शानी एक ऐसे कथाकार हैं जिन्होंने अपने कथा साहित्य के माध्यम से मुस्लिम वर्ग को चित्रित किया है। यह वर्ग अब तक हिंदी साहित्य में अनछुआ था। भारत-पाक विभाजन एक ऐसी घटना है जिसने देशों को न सिर्फ राजनीतिक स्तर पर अपितु लोगो को मूल्यों, आदर्शों, प्रेम यहाँ तक की मानवीयता के स्तर पर भी बाँट दिया। ऐसे में भारत में रहते हुए अल्पसंख्यक वर्ग की चेतना को अभिव्यक्ति देना एक चुनौतीपूर्ण कार्य था। राष्ट्रीय, धार्मिक, सांस्कृतिक, समस्याओं ने शानी को सोचने पर बाध्य कर दिया कि विभाजन की त्रासदी की पीड़ा आम मुस्लिम आदमी को ही क्यों भुगतनी पड़ती है? उसकी अस्मिता, राष्ट्रीयता, मूल्यों, संवेदनाओं को ही क्यों कटघरे में खड़ा कर दिया जाता है?
शानी मध्यवर्गीय मुस्लिम परिवार से जुड़े कथाकार हैं। अपने परिवेश को अपनी कहानियों के माध्यम से उजागर करना ही उनका ध्येय है। शानी ने अपनी कहानियों जैसे- जनाज़ा, एक कमरे का घर, एक नाव का यात्री आदि में सामाजिक जीवन के कटु यथार्थ को बेबाक ढंग से प्रस्तुत किया है। विभाजन के पश्चात भारतीय समाज में व्याप्त अंतर्विरोधों, तकलीफ़ों, यातनाओं, विडंबनाओं, विसंगतियों को शानी ने अपने पात्रों और परिवेश के माध्यम से अभिव्यक्त किया है। मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जिसमें जिजीविषा है और स्वयं को जिलाए रखने के लिए मनुष्य निरंतर विषम परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए आगे बढ़ता है। संघर्ष की यही पीड़ा शानी के साहित्य में दृष्टव्य है। रिज़वी कहानी का ऐसा पात्र है जो मज़हब के कारण उत्पन्न अलगाव से ग्रस्त है और वह सोचने के लिए बाध्य है कि महत्वपूर्ण क्या है मनुष्य या धर्म? शानी अपनी कहानियों में इन्हीं प्रश्नों को ढूँढने का प्रयास करते हैं। वे उन परिस्थितियों को उजागर करते हैं जो मनुष्य की मनुष्यता, स्वतंत्रता अधिकारों, कर्तव्यों को लील रही है और मनुष्य कुछ भी कर पाने में असमर्थ है।
प्रस्तुत आलेख में विश्लेषणात्मक, वर्णनात्मक पद्धति का प्रयोग किया है। शोध कार्य के लिए द्वितीयक आँकड़ो का प्रयोग किया गया है। आलेख के लिए पत्र- पत्रिकाओं, पुस्तकों, शोध-प्रबंधों को आधार बनाया गया है।
गुलशेर खाँ शानी हिंदी के आधुनिक साहित्यकारों में प्रतिष्ठित लेखक हैं जिन्होंने विभाजन के पश्चात भारतीय समाज में व्याप्त भय,अंतर्विरोधों,तकलीफों,आंतरिक यातनाओं,विसंगतियों को अपने साहित्य के माध्यम से अभिव्यक्त किया है। शानी ने अपनी रचनाकारिता के लिए ज्यादातर कथानक मुस्लिम वर्ग से लिए हैं और उसका अत्यंत सजीव चित्रण व्यापक फलक पर अपने साहित्य के माध्यम से किया है। उनके अनुसारः- “सच्ची रचनाकारिता के लिए कथानक ज्यादातर अपने आसपास और अपने ही वर्ग से देखे जाने चाहिए। वैसे भी इस बात की जरूत आज पहले से ज्यादा है,…..