1. भार तो केवल श्वासों का है
स्वप्न जो देखा था रात्रि में हमने
सुबह अश्रु बन बह किनारे हो गए हैं
चांद और मंगल पर विचरने वाले हम
आज कितने बेसहारे हो गए हैं
विकास की तालश में हमने हमेशा
जंगलों पहाड़ों पठारों को गिराया
विकसित से अति विकसित बनने के सफर में
सृष्टि के किताब के अनमोल पृष्ठों को जलाया
बरगद, नीम, पीपल को काटकर प्राणवायुदाता का उपहास उड़ाया
कंक्रीट के जंगलों में कैक्टस और बोगेनबेलिया उगाया
मंगल और चंद्रमा पर बसने के प्रयास में
धरती को मिट्टी मानुष का उपहास उड़ाया
स्वार्थ, लालच और अभिमान के मार से गर्वित हो
तमाम पशु पक्षियों का नामो निशान मिटाया
लेकिन आज तुम हे मानव
आक्सीजन सिलेण्डर लगाए
हांफ रहे हो भाग रहे हो
और उद्घाटित कर रहे हो
इस सत्य को कि
भार तो केवल श्वांसो का है
बाकी सब मिथ्या है।
2. याद आती है
बात मुद्दत से जो थी आंखों में
आज लबों पे उतर आई है
तू मेरे इश्क की इबारत है
तू इसे पढ़ न पाई है
रात रो रो कर हमने काटी है
दुःख में कोई अब न साथी है
चांद आज रात भर रोया है
ओस की बूंदों ने गवाही दी है
सजल नैनों और बंद होंठों से
किसी गीत की आवाजाही है
जिसके पीड़ा के स्वर को सुन
सुबह-सुबह गुलाब मुस्कराया है।
दर्द का स्वर सीप में पड़कर
मोती बनकर खिलखिलाया है।
बात मुद्दत से जो थी आंखों में
आज लबों पे उतर आई है
तू मेरे इश्क की इबारत है
तू इसे पढ़ न पाई है।
3. हम फिर से आयेंगे तेरे शहर को बसाने
हम फिर से आयेंगें तेरे शहर को बसाने
पर आज तुम न देखा हमारे पैरों पे पड़े छाले
क्यों आंखे भर आई हमारी, क्या-क्या हम पर है बीता
यह न पूछो कि क्या है कहानी और क्या है फंसाने
तेरा शहर क्यों है छोड़ा, क्यो हो गये हैं हम रुख्सत
चर्चा करोगे इसकी तो रोने लगेंगें सारे
तेर आशियां को सजाने हम फूल बन कर आये
कभी हमने यह देखा कितने डाल पर लगे हैं कांटे
तेरा शहर मुस्करा सके इसलिए हम रोएं
बन सके तुम्हारा सुन्दर आशियां दुःख दर्द हमने काटे
रात को हमने स्वप्न देखा भर पेट खाने की
पर सुबह जब हम जागे तो मुंह से छिन चुक थे निवाले
इस राज को छुपाये हम चले जा रहे हैं
हम मुश्किलों से दो-दो हाथ किये जा रहे हैं।।
राकेश धर द्विवेदी
विनीत खण्ड,
गोमतीनगर, लखनऊ

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