साहित्य के महारथी स्वर्गीय श्री रामवृक्ष बेनीपुरी का जीवन राजनीति, साहित्य,और व्यक्तित्व का ऐसा अनुपम समावेश है जो शायद ही और कहीं  मिलेगा । 68 साल का बेनीपुरी का जीवन ऐसी घटनाओं से भरा है कि उनकी जीवन कथा अपने आप में एक रोमांचक गाथा है । बेनीपुरी जी के व्यक्तित्व के निर्माण की राह में मील के पत्थरों का इस कृति में स्पष्ट संकेत मिलता है । बेनीपुरी जी गरीबी और दुनियादारी की पाठशाला में दीक्षित हुए थे । उन्हें  विश्वविद्यालय तो क्या महाविद्यालय का  द्वार पार करने का अवसर नहीं मिला  था । जीवन के प्रारंभ में उन्होंने अभावों और  दरिद्रता के ही  दर्शन किए , शायद इसीलिए मानव मात्र के प्रति  अपरंपार ममता ,  स्नेह  , सहानुभूति के  नैसर्गिक गुणों का उनमें स्वाभाविक विकास हुआ । बाल्यकाल के इन्हीं  अनगढ  संस्कारों  ने भविष्य में उन्हें जन- जीवन का महान रेखा चित्रकार बनाया और राजनीति में वे  सर्वहारा वर्ग की  वाणी बनकर समाजवादी हुए।

वह संध्या जिसमें उनके घर से अर्थी निकलीं थी ,उस समय बेनीपुरी जी मात्र चार साल के थे । इन सारी घटनाओं की स्मृति धुंधली हो गई थी , जैसे आईने पर धूल पड़ गई हो । उनके मां को लोगों ने घर से बाहर आंगन में उत्तर सिरहाने लिटा दिया । बेनीपुरी जी को आंगन से दरवाजे पर ले गए।  थोड़ी देर बाद मुंह पर हाथ ले जा कर पानी पीने का इशारा किया । यह प्रक्रिया कई बार हुआ।  एक बूढ़ी स्त्री ने तार लिया और कहा शायद अपने बच्चों के हाथ से पीना चाहती हैं । बेचारी की सांस इसी के लिए अटकी हुई है । इसलिए बेनीपुरी जी को वहां बुलाया गया। उस समय उनकी आंखें बंद थी किंतु ज्यों ही कहा कि कहा गया “बेटा आया है” उन्होंने आंखें खोल दी और बड़ी देर तक बेटा को देखती रही। बेनीपुरी जी के हाथ में गिलास रखकर उसे उनके होठों से लगाया गया- गट गट कर वह सारा पानी पी गई। पानी खत्म और उनकी आंखें मूंदी। दो-तीन लंबी हिचकियां और सारे आंगन में हाहाकार मच गया । बेनीपुरी जी को झट दरवाजे पर ले जाया गया । वे कहते थे कि इस लंबी जिंदगी में पचास पार कर लेने के बाद भी जब कभी उदास होता हूं ,विषाद में होता हूं, चिंता में होता हूं , वे पुतलियां लगता है मुझे सहला रही हों, दुलार रही हों और मुझ पर अनवरत आशीर्वादों की वर्षा कर रही हों।  यह तो मान लिया है कि मैं जो कुछ हूं सब उनकी तपस्या, दया , करुणा का प्रभाव है , नहीं तो नियति ने, समाज ने , घटनाओं के प्रपंच ने स्वयं मैंने भी अपने को  डुबाने, नष्ट करने की कम कोशिश नहीं की है।

किस साल किस तिथि को मैं पैदा हुआ यह किसी को मालूम नहीं था।  पंडित जी भी शायद लिखे होंगे । गरीब के घर में जन्म पत्री की क्या ज़रूरत। मां रही नहीं थी कि याद रखे । पिताजी भी थोड़े दिनों बाद चल बसे । ननिहाल गए।  स्कूल में कोई भी अनुमानित जन्मतिथि लिखा दी गई । जब ढूंढने की कोशिश की  गई तो सभी मर चुके थे। सिर्फ इतना पता चला कि वह पूस का महीना था।  उनके जन्म के बाद ही उनकी मां बीमार रहने लगी।  एक दाई  की दूध पर उन्हें पालना पड़ा । कुछ ऐसा जिद्दी और हठी हो गया था कि सदा बेमौसम और बेवक्त की चीजों की मांग कर बैठता । मां उन्हें जुगो-जुगो कर रखती । चूड़ा, मूड़ी, बताशे, लड्डू ,केले , आम , जामुन, दही , दूध संजोकर रखे जाते। मां दिन-प्रतिदिन बीमार होने लगी । लोग सोचते कि कुपथ्य तो नहीं कर लेती । बेचारी करती क्या अपने लाडले की हर इच्छा को पूरी करती थी । याद आता है कि मेरी मरी हुई मां के हाथ-पैर इकट्ठा करके एक लंबी कील ठोक दी गई थी। वह समाज जिसमें मातृत्व और संतान प्रेम का ऐसा अपमान हो और निरादर हो उस समाज को जहन्नुम में जाना चाहिए । यह उनका सौभाग्य था कि उनकी मां की दो छोटी बहनें पिताजी के दोनों छोटे भाइयों से ब्याही गई थी। जब मां मरने वाली थी तब बड़ी मौसी के नैहर से बुला लिया गया था और उन्हीं के हाथों मुझे सौंप दिया गया था। एक कहावत है- “मरे मां जिए मौसी” । किसी की मां मरे यह ऐसी क्षति है जिसकी पूर्ति नहीं हो सकती।  किंतु मौसी ने उसके अभाव को बहुत कुछ दूर कर दिया था, इसमें शक नहीं । मां के पैरों में कील ठोकने का जितना दुख मुझे है उसे भी दुख है कि मेरे दिमाग में भय की अजीब कील ठोक दी गई थी कि मैं अपनी मां को चुड़ैल मानने लगा था।  अपने जीवन मैं सबसे बड़ा अभाव अनुभव करता हूं कि मैं किसी महिमामई महिला को मां कहने से वंचित रहा।  मां ! मां ! संसार का सबसे पवित्र शब्द है जिससे मैं वंचित रहा।  मुझसे बढ़कर अभागा कौन?  ओम, राम, रहीम ये शब्द इतने पवित्र इसलिए हैं कि इन के अंत में मां का प्रथम अक्षर है । मां! मां प्रणाम मां !  तुम मुझे छोड़कर उस संध्या को कहां चली गई । मां !!! तुम चली गई और मेरे लिए छोड़ गई टकटकी बंधी गीली गीली डबडबाई पुतलियों की वह करुण स्मृति जो मुझे व्याकुल बनाती है, रुलाती है , ढाढ़स देती है और अहर्निश रक्षा करती है । प्रणाम मां ! मां ! मां …………

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