संस्कृति किसी देश की जीवन शैली, आचार-विचार तथा सामाजिक-धार्मिक प्रवृत्तियों आदि का परिचायक होती हैं। प्रत्येक देश का साहित्य उस देश की सांस्कृतिक एकता तथा जनता की चित्तवृत्तियों को प्रकट करता है। उस देश के प्रत्येक कालखंड विशेष का साहित्य देश की जनता की सांस्कृतिक विविधता के कारण भिन्न हो सकता है। उदाहरण के लिए भारतीय संस्कृति में महाभारत, रामायण, वेद, उपनिषदों आदि का महत्व साहित्यिक परिदृश्य की तुलना में धार्मिक अधिक है। “प्राचीन भारतीय समाज में उपनिषदों की रूपक कथाएँ, महाभारत के उपाख्यान बौद्ध जातक कथाएँ, राजा विक्रमादित्य, राजा भोज जैसे प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय राजाओं से संबंधित कहानियाँ कहने-सुनने की परंपरा विद्यमान थी। पुराणों में इस परंपरा का विकसित रूप मिलता है। पुराण काल में आर्यों की उर्वर कल्पना शक्ति ने असंख्य नए देवी-देवताओं की सृष्टि की और उनसे संबंधित अनेक प्रकार की कहानियाँ पढ़ी गई। आज का बुद्धिवादी पाठक इन पौराणिक कथाओं को कपोल-कल्पित कहकर चाहे उनकी उपेक्षा कर दे किन्तु प्राचीन भारतीय जनता का इन कहानियों में अटल विश्वास था।”[1] इन कहानियों की मूल चेतना भारतीय भाषाओं में लगभग एक सी है। हिन्दी कहानियों के समान ही अन्य भारतीय भाषाओं में भी आस्था, परस्पर सौहार्द एवं कल्याणकारी भावना के सकारात्मक तत्वों का समावेश है।

     

      ‘संस्कृति’ की अवधारणा के परिप्रेक्ष्य में सर्वोत्तम गुणों को आत्मसात करना संस्कृति माना गया है। संस्कृति, दैहिक एवं वैचारिक योग की वह अवस्था मानी गई है, जिसमें मानव विकास पाता है। विचार–व्यवहार एवं रुचियों के परिष्करण से सभ्यता विकास पाती है। “इस अर्थ में, संस्कृति कुछ ऐसी चीज का नाम हो जाता है, जो बुनियादी और अंतर्राष्ट्रीय है। फिर, संस्कृति के कुछ राष्ट्रीय पहलू भी होते हैं। और इनमें कोई संदेह नहीं कि अनेक राष्ट्रों ने अपना कुछ विशिष्ट व्यक्तित्व तथा अपने भीतर कुछ खास ढंग के मौलिक गुण विकसित कर लिए हैं।”[2]  वर्तमान काल में भारतीय संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में अनेक भाषाओं (हिन्दी, पंजाबी, बांग्ला, असमिया, तमिल आदि) में साहित्य लिखा जा रहा है, जिसका राजनीतिक-सामाजिक महत्व अधिक है। फलतः साहित्य धार्मिक हो या राजनीतिक-सामाजिक वे मानव कल्याणकारी जीवन मूल्यों का दर्शन ही प्रस्तुत करता है। “जनता की चित्तवृत्ति बहुत कुछ राजनीतिक, सामाजिक, सांप्रदायिक तथा धार्मिक परिस्थिति के अनुसार होती है। अतः कारण स्वरूप इन परिस्थितियों का किंचित दिग्दर्शन भी साथ ही साथ आवश्यक होता है। इस दृष्टि से हिन्दी साहित्य का विवेचन करने में यह बात ध्यान में रखनी होगी कि किसी विशेष समय में लोगों में रूचि विशेष का संचार और पोषण किधर से और किस प्रकार हुआ।”[3] हिन्दी का विकास शौरसेनी अपभ्रंश से हुआ। हिन्दी ने भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त विदेशी भाषाओं (अरबी, अंग्रेजी, पुर्तगाली आदि) के शब्दों को भी ग्रहण किया है। फलतः हिन्दी संपर्क भाषा के रूप में संपूर्ण भारत में मान्य है। दक्षिण भारत से सुदूर पूर्वोत्तर भारत तक हिन्दी समझने-बोलने वाले मिल जाते हैं। यही भारतीय संस्कृति की राष्ट्रीय एकता का प्रमाण है कि जहाँ लंबे संघर्ष एवं चुनौतियों के पश्चात भी हिन्दी ही राष्ट्रभाषा के रूप में द्रष्टव्य है।

