1. ढलती शाम

दूर कहीं किनारे पर अकेला बैठा है कोई
मार रहा है पत्थर पानी पर
एक­एक कर
झांकता है कभी दूर पहाड़ी के उस पार
मन में लिए कुछ बेचैनी
कुछ इन्तजार के लम्बे पल
वक्त भी जा रहा है उडा धूएं की तरह
कुछ बादल हो रहे हैं इकट्ठा
किसी रंग में रंगने को
सूरज भी रंगों का अदृश्य सागर लिए
चला जा रहा है पश्चिम की ओर
कर रहा रंगीन बादलों को
देखते ही देखते
धूल भी जा रही है धीरे­धीरे
सिर से उपर
लौट रहे हैं सुबह के पक्षी भी
काली ठंडी रात में बिताने कुछ पहर
तैयार है रास्ता भी श्वेत कागज़ की तरह
गायों के असंख्य पैरों की मोहरें लगने को
वृक्ष खडे हैं शांत मानो
सुन रहे हों ढलती शाम की ग़जल कोई
चला आ रहा है काफ़िला
ऊँटों पर सवार
कुछ पैदल भी
थकी­थकी आँखें देख रही हैं रास्ता
लिए कुछ सपने, कुछ आशाएं ।

 

2. लोहे की भाषा

कौन कहता है लोहा केवल धातु है एक
लोहा बोलता है, अपनी एक भाषा रखता है
किसी ढाल से पूछना
किसी दरख्त के ठूंठ से पूछना या
किसी घोड़े के पैरों के आगे झुककर
मुड़ी हुई नाल से पूछना

आज का समय लोहे की भाषा का ही समय है
कागज पर लिखे शब्द
लाचार बना देते हैं
अपना स्वरूप भी बदल लेते हैं कई बार
बिक भी जाते हैं मात्र दमड़ी कौड़ी में
पर लोहे की करनी कथनी में कोई अन्तर नहीं होता
किसी तराजू से पूछना

तलवार नहीं बख्शती
लोहे की कलम भी नहीं बख्शती
उसके उपर कई बार विचार भी लोहे के होते हैं
चुभते हैं शब्दबाण बनकर
जफरनामे की तरह
कई बार जिन्दगी से भी हार जाता है कोई
लोहे की भाषा पढ़कर
ओरंगजेब की तरह

मजदूरों के हाथों ने
धरती की पहली परत में
लोहे की भाषा के बीज बोए हैं
अंकुरित किया है उनको रोपकर
लाल झंडे में लिपटे
हसिया से पूछना कभी
लोहे की भाषा का स्वाद

ये माना कि लोहा भी पिघलता है
पर लोहा, लोहा ही रहता है अंत तक
केवल सवरूप बदलता है भाषा नहीं
क्योंकि उसमें दोगलापन नहीं

लोहे की भाषा मूक है
फिर भी लोहा बोलता है
अपनी एक भाषा रखता है
फांसी पर लटकने वाले से पूछना
क्या लिखकर टूटा है लोहा
उसकी आंखों में झांकना उसकी भाषा
वाकई
आज का समय लोहे की भाषा का ही समय है
क्योंकि
उसकी करनी और करनी में कोई अंतर नहीं
उसमें दोगलापन नहीं |

 

3. परिभाषाएं

आसमान को पढ़ना अब छोड दिया है सबने
तारों को गिनना भी
बीते कल की बात हो गई
सांझ के बादलों से रंग चुनने का हुनर
पुतलियों को स्मरण नहीं अब
चांदनी रात में दूधिया रोशनी से
काल्पनिक स्नान करना
रूह की किस्मत में नहीं रहा

यूं ही गिरती बारिश की बूंदों से
पानी के क्षणिक इग्लूओं का बनना
अब नई पीढ़ी के लिए जरूरी नहीं
ये भी जरूरी नहीं कि
किसी फूल की पंखुड़ियों से
चुपके से शहद की बूंदें चुरा लेना
प्राकृतिक दृश्यों को
मन की तहों में सहेजकर रख लेना

दुखों को मिलकर बांट लेना और
बांटकर हस्त रेखाओं से मिटा देना
खुशी को बांटकर
आसमान जितना कर लेना
इस हुनर में निपुणता
हासिल नहीं कर लेना चाहता कोई
आगामी पीढ़ी के लिए
निस्वार्थ भाव से

फिर कैसे लिखी जाएंगी परिभाषाएं
किसके द्वारा
कौन गवाही देगा इन व्याख्याओं की
जो दफन होती जा रही हैं एक एक कर
जब हम व्यक्तिगत हो गए हैं
जब हम खुद के भी समीप नहीं
तो कहां से शुरूआत होगी
इन परिभाषाओं की।

 

4.  मिट्टी के रंग में

इस मिट्टी के कण कण में
मेरा वजूद बसता है,
कहीं काली कहीं दोमट में
कहीं रेतीली कहीं रसीली में
रंग लेती है मुझे अपने रंग में।

