1. गौरैया के हक़ में 

गांव के चैपाल में चहकती गौरैया
मीठे-मीठे गीत सुनाती गौरैया
गुड़िया को धीरे से रिझाती गौरैया
याद आज आती है
हरे-भरे पेड़ों पर फुदकती गौरैया
घर के मुंडेर पर थिरकती गौरैया
स्मृति में बस जाती है
घर के चैखट पर नन्हीं सी गुडिया
पास में फुदकती प्यारी सी चिड़िया
लुका छिपी का यह खेल क्रम दर क्रम बढ़ना
यादों के झरोखे से एक मधुर संगीत सुनाती है
धीरे-धीरे यादें अब अवशेष रह गईं
लुका-छिपी का खेल स्मृति शेष रह गया
न रहा गांव, न रहा मुंडेर
गौरैया कहानी के बीच रह गई
गुडिया अब बड़ी होकर सयानी हुई
उसके एक मुनिया रानी हुई
जिसे उसने गौरया की कहानी सुनाई
मुनिया मुस्कराई फिर चिल्लाई
मां गौरैया तो दिखाओ
कहानी की वास्तविकता तो समझाओ
मुनिया के प्रश्नों पर गुड़िया झुंझलाई
दिल का दर्द आंखों में छलक आया
मुनिया को मोबाइल टावर दिखाया
फिर उसको धीरे से समझाया
इसमें बैठा है एक भयानक झुरिंदा
जिसने छीना हमसे एक प्यारा परिंदा
गौरैया का दुश्मन हमने बनाया
उसे छाती पेट से लगाया
उसने छीना है हमारी प्यारी गौरैया
रह गई स्मृतियों में प्यारी गौरैया
गौरैया को यदि बचाना है
तो दरिंदे को मिटाना है
नहीं तो कहानियों में रह जायेगी गौरैया
पुनिया के प्रश्नों का उत्तर ना दे पाएगी दुनिया।

२. मन के द्वारे से

गांव के बीच में
एक बरगद का पेड़
पेड़ से जुड़े हुए
स्मृतियों के मधुर गीत
वह शाखाएं जिसको
पकड़कर हम झूलते थे
अनेक तरह के
खेल खेलते थे
मां जलाती थी दीया
पेड़ के नीचे
और करती थी पूजा
वटवृक्ष की
बांध देती थी
कुछ कलेबे पेड़
के चारो तरफ
इस विश्वास के साथ
थ्क हम सुरक्षित रहेंगे
आज उसका अस्तित्व
प्रश्नचिन्ह के घेरे में है
उसका भविष्य अंधेरे में है
क्योंकि गांव अब बहुमंजिली
इमारत में तब्दील
हो रहा है

नगरीकरण का दानव
बरगद के अस्तित्व को लील रहा है।
हैं परेशान तमाम परिंदे भी
जो पूछ रहे हैं यक्षप्रश्न
कि कहां बनाएंगे हम नीड ?
बोगनबेलिया पर
या मनीप्लांट पर ?
यह यक्षप्रश्न अनुत्तरित है
दुःख और पीड़ा असीमित है
अब मन के द्वारे से
बार-बार उस बूढ़े
बरगद की याद सताती है
बरगद की याद सताती है
बरगद से जुड़ी हुईं स्मृतियां
अचेतन मन में
रच-बस जाती है।

3. सुनो, सुन रहे हो ना तुम।

सुनो, सुन रहे हो ना तुम
रोज तुम सबेरे मेट्रो से
आफिस निक जाते हो
देर रात को घर खिसियाते हुए से आते हो
झल्लाये गुस्साये मुँह घुमाकर सो जाते हो
नही करते किसी से सीधे मुँह बात
ऐसा क्या हो गया तुमको अकस्मात्
सुना है आफिस में महिला सहकर्मी से
बहुत मुस्कराकर बतियाते हो
बास की बात बिना सुने
हाँ होकर मूड़ी घुमाते हो
मै कैसे बताऊँ कि वर्षों पहले
तुम्हारा लगाया हुआ गुलाब का पेड़
पड़ोसी की बोगन बेलिया से आँखे लड़ाता है
और वर्षों पहले लगाई गई रातरानी
अब बड़ी हो खिलखिलाने लगी है
हाँ कुछ भौंरे जरूर मड़राने लगे हैं
मैं तुम्हारी बेरुखी को दर किनार कर
तुम्हारे फूलों को सजाती संवारती हूँ

राकेश धर द्विवेदी
लखनऊ

 

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