      भारत भाषा, समाज एवं संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में विविधता का देश है। यही सांस्कृतिक विविधता भारतीय जीवन दर्शन का महत्वपूर्ण बिन्दु भी है और राष्ट्रीय एकता का परिचायक भी। भारत सांस्कृतिक विविधता का देश है। यही सांस्कृतिक विविधता भारत की ‘अनेकता में एकता’ बंधुत्व सूत्र के राष्ट्रीय हित के उद्देश्यों की पूर्ति करता है। भारत के दक्षिण में द्रविड़ संस्कृति, उत्तर भारत में आर्य संस्कृति तथा पूर्वोत्तर भारत में आदिम संस्कृतियाँ विद्यमान हैं। जो एक दूसरे से सामाजिक व भाषाई स्तर पर पूर्ण रूपेण भिन्न हैं परंतु इसके उपरांत भी ये भारतीय जनसंघ के अंतर्गत देश के विकास में सहयोगी बने हुए हैं। समय-समय पर भारतीय जनता में फूट डालकर इनकी राष्ट्रीय सांस्कृतिक एकता को तोड़ने का प्रयास किया जाता रहा है। भाषा,धर्म, संप्रदाय,संस्कृति आदि के भेद द्वारा वैमनस्य की संकीर्ण भावना को विदेशी आंक्रांताओं एवं असामाजिक तत्वों ने प्रोत्साहन दिया।  अतः इस प्रकार भारत राष्ट्रीय स्तर पर अपने लोकतान्त्रिक व्यवस्था के कारण जनता की सांस्कृतिक विविधता के पश्चात भी एकता के सूत्र में बंधा है। शांति, मैत्री और बंधुत्व के संदेश के साथ संपूर्ण विश्व में भारत ने ख्याति पाई है और हिन्दी ने इस दिशा में मुख्य भूमिका  निभाई है।

      हिन्दी भाषा भारतीय संस्कृति एवं परंपरा को प्राण वायु देने वाली भाषा है। हिन्दी भाषा का इतिहास इस तथ्य को पुष्ट करता है कि हिन्दी को सामाजिक-सांस्कृतिक एवं राजनीतिक पहचान दिलाने में डॉ॰ श्यामसुंदर दास, पंडित मदन मोहन मालवीय, राजा शिवप्रसाद सितारे ‘हिन्द’, राजा लक्ष्मण सिंह, राजा रामपाल सिंह, राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन, महात्मा गांधी, दयानन्द सरस्वती सहित विदेशी विद्वानों फ्रेडरिक पिंकाट, फादर कामिल बुल्के, विलियम केरे, जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन आदि हिन्दी समर्थकों का सहयोग रहा, जिनका सहयोग, समर्थन पाकर हिन्दी भाषा ने संघर्ष का लंबा मार्ग तय किया।

