आज के समय की यदि बात करे तो दो स्थितियां स्पष्ट रूप से देखने को मिलती हैं| एक विज्ञान के क्षेत्र में विश्व विकास के उच्चतम सोपानों को छूता हुआ दिखाई देता है, और समाज में भौतिक सुख सुविधाओं का विस्तार निरंतर बढ़ता ही जा रहा है। परन्तु विकास का नकारात्मक पहलू यह भी है, की सुख सुविधाओं के कारण जिस शांति भरे वातावरण की स्थापना होनी चाहिए वह प्रतिस्पर्धा दम्भी छल और अलगाव की मानसिकता की सक्रियता से  भंग हो रही है। अवरोध नया-नया रूप धारण करके विभिन्न प्रकार की बाधाएँ खड़ी कर रहा है। धर्म, रंग, नस्ल वर्ग और जाति के मध्य बढते भेद के परिणामस्वरूप उपजी गतिविधियों ने सामाजिक जीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया है। मानवता की भावना अधोगामी होकर तिरोहित सी हो रही है। ऐसे समय में आज से करीब पांच सौ वर्ष के पूर्व के कवि की क्या आवश्यकता है, यह सोच का विषय है। और कबीर की कविताओं का अध्ययन करने पर हम पाते हैं, सच्चे अर्थों में आज कबीर जैसे कवियों की ही आवश्यकता है। विचार करते हैं कबीर की कविता पर –

            निश्चित रूप से आज का भारतीय समाज संक्रमण की स्थिति से गुजर रहा है। एक ओर भारतीय संस्कृति पाश्चात्य आचार – विचार से प्रभावित हो रही है, तो दूसरे ओर नयी राजनितिक सोच-विचार के प्रादुर्भाव से सामाजिक व्यवस्था में काफी उतार-चढ़ाव दिखाई दे रहा है।  जहाँ वर्ण व्यवस्था, कर्मकांड पाखंड, आदि ख़त्म होता सा दिखाई दे रहा है, वर्ग जातिगत गठबंधन और साम्प्रदायिकता बढ़ती सी जान पड रही है। प्रेम की भी यदि बात करें तो एकोन्मुखी होता जा रहा है, प्रेम की परिभाषाएं बदलती सी जान पड रही हैं। कबीर ने अपने साहित्य में जिस प्रेम की व्यापक रूप से चर्चा की है, वह न तो बाजार में बिकता है और न ही उसकी खेती होती है। जो लोग इस संसार में ऊँच-नीच का भेदभाव नहीं रखते, जो सर उतरने जैसा कठिन व्रत लेने को तैयार हैं उन्ही को सच्चे प्रेम की प्राप्ति होती है-

प्रेम न बाड़ी उपजे, प्रेम न हाट बिकाय

राजा परजा, जिही रुचे सिर दे जो ले जाए’1

            वर्तमान युग विज्ञान का युग है। तर्क प्रधान ज्ञान का युग है। मध्यकाल में जब पूरा देश बाह्यडम्बरों के अंधकारों में डूबा हुआ था, ऐसे में कबीर ने चीजों को तर्क की कसौटी पर देखा परखा और लोगों में वैज्ञानिक चेतना विकसित करने का भरसक प्रयास किया। वे ऐसे अंधकारमय युग में सच्चे अर्थों प्रगतिशील विचारक थे। हृदय और मस्तिष्क का ऐसा मणिकांचन योग कबीर में ही देखने को मिलता है, जो एक ओर प्रेम भक्ति के रस सागर में डुबकी लगा रहे थे तो दूसरी ओर समाज में वैज्ञानिक चेतना विकसित कर रहे थे। कबीर के अनुसार हिन्दू और मुसलमान दोनों धर्मावलम्बी भ्रम में पड़े हुए हैं, और झूठ का सहारा लेकर ईश्वर को पाना चाहते हैं। हिन्दू राम-राम कहकर मर गए और मुसलमान खुदा, परन्तु जो इन दोनों से भिन्न राह पर चला वही जीवित रहा अर्थात् कबीर का राम इन सबसे भिन्न है। कबीर स्वर्ग नरक के चक्कर में नहीं पड़े, इसीलिए प्रभु दर्शन  कर पाए –

हिन्दू मुए राम कहि, मुसलमान खुदाई,

कहे कबीर सो जीवता, दुई में कदे न जाई’2

            हम देखते हैं कि कबीर बाह्यडम्बर करने वालों को खरी-खोटी सुनाने से नहीं चूकते। कबीर की इसी विशेषता को लक्ष्य करते हुए हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं “व्यंग्य करने में और चुटकी लेने में भी कबीर अपना प्रतिद्वंदी नहीं जानते। पंडित और काजी, अवधू और जोगिया, मुल्ला और मौलवी सभी उसके व्यंग्य से तिलमिला जाते हैं। अत्यंत सीधी भाषा में वे ऐसी छोटी करते हैं, कि चोट खाने वाला धुल झाड कर चल देने के सिवा और कोई रास्ता नहीं पाता”3

