राजस्थान स्थानीय कलाकारों का प्रदेश कहलाता है। देश का यह सबसे बडा प्रदेश आज भी अपनी मिट्टी से जुड़ा दिखायी देता है। मारवाड़-मेवाड़ की अमर शौर्य गाथाओं के साथ यहां प्रेम, राग, विरह, रस, श्रृगांर, प्रकृति, जीवन दर्शन, नैतिक नियमों के ऊर्जा भरे जीवंत गीत भी अपनी विशिष्ट संगीत शैली के साथ जनमानस में रचे बसे दिखायी पड़ते है। इन्हीं सदाबहार गीत-संगीत की लोकप्रियता इन्हें देशव्यापी मनोरंजन के फिल्मी माध्यमों में भी अवसर स्थान दिलवाती रहती है। राजस्थान के सरहद पर थार रेगिस्तान की मरूभूमि राष्ट्रभक्ति को जगाते, अपने माँ जाए पड़ोसी  भाई एवं दुश्मन को चेताते गीत रचती है तो मेवाड़ की हरितिमा से आच्छादित पर्वतीय सुन्दरता प्रणय के सरस गीतों का खजाना लुटाती है। महाराणा प्रताप के शौर्य से पगे वीर रस के ऊर्जावान आह्वान गीत या मरूधरा से कमाने के लिए परदेश गए पिया की विरहिणी के दर्द भरे भावों में डूबे दिल को चीरते विरह गीत अपनी विशिष्ट लोक धुनों के चलते जब भी स्वप्न-लोक में प्रयुक्त हुए है लोकप्रियता के झण्डे गाड़ चलचित्र को और भी रंगीला बना देते है।

भारत वर्ष का दुलारा, प्यारा, रंगीला, राजस्थान प्रदेश अपनी सहजता, सरलता, सजगता, स्वाभाविकता के सुरम्य संस्कारों में रचा बसा है विविधता में एकता एवं समन्वय की भावना वाले गौरवशाली इतिहास के धनी राजस्थान में हिन्दु-मुस्लिम सांस्कृतिक समन्वय मुगलकाल विशेषतः अकबर के समय में तो दूध-पानी की भांति घुलमिल कर नयी लोक धुनों की इबादत लिख रहा था। यहाँ राजघरानों के शास्त्रीय संगीत को मुगल एवं मुसलमान परिवारों द्वारा पोषित एवं समृद्व किया गया। फकीर, लंगा, मिरासी, मेव, मांगलिया, कालबेलिया आदि लोक कलाकारों के लोक वाद्यों पर आघृत लोक धुनों पर समरसता की जो सरिता बहाई उसमें खिले कुमुद आज भी फिल्म-संगीत में अपनी अनुपम छवि रच रसिक श्रोताओं व दर्शकों को भावान्जलि से तृप्त कर देती हैं। इसका ताजतरीन उदाहरण पद्मावती फिल्म का संगीत हैं जहां वाद्ययंत्र, गायन शैली, लोकधुन सभी स्थानीयता की सुस्पष्ट छाप लिये है। राजस्थानी संगीत की आत्मा सा जान पड़ता सुरम्य लोकगीत घूमर दुनिया के दस सर्वश्रेष्ठ लोकगीतों में चौथे स्थान पर रखा गया है। बॉलीवुड ने भी इस प्रसिद्ध संगीत से अपने सुरीलेपन को और भी सुरीला बनाया है। आधुनिक पाश्चात्य शैली वाली मशहूर सिने तारिका दीपिका पादुकोण जब आपाद मस्तक राजस्थानी परम्परागत गहनों कपड़े में सुशोभित हो पद्मावती फिल्म में यह गरिमामय नर्तन करती है, तो यह नृत्य समूह एक अलौकिक जादुई जगत की सृष्टि करता जान पड़ता है। इनसे पहले भक्ति काल में रांत परम्परा के दादू, पीपा, रैदास, चरण दास, लाल दास, मीरा बाई, ख्वाजा साहेब आदि निर्गुण धारा के रत्नों ने समाज को दिया वह सार्थक सारगर्भित साहित्य गायन परम्परा में भी लम्बे समय तक बहता रहा।