      हिन्दी भाषा को राष्ट्रभाषा बनने में समय-समय पर चुनौतियों का सामना करना पड़ा है। दक्षिण भारत में हिन्दी विरोध, बांग्ला भाषियों का हिन्दी विरोध, क्षेत्रीय भाषाओं को ही शिक्षा का माध्यम बनाने की माँग आदि सभी हिन्दी को अस्वीकार करने के कारण थे। परंतु समय के साथ इन चुनौतियों का अंत हो रहा है और हिन्दी का प्रचार-प्रसार बढ़ रहा है। हिन्दी विरोधी विचारधाराओं में तमिलों का विरोध अत्यंत उग्र था। जिसके समाधान हेतु महात्मा गांधी ने दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा (मद्रास) की स्थापना की। आज लगभग सभी अहिन्दी भाषी भारतीय प्रदेशों में हिन्दी का प्रचार-प्रसार शिक्षा, पत्र-पत्रिकाओं, सभा-संगोष्ठियों, कार्यशालाओं द्वारा तीव्रता के साथ हो रहा है। जिसमें स्थानीय जनता भी रुचि ले रही है। इसका कारण हिन्दी का इनकी भाषा एवं संस्कृति से जुड़कर अभिव्यक्ति प्रदान करना है। हिन्दी ने इन क्षेत्रीय भाषाओं का अनुवाद कर पाठक वर्ग को इनकी भाषा-संस्कृति, समाज से अवगत होने का अवसर दिया है। हिन्दी अनेक समुदायों-संस्कृतियों की भाषा बन चुकी है। जिसके माध्यम से इनका संदेश संपूर्ण देश की जनता तक पहुँच पाया है। इनके इतिहास, साहित्य, संस्कृति, समस्याओं, आस्थाओं को पाठक जान पाया है। अतः हिन्दी की आवश्यकता आज प्रत्येक क्षेत्र में बढ़ी है। ऐसा नहीं है कि यह आवश्यकता वर्तमान काल की नवीनतम माँग है। अंग्रेजी शासन के दौर में भी हिन्दी भारतीय जनता तक विचारों के संप्रेषण की भाषा थी। राजनीतिक-सामाजिक, धार्मिक स्तर पर हिन्दी की आवश्यकता को अंग्रेजों ने समझा था और सेंट फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना इसका प्रमाण है। “ईस्ट इंडिया कंपनी ने प्रशासनिक सुविधा के लिए सन् 1800 ई. में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना की। इसमें हिन्दी, मराठी, गुजराती, तमिल आदि देशीय भाषाओं में सामान्यतः पुस्तकें अनूदित होती थीं। हिन्दी या हिन्दुस्तानी के प्राध्यापक गिलक्रिस्त थे। उर्दू के लिए अलग मुंशी नियुक्त हुए और भाखा या हिन्दवी के लिए अलग। भाखा-मुंशियों के रूप में लल्लू जी लाल और सदल मिश्र की नियुक्ति हुई।”[4] इसके अतिरिक्त ईसाई धर्म के प्रचार एवं बाइबिल के अनुवाद प्रकाशन में भी हिन्दी भाषा ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। “संवत् 1860 के लगभग हिन्दी गद्य की जो प्रतिष्ठा हुई उसका उस समय यदि किसी ने लाभ उठाया तो ईसाई धर्म प्रचारकों ने, जिन्हें अपने मत को साधारण जनता के बीच फैलाना था। सिरामपुर उस समय पादरियों का प्रधान अड्डा था। विलियम केरे (william carey) तथा और कई अंग्रेज पादरियों के उद्योग से इंजील का अनुवाद उत्तर भारत की कई भाषाओं में हुआ। कहा जाता है कि बाइबिल का हिन्दी अनुवाद स्वयं केरे साहब ने किया। संवत् 1866 में उन्होंने ‘नये धर्म नियम’ का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित किया और संवत् 1875 में समग्र ईसाई धर्म पुस्तक का अनुवाद पूरा हुआ।”[5]  परंतु इन सबके पश्चात भी उर्दू द्वारा हिन्दी को निरंतर चुनौती मिल रही थी। सर सैयद अहमद खाँ, गार्सा द तासी आदि विद्वान हिन्दी को गँवारू भाषा संबोधित कर उसके धार्मिक, साहित्यिक, दार्शनिक एवं सामाजिक- राजनीतिक महत्व को अस्वीकार कर रहे थे। इस समय तक उर्दू ही अदालती एवं प्रसाशनिक व्यवस्था की भाषा थी। जबकि हिन्दी उत्तर भारत के लगभग प्रत्येक प्रदेश की भाषा थी। उनकी संस्कृति से जुड़ी हिन्दी एक मात्र ऐसी भाषा थी जो ग्रामीण एवं नगरीय क्षेत्रों की दूरी को कम करती थी। “वे इस बात से डरा करते थे कि कहीं नौकरी के लिए ‘भाखा’ संस्कृत से लगाव रखने वाली ‘हिन्दी’ न सीखनी पड़े अतः उन्होंने पहले उर्दू के अतिरिक्त हिन्दी की पढ़ाई की व्यवस्था का घोर विरोध किया। उनका कहना था कि जब अदालती कामों में उर्दू ही काम में लायी जाती है तब एक और जबान का बोझ डालने से क्या लाभ ? ‘भाखा’ हिन्दुओं की कथावार्ता आदि कहते सुन वे हिन्दी को ‘गँवारी’ बोली भी कहा करते थे।”[6] हिन्दी को हिन्दुओं की तथा उर्दू को मुसलमानों की भाषा बताकर हिन्दी, उर्दू के बीच खाई को गहरी करने का कार्य गार्सा द तासी ने किया। वे उर्दू के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने भारतीय सांस्कृतिक एकता के दो प्रमुख स्तंभों, हिन्दू-मुस्लिम समुदायों में दूरी उत्पन्न करने के लिए ‘अंजुमन लाहौर सभा’ के अध्यक्ष सैयद हादी हुसैन खाँ के व्याख्यान का स्वागत करते हुए उर्दू को देश की प्रचलित योग्य भाषा कहा। और इसी सभा की दूसरी बैठक में बाबू नवीन चंद्र राय के वक्तव्य का विरोध करते हुए उन्हें कट्टर हिन्दू कहा। “नवीन बाबू के इस व्याख्यान की खबर पाकर इस्लामी तहजीब के पुराने हामी हिन्दी के पक्के दुश्मन गार्सा द तासी फ्रांस में बैठे-बैठे बहुत झल्लाए और अपने एक प्रवचन में उन्होंने बड़े जोश के साथ हिन्दी का विरोध और उर्दू का पक्षमंडन किया तथा नवीन बाबू को कट्टर हिन्दू कहा।”[7] सर सैयद अहमद खाँ ने भाषा के आधार भारतीय सांस्कृतिक एकता को भिन्न माना और इस भिन्नता की आग को अंग्रेजों ने बराबर हवा दी। “जहाँ जब हिन्दी-उर्दू का सवाल उठा तब सर सैयद अहमद, जो अंगरेजी से मेल-जोल रखने की विद्या में एक ही थे, हिन्दी विरोध में और बल लाने के लिए मजहबी नुस्खा भी काम में लाये। अंगरेजों को सुझाया गया कि हिन्दी हिंदुओं की जबान है, जो ‘बुतपरस्त’ हैं और उर्दू, मुसलमानों की जिनके साथ अंगरेजों का मजहबी रिश्ता है- दोनों सामी या ‘पैगंबरी’ मत के मानने वाले हैं।”[8]  इस प्रकार सर सैयद अहमद खाँ ने मुसलमानों को सुविधाएँ प्राप्त कराने के लिए भारतीय संस्कृति से काटना चाहा, हिन्दुओं से धार्मिक भिन्नता बताकर मुसलमानों को अंग्रेजों के निकट बताया। परंतु जल्दी ही मुस्लिम इस धारणा से आगे बढ़ गए और गंगा-जमुनी संस्कृति के आधार पर राष्ट्रीय एकता के सूत्र में बंधकर राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलनों में अंग्रेजों के विरुद्ध भाग लेने लगे।

