समाज के अभिन्न अंग व्यक्ति के समग्र जीवन की पृथक-पृथक परिष्कृत एवं सुसंस्कृत गतिविधियों के समुच्चय रूप का नाम संस्कृति है। वर्ल्ड यूनिवर्सिटी एनसाइक्लोपीडिया के अनुसार, “संस्कृति समाज विशेष की जीवन-पद्धति है। यह आध्यात्मिक, बौद्धिक और कलात्मक व्यवहारों की ऐसी समग्रता है, जिसमें एक समूह अपनी परंपरा, प्रवृत्तियों, सामाजिक रीतियों, नैतिक आचारों, कानूनों तथा सामाजिक संबंधों के साथ सहभागिता करता है।”1 प्रत्येक संस्कृति प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से अपने से संबद्ध व्यक्ति को उच्च गुणों से परिपूर्ण करते हुये मानवीय वृत्तियों को व्यापक एवं उदार बनाने का महत्वपूर्ण एवं अत्यावश्यक कार्य करने के साथ ही उनके जीवन को प्रभावित करती है। जन्म के साथ ही मानव  समाज की अभिन्न इकाई परिवार से संस्कृति को स्वयंमेव अपनाना आरंभ कर देता है और धीरे-धीरे समय के साथ अपनी क्षमताओं एवं सामर्थ्य के द्वारा संस्कृति को समृद्ध एवं समुन्नत बनाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान देता है। संस्कृति किसी भी समाज के अतीत, वर्तमान एवं भविष्य की उपलब्धियों एवं इतिहास का प्रतिबिंब होती है। विश्व की सिरमौर उत्कृष्ट एवं समस्त गुणों से परिपूर्ण भारतीय संस्कृति को प्राचीनतम ग्रंथ ‘यजुर्वेद’ में वरणीय प्रथम संस्कृति का उच्चतम स्थान दिया गया है-

 “सा प्रथमा संस्कृति विर्श्ववारा…। (यजुर्वेद 7/14)”

   भारत के प्राचीनतम वेद, पुराण तथा धर्मशास्त्र अपने अमूल्य एवं सर्वश्रेष्ठ जीवन मूल्यों, चिंतन एवं विचारधाराओं के माध्यम से भारतीय संस्कृति को उज्ज्वल पक्षों से आलोकित करने में अपना अनमोल योगदान देते रहे हैं।

   प्राचीनतम ग्रंथों के संदर्भ में पावन ‘रामचरितमानस’ की रामकथा का जिक्र स्वयंमेव आ जाता है। भारतीय संस्कृति की जड़े रामकथा में बसती हैं। उत्कृष्ट एवं सर्वश्रेष्ठ ‘रामचरितमानस’ की राम कथा का वास आज भी प्रत्येक भारतीय के मन-मस्तिष्क में है। भक्तिकालीन राम भक्ति काव्यधारा के प्रतिनिधि कवि तुलसीदास भारतीय संस्कृति के संरक्षक के रूप में प्रख्यात हैं।  तुलसीदास ने समकालीन प्रतिकूल परिस्थितियों में ‘रामचरितमानस’ की रामकथा के द्वारा सामान्य जन को ज्ञान की अमृतधारा से  सराबोर करते हुए माननीय संस्कृति को ऊर्जस्वित करके सांस्कृतिक गौरव को पुनर्स्थापित करने में अपना बहुमूल्य योगदान दिया है। तुलसी के समय में  समाज के प्रत्येक वर्ग से आदर्श लुप्त हो रहे थे। अमर्यादित एवं आदर्शहीन समाज की स्थिति दयनीय थी। उच्च वर्ग जहां विलासितापूर्ण जीवन व्यतीत कर रहा था, वहीं सामान्य जन रोजी-रोटी के लिए संघर्ष कर रहा था। तुलसीदास ने तत्कालीन समाज के अवलोकन एवं चिंतन-मनन के पश्चात सारग्राहिणी बुद्धि से लिखित अद्भुत रामकथा के द्वारा परिवार, समाज और देश के लिए उच्च आदर्शों के प्रतिमान स्थापित किए तथा सामान्य जन में शील की ओर उन्मुख होने, सद्मार्ग पर चलने, विपरीत परिस्थितियों में धैर्य धारण करने, मुश्किल कार्य के लिए उत्साह रखने एवं बुरे कर्मों पर पश्चाताप करने की अद्भुत जागृति  के संचार के नायक बने। “मानस की कथा का आधार वाल्मीकि रामायण ही है, परंतु इसमें कथा-विस्तार, दार्शनिक विचारों तथा भक्ति भावना आदि के लिए अध्यात्म रामायण, गीता, उपनिषद, पुराण आदि का भी तुलसी ने आश्रय लिया है।”2

