साहित्य जीवन के विविध प्रकल्पों के साथ परिवेश के विविध रूपों की अन्तर्क्रिया का साक्षात्कार कराता है, जिससे मनुष्यों की भविष्यधर्मी जीवनाकांक्षाओं का आधारपथ निर्मित होता है। मनुष्य के जीवन में भौतिकता और चिरन्तन मूल्यधर्मिता का एक सहज प्रवाह विद्यमान होता है जिससे कि वह जाग्रत अवबोध के साथ जगत में अपनी अस्मिता की प्रतिष्ठा कर सके । इसी कारण मनुष्य अपने जीवन के अनुभवाधारित ज्ञान को अपनी विभिन्न सर्जनात्मक अभिव्यक्तियों द्वारा प्रकट करता है। मानवीय विकासयात्रा के विभिन्न सोपानों में इस प्रकार की अनेक गतिविधियां देखने को मिलती हैं जिनके द्वारा मनुष्यों ने अपने जीवन की अनेकानेक सर्जनात्मक अभिवृत्तियों को मूर्त रूप प्रदान किया है। आदिमकाल में भीमबेटका के शैलचित्रों से लेकर आधुनिक काल के विविध सर्जनात्मक प्रकल्पों की यह यात्रा मनुष्य की जाग्रत जीवनधर्मिता और सर्जनशीलता का प्रमाण है। अपनी सर्जनात्मक गतिविधियों में मनुष्यों ने विविध प्रकार की आनुभविक निधियाँ अपनी भावी पीढ़ियों को हस्तांतरित की हैं । अत: हमे मनुष्य की सर्जनात्मकता का मूल्यांकन युग सन्दर्भों के आधार पर करना चाहिए। हमारे भारतीय साहित्य की प्रशस्त परंपरा में व्यक्ति विवेचना और कृति मूल्यांकन उसके विविध सन्दर्भों के अन्तर्गत ही किया जाता रहा है। कालान्तर में औपनिवेशिक दासता के समय ऐसी मूल्यांकन वृत्तियों का जन्म हुआ जो साहित्य और कलाओं को उसकी सान्दर्भिक स्थिति से विखण्डित करके एक व्यर्थ दुराग्रह के साथ पाश्चात्य जगत के पारिवेशिक प्रकाश में मूल्यांकित करती थीं। यथार्थ रूप में देखें तो भारतीय समाज का पाश्चात्य जगत से कलात्मक उन्नयन अधिक उत्कृष्ट रुप में हुआ है। विश्व के सबसे प्राचीन साहित्यिक सन्दर्भ और कलात्मक रूप भारत में प्राप्त होते हैं। इसी कारण भारतीय दर्शन और साहित्य के अध्येता विलियम जोन्स ने भारतीय दार्शनिक एव साहित्यिक ग्रन्थों का अनुवाद पाश्चात्य भाषाओं में कराया था। अंग्रेजों द्वारा थोपी गयी मानसिक औपनिवेशिकता से ग्रस्त भारतीय बुद्धिजीवी वर्ग ने साहित्यिक मूल्यांकन का आधार पाश्चात्य निकषों पर स्थापित किया । विरोध करने वाले लोगों को रूढ़िवादी कहा गया। अतः हम साहित्य के यथार्थ रूपों और प्रभावों का साक्षात्कार करने में विफल रहे। इस बुद्धिजीवी वर्ग के लिए रामविलास शर्मा की टिप्पणी ध्यातव्य है – “वास्तविक जड़वादी वे हैं जो न समाज को बदलने का प्रयत्न करते हैं न विज्ञान द्वारा विश्व के अनेक रहस्यों का उद्घाटन करने में प्रवृत्त होते हैं। उनके लिए परम सत्य मन, वचन, कर्म – सभी के परे है; मूँदहु आँखि कतहुँ कछु नाहीं ! ”1  ऐसे समय में जब चारों ओर पाश्चात्य साहित्य और ज्ञान विज्ञान का एक आत्यंतिक अतिरेक भारतीय समाज और साहित्य पर छा रहा था, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भारतीय साहित्य शास्त्र और समकालीन पाश्चात्य साहित्यिक विमर्शों के संतुलित अध्ययन और अनुशीलन के उपरान्त भारतीय भावबोध से युक्त युगानुकूल साहित्य पथ का निर्माण किया। अपनी साहित्यिक मान्यताओ की व्याख्या उन्होंने अपने प्रसिद्ध निबन्ध ‘कविता क्या है’ में की। “जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है उसी प्रकार हृदय की यह मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। हृदय की इसी मुक्ति की साधना के लिये मनुष्य की वाणी जो शब्द-विधान करती आई है उसे कविता कहते हैं।”2