हिन्दी सिनेमा का पहला लोकगीत राजस्थानी भाषा से लिया गया था। प्रसिद्ध संगीतकार द्वय श्री लक्ष्मीकांत और श्री प्यारे लाल के गुरू पण्डित शिवराम ने राजस्थान के लोक गीतों व संगीत का मुक्त हस्त से प्रयोग किया। आज भी उन्ही के वंश के होनहार संगीतकार पण्डित जुगल किशोर पुष्कर्मा संगीत विधा मे और बॉलीवुड में उनकी उच्च कला को ससम्मान आगे बढ़ा रहे है। इसी प्रकार श्वेत-श्याम सिनेमा के दौर से पण्डित इन्द्र ने लगभग डेढ सौ फिल्मों के लिए गीत लिखे। फिल्मों में राजस्थानी खुशबू का मधुमय प्रसरण कर इस माटी की महक को पूरे देश में फैलाने का पुनीत काम करने का श्रेय इन्हें दिया जाता है।

राजस्थानी लोकगीतों से शब्दावली और लोक धुनों को लेकर सिनेमा में सरस गीतों की रचना सिनेमा के आरम्भिक काल से ही होती आयी है। स्वतंत्रता सेनानी और राष्ट्रकवि श्री हरिकृष्ण प्रेमी की कर्मभूमि मध्यप्रदेश, लाहौर और राजस्थान से जुड़ी हुई है। श्वेत-श्याम के युग में परतंत्रता के उस कठिन दौर में राष्ट्रीय भक्ति की भावना जगाते एवं जनता मे उसके प्रसार के लिए ओज जगाती “चित्तौड़ विजय” नामक सिनेमा की रचना की तो उस वक्त के सितारा हैसियत वाले नायक राजकपूर ने इसमें मुख्य भूमिका निभायी एवं सौन्दर्य की साक्षात् प्रतिमूर्ति मधुबाला पहली बार मुख्य नायिका के तौर पर यहां प्रस्तुत की गई थी। राजस्थान के चुरू जिले में जन्में महाकवि श्री भरत व्यास ने इस ऐतिहासिक फिल्म के मनभावन गीत और ओजस्वी संवाद लिखें।

कुछ दशकों पहले लोकगीतों का लोकतत्व पतली गुटकानुमा किताबों से हो फिल्मी तर्ज पर बने लोकगीतों ने ले लिया। पुराने समय में यों तो लोकगीत की धारा बिना लिखा-पढी के ही कण्ठों से आगे पीढी दर पीढी अजस्त्र धारा के रूप में प्रवाहित होती रहती थी। फिर लड़कियों के कुछ पढ़ने लिखने को दौर शुरू हुआ तो डायरियां बनने लगी। शिक्षा के विकास में तो राजस्थान सदा से थोड़ा पीछे ही रहा है और बालिका शिक्षा के क्षेत्र में तो यह स्थिति और भी पीछे है। फिर भी जब गत सदी के आखिरी तीन दशकों में पढने का चलन चलने लगा तो इन आखर ज्ञान प्राप्त शिक्षित बालिकाओं की पीढ़ी जब भद्र घरेलु महिलाओं के तौर पर आने लगी तो आधुनिक तौर तरिकों को अपनाने पर जोर देने लगी। अब ठेठ ग्रामीण मारवाडी गीतों का स्थान चित्रपट से आने वाले लोकप्रिय गीतों की संगीत धुन पर लिखे राजस्थानी बोल और फिर हिन्दी बोल लेने लगे। विज्ञान के विकास ने नये-नये उपकरण समाज को दिये तो ये विकसित जीवन-शैली लोकगीतों में भी अपना स्थान बनाने लगी। हिन्दी चलचित्र के श्वेत-श्याम दौर में यदि विदेश गये पिया अपनी प्रियतम को टेलीफून करते है तो राजस्थानी महिलाएं भी इस तरह के कथित हाई-फाई व्यवहार को अपने लोक गीतों में अपनाने में पीछे रहना नहीं चाहती।

‘दूरबीन लगा के देख बन्नी

ये रेल किधर से आती है

ये रेल तो धीमे धीमे चलती है

ये हर टेसन पर रूकती है।’          (राजस्थानी लोक गीत)

