(अवधी लोकगीतों के विशेष सन्दर्भ में)
लोक, अर्थात किसी क्षेत्र विशेष के निवासी एवं उनकी जीवन शैली, जिस पर कि उस क्षेत्र की ऐतिहासिक, भौगोलिक एवं परंपरागत विशेषताओं का प्रभाव तथाकथित ‘शिष्टता’ एवं ‘आधुनिकता’ के प्रभाव के बरक्स अधिक दृष्टव्य हो. ‘लोक’ की बोली में रचित गीतों, कथाओं, गाथाओं आदि को ही साहित्य में ‘लोकभाषा साहित्य’ की संज्ञा दी जाती है. लोकभाषाओं में संपर्क, मनोरंजन, सुखों-दुखों एवम् परंपराओं की अभिव्यक्ति आदि के लिए लोकभाषा साहित्य की विभिन्न शैलियों का विकास बोली के विकास के साथ ही होता रहा, जिनकी परंपरा वाचिक एवं लिखित दोनों ही रूप में आगे बढती गई, किन्तु इनका स्वरुप विशुद्ध साहित्यिक ‘सौन्दर्य’ की गर्वीली कठिनाइयों एवं बंधनों से सर्वथा मुक्त रहा. वाचिक परंपरा के रूप में जीवित रह पानें की वजह भी लोकभाषा साहित्य का सहज एवं ग्राह्य होना है. लोकभाषा के गीतों, कथाओं आदि को कहने-सुनने के लिए पांडित्य या ज्ञान की आवश्यकता नहीं होती और ना ही कोई सामाजिक बंधन. अतः लोकसाहित्य शुभ अवसरों पर गीतों के रूपों में, सामूहिक बैठकों में किस्से-कहानियों और गाथाओं के रूप में, आम लोगों के बीच विकसित हुआ एवं एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को विरासत के रूप में मिलता गया. विकास क्रम में लोकसाहित्य के रूप में समयानुसार विभिन्न परिवर्तन आए किन्तु वह आडंबरहीन प्रवित्ति का होने की वजह से जीवित रह पाया है.
लोकगीतों के विषय में यह माना जाता है कि ये स्त्री वेदना की अभिव्यक्ति के अत्यंत मार्मिक दस्तावेज होते हैं एवं इसमें स्त्री स्वर की प्रधानता रहती है. इस सन्दर्भ में डॉ. विद्या बिंदु सिंह लिखती हैं कि “…लोकसाहित्य की नारी विषयक संवेदना अपना शाश्वत स्वरुप रखती है. उसमें नारी जीवन का इतिहास, उसके सुख-दुःख, उसकी पीड़ा सभी सहज रूप में मुखरित हुई हैं.”(1) और ये कथन सत्य भी प्रतीत होता है, लोकगीतों में कुछ ऐसे प्रसंग उद्धृत किये जाते हैं जिनकी संवेदनशीलता का कोई सानी नहीं होता और वे सिर्फ स्त्री ही नहीं बल्कि पूरे समाज की पीड़ा को अभिव्यक्ति देनें में सक्षम होते हैं. एक नज़ीर पर गौर करें-
अयोध्या के राजमहल में रामजन्मोत्सव की तैयारी चल रही है, लेकिन दशरथ के वाटिका की हिरनी उदास है, हिरन-हिरनी के आपस का संवाद एक अवधी लोकगीत में कुछ दर्शाया गया है-
” छापक पेड़ छिउलिया तऊ पतवन गहबर हो।
रामा तिहि तर ठाढ़ी हरिनियाँ त मन अति अनमनि हो
चरतइ चरत हरिनवाँ तौ हरिनी से पूँछइ हो
हरिनी का तोर चरहा झुरान कि पानी बिन मुरझिउँ हो
नाहीं मोर चरहा झुरान न पानी बिन मुरझिउ हो
हरिना आजु राजाजी के छट्ठी तुम्हहिं मारि डरिहईं हो”(2)
उसके बाद प्रसंग आता है कि हिरन मार डाला जाने के बाद हिरनी कौसल्या रानी से अरज करती है कि भले ही वे लोग हिरन का मांस खा लें, लेकिन उसकी खाल हिरनी को दे दें वो उसी से संतोष कर लेगी. लेकिन कौसल्या खाल देने से भी मना कर देती हैं-
“मचियै बैठी कोसिल्ला रानी हरिनी अरज करइ हो
रानी मसुवा तौ सिझहीं रसोइयाँ खलरिया हमैं देतिउ
पेड़वा से टँगबइ खलरिया त मन समुझाउब हो
रानी हेरि फेरि देखबइ खलरिया जनुक हरिना जीतइ हो
जाहु हरिनी घर अपने खलरिया नाहीं देबइ हो
हरिनी! खलरी क खँजड़ी मिढ़उबइ राम मोर खेलिहईं हो”.(3)
आहात और निरीह हिरनी कुछ नहीं कर पाती बस अपनें हिरन के खाल की बनी हुई खंजरी की आवाज़ सुन कर उसे याद करनें के अतिरिक्त-
“जब जब बाजइ खँजड़िया सबद सुनि अनकइ हो
हरिनी ठाढ़ि ढकुलिया के नीचे हरिन क बिसुरइ हो”(4)
ये प्रसंग एक साथ पीड़ा की कई तहों को खोलता है और साथ ही राजतंत्र की संवेदनशीलता और क्रूरता की पोल भी.