          भारतीय संस्कृति की इस गंगा-जमुनी संस्कृति की झलक हिन्दी भाषा के उपन्यास सम्राट प्रेमचंद के लेखन में देखी जा सकती है। जिनमें इनका उपन्यास ‘कर्मभूमि’ विशेष रूप से दर्शनीय है। प्रारंभ में प्रेमचंद उर्दू के ही लेखक थे। परंतु “प्रेमचंद ने सन्न 1914-15 से हिन्दी में लिखना शुरू किया, क्योंकि केवल उर्दू में लिखने से ही उन्हें संतोष नहीं था। हिन्दी में लिखकर वे पूरे देश से जुड़ना चाहते थे।”[9] भले ही प्रेमचंद ने उर्दू से बढ़कर हिन्दी को लेखन के लिए अपना लिया था परंतु उनकी जनचेतना एवं सामाजिक-सांस्कृतिक एकता के संदेश में कभी कमी नहीं आई। क्योंकि प्रेमचंद ने भारतीय समाज व संस्कृति के जो रंग राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु उर्दू में भरे थे, वो आगे चलकर हिन्दी में भी द्रष्टव्य हुए। लगभग इसी कालखंड में अंग्रेजी भाषा का प्रभाव बंगाल में बढ़ा। बंगाल की जनता में ईसाई धर्म तथा अंग्रेजी भाषा के प्रति उत्साह तीव्रता से बढ़ रहा था। किन्तु स्वामी विवेकानन्द, बंकिमचंद्र चटर्जी, उदयचंद आदि बंगाली विद्वान-विचारक अंग्रेजी भाषा से भारतीय जनता के लिए ख़तरा महसूस कर रहे थे। इस ख़तरे के पीछे इनका अंदेशा था कि अंग्रेजी भारतीय सामाजिक-सांस्कृतिक एकता को तोड़ने में अंग्रेजों की सहायक बन सकती है। “1838 में उदयचंद ने बंगला भाषा में एक लेख लिखा था। उसका अभिप्राय यह था कि इस देश के लोग अपनी भाषा का अध्ययन करके ही वह क्षमता प्राप्त कर सकते हैं जिससे वे अपनी गुलामी की बेड़िया काट सकें। बंकिम अंग्रेजी शिक्षा-प्राप्त लोगों को फालतू और विवेकानन्द रीढ़हीन कहते थे।”[10] इस कालखंड के कुछ पश्चात ही अंग्रेज नीति का यह सत्य भी सामने आ गया जिसके प्रति विवेकानन्द, बंकिमचंद्र आदि विद्वानों ने खतरा महसूस किया था। जब 1905 ई. में बंगाल का विभाजन कर दिया गया। यह विभाजन अंग्रेजों की कूटनीति एवं षड्यंत्र पर आधारित था। एक भाषा, समाज-संस्कृति की जनता का विभाजन बंगालियों की आशाओं के विपरीत था। इसका संपूर्ण देश में घोर विरोध भी हुआ। बालमुकुंद गुप्त ने विभाजन की इस त्रासदी पर बंग-विच्छेद नामक निबंध भी लिखा। “बंग-विच्छेद: बालमुकुंद गुप्त द्वारा रचित, 21 अक्टूबर 1905 को ‘भारत मित्र’ नामक पत्र में प्रकाशित हुआ था। उनकी राजनीतिक सजगता, आक्रोश, क्षोभ, विवशता, भारतीय परवशता एवं राष्ट्र गर्व जैसी भावों की स्पष्ट अभिव्यक्ति इस निबंध की प्रमुख विशेषताओं में गिनी जा सकती हैं। लार्ड कर्ज़न ने 1905 में बंगाल का विभाजन कर भारत को परतंत्रता में कसने और अपनी प्रशासकीय क्षमता को अक्षुण्य बनाने के उद्देश्य से यह बँटवारा किया था। भारतीय वीरों ने विरोध किया, वन्दे मातरम उद्घोष अपराध बनाया, आंदोलन की तीव्रतावश आदेश में संशोधन होने पर भी कर्ज़न यहीं बना रहा।”[11]  बालमुकुंद गुप्त उर्दू-फारसी, अंग्रेजी के अतिरिक्त अनेक भारतीय भाषाओं में भी रुचि रखते थे परंतु उनकी चिंतन शैली हिन्दी को ही राष्ट्रभाषा के लिए उपयुक्त भाषा मानती थी। बंग-भंग के विरुद्ध उन्होंने भारतीय जनचेतना के लिए अनेक लेख लिखे, इसी परिप्रेक्ष्य में जनभाषा हिन्दी के हित में इन्होंने कहा “हमारे लिए इस समय वही हिन्दी उपकारी है, जिसे हिन्दी बोलनेवाले तो समझ ही सकें, उनके सिवा उन प्रांतों के लोग भी उसे कुछ समझ सकें जिनमें वह नहीं बोली जाती। हिन्दी में संस्कृत के सरल-सरल शब्द अवश्य अधिक होने चाहिए। इससे हमारी मूल भाषा संस्कृत का उपकार होगा और गुजराती, बंगाली, मराठी आदि भी हमारी भाषा के समझने योग्य होंगे। किसी देश की भाषा उस समय तक काम की नहीं होती जब तक उसमें उस देश की मूल भाषा के शब्द बहुतायत के साथ शामिल नहीं होते।”[12] इस प्रकार हिन्दी ने अनेक भाषाओं के शब्द ग्रहण किए और भारतीय संस्कृति की मिश्रित व्यवस्था एवं एकता का नेतृत्व किया।