                  शादी में दुल्हन (बन्नी) के घर वर-पक्ष का मजाक उड़ाते हुए गाये जाने वाले इस गीत में दूरबीन और लोहपथगामिनी आ गये पर इन गाने वाली स्त्रियों ने अपनी आंखों से कभी इन चीजों को प्रत्यक्षतः देखा तक नहीं पर, इनके दर्शन सिनेमा में कभी अवश्य ही किये होंगे। फिर भी लोक संगीत में आधुनिकता का मजा तो सुनने वाले को सातवें आसमां तक ले जाता है। सातवें आसमान तक तो झूले की पींगे बढ़ाकर गौरी अपनी सखी के साथ भी पहुंच जाती है पर उसके मन मे और गीतों के बोल में तो प्रियतम ही विराजित होता है ‘उको नाम बता दे नही नही …‘ अपने बलमा का नाम लेना राजस्थानी संस्कारों में आज भी निषिद्ध है। फिल्म लम्हे में श्रीदेवी जी राजस्थानी वेशभुषा में जितनी फूतरी (सुन्दर) दिखती है उतना ही खूबसूरत है इस गीत का लोक संगीत। पहनावा, हाव-भाव, गहने, मौसम, वातावरण, नृत्य-लास्य, शब्द रचना, भाव, संगीत सब कुछ एकदम असल, खालिस राजस्थानी, सावन भादों या फिर कहे चैमास, वर्षा ऋतु  के चार महिने तो राजस्थानी सभ्यता, संस्कृति, लोक गीत, संगीत के लिए मानो अमृत वर्षा करते आते है। विरहिनी परदेश गये पति को याद कर बैचेन हो उठती है।

‘‘साजन-साजन मै कलपूं

जब देखूं चादनी मोर

म्हारा नैणा मेह बरसाए…।’’

आधी रात में बोलता मोर विरहिनी को विचलित कर रहा है। श्रीदेवी जी के संजीदा एवं सम्पूर्ण अभिनव से सजी लम्हे फिल्म का मोरनी गीत जब राजस्थानी गायिका इला अरूण की पंक्तियों पर पहुंचता है तो दर्शक स्वयं को संगीत की अपरिमित क्षमता एवं ताकत के मोहपाश में पूरी तरह समर्पित कर भाव लोक मे आकण्ठ डूब जाता है- “रे थारी छाती फूटे रे ढोला–   (गायिका- इला अरूण) हमारे बॉलीवुड की आखिरी एकछत्र सितारा नायिका नम्बर वन के सिंहासन पर आरूढ़ रही अप्रतिम सौन्दर्य एवं श्रेष्ठतम भावाभिनय के सटिक संतुलन समायोजन वाली श्री देवी का तो मानो अंग-प्रत्यंग राजस्थानी लोक संगीत के माधुर्य पर झंकृत होता दिखायी देता है।

मोरनी बागां मे बोले आधी…..(लम्हे)

ढोला ढोल मंजीरा बाजे रे …..(जोशीले)

मेरे हाथों में नौ नौ ….(चांदनी)

मेघा रे मेघा तेरा मन तरसा ….(लम्हे)

         बारिश की गिरती बूदें तो तन को झुलसा देती है। अति ऊष्ण मरूभूमि में गर्मियों के ज्येष्ठ-बैशाख तो तपते सूरज से आग बरसाते ही है-

‘‘केसरिया बालम

मोहे बावरी बोले लोग

चढ़ते दिन की आंच बटोरूं, तिल-तिल सब जल जाए

ढलती सांझ की राख कुरेदूँ, रेत में सब रल जाए

ना मिल पाई, ना बिछुडी मैं,

कैसो ये संजोग रे

बावरी बोले लोग …..।’’                        (लेकिन फिल्म)

और भरी बरसात में भी तन-मन की ये उष्णता लोक गीत-संगीत में मुखरता से अपना स्थान बनाती है। तपती लू की थपेडे, दूर कुएं से पानी लाती ग्रामीण स्त्रियों के गीत भी एक अलग ही कलात्मक सुंदर लोक का सृजन करते है। रहस्य-रोमांच से भरी मरूधरा की लोकप्रिय धुनों पर बना सुप्रसिद्ध विरह गीत का सहोदर ‘राजा हिन्दुस्तानी‘ पिक्चर का बेहद लोकप्रिय ‘परदेसी‘ गीत में यह सम्मोहन अपने पूरे चरम पर दिखायी देता है।

‘शास्त्रीय संगीत का राजस्थानी सन्दर्भ में भजनों के लिए इस्तेमाल वाकई सुन्दर था। वर्ष 1979 में आई मीरा चलचित्र में संगीतकार रविशंकर ने गायिका वाणी जयराम से विविध रागों पर गीत गवाये थे।‘1

जो तुम तोडो पिया मैं …….(राम भैरवी आधारित )

श्याम मने चाकर राखो जी …… (गुजरी तोड़),

ऐ री मैं तो प्रेम दिवानी …….(खमाज)

