उपन्यास सम्राट प्रेमचंद ने हिंदी उपन्यास को एक नई दिशा देकर एक नए युग का सूत्रपात किया । हिंदी उपन्यास के क्षेत्र में युगांतकारी परिवर्तन हुए । उनके आगमन से पूर्व उपन्यास केवल मनोरंजन की दृष्टि से लिखे जाते थे । तिलिस्म और ऐय्याशी से संबंधित उपन्यास घटना और चमत्कार से परिपूर्ण होते थे । प्रेमचंद ने मौलिक उपन्यासों की रचना कर तत्कालीन समस्याओं का यथार्थ चित्र प्रस्तुत किया । विविध वर्गों, धर्मों, जातियों के आपसी मतभेंदों का चित्रण करते हुए ग्रामीण और शहरी जीवन का समग्ररूप पाठकांे के सम्मुख लेकर आए । भारतीय गांवों की परिस्थितियों का विशद् अनुभव उनके उपन्यासों से झांकता दिखाई देता है । दुखों की मार झेलती निरीह जनता, किसानों और मज़दूरों के यथार्थ चित्रण में उनकी सहानुभूति स्पष्टतः परिलक्षित होती है ।
पे्रमचंद ने 1900 ई0 से 1917 ई0 तक उर्दू में ही अधिकतर कहानियां और उपन्यास लिखे । हमखुर्मा व हमसबाब, असरासे मआविद, जलवा, ईसर, वरदान, रूठी रानी उस समय में लिखे गए उपन्यास हैं । 1918 में खड़ी बोली के उनके उपन्यास ‘सेवासदन’ का प्रकाशन हुआ । पहले यह उपन्यास ‘बाज़़ारेहुस्न’ नाम से लिखा गया था । सेवासदन के अतिरिक्त उनके आठ और उपन्यास मिलते हैं – प्रेमाश्रम, रंगभूमि, कायाकल्प, निर्मला, प्रतिज्ञा, गबन, कर्मभूमि और गोदान ।
रंगभूमि एक यथार्थवादी उपन्यास है जिसमें तत्कालीन भारतवर्ष का समग्र चित्र प्रस्तुत किया गया है । देश की विविध परिस्थितियों का यथार्थ के आलोक में अवलोकन कर निरंतर परिवर्तित होते समाज का चित्रण किया गया है । समाज में व्याप्त विविध समस्याएं पाठकों के समक्ष आती हैं और पाठक कुछ सोचने पर विवश हो जाता है । उपन्यासकार ने सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक स्थितियों का यथार्थ चित्रण कर समाज के बदलते हुए स्वरूप का अंकन किया है । औद्योगिकरण के परिणामस्वरूप समाज अनेक दुर्गुणों से युक्त हो जाता है – इस ओर प्रेमचंद ने पाठकों का ध्यान आकर्षित किया है । बनारस के पास के एक गांव पांडेपुर में रहने वाले भिखारी सूरदास की पांच एकड़ ज़मीन पर जॉनसेवक सिगरेट का कारखाना लगाना चाहता है किंतु सूरदास के ज़मीन बेचने के लिए राज़ी न होने पर वह छलबल का प्रयोग करता है । शहर के प्रसिद्ध पूंजीपतियों के साथ मिलकर वह ज़मीन हथिया लेता है और सिगरेट का कारखाना खोल लेता है । उद्योग लग जाने के कारण अनेक समस्याएं खड़ी हो जाती हैं, जैसे मज़दूरों के आवास की समस्या, पशुओें के चरने की समस्या । गांव खाली कराने की चाल चली जाती है पर सूरदास अपनी झोंपड़ी खाली करने को तैयार नहीं होता । आंदोलन होता है और उग्ररूप धारण कर लेता है । गोलियां चलती हैं । अनेक लोग घायल हो जाते हैं । सूरदास को भी गोली लगती है और उसे अस्पताल पहंुचाया जाता है । मृत्युशैय्या पर पड़े हुए वह कहता है, ”हमारा दम उखड़ जाता है, हांफने लगते हैं, खिलाड़ियों को मिलाकर नहीं खेलते, आपस में झगड़ते हैं, गालीगलौज करते हैं । कोई किसी को नहीं मानता । तुम दिल मेें निपुण हो, हम अनाड़ी हैं । बस, वास्तव में किसान मिलकर या संगठित होकर इस मुसीबत का सामना करते तो उन्हें ये दिन न देखने पड़ते ।“