       हिन्दी का उर्दू, बांग्ला, तमिल, मराठी आदि भाषाओं से भेद होते हुए भी भारतीय जनता में राष्ट्रीय सांस्कृतिक एकता की भावना बनी रही क्योंकि भारतीय आपस में राजनीतिक-सामाजिक, भौगोलिक तथा भावनात्मक आदि मूल्यों से जुड़े थे। अतः चाहकर भी अंग्रेज भारतीयों के बीच अधिक समय तक सामाजिक-सांस्कृतिक दूरी नहीं रख पाए। ऐसा नहीं था कि सभी अंग्रेज हिन्दी के प्रति बैर रखते थे। फ्रेडरिक पिंकाट हिन्दी भाषा के साहित्य, दर्शन से अत्यधिक प्रभावित हुए थे। “इनका जन्म संवत् 1893 में इंग्लैंड में हुआ। उन्होंने प्रेस के कामों का बहुत अच्छा अनुभव प्राप्त किया और अंत में लंदन की प्रसिद्ध एलन ऐंड कंपनी (W.H.Allen and co.13 waterloo place, pall mall, s.w.) के विशाल छापेखाने के मैनेजर हुए। वहीं वे अपने जीवन के अंतिम दिनों के कुछ पहले तक शांतिपूर्वक रहकर भारतीय साहित्य और भारतीय जनहित के लिए बराबर उद्योग करते रहे।”[13] हिन्दी भारतीय संस्कृति की एकता को शक्ति प्रदान करने वाली वह कड़ी है, जिससे अतीत में अंग्रेजी पढ़े-लिखे भारतीय विद्वान भी जुड़े थे और अंग्रेजी त्याग कर पूर्ण रूपेण भारतीय रंग में रंग गए। इन विद्वानों में महात्मा गांधी का नाम प्रथम श्रेणी में आता है। ये मूल रूप से गुजराती थे। ये अंग्रेजी पढ़े-लिखे, दक्षिण अफ्रीका में बैरिस्टर थे परंतु भारतीय दुर्दशा से दुखी होकर इन्होंने स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ने का निर्णय लिया। महात्मा गांधी ने विदेशी वस्त्र, खान-पान एवं भाषा का बहिष्कार किया और भारतीय संस्कृति का अनुसरण करने लगे। भारतीय जनता ने भी गांधी जी का अनुसरण कर भारतीय संस्कृति की महत्ता को समझा। भारतीय संस्कृति की ही महिमा कही जा सकती है कि गांधी जी को ‘बापू’ की उपाधि से भारतीय जनता ने अभिहित किया और सर्वसम्मति से, श्रद्धापूर्वक गांधी जी को राष्ट्रपिता स्वीकार किया। महात्मा गांधी ने भी राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्य को पूरी दृढ़ता के साथ निभाया एवं हिन्दी को भारतीय संस्कृति एवं एकता की भाषा बताते हुए जीवनपर्यंत राष्ट्रभाषा के परिदृश्य में इसका समर्थन किया। “जब गांधी जी इस देश में आए थे और नई चेतना का अलख इस देश मे लगाया था। उस नई चेतना का अलख जगाने में हिन्दी ही उनकी भाषा रही और हिन्दी के लिए उन्होंने बराबर काम किया। राष्ट्रीय चेतना के मंथन का यह नवनीत मंथन हम ग्रहण करें, उसको भूलें नहीं।”[14]