व्यक्तिगत रूप से जहाँ तक मैं समझता हूँ अपने सारे आधुनिकीकरण के बावजूद इसमें बहुत कुछ ऐसा बचा रह जाता है जो घर,समाज,धर्म और इतिहास हमें विरासत में सौंपकर चुपचाप आगे बढ़ जाते हैं और जिनकी जड़ों की गहराई का कई बार हमें पता ही नहीं चलता।”
भारत एक प्रजातांत्रिक गणराज्य है।मुसलमानों का भारतीय जीवन में बहुत महत्व है।इसे झुठलाया नहीं जा सकता क्योंकि मुसलमानों के कारण ही धर्म, दर्शन, साहित्य और कला के क्षेत्र में अभूतपूर्व क्रान्ति हुई है। मुस्लिम और भारतीय संस्कृति के समन्वय के परिणामस्वरूप ही हिंदी साहित्य में भक्ति आंदोलन हुआ। हिंदी साहित्य के इतिहास के आदिकाल से ही अनेक मुसलमान कवियों और साहित्यकारों जैसे अमीर खुसरो,चंदायन,जायसी आदि ने हिंदी भाषा और साहित्य की समृद्धि और अभिवृद्धि में अपना विशेष योगदान दिया है।
स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व भारतीय इतिहास की पृष्ठभूमि में मुस्लिम जीवन और संस्कृति के अनेक पहलू हिंदी कहानी में देखने योग्य हैं जहाँ हिन्दू और मुसलमानों में परस्पर प्रेम,सौहार्द,भाईचारा था। दोनों का उद्देश्य अंग्रेजों से अपने मुल्क को आज़ाद कराना एवं शांति,प्रेम की स्थापना करना था। किन्तु बदलती हुई परिस्थितियों और देश विभाजन की घटना ने भारतीय मुसलमानों के लिए एक अजीब परिस्थिति उत्पन्न कर दी । भारत-पाक विभाजन ने न सिर्फ दोनों देशों के मध्य तनाव और युद्ध की स्थितियाँ उत्पन्न की अपितु दोनों देशों की अस्मिता पर भी प्रश्न चिन्ह लगाया। विभाजन के पश्चात दोनों देशों के लोग एक दूसरे को संशय व संदेह की दृष्टि से देखने लगे जो कि मानवीय धरातल पर एक बहुत बड़ी विडंबनापूर्ण स्थिति है। शानी ने मुसलमानों की आंतरिक स्थिति की ओर संकेत करते हुए लिखा है-“युद्ध छिड़ते ही शहर के मुसलमानों में जो आतंक और भय समा गया था उसका आभास दफ्तरों में पा लेना सबसे ज्यादा आसान था।दो एक दिन हर क्षण यह लगता रहता था कि अब कोई दंगा हुआ अब कोई फसाद हुआ। दरअसल आम मुसलमान झाड़ियों में दुबके खरगोश की तरह अजीब सकते में डरा हुआ और चैकस हो गया था।” इसी विसंगति को ‘मैला आँचल’ में रेणु जी इस प्रकार दिखाते हैं- “हम एक ऐसे मुल्क में रहते हैं,जिसमें हमारी हैसियत दाल में नमक से ज्यादा नहीं हैं! एक बार अंग्रेजों का साया हटा हिन्दू हमें खा जाएँगे।” भारत-पाक के विभाजन में आम व्यक्ति की स्थिति नगण्य थी ,यह कार्य तो राजनीतिज्ञों ने अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए किए।
