(क) उद्घोष 

न्याय की आंखों पर बंधी पट्टी का
पक्षपात के रोग से ग्रसित होना
कानून की देवी के तराजू का कम्पन
किसी उद्घोष की आहट है
किसी क्रांति का आगाज़ है
समय सारथी है इसका
उद्घोष इन्कलाब के रथ पर सवार
लिए चलता है
टूटेहुए रथ का पहिया
नजाने कब कहां
थ्कसी चक्रव्यूह में घिर जाए
शंख की गूंज में तैरता है इसका पराक्रम

अन्धेरे के खिलाफ
सूरज की पहली किरण का आना
किसी युद्ध का उद्घोष है
अन्धेरे के अस्तित्व पर आया खतरा है

किसी शोषित की खामोशी
चीखते उद्घोष से कम नही
हिल रही हैं दीवारें
बदल रही हैं सड़ी हुई परम्पराएं
पहली बारिश भी खेत की दरारों के लिए
एक चेतावनी है
सूखे के लिए एक उद्घोष है
अकाल के लिए एक शंख ध्वनि है

सूखे पत्तों का
किसी तूफान के वेग को कम करना
किसी आंधी को कुछ ही दूरी पर रोक देना
उद्घोष नहीं तो क्याहै ?
अभाव ग्रस्त हाथों के,
सूखी पलकों के उस पार
कुछ तो है
जो अदृश्य है
शायद घोषणा है आने वाले वक्त की
परछाई है कोई प्रकाश की
या किसी अन्तिम सत्य की

बदलनी होंगी धारणाएं
मिटानी होंगी सडान्ध परम्पराएं
करनी होगी एक नये युग की शुरूआत
भेदभाव के कांटों को खत्मकर
वरना उद्घोष की घोषणा होने को है
कोई है जो
शंख हाथों में लिए
चला आ रहा है निडर निर्भीक
अर्धवस्त्र शरीरऔर
नंगे पांव की सेना लिए
ये उद्घोष नहीं तो क्या है।

 

 

(ख) मुट्ठीभरसच

कितना सच बिखरा पड़ा है प्रकृति में
बादलों में ध्यान से देखना कभी
सत्य का प्रकाश
चमकता है इन्द्रधनुष की तरह
कई बार तैरता है हवा में खुशबू बनकर
कभी बरसने लगता है
नन्ही नन्ही बूंदों का रूप लेकर

कभी सूखे पत्तों के पास रूककर
ध्यान से सुनना
उनकी चटक की आवाज
कितना करीब होती हैसत्य के
बुद्ध ने भीअपने शिष्यों को
सूखे पत्तों में कराई थी पहचान
अन्तिम सत्य की
कबीर ने भी शुरू में
सूखा पत्ता ही बांधा होगा सिर पर
मोर पंख से पहले
सत्य कितने पलों में से गुजरा होगा
सूखे पत्तों से पूछना कभी

ओस की बूंदों में गिरता है सत्य
पारदर्शी तरल बनकर
उनको भाप बनते देखना कभी
सच उडता है पंख लगाकर
समा जाता है तारों में
रात में टिमटिमाने के लिए
अटल ध्रुव या सप्तऋषियों से पूछना कभी

फूल की पंखुड़ियों में समाया रहता है
सत्य
किसी भंवरे का पीछाकर
महसूस करना उसे पराग कणों में
जो उसके पंखों से छिटककर
फैल जाते हैं हवा में
उग जाते हैं कोटि-कोटि
कभी बुद्ध के लिए कभी कबीर के लिए

इस मन में भी रहता है एक सत्य
खोज करना कभी
किसी अष्टमार्ग पर चलकर
इसी सत्य से उगता है सूरज
चमक उठते हैं चांद सितारे
टिका रहता है
आकाश बिना किसी स्थाई स्तम्भों के भी
यही सत्य फैल जाता है
छोटे से दीपक से प्रकाश पुंज बन
चारों दिशाओं में
जब कोई निर्वाण प्राप्ति में
चल पड़ता है अन्नत की ओर
मुट्ठी भर सच लिए।

 

लव कुमार ‘लव’
हिन्दी अध्यापक
रा.मा.वि. सम्भालवा
अम्बाला (हरियाणा)

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