            कबीर की दृष्टि चतुर्दिक थी। संसार में अक्सर देखा जाता है की कुछ लोग अपने जीवन शैली से अपने को बड़ा होने का झूठा आभास कराते हैं। ऐसे लोगों की चुटकी लेते हुए कबीरदास उनकी उपमा खजूर के उस वृक्ष से करते हैं जो देखने में तो काफी ऊँचा होता है पर साधारण जन को उससे फल कौन कहे छाया तक नहीं मिलती। यानी एक तरह से प्रभुत्वसम्पन्न लोगों का अस्तित्व ही कबीरदास नकार देते हैं –

बड़ा भया तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर

पंछी को छाया नहीं फल लागे अतिदूर4

कबीर की कविताओं में प्रेम शब्द का जिक्र बार-बार आया है। कबीरदास प्रेम शब्द पर सर्वाधिक बल दिया है तो क्यों ? प्रेम की जरूरत लौकिक अलौकिक दोनों दोनों ही क्षेत्र में होती है। लौकिक जगत का प्रेम मनुष्य को आह्लादित कर संघर्षमय जीवन में रस घोल देता है। मानव जीवन में संघर्ष करने की प्रेरणा स्त्रोत बन जाता है, और यह प्रेम अलौकिक जगत में सेतु बनकर भक्त और भागवान को एक दूसरे में बाँध देता है। जो लोग सोचते हैं, कि बिना मानव समूह से प्रेम किये भगवत प्रेम में लींन हो जाएँगे, भ्रम में जीते हैं। सच तो यह है, कि कबीर में प्रेम शब्द में द्वैतभाव नहीं चलता है। और न यहाँ अन्तर्द्वन्द्व की कोई गुंजाईश दिखती है। यहाँ तो पूरा व्यक्तित्व्य ही प्रेम में तर बतर होकर जीवन का सार बन जाता है जिसमे भक्त निरंतर सोता जागता , उठता बैठता रहता है-

नारद प्यार सो अंतर नाहीं

प्यार जागें तौ ही जागूं, प्यार सोवे तब सौऊँ

जो कोई मेरे प्यार दुखावै, जड़ा भूल से खोवूँ

जहाँ मेरा प्यार जस गावे, तहां करों मै बासा

प्यार चले आगे उठ धावूं, मोहि प्यार की आसा5

            वस्तुतः कबीर की आज के समय में जरुरत का मुख्य कारण उन का मानवतावादी दृष्टिकोण एवं प्रगतिशील चिंतन है। हिन्दू एवं मुस्लिम समाज म उनकी स्वीकार्यता के कुछ अन्य कारण भी हैं। तथाकथित मुसलमान होने के आलावा वे निर्गुण एकेश्वरवादी हैं, इसीलिए मुस्लिम समाज में स्वीकार्य हैं। हालाँकि कबीर का एकेश्वरवाद मुसलमानी धर्म के एकेश्वरवाद से भिन्न है।  वे किसी भी धर्म सम्प्रदाय को स्वीकार न करके सम्प्रदायों से ऊपर उठकर मानव मात्र के उद्धार प्राणी मात्र के प्रति करुणा अहिंसा तथा प्रेम की बात करते हैं। इसीलिए उनका किसी धर्म से विरोध भी नहीं है। वे वैचारिक एवं सैद्धांतिक आधार पर बाह्यचारों का विरोध करते हैं। इसीलिए उनके विरोध में किसी के प्रति व्यक्तिगत कटुता या राग-द्वेष नहीं है।

            कबीर के अनुसार वास्तव में व्यक्ति वही है, जो सामाजिक साम्य स्थापना हेतु अपना सर्वस्व उत्सर्ग कर दे “तन मन सीस समर्पण कीन्हा, प्रगत जोति तहं आतम लीना”6 विद्या ग्रहण करने वाला व्यक्ति विद्यार्थी होता है। समाज में विद्यार्थी की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। विद्यार्थी समाज का वह आवश्यक अंग है, जो भविष्य के समाज की रूपरेखा का नियंता होता है।  यद्यपि वर्तमान में विद्या और विद्यार्थी दोनों से सम्बंधित मान्यताएं बदल चुकी हैं। परन्तु मध्यकाल तक शिक्षा के मूल उद्येश्यों में से एक एवं मुख्य उद्देश्य अध्यात्म और मनावानुकूल श्रेष्ठ गुणों का विकास था। गुरु एवं शिष्य सम्बन्ध सभी मानवीय सम्बन्धों से उच्च एवं पवित्र माने गए हैं। कबीर तो इस सम्बन्ध की श्रेष्ठता के प्रबल समर्थक के रूप में सामने आते हैं –

सतगुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार

लोचन अनंत उघाडिया, अनंत दिखावनहार’7

            विद्यार्थी को सात्विक गुरु प्राप्त करने के लिए अपना सम्पूर्ण अर्पित कर देने की बात करते हुए कबीर कहते हैं कि –

