हिंदी साहित्याकाश में जाज्वल्यमान नक्षत्र के रूप में स्थापित भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपनी रचनाधर्मिता के प्रकाश से हिंदी साहित्य के आधुनिक काल को आलोकित कर दिया था। भारतेंदु पूर्व कविता राज दरबार और उसके वंशकों तक केंद्रित थी, किंतु भारतेंदु ने कविता को जन-साधारण तक पहुँचाया। यद्यपि यह तथ्य सही लगता है कि पूर्व की परंपरा को एक झटके में न तो तोड़ा जा सकता है, न वर्तमान को अनायास ही शब्दों में पिरोया जा सकता है। यही कारण है कि भारतेंदु का हृदय प्राचीन के मोहपाश में थोड़ा जकड़ा रहा, लेकिन उनका मस्तिष्क नवीन के प्रति उन्मुख भी होता रहा। उनका काव्य-संसार अत्यंत विस्तृत है। शृंगार और भक्ति विषयक कविताओं के साथ-साथ उन्होंने राष्ट्र भक्तिपूर्ण कविताओं की भी रचना की है। वस्तुतः भारतेंदु युग धर्म के अनुरूप लोक धर्म को अपनाना चाहते थे। उनके काव्य में जहाँ पुरातनता और नूतनता का समन्वय है, वहाँ नूतनता का पुरातनता के प्रति विद्रोह भी है। वे निःसंदेह भारतीय संस्कृति के पुजारी थे; पर समकालीन रूढ़िग्रस्त संस्कृति को उखाड़ फेंकने के लिए कटिबद्ध भी थे। उनके ‘अपधर्म छूटै स्वत्वनिज भारत गहै दुख दल बहै’ – जैसे भरत-वाक्यों से ध्वनि भी यही निकलती है कि वे पतनोन्मुख भारत में क्रांति देखना चाहते थे। संभवतः इसीलिए वे बार-बार देशवासियों को ललकारते हैं, झकझोरते हैं-

          ‘‘हाय यहै भारत भुवि भारी। सबही विधि सों अहै दुखरी।

          हाय पंचनद हा पानीपत। अजहुँ रहे तुम धरनि विराजत।

          रे चित्तौर निलज तू भारी। अजहुँ रह्यो भारतहिं मँझारी।

          तुम में जल नहिं जमुना गंगा। बढ़हु बेगि किन तरल तरंगा।

          बोरहु झट तुम मथुरा कासी। धोवहु यह कलंक की रासी।।’’

          भारतेंदु की कविता में राजभक्ति और देशभक्ति का समन्वय अनेक स्थलों पर दिखाई देता है, किंतु राजभक्ति के आवरण में लिपटा हुआ देशभक्ति का स्वर उनकी वाणी का प्राण तत्व है। राजभक्ति को आलंबन बनाकर राष्ट्रीयता या देशभक्ति के उज्ज्वल भाव को संचारित करना ही उनका लक्ष्य था। लार्ड रिपन की स्तुति में ‘रिपनाष्टक’, अफगान विजय पर ‘विजय वल्लरी’ तथा मिस्र विजय पर ‘विजयिनी विजय वैजयंती’ आदि कविताओं में राजभक्ति तो दिखाई देती है; पर साथ ही कवि की लेखनी से देशभक्ति का भाव भी प्रस्फुटित होता हुआ स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। कवि ने अफगान और मिस्र की विजय पर खुशियाँ मनाने का उल्लेख किया है तो वहीं भारतवासियों के भाग्य में लिखे दुःख एवं वेदना के मूल दर्द का भी मार्मिक चित्रण उनके काव्य में वाणी पाता हुआ दिखाई देता है –