आचार्य शुक्ल ने आलोचना और साहित्य सर्जन की सामयिक एवं युगसन्दर्भित प्रवृत्तियों का विकास किया | उन्होंने सर्जक के हृदय को सभी प्रकार के आग्रहों से मुक्त होकर रचनाकर्म में प्रवृत्त होने की बात की। अतः आलोचना का आधार भी व्यक्तिमन के वैचारिक आग्रहों के साथ निर्मित नहीं हो सकता, इसी कारण उनके समसामयिक कतिपय आलोचक उनकी  मान्यताओं से सहमत नहीं हुए। उन्होंने शुक्ल जी के सिद्धान्तों की आलोचना की । ऐसे समय में रामविलास शर्मा ने शुक्ल जी की साहित्यिक मान्यताओं की व्याख्या करते हुए उन्हें हिन्दी आलोचना परम्परा के नवोन्नायक रूप में स्थापित किया। रामविलास शर्मा शुक्ल जी की साहित्यिक मान्यताओं की व्याख्या करने के क्रम में ही अपनी सर्जनात्मक मान्यताओं को उद्धृत करते हैं। उन्होंने साहित्य को मनुष्य सापेक्ष बताया। मनुष्य से और जगत के अंतर्सम्बंधों को स्पष्ट करते हुए रामविलास शर्मा ने जगत से सम्बन्धी प्रत्येक क्रियाविधि को मनुष्यता से जोड़कर देखने की बात की। मानवीय विकासयात्रा में मनुष्य की सर्जनशीलता और उसके द्वारा विसर्जित की गई संपदाओं की सूक्ष्म व्याख्या उनके चिंतन का प्रधान आधार है। उन्होंने ऐसी प्रत्येक क्रिया, विचार और दर्शन की व्याख्या अपने साहित्यिक उपक्रमों के अन्तर्गत करने का प्रयत्न किया जो मनुष्यता को सहज भाव से उत्प्रेरित करते हुए समष्टि कल्याण भावना का प्रतिपादन करे । इस प्रक्रिया मे आचार्य शुक्ल के बताये हुए सर्जनात्मक मार्गों पर चलते हुए रामविलास शर्मा मूल्यांकन क्षेत्र में आग्रह मुक्ति का अवलम्ब ग्रहण करते हुए कृति मूल्यांकन का प्रधान आधार उसकी मानवीय सार्थकता और सामाजिक अर्थवत्ता मानते हैं। यही कारण है कि वे भारतीय समाज की रचनाशीलता को जानने की प्रक्रिया में ऋग्वेद तक की यात्रा करते हैं। वे ऐसा मानते हैं कि समाज की साहित्यिक उपयोगिता के साथ उसकी साहित्यिक सहभागिता भी सुनिश्चित होनी चाहिए। यह साहित्यिक सहभागिता उन्हें ऋग्वेद, उपनिषद्, भक्ति आन्दोलन और आधुनिक युग के विविध साहित्यिक प्रकल्पों में देखने को मिलती है। ऋग्वेद की रचनात्मक योजना पर विचार करते हुए रामविलास जी ने उसे भारतीय लोकधर्म और जनजीवन की प्रतिच्छाया के रूप में स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। उन्होंने ऋग्वेद के माध्यम से पहली बार नवीन अर्थों में वैदिक समाज को रेखांकित करते हुए उस काल की श्रमतांत्रिक व्यवस्था को स्पष्ट किया है। वे ऐसा मानते हैं कि ऋग्वैदिक काल में शारीरिक श्रम और मानसिक श्रम में कोई भेद नहीं है। “ऋग्वेद में शारीरिक और मानसिक श्रम में विभाजन नहीं हुआ, यह उसकी बहुत बड़ी विशेषता है जो संसार के अन्य किसी ग्रंथ में नहीं है। यह हमारा अतीत था और यह हमारा भविष्य भी होना चाहिए। जब तक शारीरिक और मानसिक श्रम का भेद बना रहेगा तब तक समाज में वर्ग उत्पीड़न भी रहेगा।”3

