जब यह महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया जाता है कि ‘साहित्य क्यों’ तब इस प्रश्न के उत्तर में ऐसे संदर्भ की कल्पना हम करते हैं जहाँ लेखक अपनी ज़िंदगी की मेहनत को पीछे मुड़कर देखता है।  वह सोचता है शायद उसने अपनी रचना से समाज को एक नई दिशा में निर्मित करने की आशा की थी इस वजह से वह साहित्य को लिख रहा था। वह अपने परिवेश को प्रभावित करने की कोशिश कर रहा था, इसी कल्पना लोक का सृजन करने की  ऐसी कोशिश कर रहा था जिससे लोगों में ख़ास तरीक़े का रुझान पैदा हो सके।जब सारी ज़िंदगी के बाद वह इसमें से कुछ भी घटित हुआ नहीं देखता है तो पूछता भी है कि क्या इस साहित्य  में ऐसा कुछ भी नहीं था। इस तरीक़े के अनेक प्रश्न हमारे मन में पहुँचते हैं और इसका उत्तर भी उतनी ही चिंतन के साथ हमें सोचने की ज़रूरत पड़ती है। जिस प्रकार साहित्य के समक्ष यह प्रश्न उपजता है कि साहित्य की आवश्यकता क्यों है ठीक उसी प्रकार इससे जुड़ा हुआ प्रश्न यह भी है कि सिनेमा की आवश्यकता क्यों है।जिस प्रकार साहित्य समाज का दर्पण है ठीक उसी प्रकार सिनेमा भी समाज का दर्पणहै। हमारा ध्यान यहाँ पर सिनेमा के एक विशिष्ट पहलू बाल सिनेमा पर है। जिस प्रकार हमारे साथ समाज में साहित्य की आवश्यकता है साहित्य में भी बाल साहित्य की आवश्यकता है ,उसी प्रकार हमारे समाज में बाल सिनेमा की भी आवश्यकता  है।

जब हम दृश्य और श्रव्य माध्यमों को एक साथ मिलाकर देखते हैं तो उसका प्रभाव बड़ा होता है। हमारी आंखें चित्रों को देख रही होती है,हमारे कान उसके बारे में कुछ सुन रहे होते हैं।इस प्रकार हमारी एकाधिक इंद्रिय सक्रिय होती है जो ग्राह्यता को बढ़ाती है। बालमन इतना अधिक परिपक्व नहीं होता है वह परिपक्व होने की ओर अग्रसर होता है। इसलिए यदि हम बाल्यकाल के मस्तिष्क को अधिक ग्राह्य चीज़ें दिखाएं तो अधिक प्रभाव पैदा कर सकते हैं। दुर्भाग्य की बात यह है कि हमारे देश में बाल सिनेमा की ओर अधिक ध्यान नहीं दिया गया। वैसे तो बाल साहित्य भी नहीं लिखा गया जितना लिखा जाना चाहिए था परंतु बाल सिनेमा की ओर भी विशेष ध्यान नहीं है। इसमें हमने लगातार वाणिज्यिक रूप से सफल रहे लोगों  को ही देखा है जिनेक सरोकार अलग है । बाल सिनेमा के क्षेत्र में हिन्दी सिनेमा बहुत अधिक समृद्ध नहीं है।

साहित्य समाज का दर्पण होता है | साहित्य समाज के हर प्रतिबिंब को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करने में सक्षम है | साहित्य के बारे में इस तरह की कई परिभाषाएं हम पढ़ते हैं और यह सच भी है | लेकिन साहित्य की भांति सिनेमा भी आज एक महत्वपूर्ण पक्ष है, जिसे हम नजरंदाज नहीं कर सकते | जिस प्रकार साहित्य समाज के हर पक्ष को हमारे सामने प्रस्तुत करता है, उसी तरह सिनेमा भी समाज के विभिन्न पक्षों को दर्शाने में सक्षम हुआ है | सिनेमा को हम दृश्य – श्रव्य माध्यम होने की वजह से एक कदम आगे भी कह सकते हैं|

इंग्मर वर्गमैन लिखते हैं  कि, “फिल्म की तरह कोई और कला हमारे अंतर्मन तक नहीं जाती | और ये सीधे हमारी भावनाओं तक जाती है बिल्कुल गहरे, हमारी आत्माओं के अंधेरे कमरों तक |1  (हिंदी सिनेमा एक अध्ययन )