मेरे तो गिरधर गोपाल ……..(राग खमाज)

प्यारे दर्शन दीजो ………. (जय जयवंती)

बादल देख डरी…….. (राग मल्हार)

मैं सावरें के रंग ……(देस)

बाला मैं बैरागन …..(गुजरी तोड़ी)

मीरा फिल्म के सभी उत्कृष्ट गीत शास्त्रीय परिपाटी पर आधारित होते हुए भी राजस्थान के देसीपन में भी डूबे दिखायी देते हैं, यही इनकी लोकप्रियता की वजह भी है।

‘जगदीश चैक से जहां गणगौर की सवारियां एक के बाद एक पूरे उल्लास-उमंग भरे अपने आकर्षक रूप में इठलाती हंसती गाती जा रही थी। जो प्रतिमा थी वो जान पड़ता था कि मानो अभी मुख से बोल पड़ेगी और जो महिलाओं का हुजूम था…. उत्सव मनाता वो लग रहा था मानो साक्षात् गणगौर हो….. हर उम्र की हर्षित गणगौर….. अप्रतिम नजारा, अप्रतिम भाव, अप्रतिम उमंग।‘2

         मेवाड़ धरा पर इन खुशियों का आशीर्वाद बरसाती अप्रतिम प्रतिमाओं को पढ़़ते हुए आंखों के सामने लम्हे की पल्लवी (श्रीदेवी), नयनों मे काजल डाले रेश्मा (वहीदा रहमान), रानी पद्मिनी (दीपिका पादुकोण), मीरा (हेमा मालिनी), शनिचरी (डिम्पल कपाडिया), बंजारन (श्रीदेवी) मंद-मंद लय ताल पर अलौकिक भाव से नर्तन करते अधरांे में मृदु हास्य लिए, दिल की उमंग से सरोबार, पुनीत, पावन एवं दिव्य रूप में प्रकट हो उठती है। सौन्दर्य, पवित्रता, पुण्य स्वरूपा ये ललनाएं साहित्य के शब्दों एवं संगीत की धुनों का मानवीकरण प्रतीत होता है। राजस्थानी पृष्ठभूमि पर हर काल खण्ड में सिनेमा और टेलीविजन के लोकप्रिय माध्यम मे भी हर चैनल पर राजस्थान का कोई न कोई धारावाहिक बनते ही रहते है। इन सभी फिल्मों में एवं इनसे इतर सामान्य मसाला सिनेमा व धारावाहिकों में भी राजस्थानी लोक संगीत अपना परचम लहराता आया है। उदयपुर की पृष्ठभूमि पर बना पारिवारिक धारावाहिक ’ये रिश्ता क्या कहलाता है, के स्थानीय नृत्य-गीत भी अद्भुत सृष्टि रचते है।

“मन से बंधी ये डोर

जो दिल तक आती है

ये रिश्ता क्या कहलाता है….. ।”

आपद मस्तक राजस्थानी परम्परागत परिधान-आभुषणों से अलंकृत हर उम्र की स्त्रियां जब सखि भाव से मन की हिलोरों के साथ तंरगित होते हुए गणगौर, जच्चा, ब्याह, घूमर, तीज, सावन, पणिहारी के प्रसंग पर नृत्य करती है सचमुच आह्यद की पारलौकिक रार्जना साक्षात् हो उठती है। राजस्थानी लोक गीतों एवं धुनों पर आधारित लोक संगीत एवं स्थानीयता का स्पर्श लिये गानों के चित्राकंन में अश्लीलता या फालतू समय व्यर्थ करने जैसे निरर्थक दृश्यों को रखना लगभग असम्भव ही है। अपने कथ्य में मार्मिकता, संवेदना लिए ये भावपरक गीत दृश्य रूप में भी सुकून देने वाले एवं मिथ्या तड़क-भड़क से दूर होते है। भले ही सौ नृर्तकों का दल पूरी चमाचम वाली पोशाकों में सिर से पांव तक भारी भरकम झमाझम गहनों से लधे, बहुत भारी श्रृगांर कर पूरी मस्ती के साथ जोशीले तेज संगीत पर भरपूर तीव्रता से नाच रहे हो किंतु फिर भी यहां जबरन कम कपड़े पहने, चकाचैंध और ग्लैमर के लिये उत्तेजना जगाती लडकियां अनुपस्थित होगी। कपड़ों की शालीनता राजस्थान का मूल गुणधर्म हैं जो कभी हटाया नहीं जा सकता। जहाँ अश्लील या घटिया वस्त्रविन्यास या नृत्य पदों, भाव-भंगिमाओं द्वारा अशोभनीय फिल्मांकन किया भी गया हैं वह उस निर्देशक, नृत्य निर्देशक के मानसिक दिवालियापन का प्रमाण हैं। सांस्कृतिक गरिमा को ऐसे कुचेष्टाओं द्वारा खण्डित नहीं किया जा सकता। राजस्थानी धुनों पर आधृत सिनेमा में नर्तकियां लहंगे-चूनरी की गरिमामय पोशाकों में ही दिखायी दे जाती हैं, यही इसकी सही पहचान हैं। यहाँ महंगे सेट, महंगी कारें, वाहन-गाड़ियाँ, फर्जी विलासिता दिखाने से कोई सरोकार नहीं होता, सादगी ही सौन्दर्य है।