लोकगीत लोकोन्मुख चरित्र के धारक होते हैं एवं प्रमुख रूप से स्त्रियों द्वारा गाए जाते हैं. लोकसाहित्य के विद्वानों का मानना है कि “नारी जीवन की वेदना, हास्य-उमंग, श्रृंगार, अभिरक्षण, चांचल्य, राग-द्वेष, रीति-रिवाज़, उत्सवों, प्रथाओं और त्यौहार आदि के निमित्त जो गाया है उसमें अनजाने ही उसके मानस के विभिन्न भावों को गति मिल गई है.”(5)
यह माना जा सकता है कि लोकगीतों में स्त्री मानस के विभिन्न भावों को गति मिली है एवं उसकी पीड़ाएं लोकगीतों में सहज रूप से मुखरित होती हैं. किन्तु लोकगीतों का स्त्री विषयक मूल्यांकन करते हुए उन्हें स्त्रीवादी स्वर के समर्थक मात्र के रूप में विवेचित करना सर्वथा एकांगी प्रतीत होता है. यहाँ लोकगीतों के मनोविज्ञान को समझ लेना अत्यंत आवश्यक है. लोकगीतों में स्त्री प्रधानता होने की वजह यह है कि पुरुष प्रधान भारतीय समाज में परंपराओं के निर्वाह की ज़िम्मेदारी स्त्रियों के सर पर ही डाली गई. इसलिए पारंपरिक अनुष्ठानों में गाए जानें वाले गीत भी स्त्री के हिस्से आए. यहाँ ध्यान देने की ज़रूरत है कि जिन परंपराओं के निर्वाह में स्त्रियाँ ये गीत गाती हैं वो परंपराएं आखिरकार एक पितृसत्तात्म्क समाज के पोषण के लिए ही अस्तित्व में आई. यदि लोकगीतों में स्त्रियाँ पितृसत्ता का विरोध करती तो पितृसत्ता के रक्षक कभी भी स्त्रियों को वो गीत गाने की अनुमति ना देते.
अवधी लोकगीतों में कई ऐसे उदाहरण देखनें को मिलते हैं जिनमें स्त्रियों नें प्रचलित प्रथाओं से हो रहे अपनें शोषण एवं दुःख को अभिव्यक्ति तो दी हैं, यथा-
“सास ससुर बोलिया बोलय ननद गरियावई हो
रामा कौने करमवाँ से चूकेव बलकवा न पायेव हो”(6)
किन्तु वे कहीं भी उस शोषण के खिलाफ खड़ी नहीं होती बल्कि वे स्वयं स्त्री होनें को नीच मान कर पुरुष बन पाने की कामना करती हैं. लोकसाहित्य भले ही अभिजात्य साहित्य की रूढ़ियों से मुक्त हो किन्तु वहां भी सामाजिक एवं पारंपरिक बंधन अपनी गाँठ ढीली नहीं करते. सोहर, बियाह, सोहाग आदि कई तरह के गीत हैं जिनमें स्त्रियाँ स्वयं बेटी के जन्म को भारी दुःख मानती हैं और पछताती हैं कि यदि गर्भ में कन्या होने की जानकारी जन्म से पहले मिल गई होती तो वो उसे अपने गर्भ में ही मार देती. या विवाह के पहले ही बेटी का मर जाना अच्छा होता आदि आदि.