   भारतीय संस्कृति का एक अभिन्न अंग आदर्श राज्य की धारणा है। “राजनीति शब्द ‘राज’ और ‘नीति’ दो शब्दों के योग से बना है। प्राय: ‘राज’ से राज्य और ‘नीति’ से नियम का अर्थ लगाया जाता है अर्थात किसी भी राज्य को चलाने के लिए जो नीतियां बनाई जाती हैं, वे सब राजनीति के अंदर आती हैं।”3  आधुनिक काल में तो राजनीति के क्षेत्र में अधिकतर ‘रामराज्य’ की अवधारणा का प्रयोग सत्ता एवं कुर्सी पाने हेतु जनता को मोहित करने के लिए होता ही रहता है, किंतु वास्तविकता क्या है? 21वीं सदी में राजनीति के क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार, मूल्यों का पतन और नौकरशाही में हस्तक्षेप स्पष्ट परिलक्षित है। अधिकतर राजनीतिज्ञ स्वार्थ पूर्ति हेतु हर तरह के हथकंडे अपनाकर केवल भ्रष्ट तरीके से पैसा कमा कर अपना घर भरने में ही संलग्न रहते हैं। चुनाव से पहले बड़े-बड़े आश्वासन और वादे तो कर देते हैं, किंतु जीतकर सत्ता में आने पर एक बार कुर्सी पर बैठ जाते हैं तो नागरिकों की तरफ अपने दायित्वों एवं कर्तव्यों से मुंह मोड़ लेते हैं। आम लोगों की समस्याओं एवं कठिनाइयों से उन्हें कोई लेना-देना नहीं होता।  विलासी जीवन जीने के आदी राजनीतिज्ञ प्रशासन के प्रत्येक क्षेत्र में हस्तक्षेप को अपना मौलिक अधिकार समझते हैं।  सामान्य जन की बात करें तो उनमें भी राष्ट्रीय भावना का अभाव मिलता है। आज प्राय: लोगों में भ्रष्टाचार, निरंकुशता, कर चोरी और स्वार्थ की भावना परिलक्षित होती है। ऐसी दुखद परिस्थिति का समाधान ‘रामचरितमानस’ में ‘आदर्श रामराज्य’ के रूप में मिलता है। तुलसी ने आदर्श  राजा की विद्वता, दानवीरता, विनम्रता एवं प्रजावत्सलता आदि गुणों के साथ ही अपनी प्रजा को सुख, शांति तथा न्याय आदि प्रदान करके सुव्यवस्था को सुनिश्चित करने जैसे महत्वपूर्ण कार्य चिन्हित किए हैं तथा प्रजा के राजा व राज्य के प्रति कर्तव्यों एवं अधिकारों से भी अवगत करवाया है। ‘रामचरितमानस’ के श्री राम प्रजा का अपने बच्चों की तरह पालन पोषण करने में विश्वास रखते हैं-

