समाज में एक ओर पतिव्रत की महिमा कठोर विधानों द्वारा समर्थित होकर बढ़ती है और दूसरी ओर सामंती जोम (शेखी) उस महिमा का अपने रस स्वार्थ के लिए रोज मखौल उड़ाता है। दूसरों की लड़कियों, बहुओं को अपने मजें के लिए उड़ाने वाला सामन्त स्वयं अपनी लड़कियों, पत्नियों को दूसरे के चंगुल में फँसा देखकर आदर्शोमत हो कठोर वैधानिक और क्रूर भाई, पति बन जाता है। सामन्ती सदाचार और दुराचार का यह दोहरा न्याय प्राचीन काल से ही चला आ रहा है जो मानव सभ्यता को खा गया है।
स्त्रियों के अस्तित्व को लेकर समाज में आरंभ से ही दो तरह की धारणाएँ प्रचलित है- एक ‘श्रद्धा’ के रूप में दो ‘वस्तु’ के रूप में। जहाँ भी स्त्रियों का संबंध श्रद्धा से रहा है, वहंा उनका अस्तित्व एक ऐसी नारी के रूप में मान्य है, जो जननी होने के कारण सर्वत्र ‘सम्मान’ की दृष्टि से देखी जाती रही तथा जिनका महत्व समाज में स्थिर रहा है। इस प्रकार की स्त्रियों का सीधा संबंध कुलीन घरानों से होता है, जहाँ वे अपने पद और प्रतिष्ठा के कारण समाज में सम्मानजनक स्थान प्राप्त करती रही है। प्राचीन समाज में स्त्रियों को यह सम्मान प्राप्त था तथा भारतीय समाज के वैदिक युग में नारी को पुरूष के समानातंर ‘श्रद्धा’ की दृष्टि से देखा जाता था। लेकिन जैसे-जैसे सभ्यता का विकास होता गया तथा समाज में नई सामाजिक तथा आर्थिक व्यवस्था लागू होती गयी स्त्रियों का महत्व भी बदलता गया तथा एक समय ऐसा आया जब लोगों की मानसिकता में महत्वपूर्ण परिवर्तन आया। इसका सबसे बड़ा कारण है- पितृसत्तात्मक समाज का होना। घर का मुखिया पुरूष होता था जिससे स्त्री की भूमिका का महत्व ढक जाता था कई बार ना चाहते हुए भी उसे पुरूष निर्णय में भागीदार बनना होता था।