             हिन्दी साहित्य सम्मेलन के 64 वें अधिवेशन में डॉ. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने महामना पंडित मदनमोहन मालवीय, महात्मा गांधी और राजर्षि पुरषोत्तम दास टंडन-जैसी अनेक महान विभूतियों को उनके हिन्दी एवं भारतीय सांस्कृतिक एकता के प्रचार-प्रसार हेतु श्रद्धापूर्वक नमन करते हुए कहा, ”मेरे विचार से हर भारतीय को हिमालय और कन्याकुमारी दोनों के दर्शन जरूर करने चाहिए। दोनों अपनी महिमा में विराट हैं। आकाश को छूती बर्फ़ीली चोटियों और लहराता निस्सीम सागर। इन दोनों का दर्शन किसी मनोरम यात्रा के लिए नहीं, अपनी अस्मिता की पहचान और उसकी खोज के लिए जरूरी है। यह जानने के लिए भी जरूरी है कि उत्तर से दक्षिण तक सारा देश सांस्कृतिक दृष्टि से एक है। उसकी तत्व-मीमांसा और विचार-दृष्टि है। उसके स्वभाव और विश्वास में आंतरिक एकता है। महान आचार्यों के नेतृत्व में ज्ञान और भक्ति-आन्दोलन दक्षिण से ही उत्तर पहुँचा था। यहाँ अनेक महत्वपूर्ण धार्मिक तीर्थ हैं, जैसे कि रामेश्वरम, मदुरै, कांची आदि जहाँ उत्तर से साधुओं, संन्यासियों और तीर्थयात्रियों का दल अत्यंत प्राचीनकाल से आता रहा है। कांची में ‘जन्म-मुक्ति’ का विश्वास है, तो काशी में ‘मरण-मुक्ति’ का।”[15]  इस प्रकार भारत के सुदूर क्षेत्रों के निवासी अपनी सामाजिक-धार्मिक आस्थाओं की पूर्ति हेतु पूर्व में कामाख्या, पश्चिम में शिरडी, उत्तर में वैष्णो देवी तथा दक्षिण में रामेश्वरम तक की यात्राएं करते हैं। भारत की पावन धरती पर सूफी- संतों की महान परंपरा ने विकास पाया है और हिन्दू-मुस्लिम संस्कृति को प्राणवायु देकर संजीवनी का कार्य किया है। हिन्दी भाषा इस सूफी-संत परंपरा की भाषा बनी। दक्खिनी हिन्दी में सूफी-संत परंपरा का वह दर्शन उतनी सशक्तता के साथ तो नहीं आ पाया है जो उत्तर भारत में हैं परंतु सांस्कृतिक परिदृश्य में दक्खिनी हिन्दी साहित्य ने अहम् भूमिका निभाई है। यह दक्खिनी हिन्दी उत्तर भारत से ही दक्षिण में बरार, बीदर, गोलकुंडा आदि तक आम जनता के स्थानांतरण के कारण पहुँची और एक नवीन रूप में प्रस्तुत हुई।