इस पर वर्ण लिखे थे कभी
पीपल की छाया में रहकर,
कई बार चली आता है
ऊपजाउ कणों के संग बहकर
बैलों के पैरां को छूकर
लगती है कृषकों के तन पर।

इसमें उगते हैं हम सब के सपने
कहीं इसमें ईख सी मिठास है
कहीं नीम सी कड़वाहट लिए
कहीं अमृत के सोते बहते
कहीं नदियों की पवित्र धारा
सांझ के बादल मिट्टी के रंग में
उडते हैं किसी मां के आंचल से।

मिट्टी का तन मिट्टी का मन
मिटकर भी नहीं मिटता जीवन,
ढल जाता है नये राग में
नये साज में नई आवाज में
चल पड़ता हूं मिट्टी के संग
मिट्टी के रंग में रचने बसने।

 

5. उद्घोष

न्याय की आंखों पर बंधी पट्टी का
पक्षपात के रोग से ग्रसित होना
कानून की देवी के तराजू का कम्पन
किसी उद्घोष की आहट है
किसी क्रांति का आगाज़ है
समय सारथी है इसका
उद्घोष इन्कलाब के रथ पर सवार
लिए चलता है
टूटे हुए रथ का पहिया
न जाने कब कहां
किसी चक्रव्यूह में घिर जाए
शंख की गूंज में तैरता है इसका पराक्रम

अन्धेरे के खिलाफ
सूरज की पहली किरण का आना
किसी युद्ध का उद्घोष है
अन्धेरे के अस्तित्व पर आया खतरा है

किसी शोषित की खामोशी
चीखते उद्घोष से कम नहीं
हिल रही हैं दीवारें
बदल रही हैं सड़ी हुई परम्पराएं
पहली बारिश भी खेत की दरारों के लिए
एक चेतावनी है
सूखे के लिए एक उद्घोष है
अकाल के लिए एक शंखध्वनि है

सूखे पत्तों का
किसी तूफान के वेग को कम करना
किसी आंधी को कुछ ही दूरी पर रोक देना
उद्घोष नही तो क्या है ?
अभावग्रस्त हाथों के,
सूखी पलकों के उस पार
कुछ तो है
जो अदृश्य है
शायद घोषणा है आने वाले वक्त की
परछाई है कोई प्रकाश की
या किसी अन्तिम सत्य की

बदलनी होंगी धारणाएं
मिटानी होंगी सडान्धती परम्पराएं
करनी होगी एक नये युग की शुरूआत
भेदभाव के कांटों को खत्म कर
वरना उद्घोष की घोषणा होने को है
कोई है जो
शंख हाथों में लिए
चला आ रहा है निडर निर्भीक
अर्धवस्त्र शरीर और
नंगे पांव की सेना लिए
ये उद्घोष नहीं तो क्या है।

 

6. प्रश्नकाल

सुबह ही सूरज की ओर पक्षियों का पलायन
डैनों को निरंतर पीटते रहने का अभ्यास
बिना विश्राम के चलते चले जाना
रोटी के लिए जरूरतमंद की
दिनभर की जद्दोजहद
एक प्रश्नकाल है
जो कहीं लिखा नहीं गया किसी भी भाषा में
जिसकी लिपि का अविष्कार होना अभी बाकी है शायद

किसी पहाड़ की पीठ से बर्फ का पिघलना
किसी नदी का
सूखे रेत में मछली की तरह दम तोड़ना
या फिर किसी दरख्त के ठूंठ का
दीमक के विरान घर में तबदील हो जाना
एक प्रश्नकाल है

तेजाबी हमले में किसी नाबालिग का
प्राणों को खो देना
उसकी एवज में किसी चैक पर किया गया
कैंडल मार्च या फिर दो मिन्ट का मौन
वास्तव में एक प्रश्नकाल है
जिसका माकूल जवाब ढूंढने में
लगता है एक सदी जैसे समय का चक्र

भूख प्रश्नकाल है
अविश्वास भी प्रश्नकाल है
प्रश्नकाल उल्टा लटका हुआ समय भी है
आज का दौर भी खुद एक प्रश्नकाल है
हर सपना जो कभी पूरा होने के कगार पर था
परन्तु अधूरा ही रहा
एक प्रश्नकाल है
जीवन जीने के साधनों का
सीमित जगह पर एकत्र हो जाना
अभावग्रस्त का मूलभूत मूल्यों के लिए लड़ाई लड़ना भी
एक प्रश्नकाल है

इन प्रश्नों को अतारांकित प्रश्नों की श्रेणी में रखना होगा
क्योंकि ऐसे बहुत से प्रश्नों का
मौखिक रूप में जवाब बेअहमियत साबित होगा
इनका जवाब रखना होगा कहीं लिखित रूप में
जब कभी भी दो मिन्ट का मौन होगा
या फिर भूख और अविश्वास की बात होगी
या फिर मूलभूत मूल्यों की लड़ाई में
हार हो रही होगी किसी जरूरतमंद की
तब इन प्रश्नों का लिखित रूप
एक गवाही के रूप में रखा जाएगा
प्रश्नकाल के दौरान।

 

लव कुमार लव
नारायणगढ़
हरियाणा

 

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