ऋग्वेद में ऋषियों एवं ऋचाकार मनीषियों के निजी जीवनानुभव ही मूर्तिमान होकर हमारे सामने जगत की प्रकृतिमूलक भौतिक सत्ता का प्रकटीकरण करते हैं। इसी कारण रामविलास जी वैदिकयुगीन समाज को अपेक्षाकृत अधिक जाग्रत समाज के रूप में स्थापित करने का कार्य करते हैं।

भारत की संवाद धर्मी लोकतांत्रिक ज्ञान परंपरा के आधारसूत्रों का अनुसंधान करते हुए रामविलास जी ने उपनिषद् काल की रचनाशीलता को रेखांकित किया है। रामविलास शर्मा के अनुसार उपनिषद् मनुष्य की अनंत जिज्ञासाओं और ज्ञानात्मक आकुलता के सर्जनात्मक प्रतिफलन हैं। उपनिषद् काल में संवादपरक ढंग से ज्ञान सम्बन्धी विमर्शो की प्रस्तावना की जाती थी। प्रत्येक धारणा को पुनरीक्षित करते हुए तत्सम्बन्धी अनेकानेक विषयों एवं विमर्शो के द्वारा मतस्थापन का कार्य किया जाता था। इसी कारण उपनिषदिक वैदिक दर्शन समाज की बहुविध मान्यताओं और रचनात्मक अर्थछवियो की विवेचन परक प्रस्तुति करता है। अतः रामविलास शर्मा ने ऋग्वैदिक समाज को उसकी समग्र अर्थवत्ता और लौकिक उपादेयता के साथ व्याख्यायित करने का कार्य किया है। रचनात्मक अनुसंधान की इस प्रक्रिया को उन्होंने परम्परा के विविध प्रकल्पो के आधार पर व्याख्यायित करने का कार्य किया है। उनकी मान्यता है कि महान रचनाएँ अपने युगबोध से अनुप्राणित होती हैं जो अपनी आने वाली पीढ़ियों को निरन्तर एक सहज गतिशीलता प्रदान करते हुए उनकी जीवनदृष्टि का विकास करती हैं। अत: किसी भविष्यधर्मी कृति का मूल्यांकन युगबोध के सन्दर्भ में करना चाहिए। इसके साथ, उसकी युगीन प्रभावशीलता और सामाजिक उपादेयता के अन्तर्गत उसकी अन्तर्वस्तु की व्याख्या करनी चाहिए। रामायण और महाभारत के माध्यम से हम भारतीय जीवन सौन्दर्य और सामाजिक संरचना के विविध संवेदनात्मक तंतुओं का संस्पर्श करते हैं। ये महाकाव्य भारतीय पारिवारिक जीवन व्यवस्था के वृहद प्रस्तावक के रूप में हमारे सामने आते हैं। रामविलास शर्मा ने लिखा है –“भारतीय भाषाओं में आगे चलकर जिस साहित्य का विकास हुआ, उस पर जिन दो प्राचीन ग्रन्थों का प्रभाव सबसे अधिक पड़ा, वे रामायण और महाभारत हैं। इन दो महाकाव्यों के बिना भारतीय साहित्य की स्थिति क्या होती, इसकी कल्पना करना कठिन है। वैदिक काव्य की परम्परा वेदों के साथ ही समाप्त हो गयी। आधुनिक भाषाओं के काव्य-विकास पर उस परम्परा का प्रभाव नगण्य है किन्तु उन दोनों महाकाव्यों का प्रभाव निरन्तर गहरा होता गया है। महाभारत और पुराण भारतीय राष्ट्रीयता का आदिस्रोत हैं, महाभारत और रामायण समस्त भारतीय काव्य का आदिस्रोत है।”4