गुलजार की सशक्त लेखनी से निकली काव्यधारा ’रूदाली‘ के गीतों को भारत-रत्न भूपेन हजारिका की संगीत संगति मिली तो राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त कर्ण प्रिय रचनाएं सामने आई। राजस्थानी पृष्ठभूमि पर बनी इस फिल्म को असमिया लोकधुनों के रूपान्तरण से सरस मिठास प्रदान की गयी। इस चलचित्र के सभी गाने एवं पृष्ठभूमि संगीत भी श्रोताओं के लिए अमृत समान है।

झूठी-मूठी मितवा आवन …… (वृंदावनी सारंग)

समय ओ धीरे चलो …….(भीम पलासी)

मौला ओ मौला ……..(आसामी लोक धुन)

सातवें दशक में संगीतकार राहुल देव बर्मन ने लोक संगीत के साथ पाश्चात्य संगीत व ऑर्केस्टेशन के मिश्रण से नये प्रयोग किए। विचित्र आवाजों का प्रयोग वाद्यों की तरह कर टेक्नो म्यूजिक द्वारा संगीत रचा गया।

‘फिल्म संगीत के तीन भाग किए जाते हैं- गीत रचना, पाश्र्व संगीत, प्रभाव ध्वनियां। शास्त्रीय एवं लोक संगीतज्ञों को फिल्म संगीत ध्वनि अंकन में परेशानी होती है कि उनकी रचनाओं में नदी का प्रवाह होता है जबकि फिल्म रिकॉर्डिंग में बांध होते है, जो प्रवाह को रोकते है। फिल्म संगीत के हृदय में पाश्र्व रचना धड़कन की तरह मौजुद रहती है।’3

शास्त्रीय विधानों एवं सिद्धान्तों के बंधनों एवं क्लिष्टता से दूर लोकोन्मुख संगीत सिनेमा माध्यम के लिये काफी उपयुक्त है। प्रसिद्ध आलोचक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कहा है कि लोक कला वस्तुतः लोक चित्त संचित प्रतिबिम्ब है। सिनेमा के दर्शको का संगीत का जानकार होना कदापि आवश्यक नही है किंतु गीत की मधुरता, रिद्म सम्प्रेषणीयता, बोल जुबान पर चढ़ने जैसे हो तो वह संगीत मन को भा जाता है और साधारण बेसुरा बाथरूम सिंगर भी सुर साधना का आनन्द स्वान्त सुखाय के रूप में पाने लगता है। वस्तुतः संगीत का मुख्य उद्देश्य मनोरंजन, खुशी, शांति और तृप्ति है। फिल्मों का मुख्य प्राप्य है- सफलता पाना यानि ज्यादा चलना। अब जब चलचित्र विधा को लोकप्रिय बनाने में गीत-संगीत-नृत्य अहम् किरदार निभाते है अतः संगीत इस प्रकार रचा जाता है जो झटपट जनता को प्रभावित करें और उनकी जुबां पर चढ़ जाएं। लोक संगीत, शास्त्रीय संगीत एवं सिनेमा संगीत में साम्य तो है किंतु फिर भी तुलना करना समोचित नही होगा। सदियों से लोक गीत, संगीत प्रदेश विशेष की जनवाणी बन फिजां में अनवरत तरलता से बहते रहते है। ’लोक वाड्मय की लोक संगीत विधा में जीवन, मनोरंजन और संस्कृति का अनुपम रूप निहारने को मिलता है। इन विधाओं के लिए न कोई शास्त्र रचे गये है, न इनके प्रणेता कोई ऋषि मुनि है। ये गीत, संगीत रचनाएं अज्ञात रचयिताओं की देन है, सामुदायिक वातावरण व परम्परागत अभ्यास से ये कला जीवंत रही है। युग-युगांतर से पनपी लोक- संगीत विधा राजस्थान की संस्कृति का प्राण बनी हुई है।”4