महादेवी वर्मा ने 1931 में लिखे एक उद्धरण में नारी अस्मिता के बारे में सही लिखा है ‘‘हमें न किसी पर जय चाहिए न किसी से पराजय, न किसी पर प्रभुता चाहिए, न किसी का प्रभुत्व केवल अपना वह स्थान चाहिए वह स्वत्व चाहिए जिसके बिना हम समाज का उपयोगी अंग नहीं बन सकेगी। वर्मा जी का यह उद्धरण न पुरूष विरोधी है न स्त्रीपक्षी। एक तरह से सम्मान एवं समानता की गुहार लगाता है।
ए.आर. देसाई ने भारतीय राष्ट्रवाद की सामाजिक पृष्ठभूमि में लिखा है किः
‘वैदिक युग के शुरू के काल को छोड़कर हरदम नारी पुरूष की अधीनता में रहती आई है। समाज में पुरूष को कुछ ऐसे अधिकार थे, उनकी कुछ ऐसी स्वतंत्रताएं थी जिनसे स्त्रियां वंचित थी। स्त्री और पुरूष के निजी और सामाजिक आचरण की अच्छाई बुराई के मानदण्ड भिन्न थे।
ए.आर. देसाई का उपर्युक्त कथन लगभग सही है कि भारतीय समाज के वैदिक युग में स्त्रियों को जो सम्मान और अधिकार प्राप्त था, वह बाद में क्रमशः खत्म होता गया। हिंदी साहित्य के इतिहास में देखने पर पता चलता है कि आदि काल जो राजनीतिक उथल-पुथल का काल था। हिन्दू मुस्लिम दो संस्कृतियों के संक्रण एवं ह्यस विकास की गाथा कहा गया, उसमें एक तरफ वीरगाथा परक साहित्य की रचना हो रही थी और दूसरी तरफ युद्धों की विनाशशीलता से क्षुब्ध होकर वैराग्य की बाते सोची जाने लगी। एक तीसरा वर्ग ऐसा भी था जो मरते-मरते भी जीवन का रस भोग लेना चाहता था। इस विचित्र मनःस्थिति के फलस्वरूप ही इस काल के साहित्य में एक ओर स्त्री भोग, हठयोग से लेकर अध्यात्मचिंतनपरक साहित्य की रचना हुई और दूसरी ओर ईश्वर की लोक कल्याणकारी सत्ता में विश्वास करने, जीवन संघर्षों का सामना करने और संसार को सरस बनाने की भावना भी साहित्य रचना की मूल प्रेरणा बनी। भक्तिकाल तक आते-आते सारा साहित्य भक्तिमय हो गया। उसमें भक्ति सर्वप्रधान अंग बन गयी और स्त्री को नरक का द्वार स्त्री को व ताड़न की अधिकारी तक कह दिया। स्त्री को भक्ति साहित्य में स्थान बहुत कम मिला लेकिन कुछ कवयित्री जैसे मीरा सहजोबाई आदि के प्रखर स्वर साहित्य में सुनाई दिए जिनकी गूँज पूरे भक्ति साहित्य में सुनाई दी और रीतिकाल तक आते-आते स्त्री साहित्य का केन्द्र बिन्दु बन गयी। जो स्त्री उपेक्षित थी, पतित थी, हाशिये पर थी, उनका सबका वर्णन रीतिकाल के प्रमुख आचार्य कवियों मतिराम, देव, पदमाकर, बिहारी आदि ने किया और इससे भी बड़ा कार्य रीति मुक्त धारा के कवि बोधा, घनानन्द, ठाकुर, आलम ने किया। पुरूष होते हुए उन्होंने स्त्री को अपनी वेदना का कारण बताया और वेश्या आदि के प्रेम में इतने आशक्त हुए कि पूरा रीतिमुक्त काव्य वेदना की पीर बन गया। इसके बाद आधुनिक काल तक आते आते हर वर्ग की स्त्रिया शिक्षित होने लगी और अपने अधिकारों के बारे में जानने लगी। आज कुछ हद तक स्त्रियाँ भी समाज का हिस्सा बनने लगी है। महादेवी वर्मा की वह स्त्री अस्तित्व गुहार सुनाई देने लगी है।
भारतीय समाज एक आदर्शवादी समाज है उसकी अपनी संरचना है जो उसे ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की भावना से बाँधे रखती है। आदर्शवादी समाज की महत्वपूर्ण इकाई परिवार है, जिसमें स्त्री पुरूष व उसके बच्चे एक साथ रहते है। और ये सभी मिलकर परिवार और परिवार से मिलकर समाज बनता है। इसके विपरीत समाज में स्त्री पुरूष सम्बन्ध अवैध ही माने जाते है। जो सामाजिक संरचना से बाहर हो जाते है। सामाजिक संरचना से बाहर हुए यही सम्बन्ध पतित श्रेणी में गिने जाते है लेकिन यही सम्बन्ध समाज के अनछुए पहलुओं को उजागर करते है। समाज की सच्चाई बयां करते है। समाज को उघाड़ कर दुनिया के सामने रखते है। स्त्री पुरूष सम्बन्धों में स्त्री अर्थात् नायिका सम्बन्ध का अध्ययन करना है जो सामाजिक संरचना से बाहर पतिता की श्रेणी में गिनी जाती है। उनका अपना एक महत्वपूर्ण पक्ष है। उनका अपना महत्व है जिससे वह समाज के एक बड़े तबके में अपनी उपस्थिति दर्ज कराती है।
स्त्रियों के जीवन की मुख्यधारा से अलग थलग पड़ने की यह प्रक्रिया केवल सामाजिक व्यवस्था के कारणों से ही नहीं होती है, बल्कि उसका एक बहुत बड़ा कारण आर्थिक भी है। और इस कारण जीवन की मुख्यधारा से उनका यह अलगाव कभी-कभी इतना अधिक घातक होता है कि वे चाहकर भी मुख्यधारा में वापस नहीं लौट पाती है। ये स्त्रियाँ सामाजिक और आर्थिक विसंगतियों के कारण अपने ही समाज में कुछ ऐसा कार्य करने लगती है जिसकों सभ्य समाज नैतिकता की दृष्टि से सही नहीं देखता है। यही से इस प्रकार की स्त्रियों के जीवन में एक बदलाव आना शुरू हो जाता है तथा धीरे-धीरे सभ्य समाज उनसे अछूत सा व्यवहार करने लगता है। सभ्य समाज में पतित समझी जाने वाली इन स्त्रियों के साथ किये जा रहे व्यवहार को लेकर सीमोन द बोउवार ने लिखा है-
‘‘वेश्या की स्थिति एक बलि के बकरे के समान होती है। पुरूष उसके साथ व्यभिचार करता है और फिर उसे बहिष्कृत कर देता है। चाहे वेश्या वैध रूप से पुलिस की देखरेख में रहे चाहे अवैध रूप से छिपकर अपना कार्य करे, उसे हमेशा अछूत की तरह देखा जाता है।’’