आधुनिक भारतीय समाज में इस समस्या को देखा जा सकता है कि यदि कहीं भी कोई दुर्घटना,आतंकवादी विस्फोट की घटना होती है तो संशय के दायरे में मुसलमान ही आते हैं चाहे उस घटना में मुसलमान शामिल हो या नहीं।इस संशय और संदेह का आधार पूर्वाग्रह और वर्णगत संस्कार हैं जिससे कुछ व्यक्ति विशेष के कारण हर्जाना सभी व्यक्तियों को चुकाना पड़ता है। इसमें उन दयनीय, साधारण व्यक्तियों की क्या गलती हैं जो धर्म के नाम पर प्रताड़ित हो रहे हैं और वो चाह कर भी इस प्रताड़ना का विरोध कर पाने मे अक्षम हैं। “रिज़वी से वह काम छीन लिया गया है जो वह बरसों से करता आ रहा है। डायरेक्टर ने कहा कि हालत को देखते हुए ऐसा बड़ा काम रिज़वी पर छोड़ना ठीक नहीं ! सारे देश का मामला है।”
युद्ध चाहे देश के नाम पर हो या जाति, लिंग, धर्म के नाम पर,युद्ध की विभीषिका प्रारंभ से ही मानवता के विरुद्ध रही है। युद्ध का सबसे अधिक प्रभाव मध्यवर्ग पर पड़ता है उसे ही युद्धोपरांत समाज, राजनीति, धर्म आदि में व्याप्त असंगतियों, विद्रूपताओं को झेलना पड़ता है। यह मध्यवर्ग की त्रासदी है कि वह इन प्रभावों, समस्याओं, को झेलने के लिए अभिशप्त है। शानी के शब्दों में-“जिन हालत में मैं पला बढ़ा था उसमें लेखक होने के अलावा मेरे निस्तार का कोई और रास्ता ही नहीं था। मैं कीचड़ पर बैठा हुआ कालीन के सपने देखता था……और जब वे टूटते थे तो उन तकलीफ़ों से निजात की सूरत तलाश किया करता था- कहानियों में।” इस कहानी में प्रगतिशील कहलाने वाले भारतीय समाज की वास्तविकता को उद्घाटित किया गया है जिसमें आज भी मज़हब के नाम पर इंसान द्वारा इंसानियत का नाश किया जा रहा है। मज़हब तो व्यक्ति को परस्पर प्रेम,सद्भावना, समानता, बंधुता का पाठ पढ़ाता है किन्तु यहाँ मज़हब के नाम पर ही रिज़वी को शांति से रहने नहीं दिया जा रहा है उसकी अस्मिता, भावनाओं,संवेदनाओं,मूल्यों को कुचला जा रहा है। उसे उसकी अस्मिता का हनन करने वाले शब्दों से पुकारा जा रहा है-“सन्न सकता पल भर का जिसे तोड़ते हुए अँधेरे में से एक आवाज़ आई ,मार साले जासूस को! जासूस !जासूस !”
हिंसा एक दुष्प्रवृत्ति है जिसके परिणाम संभवत: मानवीय जीवन के प्रतिकूल होते हैं। हिंसा के कारण ही कितने देश, घर, परिवार नष्ट हो जाते हैं किन्तु न जाने यह हिंसा किस तरह समाप्त होगी । इस कहानी में व्याप्त हिंसा से सभी विचलित है साथ ही एक छोटा बच्चा अप्पू जिसे अभी तक युद्ध ,वैमनस्य, जातिगत, धर्मगत भेदभाव का अर्थ भी नहीं पता वह भी प्रश्न करता है -“यह लड़ाई कब बंद होगी?”