          ‘‘कहा भूमि कर उठि गयौँ, केँ टिक्कस की माफ।

          जन साधारण को भयों, किधौं सिविल पथ साफ।।

          नाटक अरु उपदेश पुनि समाचार के पत्र।

          कारामुक्त भए कहा, जो आनंद अति अत्र।।

          सुजग मिलै अंगरेज को होय रूस की रोक।

          बढ़े बृटिश वाणिज्य पै हम को केवल सोक।।’’1

          इन पंक्तियों से स्पष्ट हो रहा है कि भारतीय जनता अनेक प्रकार के करों से संत्रस्त थी। यश, सुख, समृद्धि, व्यापार – ये सब तो केवल अंग्रेजों के लिए थे। यदि सच कहा जाए तो हिंदी काव्य में राष्ट्रीय भावना का सूत्रपात उसी दिन हुआ, जिस दिन भारतेंदु हरिश्चंद्र ने भारतीय जनता को संबोधित करते हुए लिखा था –

          ‘‘रोबहु सब मिलिकै आवहु भारत भाइ।

          हा हा भारत दुर्दशा न देखी जाई।’’

          कवि का यह रुदन संपूर्ण मानव जाति का करुण-क्रंदन था। जब उसे भारत के गौरवपूर्ण अतीत का समरण होता है, तब उसका कोमल हृदय पूर्णतः आहत हो जाता है, वह चीत्कार कर उठता है –

          ‘‘जहँ भए शाक्य हरिचंदरु नहषु ययाती।

          जहँ राम युधिष्ठिर वासुदेव सर्माती।।

          जहँ भीम करन अर्जुन की छटा दिखाती।

          तहँ रही मूढ़ता कलह अविद्या राती।।

          अब जहँ देखहु तहँ दुःखहिं दुःख दिखाई।।

          हा हा भारत दुर्दशा न देखी जाई।।’’

          अतीत के दर्पण में समाज और राष्ट्र के वर्तमान को सँवारने का भाव भारतेंदु के काव्य का प्राण तत्व है। इसी अभिव्यंजना शक्ति के द्वारा उन्होंने अपनी कविता में देशभक्ति, लोकहित, समाज सुधार, धर्म सुधार आदि उद्दात भावनाओं का समावेश किया है। उन्होंने लिखा भी है इस भारत में जब तक आर्यों का रुधिर रहा कोई भी इसका बाल बाँका नहीं कर सका। भारत की यश कीर्ति संपूर्ण विश्व में व्याप्त थी। सभी कलाओं में यहाँ के निवासी प्रवीण थे। संभवतः इसीलिए भारत भूमि को जगत जननी के रूप में गौरव प्रदान किया जाता था। इतने महान राष्ट्र की वर्तमान दुर्दशा को देखकर भारतेंदु का हृदय चीत्कार कर उठता है –

          ‘‘रह्यो रूधिर जब भारत सीसा, ज्वलित अनल समान अवनीसा।

          साइस बल इन सम कोउ नाहीं, जबै रह्यौ महि मंडल माँही।।

          जब मोहि ये कहि जननि पुकारें, दसहूँ दिसि धुनि गरज न पारै।

          तब मैं रही जगत की माता, अब मेरी जग में कह वाता।।’’2

          भारतेंदु ने एक ओर कहा है ‘अंगरेज राज सुख साज सजे सब भारी’, तो दूसरी ओर वह यह भी निडर होकर कह देते हैं – ‘पै धन बिदेस चलि जात इहै अति ख्वारी’। भारतेंदु ने अंग्रेजों की चाल को पहचाना था। भारतीय जनता को आर्थिक क्षति से अवगत कराना, उन्होंने अपना दायित्व समझा। अपने देश का सब कुछ लुट जाने पर उन्हें अत्यधिक खेद है, इसीलिए उन्होंने अपनी कविताओं के द्वारा जनमानस में स्फूर्ति लाने का सफल प्रयास किया है-