सामाजिक जीवन की मुख्यधारा के अंदर वेश्याओं को लेकर की गयी यह टिप्पणी कितनी सार्थक है, इसका अंदाजा हम लोग आज के समय में वेश्याओं की स्थिति और उनकी समस्याओं से लगा सकते है। वेश्याओं के साथ अछूत सा व्यवहार पूरा समाज करता है। यह अजीब विडंबना है कि रात के अंधेरे में वहीं सफेदपोश लोग उसके साथ सबकुछ करने को तैयार रहते है लेकिन दिन में उसके पास जाने से कतराते है। चाहे उसकी हालत कितनी भी खराब क्यों न हो। समाज में अपनी इज्जत खोने का उनका यह डर बहुत खोखला है।
समाज में पतित समझे जानी वाली इन स्त्रियों का एक बहुत बड़ा तबका है जिसका नायिका भेद परम्परा में भिन्न-भिन्न श्रेणी में रखकर इनका वर्णन किया है। मुख्य रूप से परकीया के अन्तर्गत भेद कुलटा, मुदिता, गुप्ता, अनुशयना, लक्षिता और सामान्य अर्थात् वेश्या भेद प्रमुख रूप से है। देव के अपने मौलिक नायिका भेद के अन्तर्गत सैन्या भेद और दासी, दूती आदि समाज की मुख्यधरा से अलग-थलग पड़े हुए दिखाई देते है, जो समाज की मुख्यधारा के अन्दर की ही कड़वी सच्चाई है जिसे समाज स्वीकारता नहीं या स्वीकारना नहीं चाहता।
पतिता नायिकाओं की तरह नायक भी पतित होते है, वेश्यागामी होते है। वात्स्यायन के कामसूत्र में वेश्यागामी नायक का जिक्र हुआ है। पुरूष समाज विवाह जैसी संस्था से संतुष्ट नहीं दिखाई देता है, इस सन्दर्भ में सीमोन द बोउवार ने लिखा है कि ‘‘विवाह का वेश्यावृत्ति के साथ बहुत स्पष्ट और प्रत्यक्ष संबंध है। प्राचीन काल से आज तक इसकी काली छाया परिवार पर मंडराती रही है। पुरूष बड़ी चालाकी से पत्नी से पवित्र बनी रहने की शपथ ग्रहण करवा लेता है, पर वह स्वयं इस सामाजिक व्यवस्था से संतुष्ट नहीं दिखाई पड़ता।