चूंकि सिनेमा और साहित्य दोनों ही समाज का अंग हैं इसलिए दोनों में बच्चों की बात होना तय है | बाल साहित्य हो या बाल सिनेमा दोनों ही बच्चों को समझने के लिए जरूरी हैं | लेकिन इन दोनों को समझने के लिए पहले हमें बच्चों को समझना होगा | बच्चे समाज का सबसे जरूरी अंग हैं | समाज का भविष्य, उसकी संरचना का आकर बच्चों के विकास पर ही निर्भर है | लेकिन स्थिति यह है कि हम आज बच्चों की बात करने से ही कतराते हैं | साहित्य में तो फिर भी बच्चों की मौजूदगी भरपूर देखने को मिलती है, लेकिन सिनेमा सौ वर्ष बाद भी बच्चों को वह स्थान नहीं दिला पाया जो उन्हें मिलना चाहिए |

पिछले कुछ वर्षों में सिनेमा अपनी ऊंचाइयों पर हैं | साल भर में दर्शकों को मनोरंजित करने के लिए यहाँ दर्जनों से ज्यादा फिल्मों का निर्माण होता है | लेकिन यदि हम समाज और देश के भविष्य यानि बच्चों की बात करें तो हमें केवल उंगली पर गिनती के बराबर फिल्में पाएंगे |

असल में हमारा ध्यान बचपन की ओर है ही नहीं | हम जानते हैं कि बचपन कच्चे घड़े जैसे होता है, उसे उस दौरान जो रूप देना चाहो आप दे सकते हैं लेकिन उसे वह रूप हम देने में अब तक असमर्थ हैं | सिनेमा आज हर वर्ग के लिए पुरजोर मेहनत  कर रहा है | सिनेमा में डांस, रोमांस, एक्शन, क्षेत्रीयता सब भरपूर मात्रा ,में है लेकिन इन कच्चे घड़े यानि बच्चों के लिए कुछ नहीं है। यदि कुछ फिल्मों को छोड़ दें तो केवल बच्चों के लिए थोथे काल्पनिक सपने तैर रहे हैं।  अगर हम कल्पना के सहारे अपने बच्चों का विकास करना चाहते हैं तो यह हास्यास्पद होने के साथ भयानक भी है।

पश्चिम की हर बात में हम होड़ करना चाहते हैं लेकिन बाल सिनेमा जैसे महत्वपूर्ण पहलू पर हमारा ज्यादा ध्यान नहीं है। हम कह सकते हैं कि साहित्य में समाज के हर पक्ष की पीड़ा, समस्या, खुशी और परिस्थिति दिखाई देती हैं लेकिन बाल सिनेमा अब तक उस स्थिति तक पहुँचने में सक्षम नहीं हुआ है। ‘तारे ज़मीं पर’, ‘बम-बम बोले’,’स्टैनली का डिब्बा’ सलाम बॉम्बे’ आदि जैसी कुछ फिल्मों को छोड़ दें तो बाल सिनेमा के सहारे बच्चे केवल सपनों में खोए हुए हैं।

बाल सिनेमा की आवश्यकता आज इसलिए है क्योंकि बाल फिल्में सिर्फ मनोरंजन ही नहीं बल्कि बच्चों से जुड़ी समस्याओं की ओर दर्शकों का ध्यान भी आकर्षित करती हैं| कनाडा के बाल फिल्म विशेषज्ञ राबर्ट राय बाल फिल्म को परिभाषित करते हुए कहते हैं ‘वह फिल्म जिसमें बच्चा खुद को एकात्म महसूस करे हमें अपने विचारों को लादने के बजाए बच्चे को स्वतः अपनी राय कायम करने हेतु स्वतंत्र छोड़ देना चाहिए’|

संदर्भ ग्रंथ –

1. साहित्य क्यों – विजयदेव नारायण साही, प्रदीपन एकांश प्रकाशन, इलाहाबाद

2. हिंदी सिनेमा एक अध्ययन – राजेश कुमार, तक्षशिला प्रकाशन, नई दिल्ली

3. सिनेमा की कला यात्रा – इंदुप्रकाश कानूनगो, शीर्षक प्रकाशन, हापुड़

4. हिंदी सिनेमा का सच – सं. मृत्युंजय, समकालीन सृजन प्रकाशन, नई दिल्ली

 

श्रुति गौतम
शोधार्थी
दिल्ली विश्वविद्यालय

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