लोकगीत लोक साहित्य की सशक्त और प्रधान विधा है। लोकगीत सरल, मधुर होते हैं जिनमें सुर, लय, तान और गेयता का स्वाभाविक प्रवाह होता है। लोक गीत सामूहिक जन चेतना के गर्भ से उत्पन्न होते हैं जिनमें सामान्य जन की भावनाओं की सरल अभिव्यक्ति होती है। इन लोकगीतों में भोले-भाले लोगों की भोली-भाली भावनाएँ, सरल तरीके से, बिना लाग-लपेट के कह दी जाती हैं।

लोकगीतों में ताल-तलैया, पीपल-पनघट, आम-अमराइयाँ नदी-पोखर, कछार-निर्झर, कुंज-निकुज, कूप-बावड़ी, बरसते बादल, सरकती धानी चुनरिया, होरी, रसिया, फाग, आल्हा, विवाह, बन्ना-बन्नी, सोहर-जच्या आदि सब कुछ मिलता है।

लोकगीत शास्त्रीय संगीत से भिन्न सीधे लोगों के हृदय में उतरते हैं। ये घर के, गाँव के, शहर के, वे गीत होते हैं जो अधिकतर लोक द्वारा ही लिखे जाते है। लोक गीतों में गाँवों की प्राचीन परम्पराओं, रीति-रिवाजों और ग्रामीण संस्कृति की झलक मिलती है। इन गीतों को पूरा समाज दिल से गाता और अपनाता है। अतः लोकगीत लोक में प्रचलित, लोक द्वारा रचित, और लोक के लिए लिखे गीत होते हैं। लोक गीत किसी संस्कृति के मुँह बोलते चित्र हैं।

लोकगीतों के अन्तर्गत सोहर गीत, मुण्डन गीत, जनेउ गीत, विवाह गीत, उत्सव गीत, खेल गीत, पर्व, फाग गीत, सावन गीत आदि आते हैं।

लोक गीतों में लोक का सारा लोक जीवन चित्रित है। शिशु के पहले रूदन से लेकर, जिन्दगी की अन्तिम साँस तक के चित्र हैं। इन गीतों में भाई से मिलने को व्याकुल बहन की व्यथा है। इस गीत में रेशम की डोर है, कारे-कारे बदरा हैं, रिमझिम फुहार है, मेहन्दी रची हथेलियाँ पर इस सावन में दुख ये कि व अपने पीहर नहीें जा रही-

ऐ जी री वे तो झूलत कुलवधू
ऐ जी री वे तो झूलत कुलवधू
कोई जिनके हैं नैंहर दूर, गोपी- ग्वालिनी झूलन चली भी सावन का ही गीत है जिसमें एक बहन सामाजिक लोक लाज का भय दिखाते हुए अपने भाई से अपने लिए भी साड़ी जेवर लाने की बात कह रही है-

आप को लाए, बाप को लाए, माँ को तीहर लाए जी
बहन को साड़ी ना लाए तो सौ-सौ नाम धराए जी
आप को धुड़ला, बाप को धुड़ला, माँ को हँसना लाए जी
बहन को कंठी ना लाए तो सौ-सौ नाम धराए जी

सावन के गीतों में नारियों को वधुओं को अपने पीहर की बहुत याद आती है। सावन के लोकगीतों में उनकी यही पीड़ा झलकती है-

अम्मा मेरे बाबा को भेजो री के सावन आया रे
अम्मा मेरे भैया को भेजो री के सावन आया रे।

आज भी भले ही समाज कितना ही आधुनिक होने का दम्भ भरे किन्तु कड़वी सच्चाई तो लोकगीतों में ही नज़र आती है। समाज में लड़की को पराया धन माना जाता है। बन्धया, बन्ध्य या बाँझ औरत को सबके ताने सुनने पड़ते है, निपूती कहकर असको प्रताड़ित किया जाता है। ऐसी ही एक बाँझ औरत सास-ननद के तानों से खिन्न होकर गंगा में डूबने के लिए चल पड़ती है तब गंगा उसे पुत्रवती होने का वरदान देती है।

गंगा किनारे एक तिरिया, सु ठाढ़ी अरज करै
गंगा एक लहर हमें देउ तो जामैं डूवि जैये अरे जामैं जैये
अरे जामैं डूवि जैये
सास बहू कहि ना बोलै, ननद भाभी ना कहै
बे हरि बाँझ कहि टेरैं तो छतियाँ जू फटि जाई
जाई दुख डूबिहो सों जाई दुख डूबि हैं।

बाँझ स्त्री को तो बाघिन तक मारकर नही खाती कि यदि वह बाँझ औरत को खाएगी तो खुद भी बाँझ हो जायेगी-

घरवाँ से निकरी बाँझनिया जंगल बिच ठाढ़ी हो
बाघिन हमका जो खाई लेउ बिपतिया से घूटित हो
बाँझिन, तुमका जो हम खाई लेबउ हमहुँ बँझिन होबइ हो