सीमोन दी बोउवार की इस बात पर विचार करें तो स्त्री-पुरूष सम्बन्ध जब वैवाहिक स्तर पर बिगड़ते है या मनमुटाव होता है तो तब स्त्री और पुरूष दोनों ही इस सामाजिक व्यवस्था से असंतुष्ट दिखाई देते है। धीरे-धीरे उनके वैवाहिक जीवन में ऐसी सामाजिक सम्बन्ध प्रवेश कर लेते है, जिन्हें पतित की श्रेणी में गिना जाता है। स्त्री के जीवन में अन्य पुरूष और पुरूष के जीवन में अन्य स्त्री का प्रवेश उनके वैवाहिक सम्बन्धों को नष्ट कर देता है। एक तरह से विचार करे तो स्त्री-पुरूष जो वैवाहिक है उनकी गलती से ही उनकी नासमझी से ही हमारे समाज में ऐसे रिश्ते पनपने लगते है जो समाज की दृष्टि से बुरे है। हालांकि स्त्री-पुरूष सम्बन्ध इस समाज में सबसे श्रेष्ठ सम्बन्ध होते है और काम हमारे चार पुरूषार्थ मे से एक है जो सृष्टि के निर्माण के मददेनजर सर्वोपरि है। काम का अपना उद्देश्य है वह उत्पादन का माध्यम है लेकिन जब यह उत्पादन भोग विलास में बदल जाता है तो गडबड वही से शुरू हो जाती है जिससे स्त्री पुरूष सम्बन्ध का कोई अर्थ नहीं रह जाता है।
रीतिकाल में देव के नायिका भेद पर विचार करे तो देव एकमात्र ऐसे रीतिकालीन आचार्य है जिन्होंने हर स्तर के स्त्री पुरूष सम्बन्धों की बात की है चाहे वह श्रमिक हो, पतिव्रता हो, व्यवसाय से जुड़ी हो, राजदरबार से जुड़ी धाय, दूती, दासी हो, युद्ध क्षेत्र में सेना के साथ मौजूद स्त्री हो, कुलटा या व्याभिचारिणी कही जाने वाली स्त्री हो सभी के बारे में तत्कालीन समाज के अनुसार चित्रण किया है। रीतिकाल में राजनीतिक उथल पुथल थी, दरबारी कविता का चलन था राजा को खुश करना कवियों का सर्वप्रमुख उद्देश्य माना जाता था। राजा विलासी प्रवृत्ति के थे अतः उन्हीं को ही ध्यान में रखते हुए कवि लोग रचना करते थे। इस चपेट में सभी कवियों के साथ देव भी ऐसे कवि थे जिन्होंने नायिका सौन्दर्य का वर्णन खूब जमकर किया। वह समय विलासी राजाओं का समय था इसी कारण से देव भी अपने नायिका भेद में स्त्री पुरूष सम्बन्धों का वर्णन उपभोग तक ही कर पाये उत्पादन तक पहुँच ही नहीं पाए लेकिन देव की विशिष्ट स्त्री दृष्टि अन्य रीतिकालीन कवियों से बिल्कुल भिन्न थी उन्होंने हर जाति, हर श्रेणी, हर व्यवसाय से जुड़ी स्त्री का चित्रण किया है। जो उन्हें अन्य रीतिकालीन कवियों से भिन्न एवं विशेष स्थान प्रदान करती है।
देव के नायिका भेद में पतित समझी जाने वाली नायिकाओं का अपना विशिष्ट महत्व है। पतित समझी जाने वाली नायिकाएं उस समय की स्त्री की स्थिति को स्त्राी पुरूष सम्बन्धों के दृष्टिकोण को उजागर करती है। तदयुगीन पतिता नायिकाओं का सृजन तद्युगीन यथार्थ से हुआ है इन नायिकाओं के वर्णन से उस समय के समाज का पता चलता है। पतिता नायिकाओं का सृजन उस समय के यथार्थ से हुआ है। दरबार में राजा हुआ करते थे उनकी बहुत सी पत्नियां होती थी जो महलो में रहा करती थी और उन्हें दरबार में आने की अनुमति नहीं थी। दरबार में राजा अपनी अलग स्त्रियां रखते थे उनको मनोरंजन का साधन मानते थे और मजबूरी वश उन स्त्रियों को दरबार में रहकर राजा की खिदमत करनी पड़ती थी इसी बीच एक दिलचस्प बात यह है कि जो स्त्रियां राजदरबार में रहती थी उन्हीं पर ये कवि लोग अपना दिल दे बैठते थे। रीतिकाल के रीतिमुक्त काव्य धारा के प्रमुख कवि बोध सुभान पर मोहित घनानंद सुजान पर, आलम रंगरेजिन नामक वेश्या पर सम्मोहित थे। उनके प्रेम में कवियों ने बहुत सुंदर रचनाएं की। वह स्वच्छंद प्रेमी कवि थे। उन्होंने अपने काव्य में उन्मुक्त उड़ान भरी। समाज में पतित कही जाने वाली वहीं वेश्या इन कवियों की रचना का प्रेरणा स्त्रोत होती थी जिनसे इनकी महत्ता अपने आप बहुत बढ़ जाती थी। कवि बोध तो सुभान वेश्या पर सारा जहाँ कुरबान करने की बात करते है-
एक सुभान के आनन पै कुरबान जहां लगि रूप जहाँ को, बोधा सुभान के प्रति अगाध प्रेम व्यक्त करते है सुमान की सुन्दरता पर सब कुछ न्यौछावर है।
देव ने रस विलास में काम महत्व और प्रभाव का वर्णन करते हएु कहा है कि काम के प्रभाववश, तीनों लोकों में देवता, राक्षस, मनुष्य, पशु, कीट, पतंगे, यक्ष, निशाचर, सर्प आदि सभी अपनी स्त्रियों के संग में सुख मनाते हैं।