“मेरा मुझमे कुछ नहीं जो कुछ है सो तोरा

तेरा तुझको सौंपता क्या लागे है मेरा’8

मानव-मानव में स्वार्थ हो सकता है किन्तु   जीव जंतुओं के प्रति प्रेम भाव रखना सच्ची मानवता है। और कबीर इस दृष्टि से बड़े विलक्षण हैं जीव जंतुओं के प्रति उनकी जागरूकता देखिये –

जीव वधत अरु धरम कहते हो, अधरम कहाँ है भाई

आपन तो मुनि जन हैं बैठे, कासनि कहो कसाई’9

वस्तुतः वे सच्चे समाजदृष्टा थे। उनकी ईश्वरोन्मुखी वाणी समाजोन्मुखी भी है। जिसमे सामाजिक समरसता का सन्देश है। लौकिक एवं पारलौकिक लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु संत के लक्षण प्रतिपादित करते हुए वे इस तथ्य को स्थापित करते हैं-

निर बैरी निह कामता, साईं सेती नेह

विषया सूं न्यारा रहै संतन का अंग एह’10

कबीर की संकल्पना में ऐसा समरस समाज है जहाँ बारहमासा वसंत है।  सभी सुखी व निरोगी रहें-

“हम वासी उस देश के जहँवा नहीं वास वसंत

नीझर झरे महा अमी भीजत है सब संत।।

जाति वर्ण कुल आदि का भेद जहाँ नहीं है

हम वासी उस देस के जहाँ जाति वरन कुल नाहीं

शब्द मिलावा होय रहा देह मिलावा नाहीं11

डंक मारकर समाज को विषाक्त करने वाले तत्वों को अमृतमय बनाने की आकांक्षा कबीर की समरस भावना का ही बोध कराती है- “प्रेमी  ढूंडत मै फिरों, प्रेमी मीलों न कोय/ प्रेमी को प्रेमी  मिले तब सब विष अमृत होय’12 सामाजिक विश्रृंखलता का केंद्र व्यक्ति के लिए उच्च आदर्श उपस्थित करते हुए कबीर कहते हैं कि व्यक्ति को गुण ग्राही और आत्मज्ञानी होना चाहिए । यथा-

तरुवर तास बिलाविये, बारह मास फलंत

शीतल छाया गहर फल, पंछी केलि करंत’13

            उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि कबीर ने जिस मानवतावादी संकल्पना की स्थापना की थी वह आज समाज की अनिवार्य आवश्यकता बन चुका है।  जिन मूल्यों को कबीर ने स्थापना की थी उसकी आज समाज को अत्यंत आवश्यकता है। चाहे कबीर की प्रेम सम्बन्धी अवधारणा हो, धर्म संबधी दृष्टि हो, अथवा गुरु शिष्य सबंधी उनकी अवधारणा हो। आज जब समाज जाति-पाति के फेर में ही उलझा हुआ है, अपने स्वार्थ के लिए कुछ सत्ताधारी एक दूसरे के प्रति अपने स्वस्थ विचार नहीं रख पा रहे हैं। और अपने को ऊँचा दिखाने में लगे हुए हैं, ऐसे में हमें कबीर की कविता की और भी आवश्यकता जान पड़ती है। कुछ बातें ऐसी जरूर हैं जिनमे हम पाते हैं कि कबीर उतने प्रगतिशील हमें नजर नहीं आते जैसे उनके स्त्री सम्बन्धी विचार इत्यादि किन्तु समग्रता में विचार किया जाय तो आज कबीर का सम्पूर्ण साहित्य समाज की अनिवार्य आश्यकता बनता हुआ नजर आता है।

सन्दर्भ -:

  1. कबीर ग्रन्थावली, श्यामसुन्दरदास, नागरीप्रचारिणी, पृष्ठ संख्या, 34
  2. कबीर समग्र, डॉ. युगेश्वर, पृष्ठ संख्या 306
  3. कबीर, हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृष्ठ संख्या 55
  4. कबीर ग्रन्थावली, श्यामसुन्दरदास, नागरीप्रचारिणी, पृष्ठ संख्या,87
  5. कबीर ग्रन्थावली, श्यामसुन्दरदास, नागरीप्रचारिणी, पृष्ठ संख्या,198
  6. कबीर ग्रन्थावली, श्यामसुन्दरदास, नागरीप्रचारिणी, पृष्ठ संख्या, 89
  7. कबीर के दोहे, हिंदी साहित्य सदन पृष्ठ संख्या 54
  8. कबीर ग्रन्थावली, श्यामसुन्दरदास, नागरीप्रचारिणी, पृष्ठ संख्या,187
  9. कबीर के दोहे, हिंदी साहित्य सदन पृष्ठ संख्या, 45
  10. कबीर के दोहे, पृष्ठ संख्या, 32
  11. नई सदी में कबीर, डॉ. फिरोज खान, पृष्ठ संख्या 32
  12. कबीर के दोहे, हिंदी साहित्य सदन पृष्ठ संख्या, 44
  13. कबीर ग्रन्थावली, श्यामसुन्दरदास, नागरीप्रचारिणी, पृष्ठ संख्या, 154

राहुल प्रसाद
शोधार्थी
गुजरात केन्द्रीय विश्वविद्यालय

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