“धरनि धेनु चारित चरत प्रजा सुबच्छ पेन्हाइ।

 हाथ कछु नहिं लागिहै किए गोड़ की गाइ।”4

   ‘रामचरितमानस’ में चित्रित लोकहितकारी एवं परोपकारी राजा श्री राम के आदर्शों का अनुसरण करते हुए प्रजा में आदर्श नागरिकों की भांति अपने राज्य के प्रति सच्ची देश प्रेम की भावना दृष्टिगोचर होती है। उनके मन में अपने देश के प्रति गद्दारी या धोखा देने की भावना लेश मात्र भी नहीं है। नागरिक भी राज्य के प्रति अपने कर्तव्यों  एवं दायित्वों का पालन करते  हुए उसकी उन्नति, विकास और समृद्धि में अपना महत्वपूर्ण योगदान देते हैं।

  मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम की कथा में आदर्श भारतीय समाज के मूल्य परिलक्षित है, जिन्हें आज के युग में भी लोग आत्मसात कर ले तो आदर्श  समाज की स्थापना निसंदेह हो जाएगी। “तुलसी ने सामाजिक चेतना की वह भूमि प्राप्त कर ली थी, जहां वैयक्तिक आदर्शों और सामाजिक मूल्यों में कोई अंतर नहीं रह जाता। उनके कथानायक मर्यादा पुरुषोत्तम राम इस धरती पर मानव-जीवन के आदर्श एवं महत्तम रूप की स्थापना के लिए अवतरित हुए थे। उन्होंने अपने सारे कार्य व्यापारों का आयोजन समाज के भीतर किया था। ‘रामचरितमानस’ उसी समाज के उदात्तीकरण की मर्मकथा को एक मान्य और स्थापित सामाजिकता के साथ ही करता है।”5 आज 21 वीं सदी के बाजारवादी परिदृश्य में आदर्श समाज हेतु आवश्यक मूल्यों एवं आदर्शों का पतन दिखाई दे रहा है। आज विभिन्न धर्मों में वैमनस्य, ईर्ष्या-द्वेष की दुर्भावनाएं दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही हैं, जिसके परिणामस्वरूप सामान्य जन शांति, सद्भावना से कोसों दूर है। आज के भौतिकवादी परिवेश में महत्वाकांक्षाओं की अंधी दौड़ में भागते युवक नैतिक मूल्यों से रहित हो रहे हैं। आज समाज में असत्य, अनैतिकता, मानव मूल्यों का विघटन तथा निरंकुशता का बोलबाला है। इस समस्या का समाधान तुलसीदास द्वारा रचित ‘रामचरितमानस’ में स्वयंमेव मिलता है, जहां आदर्श समाज के बुनियादी आधार धार्मिक, सामाजिक एवं पारिवारिक  सद्भावना, प्रेम एवं पवित्र मनोभाव दृष्टिगोचर होते हैं। तत्कालीन समाज में सभी लोग आपस में सदभावनापूर्वक एवं  प्रेमपूर्वक निवास करते थे। श्री राम का आदर्श चरित्र सामाजिक सुव्यवस्था के आधारस्तंभ विश्व बंधुत्व एवं मानव प्रेम को रेखांकित करता है। ‘रामचरितमानस’ में आदर्श समाज का रूप देखा जा सकता है-

“दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं  काहुहि व्यापा।

सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरतश्रुति नीती।।”6

  वर्तमान समय में अधिकतर व्यक्ति काम, क्रोध, लोभ, मोह, असत्य, धोखा, पाखंड और अहंकार  इत्यादि मनोविकारों के जंजाल में फंसे  हुए स्वयं के साथ ही समाज के भी दुश्मन बन बैठे हैं। इन मनोविकारों से ग्रस्त  युवा पीढ़ी पाश्चात्य सभ्यता से प्रेरित शिक्षा प्रणाली और तनावपूर्ण प्रतियोगिताओं के दौर में नैतिक मूल्यों से कटकर तनाव, हताशा, कुंठा, अकेलेपन व अजनबीपन का शिकार हो रही है। आधुनिक मानव परमार्थ की अपेक्षा स्वार्थ पर केंद्रित रहता है। ‘रामचरितमानस’ की राम कथा परमार्थ व परोपकार के माध्यम से दूसरों के कल्याण में संलग्न रहने का संदेश देती है। यदि प्रत्येक व्यक्ति दूसरों के हित में कार्य करें तो संपूर्ण विश्व स्वर्ग बन जाएगा। श्री राम कहते हैं-