इसी कारण भारतीय जीवन सौन्दर्य की  व्याख्या करते समय हमें भारतीय परंपराबोध से सतत प्रबोध प्राप्त करने की आवश्यकता है। यही स्थिति आधुनिक साहित्य में भी विद्यमान है। आधुनिक काल पर विचार करते हुए रामविलास शर्मा ने स्वामी विवेकानन्द को स्मरण किया है– “ देश के सांस्कृतिक उत्थान में स्वामी विवेकानन्द और रामकृष्ण मिशन का महत्त्वपूर्ण स्थान है। स्वामी विवेकानन्द के प्रचार की तह में राष्ट्रीयता की एक जबर्दस्त भावना काम कर रही थी। पूर्व अर्थात् भारत श्रेष्ठ है; पश्चिम को उससे बहुत कुछ सीखना है; हमारे ऋषियों की तपस्या के आगे विज्ञान की चमक-दमक फीकी पड़ जाती है; भौतिकवादी पश्चिम स्वार्थ के लिए मर रहा है; असली शान्ति का सूत्र तो हम भारतवासियों के पास है; यह सब मंत्र देकर स्वामी विवेकानन्द ने हमारे सोते हुए आत्मगौरव को जगाया था और पराधीन होने की हीन भावना को काल्पनिक संतोष भी दिया था। ”5

रामविलास शर्मा ने तत्कालीन साहित्य (समसामयिक साहित्य) की विविध विसंगतियों को लक्षित करते हुए साहित्य से मनुष्य की विच्छिन्नता को उद्घाटित करने का कार्य किया। उन्होंने साहित्य को मनुष्य के जीवन से सतत् संश्लिष्ट करते हुए उसे मानुषीय स्थितियों और जीवन के यथार्थरूपों की व्याख्या करने का माध्यम माना | इसी कारण उन्होंने प्रेमचन्द, निराला और आचार्य शुक्ल की रचनाशीलता को अपने साहित्यिक विवेचन का प्रधान आधार बनाया। जिस समय हिन्दी उपन्यास अपने क्षुद्र मनोरंजनकारी लक्ष्यों की पूर्ति हेतु यथार्थ जगत से विच्छिन्न होकर तिलस्मी, ऐयारी और जादुई दुनियाँ में भटक रहा था प्रेमचन्द ने उसे मनुष्य के जीवन की विविध समस्याओं को उद्घाटित करने में समर्थ बनाते हुए एक नयी रचना शीलता का प्रवर्तन किया जो मनुष्यता को आधार बनाकर अपनी रचनात्मक उपलब्धियों की सार्थकता सिद्ध करती थी। यही कारण है कि प्रेमचन्द रामविलास शर्मा के रचनानुशीलन में सर्वाधिक समादृत पात्र हैं। साठोत्तरी कविता में रचनाकार और पाठक के मध्य एक निश्चित दूरी आने लगी थी | छायावादी कल्पनाशीलता और छंदोबद्ध रचनात्मकता के मध्य निराला ने प्रथम बार कविता की संरचनात्मक मुक्ति का आह्वान करते हुए उसे छंदमुक्त करने का कार्य किया। उन्होंने प्रथम बार सर्जना और पठन के द्वैध स्तरों पर जनसामान्य के लिए हिन्दी कविता के द्वार खोल दिये। इसी कारण हिन्दी काव्य रचनाशीलता को एक वृहद पाठक वर्ग ही नहीं बल्कि एक नवीन सर्जक वर्ग भी प्राप्त हो सका । जो व्यक्ति सर्जनात्मक आकांक्षाओं के सहज उद्रेक को छंदोबद्ध करने में असमर्थ थे, अब वे भी साहित्य रचना करने लगे । साहित्य की पुरानी परिपाटी पर चलने वाले आलोचकों ने निराला का विरोध किया जिसके प्रत्युत्तर में रामविलास शर्मा ने कई लेख लिखकर निराला की मुक्तछंद कविताओं की सराहना की। वास्तव में मुक्तछंद की कविता मनुष्य के समत्व और स्वातंत्र्य की आवाहिका बनकर सामने आती है। हिंदी की प्रसिद्ध लेखिका महादेवी वर्मा ने भी इस मुक्ति के माध्यम से नवसर्जन की कामना की है –“मनुष्य मात्र सब जगह समान है, सब जगह पीड़ित है, सब जगह अभाव से ग्रस्त है। हमारे यहाँ कहा गया है, ‘सा विद्या या विमुक्तये’। वह विद्या है जो मुक्ति के लिए है और मुक्ति किसी व्यक्ति की नहीं है। यह मुक्ति बुद्धि की मुक्ति है, हृदय की मुक्ति है, विचारों की मुक्ति है। यह मुक्ति उच्छृंखलता नहीं है। निर्माण के लिए जो मुक्ति चाहिए वही यह मुक्ति है। उस मुक्ति की कामना करें।”6