रंगभूमि उपन्यास में दो विचारधाराएं देखने को मिलती हैं । एक, जो औद्योगिकरण के पक्ष मेें है और दूसरी विपक्ष में । उद्योगपति अपने स्वार्थ के लिए नैतिक, अनैतिक का विचार नहीं करता व धनप्राप्ति के लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाता है । जानसेवक कहता है, “यह व्यापार-राज्य का युग है । यूरोप के बड़े-बड़े शक्तिशाली साम्राज्य पूंजीपतियों के इशारे पर बनते-बिगड़ते हैं । किसी गवर्नमेंट का साहस नहीं कि उनकी इच्छा का विरोध करें ।” आर्थिक लाभ के लिए वह ग्रामीणों में आपसी झगड़ा करवाने से भी नहीं चूकता । अपने लालच को वह राष्ट्रसेवा का नाम देता है – ”हमारी जाति का उद्धार कला-कौशल और उद्योग की उन्न्ाति में है । ……. जितनी ज़मीन एक आदमी अच्छी तरह जोत-बो सकता है, उसमें घर-भर का लगा रहना व्यर्थ है । मेरा कारखाना ऐसे बेकारों को रोटी कमाने का अवसर देगा ……. हमारा कत्र्तव्य है कि इस धन-प्रवाह को विदेश जाने से रोकें ।“ एक और औद्योगिकरण के विस्तार के लिए उद्योगपति साधारण जनता पर अत्याचार करने से नहीं चूकते तो दूसरी ओर सूरदास के विचार में औद्योगिकरण समाज को खोखला कर देता है, उसका चरित्र-हनन कर देता है । उसका कहना है -“मुहल्ले की रौनक ज़रूर बढ़ जाएगी, रोज़गार से लोगों को फायदा भी खूब होगा लेकिन ………. ताड़ी-शराब का प्रचार भी तो बढ़ जाएगा । …… किसान मजूरी के लालच मेें दौड़ेंगे । यहां बुरी-बुरी बातें सीखेंगे और अपने बुरे आचरण अपने गांव में फैलाएंगे ।” सत् और असत् के इस संघर्ष में सूरदास पराजित होकर भी जीतता है । उसके विरोधी भी उससे क्षमा मांगते हैं । उपन्यास में सूरदास गांधीवादी विचारधारा का प्रतिनिधि बनकर सामने आया है । वह जनता को ज़मीदार,  सामंतों, अंग्रेज़ी अधिकारियों के समक्ष आवाज़ उठाने की हिम्मत देता है और सत्याग्रह आंदोलन का पूर्ण साहस के साथ नेतृत्व करता है । वह जनता में अन्याय के विरूद्ध संघर्ष करने की नई शक्ति का संचार करता है ।
देशी रियासतों की दुर्दशा का यथार्थ चित्रण उपन्यास में किया गया है । अंग्रेज़ी सरकार के प्रतिनिधि रेजिडेंट की इच्छा के विरूद्ध एक तिनका भी नहीं हिलता । जनता की स्थिति अपराधियों से भी गई गुज़री है । उनके लिए कोई कानून नहीं है । अपराध लगाकर मनचाहा दंड दे दिया जाता है । इस अन्याय के विरूद्ध कोई अपील भी नहीं हो सकती । विनय के शब्द उसके हृदय के क्षोभ को प्रकट करते हैं – ”इतना नैतिक पतन, इतनी कायरता । यों राज्य करने से तो डूब मरना अच्छा है ।“ राजा की अकर्मण्यता की ओर संकेत करना हुआ वीरपाल कहता है -“राजा है वह काठ का उल्लू । ……. सारे दिन उन्हीं की जूतियां सीधी करेगा …….प्रजा जिए या मरे ।” घूस न देने पर साधारण जनता को दोषी मान लिया जाता है । निर्दोष होने पर भी उसे फांसी पर लटका दिया जाता है । सोफी के अपहरण के बाद समस्त प्रजा पर नृशंस अत्याचार होता है । वास्तव में रियासत के अधिकारी ही इस पक्ष में नहीं थे कि जनता में जागृति आए । डा. गांगुली अधिकारियों की मानसिकता को स्पष्ट करते हुए कहते हैं – “वहां का हाकिम लोग खुद पतित हैं । डरता है कि रियासत में स्वाधीन विचारों का प्रसार हो जाएगा तो हम प्रजा को कैसे लूटेगा ?” रंगभूमि में देशी रियासतों और अंगे्रजी सरकार के अधीन प्रांतों की राजनीतिक स्थिति का यथार्थ चित्रण किया गया है । विधानसभाओं की अकर्मण्यता, नगरपालिकाओं की कायरता और दब्बूपन, न्यायालयों द्वारा किए जाने वाले अन्याय, पुलिस के अत्याचार का यथार्थ-रूप उभरकर आया है । नगरपालिका के अध्यक्ष राजा महेन्द्रकुमार में स्वाभिमान लेशमात्र भी नहीं है । वे शासकवर्ग के चाटुकार बन उसे प्रसन्न करने में लगे रहते हैं । उनकी असहाय स्थिति उनके कथन से स्पष्ट होती है -”रईसों को इतनी स्वतन्त्रता भी नहीं जो एक साधारण किसान को है । हम सब इनके हाथों के खिलौने हैं जब चाहें, जमीन पर पटककर चूर-चूर कर दें ।