          ‘‘चलहु वीर उठि तुरत सबै जय ध्वजहि उड़ाओ।

          लेहु म्यान सों खंग खींचि रन रंग जमाओ।।

          जिन बिनही अपराध अनेकन कुल संहारे।

          दूत पादरी वनिक आदि बिन दोसहिं मारे।।

          प्रथम जुद्ध परिहार कियो विश्वास दिखाई।

          पुनि धोखा दे एकाएकी करी लड़ाई।।

          इनको तुरतहि हतौ मिलै इनके घर माहीं।

          इन छलियन सों पाप किए हूँ पुन्य सदाहीं।।’’3

          भारतेंदु ने भारत के गाँव में रहने वाले दुःखी किसानों की ओर भी करुण दृष्टि से देखा था। वे अंग्रेज शासकों की नस-नस से परिचित थे। वे मुकरियों में छोटे-छोटे दृश्यों का चित्र अंकित करके अंग्रेज राज पर तीक्ष्ण प्रहार भी करते थे। नए जमाने की मुकरी में उन्होंने लिखा है-

          ‘‘भीतर भीतर सब रस चूसै।

          हँसि हँसि के तन मन धन मूसै।

          जाहिर बातन में अति तेज।

          क्यों सखि सज्जन नहिं अंगरेज।।’’4

          भारतेंदु हरिश्चंद्र ने सरकारी निरंकुशता का समय-समय पर खुलकर विरोध किया है। लेकिन इसका अभिप्राय कदापि यह नहीं कि भारतवासियों के अवगुणों को उन्होंने अनदेखा कर दिया हो। जब वे सरकारी दुव्र्यवस्था, अनीतियों पर जम कर कटु प्रहार करते हैं तब अपने देशवासियों के आलसीपन, निरुदयमता, कलहप्रियता मिथ्या आडंबरों पर भी करारा कटाक्ष करते हैं, उनकी आत्मा को अंदर तक झकझोर देते हैं। यही सच्चे राष्ट्र भक्त कवि का कत्र्तव्य भी है। भारतेंदु जी ने जिस राष्ट्रीय चेतना के बीज अपनी कविता में बोए हैं, उसी का अवलंब लेकर आधुनिक युग के परवर्ती कवियों ने राष्ट्र उत्थान से ओत-प्रोत भावपूर्ण कविताओं की रचना की है। भारतेंदु की ‘राष्ट्रीयता’ का मूलाधार हिंदी भाषा की उन्नति पर व्याख्यान है। उन्होंने स्पष्ट कहा है –

          ‘‘निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल।

          बिन निज भाषा ज्ञान के मिटत न हिय को सूल।।’’

          राष्ट्र भक्ति का इससे बड़ा प्रमाण और क्या होगा? अंग्रेजों के शासन काल में अपने राष्ट्र की भाषा की उन्नति का मूल मंत्र जनसाधारण तक पहुँचाने का साहस भारतेंदु जैसे देशभक्त, निडर, महान व्यक्तित्व का ही कार्य हो सकता था। डाॅ. लक्ष्मीसागर वाष्र्णेय ने लिखा भी है – ‘‘जब तब यह व्याख्यान व्यावहारिक रूप से परिणत नहीं होगा, तब तक देश की प्रगति भी न हो सकेगी, क्योंकि भाषा ही सभी प्रकार की उन्नति का मूल है।’’5

          भारतेंदु के काव्य की अन्य महत्वपूर्ण विशेषता उनकी भक्ति भावना है। रीतिकालीन कवियों की भाँति उनकी कविता ‘राधिका कन्हाई सुमिरन को बहानो’ नहीं थी। वे वल्लभ संप्रदाय में दीक्षित कृष्ण भक्त कवि थे। वैषण भक्त अपने आराध्य की कृपा के बल पर ही अपने उद्धार की प्रतिदिन कामना करता है। वह अपने को पतित तथा ईश्वर को पतित पावन मानता है। इसी बात का वर्णन भारतेंदु ने इस प्रकार किया है –

          ‘‘जगत जाल में नित बँध्यौ, पर्यो नारि के फंद।

          मिथ्या अभिमानी पतित, झूठो कवि हरिचंद।।’’6

          भक्त को अपने ईष्ट पर पूर्ण विश्वास, आस्था एवं आशा होती है, इसीलिए अपने उद्धार, तरनतारण के लिए वह आधिकारिक रूप से प्रार्थना करता है।

