रीतिकालीन साहित्य को न्यू मीडिया से जोड़कर देखना कहीं न कहीं अजीब भी लग सकता है लेकिन इन दोनों की पारस्परिकता पर ध्यान दें तो वह महत्वपूर्ण भी लगता है। न्यू मीडिया के अंतर्गत वर्तमान के सभी प्रकार के सूचना संसाधनो को ( तकनीकी ) को मुख्य रूप से देखा जा सकता है । उदाहरण के रूप में वीकिपीडिया आदि । न्यू मीडिया का स्वरूप समय सापेक्ष और अद्यतन तकनीक के माध्यम से निरंतर परिवर्तनशील है । किसी भी समाज और तत्कालीन साहित्य को अलग -अलग करने से नहीं बल्कि तुलनात्मक नजर से ही आकलित किया जा सकता है। सोशल मीडिया के माध्यम से हमारे जीवन के विविध पक्षों का ब्यौरा ही प्रस्तुत नहीं होता बल्कि उनके प्रति व्यापक समझ भी बनती है इसलिए इसे सोशल मीडिया कहा गया । समाज की पारस्परिक वैचारिक तारतम्यता का आधार बना हुआ सोशल मीडिया के विषय न केवल हमारे वर्तमान और अतीत को जोड़ते हैं बल्कि उसमें आने वाले समय और चुनौतियों की चर्चा भी देखने को मिलती है । विभिन्न विषयों पर बेबाक टिप्पणी भी की जाती हैं । ट्विटर,ब्लॉग आदि पर इन्हें निरंतर देखा जा सकता है। साहित्य को लेकर भी बहुत सी पत्र-पत्रिकाएँ चल निकली हैं और अच्छा खासा कार्य इस दिशा में हो रहा है । आज का समय बहुत व्यस्तता और आपाधापी का समय है जहाँ हर किसी के पास बैठकर घंटों तक साहित्य का किताब के माध्यम से अध्ययन कर पाना संभव नहीं रह गया है । इसलिए सोशल मीडिया के माध्यम से साहित्य का प्रचार-प्रसार और प्रयोग महत्वपूर्ण बन जाता है विशेषकर ऐसा साहित्य जिसे आज के पाठक द्वारा प्रत्यक्ष पढना ही मुश्किल होता है ।चूंकि रीतिकालीन साहित्य भी अवधी-ब्रज भाषा में ही अधिकांशतः लिखा गया है अतः आज के पापुलर माध्यम सोशल मीडिया पर ऐसे साहित्य पर चर्चा -विमर्श और भी महत्वपूर्ण बन जाता है ।
रीतिकालीन समाज सामंती समाज था । साहित्यिक दृष्टि से यह काल मुख्य रूप से श्रृंगार और कला का काल कहलाता है रीतिकालीन साहित्य की प्रवृत्तियों को तात्कालिक समाज और वर्तमान समाज से जोडकर देखें तो बहुत कुछ ऐसा मिलता है जो हमारे वर्तमान को भी प्रभावित करता है और शायद आने वाले समय को भी प्रभावित करे । परिवार,समाज,रहन-सहन,खान-पान,वस्त्राभूषण ,राजा-प्रजा का अंत: संबंध ऐसा बहुत कुछ रीतिकालीन साहित्य में द्रष्टव्य है जो जीवन के प्रति भौतिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण को उजागर करता है । रीतिकालीन साहित्य में ऐसा बहुत कुछ है जो आज के समय में जाँचने-परखने लायक है। यदि मीडियागत संसाधनों से तात्कालिक साहित्यिक प्रवृत्तियों को उजागर किया जाए तो उस समय का सामाजिक ताना-बाना हमारे सम्मुख प्रस्तुत हो पाएगा । आज के डिजिटल युग में हमारे पारंपरिक साहित्य को यदि मीडिया संसाधनों द्वारा उकेरा जाए तो बहुत सारे विषयों की जानकारी सहज उपलब्ध हो सकती है । उदाहरण के लिए ज्योतिष,वैद्यक व्यवसाय और एक व्यापक सामाजिक परिवेश जिसमें राजनीतिक,सामाजिक,आर्थिक-सांस्कृतिक परिवेश सम्मिलित होगा । रीतिकालीन साहित्य को यदि आज के डिजिटल परिप्रेक्ष्य में परखा जाए तो तात्कालिक समाज के कला-कौशल को हम बेहतर तरीके से जान पाने में सक्षम हो जाते हैं । उस समय की वास्तुकला,चित्रकला,संगीतकला और अन्य विभिन्न जीवन पक्षों की जानकारी का सामाजिक विस्तार उससे हो पाएगा। विभिन्न कलाओं की जानकारी के अलावा रीतिकालीन