सामाजिक कुरीतियों को लोकगीतों में भी समस्याओं की तरह ही दिखाया गया मगर वहां इन प्रथाओं को ख़त्म करनें या उनसे निजात पाने के लिए उनकी खिलाफत करने का रास्ता नहीं चुना गया बल्कि बेटी का पैदा ही ना होना या पैदा हो जाने पर उसे मार देना ही आसान उपायों के रूप में देखे जाते रहे, जो मोह बस बेटियों को नहीं मार सके वो विवाह में मोटा दहेज़ लगने पर पछताते हैं कि कन्या को गर्भ में ही क्यों नहीं मार दिया और विवाह के बाद इश्वर से प्रार्थना भी करते हैं कि दुश्मन को भी बेटी ना हो-
“होइगा वियाह परा सिर सेंदुर नौ लाख दाइज थोर
भितराँ कइ माँगु बाहर दइ मारीं सतरू के धिया जिनि होइ” (7)
लोकगीतों में भी गज़ब का दोहरापन देखनें को मिलता है, यहाँ जमीदारी, जाति प्रथा, छुआ-छूत आदि का तो पुरजोर विरोध देखने को मिलता है किन्तु पितृसत्ता विरोध का वैसा प्रखर स्वर देखनें को नहीं मिलता. लोकसाहित्य भी सामन्ती मूल्यों को तोड़ने में तो सफल रहे किन्तु पितृसत्तात्मक वर्चस्व लोकसाहित्यों में भी हमेशा से ही विद्यमान रहा.
शादी विवाहों में गाए जाने वाले ऐसे बहुत से गीत मिल जाएंगे जो कि हंसी-ठिठोली के लिए गाए जाते हैं, जिनमें लड़की को सुन्दर, नाज़ुक, कम उम्र दिखाया जाता है और दुल्हे को मोटा, बदसूरत और बेमेल. मसलन-
“बरहै बरिसवा कै मोरि रँगरैली असिया बरसि क दमाद
निकरि न आवै तू मोरि रँगरैली अजगर ठाढ़ दुवार
बाहर किचकिच आँगन किचकिच बुढ़ऊ गिरै मुँह बाय
सात सखी मिलि बुढ़ऊ उठावैं बुढ़ऊ क सरग दिखाय” (8)
अगर इन गीतों की तह में जाएं तो ये सोचनें पर मजबूर होना पड़ता है कि बेमेल और बाल विवाह जैसी वीभत्स प्रथाओं को मज़ाक में उड़ा देना इतना आसान होता है. उसके पीछे स्त्री पर हुई यातनाओं और तकलीफों को मज़ाक में उड़ा देना कहाँ तक जायज़ है? क्या ऐसी ही यातनाएं पुरुष वर्ग पर होतीं तो भी लोकसाहित्य में उसे ठिठोली का स्थान मिलता? लोकगीतों के सन्दर्भ में ऐसे तमाम सवाल अभी अनुत्तरित हैं.
सन्दर्भ सूची–
(1)- अवधी लोकगीत विरासत, पृष्ठ संख्या-338.
(2)-कविता-कौमुदी, पृष्ठ-163
(3)-श्री रामनरेश त्रिपाठी, वही पृष्ठ-163
(4)-श्री रामनरेश त्रिपाठी, वही पृष्ठ-163
(5)-( श्याम परमार, भारतीय लोक साहित्य, पृष्ठ संख्य-१२५)
(6)- मीमांसा, जून 2011, संपादक- मनीराम वर्मा, पृष्ठ-8
(7)-श्री रामनरेश त्रिपाठी, वही, पृष्ठ-273
(8)-श्री रामनरेश त्रिपाठी, वही, पृष्ठ-326
आधार ग्रन्थ सूची –
(1)- कविता-कौमुदी (तीसरा भाग – ग्रामगीत) संस्करण, श्री रामनरेश त्रिपाठी,
(2)- अवधी लोकगीत विरासत, डॉ. विद्या बिंदु सिंह, ज्ञान विज्ञान एजुकेयर प्रकाशन नई दिल्ली-2016, पृष्ठ संख्या-338.
(3)-मीमांसा पत्रिका, अंक-जून 2011
(4)-लोकरंग-१, सहयात्र प्रकाशन प्रा.लि., नई दिल्ली
(5)- लोकसाहित्य विज्ञान, डॉ. सत्येन्द्र, प्रकाशक-शिवलाल अग्रवाल एंड कं., आगरा
(6)-लोकसाहित्य, डॉ. राजेश श्रीवास्तव ‘शम्बर’, कैलाश पुस्तक सदन, भोपाल ।