अतः रामविलास शर्मा ने साहित्य की सामाजिक और मानवीय सम्बद्धता का प्रतिपादन करते हुए अनुशीलनपरक निष्कर्षों की स्थापना की है। उन्होंने अपने समसामयिक साठोत्तरी साहित्य का मूल्यांकन करते हुए उसकी कठोर आलोचना की है। ‘कथा विवेचना और गद्य शिल्प’ में उन्होंने साहित्य की एक निश्चित गरिमा और उद्देश्यपरक योजना को स्थापित करने का कार्य किया है। वे ऐसा मानते हैं कि साहित्य को एक मनुष्य के जीवन के संभावनाशील रूपों की प्रतिष्ठा करने का प्रयत्न करना चाहिए, न कि उसके विगर्हित, अश्लील और कुंठित मनोग्रस्तता से युक्त क्रियाकलापों का प्रकटीकरण करके उसे थोथे मनोरंजन का माध्यम बनाना चाहिए। इसी कारण वे समकालीन आलोचकों की आलोचना के पात्र बने किन्तु उन्होंने अपने रचनात्मक सिद्धान्तों से रंचमात्र समझौता नहीं किया। समकालीन कविता में अस्तित्ववाद के दुराग्रही अध्यारोपण की उन्होंने कटु आलोचना की है। वे ऐसा मानते है कि विविध समस्याओं के मध्य मनुष्य की संघर्षशीलता सदैव अपराजयी रही है अत: उसे नैराश्य के गर्त में ढकेलने की प्रेरणा देने वाली कविताओं को साहित्य की कोटि मे स्थान नहीं देना चाहिए। वे ऐसे कवियों के विषय में लिखते हैं– “ उनके विद्रोह की जड़ में विवेक नहीं, एक अस्वीकृतिमूलक भावुकता है जो ‘मनोवैज्ञानिक धक्का’ लगने से तिलमिला उठी है और रात दिन तिलमिलाती ही रहती है। इस भावुकता से प्रेरित अन्तर्दृष्टि को पराजय, विवशता, अपमान, अभिशाप बहुत अतिरंजित रूप में दिखायी देते हैं, वे महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ, दुर्लभ जीवन-मूल्य बन जाते हैं; मन एक ओर अपनी क्षुद्रता और हीनता के भाव से पीड़ित होता है, दूसरी ओर अपने अनुपम विवेक का ऐसा ‘प्रभामण्डल’ रचता है कि उसमें बड़े-से-बड़े राज नीतिज्ञ और साहित्यकार, भोर के तारों की तरह, बुझे हुए-से लगते हैं। इस मान सिक स्थिति से सहानुभूति प्रकट की जा सकती है, उसे जीवन दर्शन के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता। ”7