         शास्त्रीय संगीत भी अपनी सदियों पुरानी परम्परा में कठोर प्रतिमानों में बन्ध कर सुविज्ञ रसिकों, कला पारखियों को आत्मा की खुराक पहुचांता रहा है। प्राचीन समय मे बादशाह लोग भी गुणी शास्त्रीय कलाकारों को भरपूर सम्मान देते थे। बड़ी बड़ी महफिलें पूरी-पूरी रात भर गायन-वादन-नृत्य की उत्कृष्ट कला द्वारा गुलजार रहती थी। एक स्वस्थ्य प्रतिस्पर्धा की भावना भी कलाकारों के उद्भव एवं स्थापना का कारण बनती थी। जिसका परिणाम सदैव शुभ एवं सुन्दर संगीत रचना के रूप में साकार होता था। मुगल काल में राजस्थान ही ऐसा शरण्य-स्थल रहा जिसने संगीतज्ञों और संगीत के विद्वानों को ससम्मान आश्रय प्रदान करके भारतीय संगीत परम्परा को अक्षुण्ण बनाये रखा। यहां के राजा महाराजाओं ने संगीतज्ञों का जैसा सम्मान किया वैसा अन्यत्र कम ही हुआ।

         कालान्तर मे रजत-पट के उद्भव एवं फिल्मी गीतों की प्रसिद्धि शास्त्रीय सटिकता का उल्लंघन कर बिकाऊ और चलताऊ माल पर भी आश्रित होने लगी। जनता की पसन्द के नाम पर कला के साथ कभी कभी भद्दा मजाक भी किया जाता है किंतु संगीतकारों की जमात सदा नियम नैतिकता एवं स्थापित शास्त्रीय प्रतिमानों के प्रति सम्मान भाव का पालन करने के लिये प्रस्तुत रही है।

         लोक लुभावन के नाम पर बदलाव के लिये भी कभी किसी अंचल विशेष से धुन लेकर लोकप्रिय, कर्णप्रिय संगीत की रचना की जाती है। लोक कलाकार नैसर्गिक प्रतिभा सम्पन्न इसांन होता है एवं शास्त्रीय विधा सीखने वाले कला प्रेमी कलाकार वर्षो की निरंतर मेहनत, अभ्यास और रियाज़ द्वारा अपना ध्येय पाने को प्रयत्नरत रहते हैं। बस एक अवसर की बात है। यदि फिल्म जगत में गीत संगीत देने का मौका मिल जाता है तो गुमनाम सा कलाकार भी रातों-रात नाम और प्रसिद्धि के शिखर पर आरूढ़ नजर आता है। आज टिक-टॉक के जमाने में फटाफट शोहरत का हथकण्डा अपनाया जाना मेहनती एवं गुणी कलाकारों को असहज बनाता है।

         फिल्म संगीत में लोक संगीत और शास्त्रीय संगीत दोनों का उपयोग किया जाता है। इतना ही नहीं, विदेशी धुनों की प्रेरणा से भी गीत रचे जाते है। ‘पंकज राग की किताब ‘धुनों की यात्रा‘ फिल्म संगीत पर लिखी श्रेष्ठ किताब है। संगीत घरानों मे भाईचारा होता है। वे सुरों से शपथ बद्ध है। संगीत क्षेत्र में राजनीतिक बंटवारे का कोई प्रभाव नही है। भला सरहदों के बावजूद सरहदों के बाहर जाते इन्द्रधनुष को तोड़ा जा सकता है? संगीत को रिकार्ड करने में कम्प्यूटर जनित ध्वनियों के प्रवेश से वादक प्रजाति संकट में आ गई है।’5

         ‘फिल्मी संगीत आने वाले काल का जन संगीत हैं। जन संगीत तो वही होता है जो जनता में इतना लोकप्रिय हो कि वह जन-जन के कण्ठों में समाया रहे। फिल्म संगीत में पूरी क्षमता है कि वह सीमारेखाओं और आडम्बरों को तोडकर वर्तमान देश, काल व परिस्थिति का प्रतिनिधित्व करे।’6