ताते त्रिभुवन सुर असुर नर पशु कीट पंतग
राक्षस जक्ष पिशाच अहि सुखी सबै तिय संग।।

देव ने इस पद में स्त्री महत्व प्रतिपादित किया है। उनका मानना उचित है कि सृष्टि की उत्पत्ति काम द्वारा ही हुई है इसलिए उन्होंने अपने नायिका भेद में सभी प्रकार की स्त्रियों एवं उनके सम्बन्धों का उल्लेख किया है।
देव के नायिका भेद में पतित समझे जाने वाली ये नायिकाएं उस समय के यथार्थ को उजागर करती है। वास्तविक नायिकाएँ जो राजमहल में रहती थी उनके चरित्र को उभारने में यह सहायक होती थी। वह कितनी सच्चारित्र है उनकी तुलना की जा सकती है। देव ने रावल नागरी के भेदों का वर्णन किया है जिनमें पांच प्रकार की स्त्रियाँ होती है- पहले राजकुमारी का स्थान आता है, फिर उसकी धाय, दूती, सखी और फिर दासी का। देव कहते हैं कि राजकुमारी पूरे नगर की स्वामिनी है, सुख सम्पत्ति की उसे कोई कमी नहीं है। यह गुणों की खान है, गर्विली है, मानिनी है। इसे अपने रूप एवं वैभव का बहुत गर्व है। वही धाय रूप में दूती, सखी अपनी भूमिका निभाती हुई राजा के मन में प्रवेश करती है। सन्देशों के माध्यम से नित्यप्रति स्नेह का विकास करती है, प्रेम विकसित होने का मौका देती है-

रूचि उपजावे परसपर नितनित नेह बढ़ाइ।
रहे दुहुनि चित में चढ़ी दूती चतुर सुभाई।।

यह दूती राजकुमारी के गर्व और मान को चूर चूर कर देती है। यह संदेशवाहिका बनकर नायक को नायिका के नजदीक लाती है तथा इसी बीच अपने स्वार्थ हेतु सदेशों का आदान प्रदान करती है। यह मानिनी राजकुमारी के नायक से मिलवाने का काम करती है और अपने वाक चातुर्य से उनका मान मिटाने का प्रयास करती है इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि धाय, दूती या सखी रूप में किसी न किसी रूप में राजमहलों से जुड़ी होती थी और राजमहल के अन्दर ही उनका सारा क्रियाकलाप चलता रहता था। यह नायक और नायिका दोनों के बारे में अच्छे से जान जाती थी। यह राजकुमारी पर निगरानी भी रखती थी। सदैव नायक नायिका के निकट बनी रहती थी। उनके मन की जानती रहती थी। यह सखी रूप में कभी धाय, कभी दूती और दासी का रूप अपना लेती थी अर्थात् समय पड़ने पर राजकुमारी की पालन पोषण करने वाली कभी नायक से मिलवाने वाली, सन्देश पहुँचाने वाली, दूती बन जाती है और कभी उसका हुकुम पूरा करने वाली दासी बन जाती है।