वास्तव में रामविलास शर्मा साहित्य में चयन और विसर्जन का विवेक रखने वाले एक अद्वितीय आलोचक रहे हैं। उनके साहित्यिक मूल्यों से हमें कृति, कृतिकार, समय और समाज को समझने की एक दृष्टि प्राप्त होती है। एक आलोचक और रचनाकार होने के साथ साथ रामविलास शर्मा अपने समय और समाज के एक गहन अध्येता और चिंतक थे। उनके सांस्कृतिक और भाषावैज्ञानिक अध्ययन की प्रतिच्छाया उनकी आलोचनात्मक कृतियों में भी परिलक्षित होती है। अत: उनकी आलोचनात्मक दृष्टि पर विचार करते हुए हमें उनके सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों का भी आधान करना चाहिए। मनुष्यता के प्रखर पारखी और प्रतिस्थापक रामविलास शर्मा साहित्य की प्रत्येक गतिविधि में मानवीय मूल्यधर्मिता और सांस्कृतिक अवबोध की प्रतिष्ठा पर बल देते रहे हैं। उन्होंने प्रेमचन्द के विवेचन में वाह्य अवरोधों और आघातों से छिन्न भिन्न होती मनुष्यता को संश्लिष्ट करने वाले तत्व के रूप में साहित्य को रेखांकित किया है। इस स्थापना का प्रतिपादन उन्होने बड़े तर्क पूर्ण ढंग से किया है। इस विषय में वे लिखते हैं –“बहुत सी विचलित करनेवाली चीजें सतह पर हैं। आंधी की तरह वे हमें झकझोर देती हैं। सतह के नीचे जल की गहराई में हमारे मानवीय संस्कार हैं, ये संस्कार विचलित होने से हमें बचाते हैं। वे साधारण जनता के आपसी संबंधों को मजबूत करते हैं, उस जनता के शत्रुओं की पहचान कराते हैं। वे समाज व्यवस्था को बदलने की प्रेरणा देते हैं।”8

दासता के अनेकानेक दुश्चक्रों और दीर्घकालिक औपनिवेशिक शोषण के बावजूद यदि आज भारतीय समाज अपनी उन्नत अवस्था में विद्यमान है तो उसका प्रधान कारण उसकी अदम्य मानवीय जिजीविषा और सर्जनात्मक प्रबोध ही है। विध्वंसोपरान्त नवसर्जन की आकांक्षा ही मनुष्य को सतत् उर्ध्वगामी बनाती है। इसी उर्ध्व भाव की प्रतिष्ठा भारतीय साहित्य के विविध रूपों में देखने को मिलती है, जिसका आलोचनात्मक प्रतिपादन रामविलास शर्मा के चिंतन में देखने को मिलता है। तुलसीदास की उक्ति “संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने।” का साहित्यिक निष्पादन रामविलास शर्मा ने अपने चिंतन में किया है। उनकी आलोचना के विध्वंसात्मक रूपों में उनका साहित्यगत विसर्जन और प्रतिष्ठात्मक रूपों में उनकी सर्जनात्मक मूल्यधर्मिता का स्पष्ट दर्शन होता है।

संदर्भ सूची–

1.पृष्ठ संख्या 17 ,आस्था और सौन्दर्य – रामविलास शर्मा

2.कविता क्या है निबंध, चिंतामणि भाग 1 – रामचंद्र शुक्ल

3.भूमिका, भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश – रामविलास शर्मा

4.पृष्ठ संख्या 19, परम्परा का मूल्यांकन – रामविलास शर्मा

5.पृष्ठ संख्या 74, निराला – रामविलास शर्मा

6.पृष्ठ संख्या 14, भारतीय संस्कृति के स्वर – महादेवी वर्मा

7.पृष्ठ संख्या 54, नई कविता और अस्तित्ववाद – रामविलास शर्मा

8.भूमिका, प्रेमचंद और उनका युग – रामविलास शर्मा

दुर्गेश कुमार दीक्षित

शोधार्थी

दिल्ली विश्वविद्यालय

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