         गीतकार हसरत जयपुरी ने तो अपने नाम में ही अपने प्रदेश को रख लिया था। नाम ही परिचय था। शुभा मुदगल का “प्यार के गीत“ का ढोलना गीत मलाइका अरोड़ा और अरबाज़ खान जैसे सितारों को राजस्थानी धुन पर नचाता हैं। मामे खान का देसीपन उसकी ख्याति की वजह हैं। “थारी सरारत सब जानू में चैधरी” सुनने वाला इस भाषा से परिचित ना हो तो भी आनन्द अवश्य पाएगा। सोनू निगम के पच्चीस वर्ष पहले आए गीत बिजूरिया पर इला अरूण की पुत्री ईशिता ने चुनरिया ओढ रंग जमाया था। नौकर में संजीव कुमार को विस्मित करती जया भादूडी ‘‘पल्लो लटके रे म्हारो पल्लो लटके, ज़रा सो टेढो हो जा बालमा” मारवाड़न लगती हैं। राजा और रंक में कुमकुम “मेरा नाम है चमेली, मैं हूँ मालन अलबेली चली आई हूँ अकेली बीकानेर से” कहती हैं। आज के दौर के युवा सुशांत सिंह राजपूत नये अन्दाज में गुलाबी शहर में अपना मस्त अंदाज दिखाते हैं तो मन झूम उठता हैं (हालांकि गत वर्ष लाकडॉउन के समय सुशांत की आत्महत्या के बाद से यह गाना दिल में दर्द जगाने लगा है) ‘शाम गुलाबी, दिल भी गुलाबी, रंगरेज मेरे तू रंग दे गुलाबी…!’ और फिर राजस्थान की मस्ती भरी धुन रंगीले प्रदेश की खुशी फैलाती हैं।

         राजस्थान की अति प्रसिद्व मांड गायकी की ठण्डी, विलम्बित और सुमधुर स्वर-लहरी श्रोताओं के मानस पर यहां के प्राकृतिक परिवेश का मनोरम चित्र उकेर देती हैं। वर्ष 2006 में आई डोर फिल्म की शुरूआत इसी राग पर आधारित केसरिया बालम गीत से होती हैं। वर्ष 1990 में आई विनोद खन्ना-डिम्पल कपाडिया की लेकिन फिल्म का सुरीला “केसरिया बालम आओ नी पधारो म्हारे देस” अपरिचित को भी अपनी मीठी मनुहार से अपना बना लेता हैं। बटवारा फिल्म में “थारे वास्ते रे ढ़ोला” में डिम्पल, पूनम, अमृता तीनो नायिकाए ठेठ राजस्थानी नजर आती है। धनक फिल्म का गीत “मेंहदी”, आई. एम. कलाम का गीत “पणिहारी“, हम साथ साथ है का गीत “म्हारे हिवडे में” शौक से सुने जाते है।

         इंसान जब मानसिक झंझावतों से जूझ रहा होता है तो सहारा उसे संगीत में मिलता है एवं फिल्मी गीत इसका सबसे प्रमुख एवं लोकप्रिय जरियां है। कोविड-19 की संत्रास ने मानसिक स्वास्थ्य पर न्यूनाधिक प्रभाव डाला है। अनिश्चय, डर, आशंका, प्रतिपल मौत के भयावह आकड़े परिचित अपरिचित लोगों की मृत्यु की खबरों के चिंतातुर माहौल से निकले एवं मन को हिम्मत, मजबूती एवं विश्वास देने की महज जिम्मेदारी गीत संगीत ने सहज रूप से सफलता से निभायी है। पूरी दुनिया में इन्टरनेट पर मनोरंजन के इस माध्यम से लाखों लोगों को सुकुन दिलवाने का महत्त कार्य किया है।