        वर्तमान में हिन्दी का प्रधान रूप खड़ी बोली हिन्दी है। इसमें अनेक रचनाकारों ने लेखन कार्य किया और हिन्दी को विकास भी प्रदान किया। इसमें हिन्दू-मुस्लिम, सूफी-संत तथा उर्दू के कवि आदि भी सम्मिलित हैं। “आदिकालीन खड़ी बोली का शब्द-समूह, मुख्यतः तद्भव एवं देशज का था। तत्सम शब्द अपेक्षाकृत कम थे। पश्तो, तुर्की, अरबी, फारसी के शब्द भी कुछ आ गए थे। खड़ी बोली के मध्यकाल का स्वरूप हमें गंग की ‘चंद छंद वर्णन की महिमा’, नानक, दादू, मलुकदास, रज्जबजी आदि संतों, रहीम के ‘मदनाष्टक’, आलम के ‘सुदामचरित्र’ जट्मल की ‘गोराबादल की कथा’, वली, सौदा, इंशा, नज़ीर आदि दक्खिनी एवं उर्दू के कवियों, कुतुबशतम (17 वीं), भोगलु पुरान (18 वीं सदी) तथा संत प्राणनाथ के कुलजमस्वरूप आदि में मिलता है।”[16] भारतीय संस्कृति हज़ारों वर्षों की अवधि में ज्ञान, धर्म, दर्शन आदि के परस्पर मिलन से मिश्रित व्यवस्था के रूप में विकसित हुई। इस मिश्रित सांस्कृतिक व्यवस्था में भारत के प्रत्येक प्रांत का महत्वपूर्ण योगदान है। कश्मीर का कादिरी संप्रदाय, सूफी-संत संप्रदाय, तमिल के आलवार-नयनवार, केरल के शंकराचार्य, नामदेव, तुलसीदास, कबीर, विद्यापति, चैतन्य महाप्रभु आदि के योगदान से भारतीय संस्कृति एवं जीवन दर्शन को लोक कल्याणकारी भावना, सौहार्द एवं परोपकार का संदेश मिला। इसी भारतीय भूमि पर बुद्ध, महावीर, गुरुनानक आदि मानवता तथा शांति के दूतों ने जन्म लिया। जिन्होंने शांति, मैत्री एवं विश्व बंधुत्व की भावना को विश्व में फैलाया। इन सबके मूल में भारतीय दर्शन तथा जीवन मूल्यों का आदर्शवाद है। जिसने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समय भारतीयों को भिन्न-भिन्न जाति, धर्म, भाषा, प्रांतों का होने के उपरांत भी परस्पर मिलन, सहायता एवं विश्वास की डोर से बाँधे रखा। इसी प्रकार हिन्दी भाषा ने भारतीय भाषाओं से कुछ न कुछ ग्रहण कर उसके साहित्य को स्वीकार किया। फलतः हिन्दी भाषा स्वतः ही राष्ट्र की संपर्क भाषा एवं अभिव्यक्ति की भाषा बनी।

