- गाड़िया लोहार
संदर्भः- उपर्युक्त कविता के माध्यम से मेवाड़ (राजस्थान) मुग़ल युद्ध में महाराणा प्रताप का साथ देने वाली एक जनजाति की वर्तमान दुःखद स्थिति का चित्रण किया गया है, जिसके बलिदान को इतिहास के महज़ कुछ पन्नों में समेट कर समाज ने उनके प्रति अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली है। हमारा यह कर्तव्य है कि हम उन्हें वह सम्मान दिलाएँ जिसके वो हक़दार हैं।
दूर से उड़ता दिखा, इक रेत का छोटा बवंडर,
आ रही इक बैलगाड़ी, मंद गति से चरमराकर।
हाँकता कृषकाय सा नर, गीत गाता गुन-गुनाकर,
बैल ग्रीवा की वो घण्टी, देती समर्थन झुन-झुनाकर।
सामने विस्तृत मरुस्थल पड़ा अपार है,
वो गाड़िया लोहार है,वो गाड़िया लोहार है।।
एक विषाल वट-वृक्ष के नीचे डेरा डालकर,
हो रहा न तनिक विचलित, मुष्किलों को पालकर।
जी रहा इस ज़िंदगी को, संस्कृति निज मानकर,
हो रहें हैं नत मनुज इतिहास उसका जानकर।
सह रहा है जो ये सब, वो प्रताप का अवतार है,
वो गाड़िया लोहार है, वो गाड़िया लोहार है।।
दे रहा आश्रय वो अंबर, नीली छत्र-छाया तानकर,
लेता परीक्षा कड़ी भास्कर, भट्ठी-सी धरती को तपाकर।
करुण क्रंदन कर रहे शिशु, भूख से दो बिल-बिलाकर,
ले रही निःश्वास माता, भूखे ही बालक को सुलाकर।
झेलता जाता है सब, न कर रहा गुहार है,
वो गाड़िया लोहार है, वो गाड़िया लोहार है।।
रात में ठण्डी पवन है, बह रही अब सन-सनाकर,
लग रहा उपहास करता, त्याग का-सा वो निशाकर।
दे रहा है पवन परिचय, हड्डियों में अब समाकर,
कर रहे प्रतिकार वो नर, दंत पंक्ति किट-किटाकर।
तन पर नहीं हैं वसन पूरे न पेट में आहार है,
वो गाड़िया लोहार है, वो गाड़िया लोहार है।।
दिखने लगा नीला गगन, बैठा वो भटठी को तपाकर,
चारों तरफ रखने लगा, लोहे के टुकड़ों को जमाकर।
सूर्य चुपके से चला, धरती की भट्ठी को जलाकर,
देखते हैं कौन, किसे, क्या ? बनाता है पिघलाकर।
नत नयन कर कर रहा, हथौड़े का तेज प्रहार है,
वो गाड़िया लोहार है, वो गाड़िया लोहार है।।
आज भोर ऐसा आया, बैठा वो इक चिता जलाकर,
अग्नि समर्पित कर डाला, नन्हे-से शिशु को काष्ठ सुलाकर।
उठ खड़ा हो गया अश्रु पोंछ, दिल के जख्मों को सहलाकर,
दे रहे सांत्वना मूक बैल, अपनी गर्दन को हिला-हिलाकर।
किंतु हार न मानता, नियति से युद्ध को तैयार है,
वो गाड़िया लोहार है, वो गाड़िया लोहार है।।
आज बैठा शांत-सा, कुछ क्लांत, कुछ विचारकर,
कर रहा चीत्कार-सा मन, वस्तुस्थिति का ज्ञान कर।
सह रहा था मैं सभी कुछ, संस्कृति निज मानकर,
किंतु नर ने क्या दिया, इतिहास मेरा जानकर।
अतीत की कुछ पंक्तियाँ क्या मेरा पुरस्कार हैं
हम गाड़िया लोहार हैं, हम गाड़िया लोहार हैं।।
2. कवि की अभिलाषा
चाहता हूँ कुछ ऐसा कर के जाऊं
इस जहाँ से ,
जब चला जाऊं यहाँ से
तब लोग हमेशा याद करें ,
मुझे नहीं बल्कि मेरी उपलब्धियों को
जिन्हें मैं उन्मुक्त मन , उन्मुक्त हाथों से
लुटाता जा रहा हूँ ,
जिससे मैं लोगों के लबों पर
गीत बनकर आ रहा हूँ II
है छोटी सी तमन्ना ,
इस जहाँ को आगोश में अपने मैं भर लूँ ,
इस जमीं को स्वर्ग कर दूँ ,
खुशियाँ असीमित इसमें भर दूँ ,
अगर किस्मत साथ दे तो
कर्म के दम पर मैं मेरे
वक्त को भी बांध लाऊं ,
इस धरा को रंगीन कर दूँ
चाँद –तारों से सजाऊँ II
जोश है, उन्माद है और जीत का उत्साह भी है
सब कुछ है मुझमें चाहिए जो
जीत का विश्वास भी है ,
लक्ष्य माना है बड़ा पर
साक्षी इतिहास भी है ,
कह रहा जो चीखकर
“ कर्म पर विश्वास कर तू,
मन से हार न मानना
मुश्किलों से हार कर तू II
जोश इतना बाधा की चट्टान को मैं चूर कर दूँ
कष्ट झुग्गी –बस्तियों का दूर कर दूँ ,
बन भागीरथ खुशियों की मदमस्त सी
लहराती गंगा फिर से मैं लाऊँ,
पाप से कलुषित – मलीन धरती को
विमल फिर से मैं बनाऊँ ,
श्वास जब तक भी मेरी चलेगी
लड़ता रहूँगा भाग्य से मैं
धडकनें जब तलक धक –धक कहेंगी II
तय इसीलिए मैंने किया है
तन भले ही हार जाए
मन मेरा हार न मानेगा ,
जब तक मुझमें बहता है गर्म लहू
कर्तव्यों को पहचानेगा ,
अपने दम पर हर यत्न करूंगा
दुनिया को स्वर्ग बनाने की ,
जो कुछ पीढ़ी है भुला चुकी
उसको फिर से लौटने की ,
है कवि की यही अंतिम अभिलाषा
मैं जाऊं जब इस धरती से
तैयारी हो एक परिवर्तन की ,
जो भी कलुषित धरती पर हैं
तैयारी हो निष्कासन की ,
जब कभी यहाँ मैं फ़िर आऊँ
इसको तब मैं उन्नत पाऊँ ,
तब रुदन कहीं न सुन पड़े मुझे ,
जब जाऊं धरा को सौंप तुझे II
3. शीशा
रंजीत कुमार त्रिपाठी
राजसमंद (राजस्थान)