समै समै के काज पै सखी अनेक प्रकार
धाइ कहूँ दूत कहूँ दासी कबहूँ की बार।

इस तरह ये सभी राजमहल के अन्दर हो रही सभी गतिविधियों पर ध्यान देती थी और इन्हें पता होता था कौन राजा सच्चरित्र है या कौन राजकुमारी। ये नायिकाएं वास्तविक नायिकाओं का चरित्र उभारने में सहायक होती है। सखी रूप में यह नायिकाए मूल नायिकाओं के मिलने का मार्ग प्रशस्त करती है। कहानी बनाती है। मध्यस्थता की भूमिका निभाकर नायक-नायिका का मिलन करवाती थी जिससे इनका महत्व नायक नायिका के लिए बहुत अधिक बढ़ जाता था। अगर दूती या सखी न हो तो नायिका नायक ऐसे ही मान करके बैठे रहे और विरह में जलते रहे। यह सखी या दूती बहुत ही हुनरमन्द होती थी यह अपने वाक चातुर्य से नायक नायिका के मन में प्रेम रास उपजाती थी। परस्पर उनको मिलन के लिए उकसाती थी और इस कार्य में वह सफल भी होती थी। दूती सखी, धाय चाहे कितनी ही चतुर क्यों न हो वह राजमहल के अन्दर ही अपना विशिष्ट स्थान रखती थी। देव ने रस विलास में सैन्या भेद भी किए। सेना के साथ चलने वाली नायिकाएं सैन्या भेद के अन्तर्गत आती हैं देव ने उन्हें चतुर और सौन्दर्य से भरी युवती बताया है। इन नायिकाओं का युद्ध क्षेत्रों में अपना ही महत्व था। उस समय सत्ता हड़पने को युद्ध बहुत होते थे तो सैनिक के साथ स्त्रियां भी युद्ध में जाया करती थी। और अपने चातुर्य से युद्ध में प्रदर्शन करती थी। हालांकि देव ने उनके सौन्दर्य का ही वर्णन किया है शौर्य का नहीं लेकिन सौन्दर्य के माध्यम से देव उनकी चतुरता और कौशल का वर्णन कर गए है यथा-

लालच लपेटी टेढ़ी चितवनि मन्द चाल चीकने कपोल गोल को न भटकायो है।

देव ने मुकेरिन नायिका की भाव मंगिमाओं का बड़ा ही सूक्ष्म वर्णन किया है। ये नायिकाएं अपने ग्राहकों को बिना बाट के ही तौल देती है और ग्राहक को रिझाती हुई बाद में मुकर जाती है, यथा-

हाटक बुटी सी बाढ़ी हाट पै हँसति ठाढी बार बिनु तोलि बार पारै बछुतेरनि की।
गाहक बुलावै सेन करै देन करै सौदा नैननि मुकरि जाइ मुकरि मुकेरिन की।