 

 सन्दर्भ ग्रंथ सूची  – 

  1. समेकित भारतीय कहानियाँ, संपा. डॉ॰रमेश गौतम, पृष्ठ-1
  2. संस्कृति के चार अध्याय, रामधारी सिंह दिनकर, पृष्ठ-6,
  3. हिन्दी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, पृष्ठ-15
  4. हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास, डॉ॰बच्चन सिंह, पृष्ठ287
  5. हिन्दी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, पृष्ठ-288
  6. हिन्दी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, पृष्ठ-296
  7. हिन्दी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, पृष्ठ-300
  8. हिन्दी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, पृष्ठ-294
  9. प्रेमचंद रंगभूमि, संपा. कमाल किशोर गोयनका, पृष्ठ-10
  10. हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास, डॉ॰ बच्चन सिंह, पृष्ठ-280
  11. निबंध-संचयन, संपा. डॉ. मुकुन्द द्विवेदी,डॉ. लालसिंह चौधरी, पृष्ठ-19
  12. निबंध-संचयन, संपा. डॉ. मुकुन्द द्विवेदी,डॉ. लालसिंह चौधरी, पृष्ठ-18
  13. हिन्दी साहित्य का इतिहास, आचार्यरामचंद्र शुक्ल, पृष्ठ-299
  14. भारत आज़ादी और संस्कृति,डॉ. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी, पृष्ठ-75
  15. आलोचना, अंक-47, संपा. अरुण कमल, पृष्ठ-39
  16. हिन्दी भाषा, डॉ. भोलानाथ तिवारी, पृष्ठ-219

 

आधार ग्रंथ सूची  –

  1. संस्कृति के चार अध्याय, रामधारी सिंह दिनकर, जनवाणी प्रिन्टर्स एंड पब्लिशर्स प्राइवेट लिमिटेड, कलकत्ता। वर्ष-1956
  2. समेकित भारतीय कहानियाँ, संपा. डॉ॰रमेश गौतम, सतीश बुक डिपो, नई दिल्ली। वर्ष-2003
  3. हिन्दी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, कमल प्रकाशन, नई दिल्ली। वर्ष-2009
  4. भारतीय समाज, श्यामचरण दुबे, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, नई दिल्ली। वर्ष-1985
  5. हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास, डॉ. बच्चन सिंह, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली। वर्ष-1996
  6. भारतीय आज़ादी और संस्कृति, डॉ. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी,सस्ता साहित्य मंडल प्रकाशन, नई दिल्ली। वर्ष-2011
  7. आलोचना त्रैमासिक, अंक-47, संपा-अरुण कमल,नई दिल्ली, अक्तूबर-दिसंबर 2012
  8. हिन्दी भाषा, डॉ.भोला नाथ तिवारी, किताब महल प्रकाशन, इलाहाबाद। वर्ष-1976
  9. प्रेमचंद रंगभूमि, संपा. कमाल किशोर गोयनका, राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद, नई दिल्ली। वर्ष-2004
  10. निबंध-संचयन, संपा- डॉ.मुकुन्द द्विवेदी, डॉ. लालसिंह चौधरी, के. एल.पचौरी प्रकाशन, गाजियाबाद। वर्ष-2002

 

अभिनव

 शोधार्थी

धर्मशाला

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