कबीर
तुमने कहा था
रहना नहीं देस विराना है।
लेकिन दे दिया
पूरी उम्र देस’ को
रहने लायक बनाने में
निर्गुण की बाते
दुहरायी बारम्बार
और पाटते रहे
जीऊ और पिऊ के बीच के दरार
नेह की डोर से
बँधे-बँधाये
खिचते रहे खींचते रहे
‘राम’ को
रूप से चरित से लीलाओं से मर्यादाओं से
और समय से भी बाहर
सूत कातने वाले हाथों से
थापते रहे आजीवन
‘राम’ को
फूस की मड़िया में
श्रम से पाई हुई
रोटी की दुनिया में
तुम एक हुंकार भी रहे
उस भीड़ की
जो दब कर कराह रही थी
द्विजता के सूत्र-भार से
पिस रही थी
‘सुन्नत’ की संत्रास से
धमनियों में जो बह रही थी आग
सधुक्कड़ी में ढल
सुसंस्कृत भद्रलोक को
मुँह चिढ़ाती रही
दिखाती रही सत्ता को ठेंगा
सुलझाती रही जलाती रही
सत्ता-षास्त्रीयता की
बुनावट की पेचीदगियों
व्यंग्य की चुटीले मुहावरों
यथार्थ के व्याकरण से
मसि कागद और
पोथियों को भी दर किनार कर
रचा था तुमने
अनुभव का ज्ञान का
नूतन लोक संसार
प्रखर स्वर में चेताकर बताया
ढाई आखर पढ़
कोई भी सिद्धार्थ
यशोधरा-राहुल सहित
अपनी पर्णकुटिया में
शुद्ध है बुद्ध है
‘साखियों’ में
जो पाया अनुभूतियों में
उसकी साक्षी दी
‘रमैनी’ में
राम संग खुद भी रमते रहे
‘सबद’ के गीतों ने रागबद्ध हो
सीमाऐं तोड़ी खोल दो
बीज में विराट के संभावनाओं का द्वार
अनुभव अंतरिक्ष पर फैली
प्रेम की उजास
नूतन अर्थो की खोज में
खंगालती रही
हर आत्मीय सम्बन्ध
बालक से बहुरिया और
गले में राम’ की जेवड़ी (पट्टा)
डाले मुतिया’ तक
कर प्रहार
धकियाते रहे धर्म को
मानवता की ओर
बंजर हो चुकि जमीन पर
जीवन की पटवन
संवेदना-सिंचन कर
खर पतवार हटा
बनाते रहे
प्रेम के अंकुरित होने की जगह
जगाते रहे
स्मरस समाज की उम्मीद
तुम्हारी उक्तियों की डगर पकड़
मानव पीढ़िया
जब भी उतरेगी
तुम्हारे लोक में प्रतिपल
वो अपने समय में खड़ी होगी
निसंदेह युग-सत्य
युग धर्म के समक्ष भी।।
रश्मि राजगृहार