देव की सैन्या भेद नायिकाए अपनी चतुरता कौशल एवं रूप सौन्दर्य से युद्धों में अपनी भूमिका निभाती थी।
देव के नायिका-भेद में वेश्या और कुलटा समाज में सबसे पतित मानी जाती है। इनमें से कुलटा को सबसे नीचा स्थान प्राप्त है। वेश्या वह जो पैसों के लिए पुरूषों से लगाव रखती है उसका प्रिय व्यक्ति नहीं पैसा होता है वही कुलटा जिसके लिए पैसा जरूरी न होकर कामवासना ही सर्वोपरि है। उसे अपने पास कोई न कोई व्यक्ति हर वक्त चाहिए। एक तरह से वह सबकी ओर उसका कोई अपना नहीं होता। देव का यह भेद तद्युगीन समाज और आज के समाज की सच्चाई को उजागर करता है।
वेश्याओं के प्रति आकर्षण और वेश्यागमिता के प्रति संकोच भाव दोनों साथ-साथ मानव सभ्यता के इतिहास में चलते रहे है। तदयुगीन समाज में तो वेश्या राजा के महल में रहती थी वो सिर्फ राजा के लिए होती थी और किसी का अधिकार नहीं था। एक तरह से वेश्या का कार्य व्यापार वही से चलता था। उस समय की वेश्याएं बड़ी गर्विता थी घनानन्द की प्रेमिका सुजान ने घनानन्द को दुत्कार दिया था। देव ने सभी वेश्याओं को स्त्री की सौत कहा है इसका तात्पर्य जो ब्याहता राजा पुरूष थे उनके साथ उनका सम्बन्ध होता था। यही वेश्याये राजा का चरित्र भी उभारने में सहायक होती थी। नायक या राजा की परीक्षा होती थी कि वह कितना समझदार है कितना सच्चरित्र है। उस समय राजा बहुत भोग विलासी प्रवृत्ति के थे उन्होंने इन पतिता नायिकाओं को समाज में उपजने का अधिक काम किया। उपभोग करना ही उनका उद्देश्य था। उत्पादन तक उनकी सोच नहीं जाती थी जिससे वेश्या समाज में उपेक्षित ही मानी जाती रही। सूरदास के काल की ये नायिकाएँ उत्पादन से जुड़ी थी। दूध दूहने के बहाने श्रीकृष्ण को घर बुलाती थी। गाय चराने के बहाने बुलाती थी। एक तरह से श्रम के माध्यम से सूरदास की नायिकाएँ उत्पादन से जुड़ी थी लेकिन रीतिकाल तक आते आते यह राजा के भेाग विलास का शिकार हुई।
देव का रस विलास नायिका भेद का प्रसिद्ध ग्रन्थ है। उन्होंने सभी प्रकार की नायिकाओं का उसमें समावेश कर दिया है ऐसा लगता है उनके हाथ से कोई नायिका छूटी ही नहीं है। रीतिकाल जिसने सर्वप्रथम नारी या नायिका को केन्द्र में लाने का काम किया जिसमें देव के नायिका भेद का अपना विशिष्ट स्थान है। देव तद्युगीन समय की स्त्री की स्थिति और उसकी महत्ता पर प्रकाश डाल गए जो उनकी काव्य की विशिष्टता है। देव के कलापक्ष से ज्यादा उनका भावपक्ष ज्यादा जोर का है। उनका कवित्व कौशल रूप में सामने आया है। देव की समय की पतिता समझी जाने वाली नायिकाएं और आज की नायिकाओं की तुलना करे तो बहुत अन्तर आया है क्योंकि कोई भी परम्परा हो वह अच्छे और बुरे दोनेां रूपों में विकसित हेाती हुई चलती है। रीतिकाल की नायिकाएं राजदरबार में रहती थी और आज की वेश्याओं में काॅल गर्ल एवं हाॅटलों में रहने वाली अलग-अलग तरह की वैश्याएँ है। रीतिकाल में अनेक प्रकार की नायिकाएं थी जो राजदरबार में रहकर ही अपना व्यवसाय चलाती थी। उनका सम्बन्ध राजा के साथ होता था। वे राजा की पत्नी को भी मात देती थी। जिससे इनमें आपसी ईष्र्या भी होती थी। आज के समय की सामान्य नायिका भी ऐसे गुण अपना लेती है कि उसे पतिता की श्रेणी में रखा जा सकता है। स्त्री विमर्श के साथ देह स्वतन्त्रता की आवाज बुलंद रूप में उठी है। वह जहाँ चाहे अपनी देह का इस्तेमाल करे लेकिन गौर करने लायक बात यह है कि यह देह स्वतन्त्रता का विमर्श बौद्धिक लोगों तक ही सीमित है। समाज में तो यह आज भी अवैध है। शादी बन्धन ही स्त्री-पुरूष का वैध सम्बन्ध है जो समाज को एक व्यवस्थित ढांचा प्रदान करता है। आज लिव इन रिलेशन शिप का भी बहुत चलन है लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार सह जीवन सम्बन्ध न तो अपराध है और न ही पाप लेकिन ऐसे सम्बन्ध देश में सामाजिक तौर पर स्वीकार नहीं किए जाते है।
पतिता नायिकाओं के महत्व के साथ-साथ उनकी स्थिति पर ध्यान दे तो तद्युगीन समय मे ंदरबार में रहने वाली वेश्या, सेना के साथ चलने वाली वृषली परोढ़ा आदि अपने व्यवसाय के चलते इस पेशे मे लिप्त थी जो समाज की दृष्टि से कुदृष्टि से देखा जाता था। फिर भी उन्हें सम्मान प्राप्त था। वे राजदरबार में रहती युद्धों में साथ चलती और स्वच्छन्द प्रवृत्ति की थी। मनु सहिता में कहा गया है-