बाघिन तो बाघिन, नागिन भी बाँझ स्त्री को डसने के लिए तैयार नहीं होती।

एक और अवसर है जिस पर भी बहुत लोकगीत मिलते है। वह है जच्चा या सोहर के। इन गीतों में मातृत्व की झलक तो है ही पर सबसे मजे़दार पहलू यह है कि वह ननद का नेग का चक्कर। जापे में आई ननद नेग के तौर पर जेवर माँगती है और भाभी देना नहीं चाहती। इस लोकगीत में ननद अपने नवजात भतीजे को उठाकर ले जाती है क्योंकि शिशु के जन्म से पहले भाभी ने तिलड़ी देने का वादा किया था, अब पूछती है। ये क्या चीज़ होती है। तो भाभी को सबक तो सिखाना ही पडे़गा-

देखो ननद भावज कोठे चढ़ गई, आपस में रही बतलाय।
भाभी जी होय नंदलाला, तो हमंे भला क्या देओ अहो जी।
बीबी जी मेरे होय नंदलाला, तुम्हें दूँगी गले का हार अहो जी।
तुम्हें दूँगी तिलड़ गढ़वाय, अहो जी।

अब नन्दलाल के होने की खबर ननद तक पहुँची और उसने अपना नेग माँगा तो भाभी ने जवाब दिया-

बीबी कैसी होती है तिलड़ी और कैसा गले का हार अहो जी।
देखो ललन झूल रहे पलना, वो ले गई ननदिया उठाय अहो जी।

ननद को नेग देकर भी न देना तो कोई इस गीत की भाभी से सीखे। अगर ननद बर्तन माँगती तो, चम्मच देगी वो भी डण्डी तोड़ के देगी, गहने माँगेगी तो आरसी दूँगी वो भी छल्ला तोड़ के।
जो मन में आए सोई ले ले ननदिया
बरतन नहीं दूँगी मेरे चैके का सिंगार है
बरतन में से चम्मच दूँगी, डंडी लूँगी तोड़ ननदिया
गहने नहीं दूँगी मेरे तन का सिंगार है
गहनों में से आरसी दूँगी छल्ला लूँगी तोड़ ननदिया

एक और लोकगीत है जिसमें नन्दलाल के होने की खुशी में ननद भावज से कंगन माँगती है, भाभी यह कहकर देने से मना कर देती है कि यह तो मेरे पीहर से आया है ननदी रूपया लेजा लाल की बधाई फिर रूपये को ससुर की कष्ट कमाई कहकर, अठन्नी को जेठा की कमाई कहकर, चवन्नी को देवर की, कठिन कमाई कहकर देने से मना कर देती है। अन्त में भाभी कहती है-

इकन्नी मेरे लाला के हाथ का खिलौना
दो डण्डे ले जा ननदी लाल की बधाई
दो डण्डे मेरे आँगन के कोने की शोभा
होरिल ले जा ननदी लाला की बधाई
होरिल तो मेरे राजा की कठिन कमाई
सिंगट्ठा ले जा ननदी लाल की बधाई
सिंगट्ठा मेरे सीधे हाथ की शोभा
दो धक्के ले जा ननदी लाल की बधाई

ऐसे अनेक लोकगीत मिलते हैं जिनमें ननद भाभी से जेवर खासकर कंगन माँगती है और भाभी कोई न कोई बहाना बनाके टालने की कोशिश करती है। हमारे समाज में ननद भाभी के रिश्तों में कड़वाहट की एक मुख्य वजह ननद का भाभी से त्योहारों पर कुछ न कुछ माँगना है। सामाजिक परम्परा ऐसी बन गई है कि लड़का होने की खुशी में भाभी को ननद को उसका मनपसंद आभूषण भेंटस्वरूप या नेग के तौर पर देना पड़ता है। इस अवसर के लोकगीतों में भाभी की वही खीज, गुस्सा, उलाहना दिखते हैं जिनको वह प्रत्यक्ष तौर पर नहीं कह पाती। लगभग हर लोकगीत में भाभी ननद को नेग के स्थान पर ठेंगा दिखाती है-

खड़ी खड़ी ठेंगा दिखाऊँ, ननद कँगना माँगे जी
हमने तो जाए नन्दलाला, ननद कँगना माँगे जी

एक और बानगी देखिए-

माँगे ननद रानी कँगना, ललन के होने का
जब ललन की छठी कराऊँ, दूँगी ननदरानी कँगना, ललन के होने का

अब तक के गीतों में यदि भाभी की चालाकी और कपटता का स्वर है तो सास ननद कौन-सा पिछड़ने वाली है-

जच्चा तो मेरी भोली-भाली है रे
मन भर तो लड्डू खा जावे, दो मन पक्के पेडे़
जच्चा तो मेरी खाना न जाने रे,
सास ननद की चुनरी फाड़े जिठानी का लँहगा
जच्चा तो मेरी लड़ना न जाने रे।
बोले न चाले मिजाज करै ऐसी जच्चा से कौन प्यार करे।

