रहीम का जन्म लाहौर (अब पाकिस्तान) में 17 दिसम्बर , सन १८५६ को हुआ । उनकी माता का नाम सुल्ताना बेग़म था । पिता बैरम खां मुग़ल बादशाह हुमायूँ के सेनापति और विश्वास पात्र थे । रहीम को मध्ययुग के प्रमुख भक्त कवियों में गिना जाता है । जन्म से भले ही वे मुसलमान हो, लेकिन कर्म से सर्वधर्म समभाव की जीवंत मिसाल थे । विशेषकर हिन्दू धर्म से उन्हें बहुत लगाव था । और यह उनके दोहे और पदावलियों को पढ़कर जाना जा सकता है , यथा :-

“ राम नाम जायो नही , भई पूजा में हानि ।
कहि रहीम क्यों मानि है , जन के किंकर कानि ।।”
और
“ मान सहित विष खाय के , सम्भु भये जगदीस ।
बिना मान अमृत पिए , राहु कटायो सीस ।।” 1

इन उपर्युक्त दोहों को पढ़कर समझा जा सकता है कि हिन्दू धार्मिक ग्रन्थों का उन्होंने गहन अध्ययन किया था ।
इस प्रकार यहाँ हम नीति कवि रहीम के काव्य में उनकी धार्मिक-भक्ति विषयक दृष्टिकोण का अध्ययन करेंगे जो इस प्रकार हैं :-
सबसे पहले रहीम अपनी कृति दोहावली की निर्विघ्न समाप्ति के लिए ईश्वर को याद करते हुए कहते हैं कि – हे गंगा ! आप श्री हरि विष्णु के चरणों को पखारती है और शिवजी के मस्तक पर मालती के फूलों की तरह सुशोभित रहती है । जब आप मेरी मुक्ति करें तो देवलोक में मुझे हरि मत बनाना , शिव बनाना , जिससे कि मैं आपको सिर पर धारण कर सकूँ –

“अच्युत-चरण-तरंगिणी, शिव-सिर-मालति-माल ।
हरि न बनायो सुरसरी , कीजो इंदव- भाल ।।” 2

आगे रहीम कहते हैं कि जो ईश्वर बिना जड़ की अमर बेल का भी पालन पोषण करता है , ऐसे ईश्वर को छोड़कर बाहर किसे खोजते फिर रहे हो । अरे, ऐसा ब्रह्मा (प्रभु ) तुम्हारे अंदर ही है ,उसे वहीं खोजो । यही भाव व्यक्त करते हुए वे कहते हैं कि –

“अमर बेलि बिनु मूल की, प्रतिपालत है ताहि ।
रहिमन ऐसे प्रभुहिं तजि, खोजत फिरिए काहि ।।”3

रहीम कहते हैं कि सांसारिक सुख और आध्यात्मिक आनन्द दो विपरीत ध्रुव हैं । एक को छोड़ोगे तभी दूसरा मिलेगा । सच्चाई, मोह-माया को त्याग दोगे तो सांसारिक सुख नही मिलेंगे और इनके त्यागे बिना आध्यात्मिक आनन्द नहीं मिलेगा –

“अब रहीम मुश्किल पड़ी , गाढे दोऊ काम ।
साँचे से तो जग नही , झूठे मिलै न राम ।।”4

रहीम कहते हैं कि – काजल और सुरमा सब व्यर्थ है । मैनें तो जब से इन आँखों से ईश्वर के दर्शन किये हैं , इन आँखों में ईश्वर को बसाकर धन्य हो गया हूँ । अर्थात् सौन्दर्य प्रसाधन छोड़कर ईश्वर को नयनों में बसाइए । यही भाव व्यक्त करते हुए वे कहते हैं कि-

“अंजन दियो तो किरकिरी , सुरमा दियो न जाये ।
जिन आँखिन सों हरि ल्ख्यों , रहिमन बलि बलि जाय ।। ”5

रहीम पूछते हैं कि कितना जीवन शेष है और कितना बर्बाद कर दिया , जरा इस पर विचार करें , क्योंकि माया , ममता , मोह में फंसकर आदमी सांसारिक क्षणिक सुख तो भोग लेता है , लेकिन स्थायी आध्यात्मिक सुख से वंचित होकर मृत्यु के समय पछताता है और खाली हाथ जाता है । इसलिए क्षणिक सुख को त्यागकर स्थायी सुख को पाने का प्रयास करें । वे कहते हैं –