“ मिस्टर कलार्क का कटाक्ष नगरपालिका के सदस्यों की कायरता और दब्बूपन को उजागर कर देता है -”वह जो कुछ करते हैं हमारा रूख देखकर करते हैं ……..उनमें यह विशेष गुण है कि वह हमारे प्रस्तावों का रूपान्तर करके अपना काम बना लेते हैं और उन्हें जनता के सामने ऐसी चतुरता से उपस्थित करते हैं कि लोगों की दृष्टि मेें उनका सम्मान बढ़ जाता है ।“ प्रेमचंद के अनुसार गांवों की दुर्दशा के लिए केवल पूंजीवाद ही नहीं अपितु सामंतवाद भी दोषी हैं । अपने आर्थिक लाभ के लिए ये श्रमिकों को भूखों मारने से भी परहेज़ नहीं करते ।
रंगभूमि में युगीन ग्रामीण जीवन का एक यथार्थ चित्र प्रस्तुत किया गया है । विशेष बात यह है कि इसमें समस्याओं का केवल चित्रणमात्र ही नहीं है बल्कि उस जन-जागरण की ओर भी संकेत किया गया है जिसकी चिंगारी देशी रियासतों और अंग्रेज़ शासित प्रांतों में सुगबुगाने लगी थी । शोषित जनता अन्याय का विरोध करने लगी थी और बाहरी लोग भी जागृति का बीड़ा उठाकर सुधार-कार्य करने लगे थे । विनय और स्वयसेवक मंडली जनता में चेतना जाग्रत कर उन्हें संगठित करने के प्रयास कर रहे थे । ”इस प्रांत के लोग अब वन्य-जंतुओं को भगाने के लिए पुलिस के यहां नहीं दौड़े जाते, स्वयं संगठित होकर उन्हें भगाते हैं, ज़रा-ज़रा सी बात पर अदालत के द्वार नहीं खटकाने जाते, पंचायतों में समझौता कर लेते हैं, जहां कभी कुएं न थे, वहां अब पक्के कुएं तैयार हो गए हैं, सफाई की ओर भी लोग ध्यान देते हैं ………सामूहिक जीवन का पुनरूद्वार होने लगा है ।“ एक ओर त्याग और संयम का व्रत लेने वाला विनय समाज-सुधार में जुटा है तो दूसरी ओर वीरपालसिंह हिंसा के मार्ग पर चलता हुआ प्रजा को जाग्रत करने का प्रयास करता है ।
रंगभूमि में गांधीवादी विचारधारा को प्रस्तुत किया गया है । कृषकवर्ग औद्योगिकरण के कारण गांव से पलायन कर शहर की ओर जाने लगता है । विनय और सोफिया के माध्यम से दो अलग-अलग धर्मों के व्यक्तियों में विवाह संबंध की स्थापना द्वारा सर्वधर्म समभाव की ओर संकेत किया गया है । उपन्यास में अलग-अलग धर्मों में लोगांे के जीवन को चित्रित किया गया है । सूरदास के अतिरिक्त पांच और परिवारों की कथा भी जुड़ी है । कुंवर भरतसिंह और रानी जाह्नवी, राजा महेन्द्रसिंह और रानी इन्दु, जानसेवक और मिसेज जानसेवक, ताहिरअली और कुल्लूम, भैरों और सुभागी पूंजीवादी और सामन्ती व्यवस्था के चलते राजनीतिक हलचल, पूंजीपतियों की चालबाज़ियां, सामन्तों के अत्याचार, सत्याग्रह आंदोलन – सभी का वर्णन हुआ है । सूरदास अत्याचार के विरू़द्ध जागृति फैलाता है । प्रेमचंद सूरदास के माध्यम से जीवन का आदर्श हमारे सम्मुख रखते हैं । सूरदास के अनुसार जीवन एक खेल है जिसे हम खेल की तरह नहीं खेलते । हारजीत की चिंता हमें सताती रहती है । जीतने पर हम गर्व से फूल जाते हैं और हार जाने पर रोते हैं । ”खेलना तो इस तरह चाहिए कि निगाह जीत पर रहे, हार से घबराएं नही ।“
सूरदास के माध्यम से व्यक्त लेखक का जीवन-दर्शन सार्वभौम जीवन-दर्शन बन गया है । सामयिक परिस्थितियों का सजीव चित्रण करने वाला, जनजागृति का संदेश देने वाला वह उपन्यास निरंतर संघर्ष की प्रेरणा देता है और उस संघर्ष में हार-जीत की चिंता किए बिना कर्तव्य निभाने की प्रेरणा देता है ।

डॉ. सुनीता
श्यामलाल काॅलेज (सांध्य)
दिल्ली विश्वविद्यालय

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