आजकल औरतें जापे में सास-ननद की जगह अपनी माँ, बहन भाभी को बुला लेती है जो उनको अच्छी नहीं लगती है। पर बेचारी बहू से सीधे-सीधे तो नाराज़गी जाहिर कर नहीं सकती तो लोकगीत के बहाने से कह दिया-

जच्चा मेरी ने जुल्म किया, अंग्रेजी जापा शुरू किया
सासू को बुलाना छोड़ दिया, मइया को बुलाना शुरू किया
जिठानी को बुलाना छोड़ दिया, भाभी को बुलाना शुरू किया

शादी के अवसर पर गाए जाने वाले लोकगीतों में दुल्हन के श्रृंगार के, शादी की मंगल कामना के, बन्नी की सुन्दरता के गीत मिलते हैं पर सबसे ज्यादा मार्मिक स्वर विदाई के लोक-गीतों में मिलता है। इसे सामाजिक परम्परा कहिए या रीति-रिवाज की शादी के बाद लड़की को मायका छोड़ना ही पड़ता है-

काहे को ब्याही बिदेस रे सुन बाबुल मोरे
हम तो बाबुल तेरे नीम की चिड़िया
भोर हुए उड़ जायँ री, सुन बाबुल मोरे
हम तो बाबुल तेरे खूँटे की गैया, जित बाँधो बँध जायरी, बाबुल मोरे
आले-दिवाले गुड़िया छोड़ी, छोड़ा बाबुल का देस रे
माय कहे बेटी नित उठ आना, बाबुल कहे छठमास रे

विवाह के समय पुत्र अथवा पुत्री की शादी के अवसर पर माँ अपने भाइयों के यहाँ भात न्योतने जाती है। इस निमन्त्रण पर भाई विवाह से एक दिन पहले या विवाह वाले दिन बहन और ससुराल पक्ष वालों के लिए जेवर, वस्त्रादि अनेक उपहार देता है। भाई द्वारा भात देना बहन के सामाजिक मान-सम्मान की रक्षा करता है। जिस बहन का भाई नहीं होता उसके लिए ऐसे अवसर पर बहुत वेदना है सहनी पड़ती है, पीहर में भाई नहीं है तो ‘महुए के पेड़’ को न्योतने चल देती है-
हमरे पीहर एकु को बिरवाँ बापै भात हम नौतेजी
रोवत-रोवत महुए ढिग पहुँची, भइया होइ तो बोले जी
कौन बिरन पैरी भातु रे माँगियो, कौन बिरन की हो बहना जी

ब्रज समाज में भी और भारतीय समाज में भी सरकार द्वारा, अनेक स्ंस्थाओं द्वारा बड़े-बड़े नारे दिए जाते हैं- बेटा-बेटी एक समान ‘बेटी-पढ़ाओ-बेटी-बचाओ’। किन्तु शहर से दूर गाँवों में एक ही कोख से जाए भाई-बहनों में भेदभाव किया जाता है एक छोटी बच्ची की व्यथा का रूदन इस गीत में देखिए-

बीर हम माँ के जाये रेख हे रे जनमे थे एक शरीर
बीर तू तो पढ़न बिठा दिया रे, रे तेरे कपड़े कीमतदार
बीर मैं तो अनपढ़ रहगी रे, रे मेरे कपड़े लीरमलीर
बीर तेरा अच्छा खाना रे, रे सोवण नै पिलंग निवार
डाँट कुनवे पै मारै रे, हे हम माँ के जाये रे
बीर मेरा बासी खाना रे, हे सोवण रे टूटी खाट
डाँट कुनवे की होटू रे, हे हम माँ के जाये रे

भले ही भारत में कोई बहुत बड़ा नारी आन्दोलन न हुआ हो किन्तु त्रस्त-पस्त जुबान कब तक चुप रहेगी, जुल्म सहेगी। इन गीतों की पीड़ा वेदना एक की नहीं हर नारी की है। अधिसंख्य नारी-शक्ति ने अपने आपको चार दीवारी में बंद पाया है। विवाह-शादी में जाना हो, तीज-त्यौहार मनाने हो, मेले-जश्न में जाना हो, मायके जाना हो, ससुराल आना हो, सबके लिए परिवार के पुरूषों से इज़ाजत लेनी पड़ती है। ओढ़ना-पहरना, सजना-सँवरना, मनपसंद का खाना-पीना, घूमना-फिरना, किसी से भी मिलना-जुलना यहाँ तक कि अपने माँ-बाप से मिलने के लिए भी मर्दों से पूछकर जाना पड़ता है। जन्म से ही शुरू हुआ यह भेदभाव जवानी तक आते-आते पाबन्दियों का रूप ले लेता है। शादी के बाद सास-ससुर की सेवा, पति-परमेश्वर का ख्याल, घर की दहलीज़ न लाँघने की वर्जनाएँ, पंचायत चैपाल न जाने के निर्देश, परिवार के किसी फैसले में उसकी उपेक्षा। नारी की इन्ही अन्तर्वेदनाओं की, पीड़ा की मार्मिक अभिव्यक्ति लोक-गीतों के माध्यम से होती है।

डॉ. राजरानी शर्मा

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