“परहित सरिस धर्म नहिं भाई। पर-पीड़ा सम नहिं अधमाई।”7

अर्थात् सभी मनुष्यों को दूसरों को दुख देने के पाप से मुक्त रहते हुये  परोपकार की भावना से सराबोर होते हुए सभी को सुख पहुंचाने के पुण्य कार्य में संलग्न रहना चाहिए। पावन अजस्त्र मंदाकिनी  राम कथा क्षमा, करुणा, विवेक, विनयशीलता इत्यादि गुणों को अपनाने की प्रेरणा देती है। क्रोध की आग ऐसी आग होती है जिसमें मानव दूसरों को सजा देने हेतु विरोध की आग में जलता है, किंतु वह शारीरिक व मानसिक रूप से खुद को ही हानि पहुंचा रहा होता है। तुलसीदास बुद्धिमता और विवेक को सज्जन व्यक्ति का अनिवार्य गुण मानते हुए उसे क्रोध और राग-द्वेष से रहित बताते हैं-

“बुध सों बिबेकी बिमल मति जिनके रोष न राग।

 सुह्रद सराहत साधु जेहि तुलसी ताको भाग।।”8

  21वीं सदी की बात करें तो आज मानव के लिए स्वार्थ तथा धन-संपत्ति का महत्व संबंधों से कहीं ऊपर हैं। आज समाचार-पत्रों में जमीन जायदाद एवं संपत्ति के लिए भाई द्वारा भाई की या पुत्र द्वारा अपने अभिभावक की तथा किसी रंजिश के चलते मित्र द्वारा मित्र की हत्या करने की खबरें प्रायः रोज पढ़ने को मिलती हैं। समकालीन समय में समाज निर्ममता एवं निर्दयता की दलदल में धंसता नजर आ रहा है। आधुनिक भौतिकवादी परिदृश्य में मानव के मन से वात्सल्य, दया एवं करुणा इत्यादि सद्भावनाएं विलुप्त होती जा रही हैं। इसके अतिरिक्त आज संयुक्त परिवार की परंपरा पतन की कगार पर है। आज एकल परिवार अस्तित्व में बहुत अधिक संख्या में आ रहे हैं। आज की युवा पीढ़ी तो जन्म देने वाले माता-पिता के प्रति अपने कर्तव्यों से भी उदासीन हो गई हैं। हमारे समाज में वृद्धों का एक वर्ग जहां अपने ही बच्चों के घर में बदहाली का जीवन जी रहा है तो कुछ वृद्ध दंपति अपने बेटों के पास अलग-अलग रहने के लिए विवश कर दिए जाते हैं। जो दंपति आजीवन अपने बच्चों को मिलकर पालते हैं, उन्हीं माता-पिता को वृद्धावस्था में वे बोझ की तरह मानते हुए अपने पास इकट्ठे रखने के लिए ही नहीं मानते हैं। आज पश्चिमी देशों की भांति हमारे समाज में वृद्धाश्रम की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है, जहां निराश्रय वृद्ध दंपत्ति अपनी बची हुई जिंदगी अकेले जीने को विवश होते हैं। अपने नैतिक दायित्वों से भटकी आज की युवा पीढ़ी के लिए ‘रामचरितमानस’ में आदर्श मानवीय संबंधों की महत्ता स्पष्ट परिलक्षित है।  राम कथा के नायक श्री राम का अपनी सौतेली मां कैकई के कहने पर राजगद्दी का त्याग करते हुये 14 वर्ष के वनवास पर जाना आज के युवा वर्ग के लिए अद्भुत उदाहरण हैं। तीनों माताओं के प्रति  श्री राम और लक्ष्मण का पुनर्मिलन अद्भुत बन पड़ा है-