          ‘‘जनन सों कबहूँ नाहिं चली।

          सदा सर्वदा हारत आए जानत भाँति भली।

          कहा कियो तुम बलि राजा सों चतुराई न चली।

          ग                  ग                  ग                  ग

          हमसों हूँ हारत ही बनिहै कबहुँ न जहो जीति।

          तासों तारौ ‘हरिचंद्र’ को मानि पुरानी प्रीति।।’’7

          भारतेंदु जी की कृष्णभक्ति में दैन्य और सख्य भाव के साथ दांपत्य भाव का विरहोन्माद विविध प्रकार भी व्याप्त है। इस विरहोन्माद को भगवत् प्राप्ति का प्रथम सोपान भी माना गया है। ईश्वर के गुण अनंत हैं तो जीव के अवगुण अनंत हैं। दुःख से आकुल भक्त ईश्वर से पूजा-अर्चना करता है। कभी वह अपने स्वाभाविक विरुद का स्मरण दिलाता है, तो कभी पौराणिक गाथाओं का उल्लेख करके ईश्वर की कृपा दृष्टि की याचना करता है। वल्लभ संप्रदाय के अनुयायियों का विश्वास है कि दुःख से व्याकुल भक्त को देखकर भगवान द्रवीभूत हो जाते हैं तथा उसे दर्शन प्रदान करते हैं। भारतेंदु वल्लभ संप्रदाय एवं वल्लभ कुल में पूर्ण आस्था रखते थे। तभी उन्होंने कहा भी है ‘‘हम तो श्री वल्ल्भ ही कौ जाने। सेवन वल्लभ-पद-पंकज को वल्लभ ही को ध्यानै।’’ अन्य कई स्थलों पर भारतेंदु जी के राधा-कृष्ण की युगल मूर्ति के उपासक होने के संकेत भी सरलता से देखे जा सकते हैं। उनका विश्वास है कि राधाकृष्ण ब्रजभूमि में नित्य विहार करते हैं, इसीलिए वे स्वयं ब्रजवास की कामना करते हुए कहते हैं-

          ‘‘ब्रज के लता पता मोहि कीजै।

          गोपी-पद-पंकज पावन की राज जा मैं सिर भीजै।।

          आवत जात कुँज की गलियन रूप-सुधा नित पीजै।

          श्री राधे राधे मुख यह वर हरीचंद की दीजै।।’’9

          भारतेंदु तत्कालीन भारतीय समाज की परिस्थितियों से पूर्ण रूप से परिचित थे। वह जानते थे कि उस समय जन समूह को आपस में बाँधे रखना और उनकी ऊर्जा को सही दिशा में प्रेरित करना कितना महत्वपूर्ण है। संभवतः इसीलिए सब धर्मों के प्रति उदार एवं व्यापक दृष्टि उनकी रचनाओं में देखने को मिलती है। गोपाल कृष्ण के अनन्य भक्त होते हुए भी उन्होंने शील, शक्ति और सौंदर्य के अधिष्ठाता मर्यादा पुरुषोत्तम के प्रति अपनी श्रद्धा को व्यक्त करते हुए ‘श्री सीता राम स्तोत्र’ और ‘श्री रामलीला’ नामक दो रचनाओं को प्रस्तुत किया है। वे सर्वधर्म समभाव की दृष्टि को अपनाकर आगे बढ़े। कर्म को अपना परम धर्म मानने वाले कवि भारतेंदु ने धार्मिक असहिष्णुता, मत-मतांतरों के संघर्ष से पूर्णतः विरक्त रहकर स्पष्ट किया कि अपना रंगीन चश्मा फेंक कर पूर्वाग्रह शून्य सफेद चश्मे से देखने पर हमें सभी धर्मों में समभाव दिखाई देगा-