लक्षण ग्रंथों के माध्यम से संस्कृति के काव्यशास्त्रीय और विभिन्न विषयों के ग्रंथों का अपने समय की भाषा (मुख्यतः ब्रज) में जो कलात्मक अनुवाद किया है वह हमारे लिए अमूल्य निधि है जिसको सामाजिक मीडिया के पटल पर उभार देना ज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण साबित हो सकता है। रीतिकालीन साहित्य में जीवन के प्रति एक ललक विद्यमान है जहाँ जीवन के प्रति अरूचि न होकर जीवन को एक कलात्मक ढंग से जीने का तरीका तात्कालिक कविता में विद्यमान है जो उस समय के व्यापक सामाजिक परिवेश को सामने रखता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल साहित्य और सामाजिक ताने-बाने के संबंध में कहते हैं -“जबकि प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब होता है,तब यह निश्चित है की जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के रूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है।  आदि से अंत तक इन्हीं चित्त-प्रवृत्तियों की परंपरा को परखते हुए साहित्य की परंपरा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना ही “ साहित्य का इतिहास” कहलाता है । जनता की चित्तवृत्ति बहुत कुछ राजनीतिक,सामाजिक,साम्प्रदायिक तथा धार्मिक परिस्थिति के अनुसार होती है ।( हिन्दी साहित्य का इतिहास – आचार्य शुक्ल पृष्ठ – 1) आचार्य शुक्ल ने जिस प्रकार से जन चित्तवृत्तियों के साहित्यिक परंपरा से सामंजस्य की बात करते हुए उसे विभिन्न सामाजिक परिस्थितियों से संबद्ध बतलाया है वह साहित्य के रचनाकर्म और अवलोकन दोनों की ओर इशारा करता है । रचनाकार की रचनात्मकता में अपने समय का कितना सच विद्यमान है यह रचना के अवलोकन के साथ ही तात्कालिक सामाजिक जीवन के अवलोकन का भी हिस्सा बन जाता है । इसी संदर्भ को न्यू मीडिया से जोड़कर देखना उचित जान पड़ता है क्योंकि साहित्य की रचनात्मकता के साथ-साथ  वर्तमान समय में सोशल मीडिया में अपने समय का सच बखूबी उभरता है । ज्वलंत मुद्दे भी भी मीडिया का अहम हिस्सा रहते हैं । राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय समसामयिक मुद्दे हों या क्षेत्रीय और मानव जीवन से संबद्ध विभिन्न मुद्दे हों सोशल मीडिया में ऐसा बहुत कुछ छाया रहता है जो अपने समय के साहित्य को भी कहीं न कहीं आधार देता है । रीतिकालीन साहित्य के समय में तकनीक का कोई ऐसा कोई आधार हमें नहीं देखने को मिलेगा लेकिन हमारे वर्तमान में रीतिकालीन साहित्य को सोशल मीडिया में उभरते विभिन्न मुद्दों से जोड़कर यदि लेख,टिप्पणी,समीक्षाएं लिखी जाऐं तो वह अपना महत्वपूर्ण योगदान दे सकता है और ऐसा किसी भी काल के साहित्य पर किया जा सकता है। चूंकि हम बात रीतिकाल पर कर रहें हैं तो रीतिकालीन समय ,समाज और साहित्य की पारस्परिकता को उस समय की साहित्यिक प्रवृत्तियों – रूझानों के साथ-साथ विवशताओं को भी हमें देखना चाहिए। सेंसरशिप को भी उस समय से जोड़कर देखना चाहिए । धार्मिक मतभेद और आतंकवाद यदि आज राष्ट्र को आंदोलित कर रहा है तो रीतिकालीन साहित्य में भी हम उसे देख पाते हैं जहाँ हम देखते हैं कि कैसे रीतिइतर कवि मंदिर और महलों को तोड़ गिराने पर अपना क्षोभ और चिंता व्यक्त करता है। सोशल मीडिया पर यदि तात्कालिक साहित्यिक संदर्भों से हमारे वर्तमान समाज की चुनौतियों को जोड़कर देखा जाए तो मात्र श्रृंगार की अवधारणा को पीछे छोड़कर रीतिकालीन साहित्य अपनी सामाजिक पकड़ और जीवन के कटु सत्य को भी सामने लेकर आता है जहाँ अन्न के अभाव में जीवन विभिन्न संकटों को झेलता दिखलाई देता है । कवि मान ने अकाल के समय का मार्मिक यथार्थ प्रकट करते हुए लिखा है –