“भेटेउ तनय सुमित्र राम चरन रति जानि।

 रामहि मिलत कैकई ह्रदयँ बहुत संकुचानि।।

लछिमन सब मातन्ह मिलि हरषे आसिष पाइ।

 कैकई कहँ पुनि पुनि मिले मन कर छोभु न जाइ।।”9

  ‘रामचरितमानस’ की अनमोल रामकथा हमें अपने संबंधों की कदर करने तथा अपने बड़े बुजुर्गों से जुड़कर उनके मार्गदर्शन में सही पथ पर चलने की प्रेरणा देती है।

  आधुनिक समय में ताजमहल को प्रेम का प्रतीक माना जाता है। ताजमहल एक पति द्वारा अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद उसके शोक में बनाया गया, जिसके निर्माण के पश्चात उसके निर्माता निर्दोष असंख्य मजदूरों के हाथ कटवा दिए गए। ताजमहल के निर्माण के पीछे प्रेम नहीं, अपितु निर्ममता का शिकार हुए मजदूरों के आँसू और दुख छुपे हैं। भारतीय संस्कृति में चित्रित पावन एवं त्यागमय, निश्चल व निष्कपट प्रेम का आदर्श प्रतीक श्रीराम द्वारा अपहरण की गई पत्नी सीता को ससम्मान वापिस लाने हेतु लंका तक बनाए गए ‘सेतुबंध’ को माना जाना उचित एवं न्याय संगत प्रतीत होता है। श्रीराम द्वारा अपनी पत्नी को मान मर्यादा सहित वापस लाने हेतु समुद्र में केवल पत्थरों से ‘सेतुबंध’ निर्मित करवा कर संसार को आश्चर्यचकित कर दिया था।

  हमारी प्राचीन संस्कृति में पति-पत्नी को एक दूसरे के पूरक का दर्जा दिया गया है। आधुनिक परिदृश्य में भौतिकवाद के बढ़ते प्रभाव के कारण  अधिकतर पति-पत्नी आपसी प्रेम एवं स्नेह की अपेक्षा धन-संपत्ति कमाने व एकत्रित करने पर अपना ध्यान केंद्रित कर रहे हैं। बड़े शहरों की बात करें तो पति-पत्नी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की नौकरियों में ही अधिकतम समय व्यतीत कर देते हैं। उनके पास परस्पर बैठकर प्रेम व स्नेह से बातें करने का अधिक अवकाश नहीं होता है। सप्ताहांत अवकाश का समय वे अपने-अपने मित्रों के साथ मौज मस्ती से अलग-अलग मनाने को प्राथमिकता देते हैं। वर्तमान समय में  ऐसे कुछ दंपति युगल है, जो धन-संपत्ति कमाने की होड़ में अलग-अलग देशों में अलग-अलग नौकरियों पर काम करते हुए एक दूसरे से मिलने का समय कभी ही निकाल पाते हैं। आज संबंधों की स्नेहमय ऊष्मा गायब होती जा रही है। ऐसे वर्तमान सांस्कृतिक संकट के दौर में ‘रामचरितमानस’ में वर्णित आदर्श पति-पत्नी श्री राम और सीता माता के प्रेम का उत्कृष्ट उदाहरण आज के युवा दंपतियों के लिए विद्यमान है। श्री राम जब 14 वर्ष के लिए वनवास जाने का निश्चय करते हैं तो अपनी पत्नी सीता को मायके जाने की सलाह देते हैं। किंतु सीता माता मायके में ऐश्वर्यशाली एवं सुविधाजनक  जीवन को ठुकरा कर पति के साथ वनवास जाने को उद्यत हो जाती हैं। वह अपना फैसला सुनाती हैं-