“कहु रहीम केतिक रही, केतिक गई बिहाय ।
माया, ममता , मोह परि,अंत चले पछिताय ।।”6

रहीम कहते हैं कि राम की शरण लो , वही भवसागर की नाव है जो तुम्हें इस माया-मोह के क्षणिक भौतिक संसार से छुटकारा दिला सकती है । इसके अलावा मुक्ति का कोई और उपाय नहीं है –

“गहि सरनागति राम की, भवसागर की नाव ।
रहिमन जगत उधार कर , और न कछु उपाव ।। ”7

आगे रहीम कहते हैं कि – प्रभु का भजन-पूजन, व्रत- उपासना, यज्ञ- हवन सब किये ,लेकिन मोह माया ने पीछा नहीं छोड़ा । लेकिन प्रभु को हृदय में बसाते ही सारे विकार दूर हो गए और तन मन निर्मलता से भर गए । अर्थात् हृदय से भजने पर ही प्रभु प्राप्त होते हैं –

“चरन छुए मस्तक छुए , तेहु नहि छाड़ति पानि ।
हियो छुवत प्रभु छोडि दै , कहु रहीम का जानि ।।”8

रहीम कहते हैं कि यदि मनुष्य खुद अपना ईश्वर होता तो लाभ-हानि , जीवन -मृत्यु , यश- अपयश सबको अपने अनुसार नियंत्रित करता और किसी को भी अपने से बड़ा नहीं मानता । इसलिए ब्रह्मा ने मनुष्य को अपने से कमज़ोर बनाया है । शक्ति के साथ सज्जनता जरूरी है –

“जो रहीम होती कहूँ, प्रभु-गति अपने हाथ ।
तौ कोंधौ केहि मानतो, आप बड़ाई साथ ।।”9

आगे रहीम कहते हैं कि जिस प्रकार कठपुतली किसी और के इशारे पर नाचती है , वैसे ही प्राणियों के कर्म उनके शरीर को नाचते हैं । ऐसे में हाथ पैर और सारे अंग प्राणियों के नियंत्रण में नही रहते , किसी दैवी सत्ता के अधीन हो जाते हैं ।-

“ज्यों नाचत कठपूतरी , करम नचावत गात ,
अपने हात रहीम ज्यो , नही आपुने हाथ ।।”10

रहीम कहते हैं कि हमारा तन तो पूर्व जन्मों के कर्म के अधीन होता है , लेकिन हमारा हृदय सब बन्धनों से मुक्त होता है , इसलिए इसे आत्म-नियंत्रित करके प्रभु भक्ति की ओर लगायें । जैसे बहाव के विरुद्ध तैरती नाव को रस्सी के सहारे खींचकर किनारे कर दिया जाता है , उसे डूबने तो नहीं दिया जाता । यही भाव व्यक्त करते हुए रहीम कहते हैं कि-

“तन रहीम है कर्म बस, मन राखो ओहि ओर ।
जल में उलटी नाव ज्यों , खैंचत गुन के जोर ।। ”11

रहीम कहते हैं कि निर्धनता में कितना रस , कितना आनन्द होता है ,यह धन के लोभ में अंधे हुए लोग नहीं समझ सकते । मुझे अपनी निर्धनता बहुत प्यारी है ,जिसमें मैंने अपने प्रभु को पा लिया है । अत: अब दौलत मेरे लिए निरर्थक है । यही भाव व्यक्त करते हुए रहीम कहते हैं कि-

“दिव्य दीनता के रसहिं, का जाने जग अंधु ।
भली बिचारी दीनता , दीनबन्धु से बन्धु ।।”12

आगे रहीम कहते हैं कि लोगों के सामने अपना दुखड़ा मत रोओ । ये धीरज बंधाना तो दूर, केवल हंसने वाले है । भगवान राम के पास जाओ , वे सबकी सुनते हैं और सुनकर तुरंत पीड़ा का निवारण करते हैं । वे कृपानिधान भगवान राम ही एकमात्र ऐसे हैं । यही भाव व्यक्त करते हुए रहीम कहते हैं –