“स्त्रावन किंचिन हूँ स्त्रयो,भाद्रव परि दुर्भख्य ।
मेघ बिना नव खंड महि ,प्रज चल चलिय प्रत्यख्य ।।
बिकल भयै नर अन्न बिनु ,भूखहिँ अभख भखंत ।
कंत तजत निज कामिनी ,कामिनि तजत सु कंत ।।( छंद 114-115, मानकृत राजविलास पृष्ठ 93)
यहाँ कवि ने अकाल से त्रस्त जन-जीवन की संकटमय स्तिथि को सामने रखा है । इससे ज्यादा जीवन का कडवा सच और क्या हो सकता है जिसे रीतिकालीन कवि सामाजिक यथार्थ और जीवन के विविध प्रसंगों को हम रीतिकालीन साहित्य में देख पाते हैं । विविध विषयों की गूढ़ जानकारी प्रस्तुत साहित्य में भरी हुई है । वास्तु,ज्योतिष,वैद्य जैसे व्यावसायिक विषयों के अलावा काव्यशास्त्रीय ग्रंथों की जानकारी और पद्धतिगत रसवार्ता को पूरे साहित्य में देख पाते हैं । निश्चित रूप से श्रृंगार रस का आधिक्य दिखलाई देता है लेकिन बाकी रस भी बराबर देखे जा सकते हैं। गोरेलाल के छत्रप्रकाश में मुगल शासकों द्वारा हिन्दू राजाओं के प्रति अपनाये गए क्रूर रवैये का वर्णन किया गया है –
“जबते साह तकत पर बैठे,तबतैं हिन्दुन सौं उर ऐंठे ।
महंगे कर तीरथनि लगाए ,बेद दिवाले निदर ढहाए ।।
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ऐड़ एक शिवराज निबाही ,करैं आपने चित् की चाहीं ।
आठ पातसाही झकझौरै ,सूबनि बाँधि डाँड़ लै छोरै ।।( छत्रप्रकाश ,ग्यारहवां अध्याय ,पृष्ठ 86. संपादक डॉ. महेन्द्र प्रताप सिंह )
इसी प्रकार सूर्यमल्ल कृत वीरसतसई में वीर रस से ओतप्रोत पंक्तियां देखने को मिलती हैं जहाँ एक माँ मातृभूमि पर किसी को भी कब्जा नहीं करने देने की सीख देते हुए कहती है –
इला न देणी आपणी ; हालरियाँ हुलराय ।
पूत सिखावै पालणै ; मरण बड़ाई माय ।( वीरसतसई ,छंद 234, पृष्ठ 257. संपादक शंभु सिंह मनोहर )
इसी प्रकार और भी बहुत सारे उदाहरण रीतिकालीन साहित्य में द्रष्टव्य हैं  जहाँ वीरता ,नीति ,और अन्य विविध विषयों की बारीकी से चर्चा देखने को मिलती है । यहाँ एक – एक विषय को सिलसिलेवार सोदाहरण उल्लेखित कर पाना संभव नहीं है । हमारे वर्तमान परिदृश्य के विभिन्न आयामों के संदर्भ हमें रीतिकालीन साहित्य में दिखलाई देते हैं ।

निष्कर्ष रूप में कहा जाए तो रीतिकालीन साहित्य में श्रृंगार- इतर विषय – वैविध्यता बराबर विद्यमान है। हमारे वर्तमान जीवन-समाज के लिए रीतिकालीन साहित्य को महत्वपूर्ण माना जा सकता है। सोशल मीडिया के माध्यम से रीतिकालीन साहित्य पर भी शोध लेख और विचार-विमर्श जरूरी हो जाता है। न्यू मीडिया और रीतिकालीन साहित्य की की पारस्परिकता को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। विषय-वैविध्यता के साथ-साथ जीवन के प्रति एक व्यापक समझ भी रीतिकालीन साहित्य में मौजूद है। यद्यपि श्रृंगार-वर्णन के प्राबल्य को इस काल के साहित्य में नकारा नहीं जा सकता तथापि दौ सौ वर्षों वृहद साहित्यिक परंपरा को न्यू मीडिया की नजर से देखना-दिखलाना महत्वपूर्ण साबित हो सकता है ।

डॉo सरिता
सहायक प्रोफेसर ( तदर्थ )
शिवाजी कालेज
दिल्ली विश्वविद्यालय

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