विद्वानों के बिच बहुत अच्छे सम्बन्ध थे, दोनों एक दूसरे के पूरक थे. इस विषय पर विंकेलमान यूनानी लोगों की और अधिक तारीफ करते हैं, इसलिए यह पता चल जाता है, कि वह वास्तविक इतिहास से ज्यादा ऐतिहासिक मेटाफिजिक्स पर ज्यादा जोर दे रहे है, और यहीं उनकी आलोचना का मुख्य बिंदु है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण यह है, कि वह अपनी पुस्तकों में यूनानी बच्चों की तुलना दूनिया के सर्वश्रष्ठ कवि, लेखक और दार्शनिकों से करते हैं. उनका कहना है, कि इस महान समाज के छोटे छोटे बच्चे भी बड़े बड़े कवियों की तरह कविता करते है. मानव जीवन के हर भाग में छोटे छोटे बच्चों का इतना आगे होना भी इस समाज की महानता को रेखांकित करता है.

उस समय के जर्मन कवियों, लेखकों, दार्शनिकों और कलाकारों से विंकेलमान आग्रह करते है, कि वे जर्मन जनता को प्राचीन यूनान की महानता को बताएं और उन्हें इसका अनुकरण करने को कहें. तभी जर्मन लोग महान बन पाएंगे. अपनी रचनाओं में भी वह जर्मन विद्वानों से प्राचीन यूनान का अनुकरण करने का आग्रह करते हैं. महाकवि ग्योटे ने अपनी क्लासिक रचना इफिगेनी में वही किया है, जो विंकेलमान जर्मन विद्वानों से आग्रह करते हैं. इफिगेनी नामक नाटक में ग्योटे ने ग्रीक माइथोलॉजी के पात्रों को मानवतावादी सांचे में ढाल दिया है, जिससे यूरोप और खासकर जर्मनी को शांति और मानवता की शिक्षा दी जा सके. उस समय के यूरोप को इससे ज्यादा और किसी चीज की जरुरत नहीं थी. इसमें वह बहुत हद तक साहित्यिक रूप से सफल भी हुए हैं.

सन्दर्भ ग्रन्थ

  1. ग्योटे, जोहान वोल्फगांग: इटालियनिशे राइजे. बर्लिन 1976.
  2. ग्योटे, जोहान वोल्फगांग: गेडीख्ते. बर्लिन 1988.
  3. हेरडर, जोहान गौटफ्रिड: इटालियनिशे राइजे. बर्लिन 1988.
  4. कांट, इमेनुएल: सुम एविगेन फ्रीडेन. स्टुट्गार्ट 1987.
  5. शिलर, फ्रीडरिख: एसथेटिसे एरसिहुंग डेस मेंसेन. कोपेनहागेन 1793.
  6. विंकेलमान, जोहान जोआखिम: ब्रिफे आउस रोम. माइन्स 1997.
  7. विंकेलमान, जोहान जोआखिम: विंकेलमान इन आइनेम बांड. बर्लिन 1982.

प्रशांत कुमार पाण्डेय

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