“दुःख नर सुनि हांसी करै, धरत रहीम न धीर ।
कही सुनै सुनि सुनि करै, ऐसे वे रघुबीर ।।” 13

रहीम कहते हैं कि अपना यौवन , धन,स्त्री और संतान में ही न लगाये रहें । इस मोह माया के क्षणिक सांसारिक सुख में तुम्हारा कल्याण नही है । वृधावस्था में तुम्हे जब किसी साथी की जरूरत होगी तो उसे कहाँ ढूंढोगे ? इसलिए अभी से प्रभु को अपना साथी बना लो । वे ही संकट में तुम्हारा साथ देंगे ।-

“धन , दारा अरु सुतन सों , लगों रहे नित चित्त ।
नहि रहीम कोउ लख्यो , गाढ़े दिन को मित्त ।।”14

रामभक्ति का वर्णन करते हुए रहीम कहते हैं कि- गजराज मार्ग की धूल को सूंड से अपने माथे पर मलता हुआ क्यों चलता है ? शायद वह भगवान श्री राम की उस पवित्र- पावन चरण -रज को ढूंढता चलता है , जिसके स्पर्श मात्र से गौतम मुनि की पत्नी अहल्या का उद्धार हो गया था । वह धूल कहीं मिल जाये तो उसका भी कल्याण हो जाये –

“धूर धरत नित सीस पै, कहु रहीम केहि काज ।
जेहि रज मुनि पत्नी तरी, सों ढूंढत गजराज ।।”15

रहीम कहते हैं कि समर्पित भाव से अपना कर्म करो । उसकी सिद्धि के फेर में मत पड़ो, वह तो ब्रह्म के हाथ में है । जैसे जुएँ के खेल में खिलाड़ी का अधिकार केवल पासें फेकने तक में होता है , दांव क्या लगेगा यह ईश्वर की मर्ज़ी के अनुसार होता है –

“निज कर क्रिया रहीम कहि , सुधि भावी के हाथ ।
पाँसे अपने हाथ में , दांव न अपने हाथ ।।”16

रहीम स्वयं को संबोधित करते हुए कहते हैं कि- हे रहीम ! तेरे ईश्वर तेरे हृदय में बसते हैं , इसलिए तुझे किसी के भजन की जरूरत नहीं है , और तू सबका है सब तेरे है , इसलिए तुझे किसी को छोड़ने की भी जरूरत नहीं है । रहीम किसी को भजने या किसी को छोड़ने से सर्वथा परे हैं , क्योंकि वे जानते हैं कि सृष्टि के कण-कण में ईश्वर समाया है , इसलिए वे समदृष्टि हैं –

“भजौं तो काको मैं भजौं , तजौं तो काको आन ।
भजन तजन ते बिलग है , तेहि रहीम तू जान ।।”17

रहीम कहते हैं कि मांगने पर किसने इन्कार नहीं किया , किसने साथ नहीं छोड़ा ? अर्थात् सबने इन्कार किया और साथ छोड़ दिया । लेकिन एकमात्र भगवान राम ही है जो याचक को देखकर प्रसन्न होते हैं और उसकी सभी कामनाएं पूरी कर देते हैं । इसलिए लोगों की बजाय भगवान से मांगो । यही भाव व्यक्त करते हुए वे कहते हैं कि-

“माँगे मुकरिन को गयो , केहि न त्यागियो साथ ।
माँगत आगे सुख लह्यो , ते रहीम रघुनाथ ।।”18

आगे प्रार्थना करते हुए रहीम कहते हैं कि- हे प्रभु राम ! आपने गौतम मुनि की पाषाण पत्नी अहल्या का उद्धार किया, अपनी पशु स्वभाव वानर सेना और निषादराज निम्न जाति गुह का कल्याण किया , जो जन्म से चांडाल था । मुझमें ये तीनों अवगुण बसे हैं । मेरा हृदय पत्थर सदृश है , भजन पूजन मुझे आता नहीं है , इसलिए पशु स्वभावी हूँ और कर्मों से चांडाल हूँ । अत: एकमात्र आप ही है जो मेरा उद्धार कर सकते हैं । यही भाव व्यक्त करते हुए वे कहते हैं कि-