यत्र नार्यस्तु पूज्यते रमंते तत्र देवता अर्थात जहाँ नारी की पूजा होती है वहां देवता का निवास होता है। नारी के प्रति यह दृष्टिकोण हजारो वर्षो पहले रहा है। धीरे-धीरे नारी के प्रति यह दृष्टिकोण बदलने लगा। नारी को सम्पत्ति के रूप में देखा जाने लगा उसे भोग्य की वस्तु समझा जाने लगा। राजा विलासी होने के कारण यह स्त्री की स्थिति होने लगी जिसके कारण मजबूरी वश स्त्री को इस पेशें में आना पड़ा। फिर अगर कोई स्त्री इस पेशे में पैर रख देती है तो फिर निकलना मुश्किल हो जाता है अगर कोई निकलने की कोशिश भी करे तो उसके लिए सारे द्वार बन्द होते है। यह समाज की सच्चाई है। रीतिकाल में पतिता नायिकाओं की स्थिति पर बात करे तो सर्वप्रथम रीतिकाल ने समाज की मुख्यधारा से हटी इन नायिकाओं को केन्द्र में लाने का काम किया। तद्युगीन समाज में यथार्थ से इनका सृजन हुआ है। रीतिकाल पर आक्षेप लगते रहे है कि यह अश्लीलता भरा काव्य है इसमें मौलिकता का अभाव है। यह राजा की विलासी प्रवृत्ति के मनोरंजन का काव्य है कवियों का एकमात्र उद्देश्य राजा को खुश करना था। ये आक्षेप मुख्य रूप से लगाए जाते है। ये सभी आक्षेप रीतिकाल के सम्पूर्ण काव्य को जाने, पढ़े, समझे बिना लगाए गए है जो काव्य, ब्रजभाषा 200 वर्षा तक हिन्दी साहित्य जगत में प्रतिष्ठित रही उसके टिकने का कारण उसकी महत्ता को दर्शाता है। रीतिकालीन कवि आचार्य और कवि दोनों थे उनकी यह प्रमुख विशेषता थी। शास्त्रीय बन्धनों में मामुली बात नहीं थी जो रीतिकाल में रीतिबद्ध और रीतिसिद्ध कवियों ने किया। उनके काव्य में जबरदस्त वाक चातुर्य और पदमैत्री थी। रीतिकाल के कवियों ने नायिका भेद के माध्यम से स्त्री जीवन की पूरी झांकी पाठको के सम्मुख प्रस्तुत की। उनके नायिका भेद में सारा स्त्री जीवन समाहित हो गया है। स्त्री की स्थिति और महत्ता को दर्शाया है। देव का नायिका भेद तो मानों सम्पूर्ण स्त्री जीवन को लेकर चला है। श्रमशील उपेक्षित, स्वकीया सभी प्रकार की स्त्रियाँ उनके नायिका भेद में समाहित है। देव का ‘रस विलास’ इस रूप में सर्वश्रेष्ठ एवं उत्कृष्ट नायिका भेद ग्रन्थ है।
संक्षेप रूप में पतिता नायिकाओं के महत्व के बारे में बात करे तो सर्वप्रमुख रूप में इन नायिकाओं का सृजन तद्युगीन समाज के यथार्थ से हुआ है। ये नायिकाएँ वास्तविक नायिकाओं से तुलनीय होती थी जिससे वास्तविक नायिकाओं की सच्चरित्रता का पता चलता था। ये नायिकाए मुख्य रूप से मध्यस्थता की भूमिका निभाती थी। नायक नायिका के संदेशों का आदान-प्रदान करती थी एक तरह से यह बहुत व्यवहार कुशल थी। यह राजा के चरित्र को उभारने में भी सहायक होती थी। ये नायिकाएं असल में पतित नहीं होती थी इनको पनपने का अवसर तद्युगीन समाज की परिस्थितियों ने दिया जहाँ नायिका को भोग्य वस्तु समझा जाने लगा था। इसी दृष्टिकोण के चलते इन्हे पतिता समझा जाने लगा लेकिन फिर भी बड़ी चालाकी से यह राजमहल में अपना वह स्थान पा लेती थी जो मूल नायिकाओं का था। धाय, दूती, दासी, सखी, वेश्या आदि ऐसी सभी नायिकाएं अपनी व्यवहार कुशलता से राज दरबार में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती थी।

आधार ग्रंथ सूची –
1. देव ग्रंथावली-लक्ष्मीधर मालवीय, प्रकाशक नेशनल पब्लिश्ंिाग हाऊस, दिल्ली-7, प्रथम संस्करण 1967

संदर्भ ग्रंथ सूची – 

1. महादेवी रचना संचयन (भूमिका भाग)
2. भारतीय राष्ट्रवाद की सामाजिक पृष्ठभूमि ए. आर. देसाई पृ. 218
3. सीमोन द बोउवार, स्त्री उपेक्षिता, अनुवाद-प्रभा खेतान, पृ. 147
4. सीमोन द बोउवार, स्त्री उपेक्षिता अनुवाद-प्रभा खेतान, पृ. 147
5. रस विलास, प्रथम विलास, पद सं. 11
6. रस विलास, प्रथम विलास, पद सं. 31
7. रस विलास, तृतीय विलास पद सं. 28
8. रस विलास तृतीय विलास, पद सं. 30

 

बबली गुर्जर
शोधार्थी
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय

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