1. भूख के साये में

दुनिया के सांसारिक सत्यों में
एक और अटल सत्य जुड़ना चाहिए
जिसके बिना,
इन सब सच्चाईयों का कोई औचित्य नहीं
भूख भी सच का रूप है एक
शायद सारे सत्यों में
निर्विरोध सत्य भी

कई बार किसी जीवन में
भूख भी एक सफर होता है
जो हर पड़ाव पर बदल देता है
त्वचा का रंग
फैलने लगती है बेबसी
उसकी आंखों के कटोरों में
सांझ के बेरंग बादलों की तरह

भूख कभी कभी अमावस की रात होती है
समेट लेती है कालिख की चादर में
अभावग्रस्त जीवन के
जुगनूओं जैसे प्रकाशपुंज भी

चांद के टूकड़ों में रोटी की भनक
बढ़ा देती है जठराग्नि को
तब अहसास होता है कि
छूट गया है एक और सत्य
संसारिक सत्यों के समूह से
लौट आता है ये मन
भूख के साये में
और ढूंढने लगता है
सांसारिक सत्यों की तहों में
भूख जैसे भयानक अटल सत्य को ।

2. बूँदों की आवाज

बरस रही हैं बूंदें रिम झिम
चांदनी में नहाकर
उनकी आवाज में जादू है कोई
जल तरंग सी खनक लिए
कहीं पत्तों पर गिरती टिप टिप

मधुर ध्वनि मंगल बेला सी
बिस्मिल्लाह की तुहरी मिठास ले
गिरती कहीं छप्पर के फूंस से
मानो संगीत की कोई शाम हो
किसी फनकार के नाम हो

छम छम करती गिरती गलियारे में
कभी गिरती कागज की कश्तियों पर
चुपके से गिरती भीगे तन पर
कानों में कुछ मूक सा कहकर

पानी पर छप छप कर
बुलबुलों के संग बहकर
मिलने लगती बहती धारा में
जादू है कोई प्रकृति चित्रण
मन में अमिट सांसारिक सत्य सी
गिरती कहीं पनघट पर
किसी आंचल से छिटक छिटकर
जल तरंग सी खनक लिए।

 

3. हनन का दौर

शायद वहीं तक है मेरे देश की सरहद
जहां तक बिना रोक टोक के
जाना हुआ
जहां तक मेरी स्वतंत्रता छिन्न भिन्न न हुई
जहां तक सांस लेने में दम नहीं घुटा
जहां तक अविश्वास की अवधारणा ने
मन में घर नही कर लिया

भेदभाव के दंश से गुजर कर लगा कि
समानता मात्र एक शब्द है
किसी शब्दकोश का
गैर समुदाय के सम्बन्ध में लगे
प्रेवश वर्जित, निषेध के बोर्ड
धार्मिक, मानसिक स्वतंत्रता का हनन लगे
जिनके लिए कानून की देवी ने भी
बांधे रखी पटटी आंखों पर
सदियों सदियों से

नुक्कड़ पर बनी चायशालाओं में
कहीं फक्टरियों के धुंए में कैद बचपन
देखकर लगा कि
शिक्षा का अधिकार कानून इन पर लागू ही नहीं होता
जब बच्चे काम पर जा रहे होते हैं
तो राजेश जोशी की कविता
मातम मना रही होती है शिक्षा के अधिकार पर

जब विचारों पर कानून की धाराओं का
असंगत विवरण उकेरा जाए
आत्माभिव्यक्ति के मुखर मौन पर
प्रतिबन्ध का टैग लगा दिया जाए
ऐसे में सैंवधानिक विचारों का मौलिक अधिकार
एक महान पुस्तक का सुन्दर वाक्य हो सकता है
रक्षक नहीं

शोषित पददलित की आंखों में व्याप्त आक्रोश
घोर अपराध की श्रेणी का उदाहरण होते हुए भी
जब महत्वहीन हो जाए
ऐसे में कितना मूल्य रह जाता होगा
शोषण के विरूद्ध अधिकार का
गंभीर विषयों का हनन
एक चिंतित प्रश्नवाचक चिन्ह की तरह है
जो संविधान की प्रथम पंक्ति
हम भारत के लोग
पर दर्ज है किसी हल्फिया बयान की तरह

बहुत ही सूक्ष्म गति से गतिमान है
हनन का चक्र
इतना सब कुछ घटित हो जाने पर
लगता है कई बार
बहुत सीमित है मेरे देश की सरहद
शायद वहीं तक
जहां तक मेरी स्वतंत्रता छिन्न भिन्न न हुई
जहां तक सांस लेने में दम नही घुटा।

 

4. वही बचपन वही बूंदें

एक सुबह बारिश की बूंदें
रिम झिम रिम झिम
टिप टिप टिप टिप
झर झर झरती घर आंगन में

याद आईं बचपन की यादें
जब बूंदें खो जाती थी
महीन रेत में
पवित्र सूचे मोती बनकर
नन्हीं नन्हीं झरने लगती थी
आंगन की तुलसी के घर में

निकल पड़ते थे गलियारे में
छप छप करते कदमताल कर
अपनी अपनी कागज की कश्ती ले
उमड़ उमड़ कर घूमड़ घूमड़ कर
उमंग से भरे कोई बादल जैसे
बरगद भी वहीं खड़ा है जब से
देता गवाही उन लम्हों की

पगडंडी से होकर जाते
खेत की मेड़ पर तिरछे बल खाते
कई कई बार देखे पपीहे
आम के बागों में मोर नाचते
गऊचरान तक हो आते थे
कूंजों की टोली बन जैसे

खेत किनारे खड़ा होता था
अधनंगा एक साफाधारी
ना आसमान की गड़ गड़ का डर
खड़ा तपस्वी ओलावृष्टि में भी
खेत का रक्षक हांडी के सिर वाला
भीगा तन ले खड़ा रह जाता
एक भी अल्हड़ अपनी टोली का
उसके कभी हाथ न आता

कुछ पल रूकते थे तालाब किनारे
देखा करते थे टकटकी लगाए
मोटी बूंदों के
जादू के गोले

घर लौटते तन मन भीगे
मीठी लगती थी फटकारें
कुछ ही पल में मां आती थी
छुप जाते थे आंचल के पीछे

बारिश बंद हो जाती थी
फिर भी टपकती रहती थी बूंदें
कच्चे घर की कच्ची छत से
अगले दो दिन कटते थे कोने में
घर के बर्तन बिखरे बिखरे
रहते थे टपकती बूंदों के नीचे

यूंही आंख खूल गई
यादोें से
कुछ पल और खो लेता
उसी बचपन की उन्ही यादों में
भीगा नहीं अभी
तन के अन्दर का मन
जो रूकता था कभी तालाब किनारे
देखा करता था टकटकी लगाए
मोटी बूंदों के
जादू के गोले ।

 

लव कुमार लव
हिन्दी अध्यापक
अम्बाला, हरियाणा

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