“मुनि नारी पाशान ही , कपि पसु गुह मातंग ।
तीनों तारे राम जू , तीनों मेरे अंग ।।”19

रहीम कहते हैं कि रणभूमि में शत्रुओं से , वन में भयानक जीवों से, भीषण बीमारी में और दारुण कष्टों में चाहे जो स्थिति हो कभी डरो मत । ईश्वर हमेशा तुम्हारे साथ है । वही माँ के उदर में तुम्हारा रक्षक था । वह सदा जागता है , सावधान रहता है तुम्हारी रक्षा को । यही भाव व्यक्त करते हुए रहीम कहते हैं –

“रन , बन,ब्याधि,विपत्ति में , रहिमन मरै न रोय ।
जो रच्छक जननी जठर, सो हरि गये कि सोय ।।”20

रहीम कहते हैं कि तुम्हारी अंतर्मन की गली बहुत संकीर्ण है । इसमें केवल एक ही व्यक्ति समा सकता है । यदि इसमें तुम्हारा अहं भाव रहेगा तो प्रभु नही समा पाएंगे और हरि को बसाओगे तो अहं भाव को जगह खाली करनी होगी । फैसला तुम्हारे हाथ में है –

“रहिमन गली है साँकरी, दूजो न ठहराहिं ।
आपु अहै तो हरि नही, हरि तो आपुन नाहिं ।।”21

आगे रहीम कहते हैं कि-राम का नाम भवसागर से पार पाने का अचूक अस्त्र है । कोई भूल से भी राम नाम का सुमिरन कर लेता है तो उसका कल्याण हो जाता है , फिर चाहे वह काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि विकारों से ही ग्रस्त क्यों न हो । –

“रहिमन धोखे भाव से , मुख से निकसे राम ।
पावत पूरन परम गति , कामादिक को धाम ।।”22

रहीम कहते हैं कि -ईश्वर की बात समझने में बहुत कठिन है । वह कहने-सुनने की बात नहीं है । जो ईश्वर को जानते -समझते है वे उस ज्ञान का ढिंढोरा नहीं पीटते और जो यह कहते फिरते हैं कि वे ईश्वर को जानते है , वास्तव में वे कुछ नही जानते । अर्थात् जो ईश्वर को जानने-समझने का दावा करते हैं , उनके बहकावे में न आयें , क्योंकि जो सच्चे ईश्वर को जनता है वह सदा मौन रहता है –

“रहिमन बात अगम्य की , कहन -सुनन को नाहिं ।
जे जानत ते कहत नाहिं , कहत ते जानत नाहिं ।।”23

रहीम कहते हैं कि- मोहमाया व सांसारिक उपभोगे के वशीभूत होकर कार्य की पूजा अर्चना और आडम्बरों में जीवन व्यर्थ गवां दिया । राम नाम का सच्ची भावना से स्मरण नही किया । अब यमपाश से तुम्हें कोई नहीं बचा सकता । यमदूत तुम्हारी एक नही सुनेंगे । नरक में यात्रा के लिए तैयार रहो –

“राम नाम जान्यों नही , भई पूजा में हानि ।
कहि रहीम क्यों मानिहै , जम के किंकर कानि ।।”24

आगे रहीम कहते हैं कि- जिसने सच्ची भावना से राम नाम का चिंतन, स्मरण , भजन और मनन नही किया हो और जो झूठी पदवी धारण कर लोगों को त्रास देता आया हो , समझों उसने जीवन व्यर्थ गंवा दिया । सच्चा भगवद्-स्मरण भवसागर से पार देता है –

“राम नाम जान्यो नही, जान्यों सदा उपाधि ।
कहि रहीम तिहिं आपुनो , जनम गवायों बादि ।।”25

आगे रहीम कहते हैं कि- जिसका समय अच्छा चल रहा हो , स्थिति अच्छी हो , कुल-परिवार अच्छा हो , उसी का सब सम्मान करते है । रहीम कहते हैं लेकिन दीनऔर अनाथ लोगों के एकमात्र सहारे भगवान है –