         कोई भी गीत एक बार चलचित्र के माध्यम से जनता से जनता तक पहुंच गया तो फिर कभी भी वह अन्त को प्राप्त नहीं होता। एक गीत गीतकार की लेखनी से प्रस्तुत हो, प्रसूत हो संगीतकारों, कलाकरों के हाथों तैयार हो स्वप्न लोक के माध्यम से दर्शकों तक पंहुचता है तब उसका जन्म माना जा सकता है। स्वरबद्ध, संगीतबद्ध, कलाकारों पर हाव भाव के साथ प्रस्तुतीकरण के रूप में पहुंचा गीत किसी भी विषय, भाव पर आधृत हो किंतु वह न्यूनधिक जन को प्रभावित अवश्य करेगा। जरूरी नहीं की वह राष्ट्रभक्ति जगाने वाला ओजपूर्ण गीत या धार्मिक भजन या नीतिगत शिक्षा देते गीत वरन् प्रणय गीत हो या फिर फौरी तौर पर मनोरजंन मात्र के लिये बने चटपटे से गीत भी अपने लिये खास दर्शक एवं प्रशंसक वर्ग ढूंढ ही लेते है। जो गीत एक इंसान के लिए तुच्छ है, वही दूसरे की आत्मा में बसा हुआ हो सकता है। एक इसांन का जीवन जिस गीत के बोलो ने बदल दिया हो, हो सकता है वह गीत दूसरे के लिए कोई मायने ही ना रखें। जिस गीत को कोई अहर्निश बिना रूके सुन सकता है, उसे भी नापसन्द करने वाले श्रोता हो सकते है।

         सार्थक एवं सुन्दर शब्द चयन, गम्भीर अर्थ, मार्मिकता, संवेदना, सामयिकता, प्रान्जलता, मिट्टी की खुश्बू के लिए, उच्च स्तरीय साहित्यिक अभिरूचि का दर्शन कराते स्वप्न एवं यथार्थ की अनूठी लेखनी से विस्तृत काव्य-रचनाएं पाठक को आत्मिकतोष, मानसिक ठहराव, जीवन को नया अर्थ एवं ऊर्जा दे अपनी महत्ता स्वतः ही सिद्व करती हैं। सुधिपाठक जब काव्य को अपनी आंखों से पढ़ता हैं तो उसकी पंक्तियां उसके मनोमस्तिष्क पर प्रभाव डालती हैं। किन्तु कालान्तर में पुनर्पठन ना होने से वह मनभावन साहित्यिक काव्य सृजन भी कभी विस्मृत सा होने लगता हैं। परन्तु यदि ये काव्य संगीतबद्व होकर गीत रूप में सुनने को मिलता है तो सुंदर शब्द संयोजन तो दिल चुराता ही हैं किन्तु सुन्दर धुन, मधुर वाद्य, स्वर के आरोह-अवरोह भावों का उतार-चढाव, मुखडे-अन्तरे के बीच की संगीतमय अन्तराल उस कृति को और भी ज्यादा प्रेरणीय बना देता हैं। पढ़ने में लगने वाली एकाग्रता के बिना भी अपने अन्य कामों में व्यस्त रहते हुए भी जब कविता एवं गीत संगीत से जुडकर श्रव्य माध्यमों से रसिक के पास पहुँचाते है तो ये मनोमस्तिष्क से आगे आत्मा तक रच बस जाते है और सोने पर सुहागा यह कि यदि ये गेय गीत (यानि चुपडी और दो दो) रचना यदि चित्रात्मक रूप में यानि दृश्य माध्यम में भी उपलब्ध हो जाए तो बस लिखित गीत अनन्त काल के लिए स्मृति पटल पर अंकित हो जाता हैं। संचार माध्यमों में संदेशों के प्राप्तक जो दश्रोता (दर्शक-श्रोता-पाठक) होते हैं उन पर प्रेषित भावों के ज्यादा प्रभावी माध्यमों का अध्ययन किया जाए तो बहुमाध्यम ज्यादा जल्दी एवं ज्यादा विस्तार से अपना असर डालते हैं, ऐसा देखा गया हैं।

सन्दर्भ सूची :-

  1. श्री पंकज राग, धुनों की यात्रा (राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली)
  2. ’कुछ दिल ने कहा’ फेसबुक ब्लॉग, ब्लॉगर- प्रियंका जोधावत, 31 मार्च 2017
  3. फिल्म पाश्र्व संगीत का भावात्मक प्रभाव, परदे के पीछे, जय प्रकाश चौकसे, दैनिक भास्कर,   8 जुलाई 2020
  1. लोक संस्कृति, डॉक्टर. गोपीनाथ शर्मा, राजस्थान का सांस्कृतिक इतिहास, राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर 1989
  2. ‘सुर ना सजे, क्या गाऊँ मैं, सुर के बिना जीवन सूना, परदे के पीछे, जय प्रकाश चौकसे
  3. डॉ० सीमा जौहरी, फिल्म संगीत निर्देशक रोशन व उनके समकालीन संगीतकार, पृष्ठ संख्या 21, राधा पब्लिकेशन, नई दिल्ली, 2002
सीमा जोधावत वर्मा
शोधार्थी
म.द.स.वि.वि. अजमेर

 

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