‘’मैं सुकुमारि नाथ वन जोगू, तुमहि उचित तप मो कहं भोगू।”10

   इसी प्रकार लक्ष्मण जब विवाह के कुछ समय पश्चात ही अपने बड़े भाई श्री राम के साथ वनवास चले जाते हैं तो उनकी पत्नी उर्मिला अपने पति के विरह के संताप को भोगती हुई  राज महल के सारे भोगों को त्याग कर अपना जीवन पति के सामान तपस्यामयी बना लेती है। इन आदर्श नारी पात्रों में पतिव्रता, सहनशीलता, निस्वार्थ प्रेम, सेवा तथा त्याग इत्यादि गुणों के कारण नारी की भव्य गरिमा सुरक्षित हैं।

  सर्वकालिक एवं सार्वभौमिक अद्भुत ज्ञानमयी रामकथा रूपी भागीरथी भारतीय संस्कृति का अद्भुत प्रतिबिंब हैं। वर्तमान युग की विसंगतियों, उच्छृंखल, अमर्यादित, आदर्शविहीन समाज और असांस्कृतिक चेतनाओं का समाधान भारतीय संस्कृति के गौरव ग्रंथ ‘रामचरितमानस’ में ही है। रामकथा के आदर्श  पश्चिमी सभ्यता के भौतिकवादी एवं बाजारवादी वर्तमान परिदृश्य में पथ से भटके हुए युवा वर्ग को  नई दिशा, आयाम, जीवन शक्ति  एवं नया दृष्टिकोण प्रदान करते हुए उनके सुसंस्कृत व्यक्तित्व निर्माण में सक्षम होने के साथ ही जीवन को तम से प्रकाश की ओर ले जाने में निसंदेह सक्षम व उपयोगी है। इस प्रकार 21वीं सदी की सांस्कृतिक संकट की भयंकर समस्याओं एवं चुनौतियों का समाधान संजीवनी राम कथा के अनुसरण से पूर्णतया संभव है।

सन्दर्भ:

  1. वर्ल्ड यूनिवर्सिटी एनसाइक्लोपीडिया, वाल्यूम 5 (एडी), ग्रेगरी अडेयर एण्ड अदर्स, न्यूयार्क : बुक्स इन्क, 1968, पृ. 1403
  2. डॉ. वासुदेव शर्मा, हिंदी साहित्य का इतिहास, दिल्ली : सूर्य भारती प्रकाशन, 2011, पृ. 100-101
  3. राजेश रानी, हिंदी उपन्यासों में सामाजिक चेतना, दिल्ली : के.के. पब्लिकेशंस, 2009, पृ. 100
  4. अरुण प्रकाश मिश्र, तुलसी का मानवतावाद, दिल्ली : अंकुर प्रकाशन, 1987, पृ. 111
  5. डॉ. लक्ष्मीनारायण शर्मा, डॉ. लक्ष्मीनारायण ग्रंथावली, प्रथम भाग, संपादक (डॉ. ओम आनंद सरस्वती), रोहतक : शांति प्रकाशन, पृ. 58
  6. वीरेंद्र मोहन, तुलसी और सूर : मानव मूल्य, इलाहाबाद : अक्षिता प्रकाशन, 2009, पृ. 33
  7. जयप्रकाश, तुलसीदास नये साक्षात्कार, कानपुर : ऋषि प्रकाशन, 1977, पृ. 40
  8. अरुण प्रकाश मिश्र, तुलसी का मानवतावाद, दिल्ली : अंकुर प्रकाशन, 1987, पृ. 118
  9. श्रीरामचरितमानस, टीकाकार- हनुमानप्रसाद पोद्दार, गीताप्रेस, गोरखपुर, पृ. 914
  10. डॉ. नगेंद्र, हिंदी साहित्य का इतिहास, नयी दिल्ली : नेशनल पब्लिशिंग हाउस, 2009, पृ. 177

डॉ. दीप्ति
सहायक प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष (हिंदी)
हिंदू कॉलेज, अमृतसर