यह प्रश्न आज हर मनुष्य के मानस में है क्योंकि जो धर्म व्यक्ति को परस्पर प्रेम,सद्भावना, एकता, समानता, बंधुता का पाठ पढ़ाता है उसी धर्म को ढाल बनाकर कुछ अवसरवादी लोग अपना स्वार्थसिद्ध करते हैं। अपने स्वार्थ के महापोश में वे इस कद्र खो जाते हैं कि यह तक भूल जाते हैं कि देश में निरंतर धर्म ,जातिगत संप्रदायों को लेकर युद्ध करते रहने से युवा और बालमन पर क्या प्रभाव पढ़ेगा। शानी इसी प्रभाव को अप्पू के माध्यम से उजागर करते हैं। अप्पू द्वारा पूछा गया प्रश्न वास्तव में लेखक और साधारण जन का है जो युद्ध की विभीषिका से तंग आ चुके हैं और अब वे देश में सिर्फ और सिर्फ अमन चाहते हैं।
डॉ॰विशनलाल गौड़ के अनुसार-‘‘शानी की रचनाएँ किसी मज़हबी जज़बात को नहीं आदमियत को कुरेदती हैं।’’ शानी की कहानी में कराह,टीस,पीड़ा जगह-जगह अभिव्यक्त हुई है,किन्तु यह अभिव्यक्ति कुंठा की नहीं,आत्मिक पीड़ा की है। यह पीड़ा शानी जी की चेतना को झकझोरती है। यह उनकी मानवीयता उनकी आदमियत है। उनकी आदमियत की तलाश के एहसास को निरीह और बाल चेतना के सवाल में भी महसूस किया जा सकता है-“पापा हम हिन्दू हैं या मुसलमान।”
शानी की कहानियों में अनुभव की प्रामाणिकता है और यह प्रामाणिकता उनकी कहानी के पोर-पोर में महसूस की जा सकती है। उनका पाठक अभिव्यक्ति पा रही ज़िंदगी के साथ लगाव महसूस करता है क्योंकि उसमें एक ऐसे जीवन का चित्रण है जिसे अनेक विसंगतियों,कुंठाओं,आतंक,भय के बावजूद भी जिया जा रहा है।“जिस ज़िंदगी को उन्होंने निकट से देखा है,जिसके दुखों को उन्होंने जाना है उसे अपने साहित्य में क्योंकर स्थान न दें…..मुसलमान होने के नाते अपने सामाजिक जीवन में उन्हें जिस अपमान तथा विद्वेष का शिकार होना पड़ा है, उसे वे अपनी रचनाओं में क्यों ना उठाएँ?’’ उन्होंने हिंदी साहित्य में व्याप्त बहुत बड़ी रिक्तता को खत्म कर दिया है जो हिंदी साहित्य में मुस्लिम जीवन के चित्रण न होने से बनी हुई थी । उन्होंने मुस्लिम समुदाय के जीवन के यथार्थ को अभिव्यक्ति दी है।
शानी व्यक्ति अस्मिता को महत्व देते हैं,किन्तु भारतीय समाज में मुसलमानों की दशा इतनी शोचनीय है कि उन्हें अपनी अस्मिता बनाए रखने व राष्ट्रीयता को दर्शाने के लिए बोर्ड भी लटकाना पडता है। उन्हें राष्ट्रीयता की अपीलें निकालनी पड़ती हैं और उन पर दस्तख़त भी करने पड़ते हैं। रिज़वी एक ऐसी ही अपील पर दस्तख़त करने से मना कर देता है क्योंकि वह अपनी अस्मिता पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगाना चाहता। वह अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना चाहता है अतः-“उसने साफ कहा था- मैं क्या बेईमान हूँ जो ईमानदारी का सबूत पेश करता फिरूँ?”
संदर्भ ग्रंथ सूची
- शानी- मेरी प्रिय कहानियाँ,राजपाल एंड संस,संस्करण 1976,पृष्ठ-9
- वही पृष्ठ-100
- फणीश्वरनाथ ‘रेणु’-मैला आँचल,वाणी प्रकाशन,पृष्ठ-260
- वही पृष्ठ-100
- वही पृष्ठ-5
- वही पृष्ठ-105
- वही पृष्ठ-109
- जानकीप्रसाद शर्मा शानी : आदमी और अदीब, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, संस्करण 1996, पृष्ठ-91
- शानी-मेरी प्रिय कहानियाँ,पृष्ठ-102
- वही पृष्ठ,105
- वीरेंद्र यादव-उपन्यास और वर्चस्व की सत्ता, राजकमल प्रकाशन,संस्करण 2009
शिखा
हिंदी विभाग
दिल्ली विश्वविद्यालय