“समय दसा कुल देखि कै, सबै करत सनमान ।
रहिमन दीन अनाथ को , तुम बिन को भगवान ।।”26

रहीम कहते हैं कि- अभी बाज़ार में हो ,जो सौदा चाहते हो खरीद लो । फिर बाज़ार से चले जाओगे तो पता नहीं यह मौका मिले न मिले । अर्थात् लाखों योनियों में भटकने के बाद मनुष्य देह मिलती है इसमें सत्कर्म और प्रभु भजन करके जन्म-मृत्यु से छुटकारा पाया जा सकता है । यह देह अगली बार भी मिलें यह आवश्यक नहीं ।-

“सौदा करो सो करि चलौ, रहिमन याही बाट ।
फिर सौदा पै हों नही , दूरि जान है बाट ।।”27

आगे रहीम कहते हैं कि – हरि-हरि की करुणा भरी पुकार सुनकर विष्णु भगवान विचलित हो उठते हैं, और भागे-भागे आकर मगरमच्छ की जकड़ से गजराज को मुक्त कराते हैं । अत: ऐसे मुक्तिदाता श्री हरि को भजना ही सार्थकता है । यही भाव व्यक्त करते हुए वे कहते हैं –

“हरी हरी करुना करी, सुनी जो सब न टेर ।
जब डग भरी उतावरी, हरी करी की बेर ।।”28

इस प्रकार उपर्युक्त दोहों में हमें रहीम की धर्म-भक्ति विषयक दृष्टि देखने को मिलती है ,जिनमें उन्होंने ईश्वर को सर्वव्यापी मानकर ,उन्हें निर्धन और दुखियों का पालनहार और कल्याण कर्ता बताया है । वें भक्तों का उद्धार करते हैं , उनके नाम स्मरण मात्र से भक्तों के सारे दुःख दूर हो जाते हैं , उन्हें दुखों से मुक्ति मिल जाती है, सुख-शांति प्राप्त होती है ।
माना नीति कवि रहीम के काव्य में ऐसे दोहें संख्या में कम हैं , लेकिन है अवश्य , जो ईश्वर के स्वरूप पर भलीभांति प्रकाश डालते हैं । और भक्तों के दुःख दूर करके उनका मार्गदर्शन करते हैं।

सन्दर्भ ग्रंथ सूची –
1. रहीम दोहावली , स.-वाग्देव , पृष्ठ सं.-9
2. रहीम ग्रन्थावली , विद्यानिवास मिश्र , गोविन्द रजनीश , दोहा सं.- 2 , पृष्ठ सं.-69
3. वही , दोहा सं.-10,पृष्ठ सं.-70
4. वही , दोहा सं.-9, पृष्ठ सं.-69
5. वही,दोहा सं.-23 , पृष्ठ सं.-71
6. वही, दोहा सं.-34,पृष्ठ सं.-72
7. वही,दोहा सं.-51, पृष्ठ सं.-74
8. वही, दोहा सं.-54, पृष्ठ सं.-74
9. वही, दोहा सं.-91 , पृष्ठ सं.-78
10. वही, दोहा सं.-63, पृष्ठ सं.-75
11. वही , दोहा सं.- 94 ,पृष्ठ सं.-78
12. वही, दोहा सं.-103, पृष्ठ सं.-79
13. वही, दोहा सं.-106, पृष्ठ सं.-79
14. वही, दोहा सं.-112,पृष्ठ सं.-80
15. वही, दोहा सं.-116, पृष्ठ सं.-81
16. वही, दोहा सं.-120, पृष्ठ सं.-81
17. वही, दोहा सं.- 142, पृष्ठ सं.-83
18. वही, दोहा सं.-156, पृष्ठ सं.-85
19. वही, दोहा सं.- 162, पृष्ठ सं.-86
20. वही, दोहा सं.-174, पृष्ठ सं.-87
21. वही, दोहा सं.-193, पृष्ठ सं.-89
22. वही, दोहा सं.- 213, पृष्ठ सं.-91
23. वही, दोहा सं.- 226, पृष्ठ सं.-92
24. वही, दोहा सं.- 254
25. वही, दोहा सं.-255, पृष्ठ सं.-95
26. वही, दोहा सं.-271, पृष्ठ सं.-97
27. वही, दोहा सं.-280, पृष्ठ सं.-98
28. वही , दोहा सं.-281, पृष्ठ सं.-98

रेखा
शोधार्थी
हिंदी विभाग
दिल्ली विश्वविद्यालय

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