          ‘‘लगाओ चसमा सबै सफेद

          तब सब ज्यों को त्यों सूझैगौ जैसो जाको भेद।।

          ग                  ग                  ग                  ग

          आग्रह छोड़ि सबै मिलि खोजहु सब वह रूप लखहै।

          ‘हरिचंद’ जो भेद भूलिहैं सोई पिय को पैहे।।’’10

          इसके अतिरिक्त भारतेंदु ने जैन धर्म को भी हिंदू धर्म का अभिन्न अंग माना। उनका दृढ़ विश्वास था कि ईश्वर ने ही दया भाव को बढ़ाने तथा समस्त मानव जाति के भीतर करुणा, संतोष, सत्य आदि को पोषित करने के लिए जैने धर्म प्रकट किया है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि वे ‘उदार चरितानान्तु वसुधैव कुटुम्बकम्’ की उद्दात भावना के समर्थक थे। उनकी धार्मिक भावना भारत की प्राचीन संस्कृति से पूर्णतः ओत-प्रोत थी। उदारमना भारतेंदु हरिश्चंद ने समस्त विश्व को पूर्वाग्रह छोड़कर मानव कल्याण की राह दिखाने का अभूतपूर्व कार्य किया था।

          हिंदी साहित्य के इतिहास में चाहे आदिकाल को लें या भक्तिकाल को, रीतिकाल को लें या आधुनिक काव्य को; सभी में रसराज शृंगार का अत्यंत व्यापक, आकर्षक एवं मनोहरी चित्रण हुआ है। शृंगार रस के स्थायी भाव प्रेम या रति से न केवल हिंदी साहित्य सुसज्जित है, वरन् विश्व की सभी भाषाओं के वाङ्मय में रसराज शृंगार की छटा अपना सौंदर्य बिखेर रही है। ब्रजरत्नदास जी ने अपनी रचना भारतेंदु हरिश्चंद्र में लिखा है, ‘‘यही प्रेम दो हृदयों को एक कर देता है और इसी प्रेम के कारण संसार की सभी वस्तुओं का आदर होता है, और अंत में इसी प्रेम के सहारे जीव ईश्वर में लीन हो जाते हैं।’’11 भारतेंदु के समय से पहले हिंदी साहित्य का रीतिकाल अपने चरमोत्कर्ष पर स्थापित था। विद्वानों ने तो रीतिकाल को शृंगारकाल कहकर भी अपने मत व्यक्त किए हैं। रीतिकाल के लगभग संपूर्ण साहित्य में नायिका भेद, नख-शिख वर्णन, संयोग-वियोग के विविध पक्षों का सौंदर्य प्रभावशाली रूप में गया हुआ है। ऐसे में भारतेंदु जैसे प्रतिभाशाली कवि का इस महत्वपूर्ण रस के वर्णन से पूर्णतः विरक्त रहना संभव नहीं था। उन्होंने शृंगार के दोनों पक्षों के हृदयस्पर्शी चित्रों पर अपनी लेखनी चलाई है। प्रेम माधुरी, श्रीचंद्रावली, प्रेम मलिका एवं वर्षा विनोद में शृंगारिक रचनाओं का बाहुल्य सरलता से देखा जा सकता है। उदाहरण के तौर पर प्रेम माधुरी के निम्न छंद में मुग्धा नायिका का आकर्षक चित्र दृष्टव्य है –

          ‘‘सिसुताई अजौं न गई तन तें तऊ जोवन जोति बटोरै लगी।

          सुनि कै चरचा ‘हरिचंद्र’ की कान कछूक दै भौंह मरोरै लगी।।

          बचि सासु जेठानिन सों पिय तें दुरि घूंघट में दृग जोरै लगी।

          दुलही उलही सब अंगन तें दिन द्वै तें पियूष निचोरै लगी।।’’12

          संयोग शृंगार के पूर्ण परिपाक का सुंदर चित्रण निम्न कवित्त में देखा जा सकता है-

          ‘‘हूलति हिये मैं प्रान प्यारे के विरह-सूल,

          फूलति उमंग भरी झूलति हिंडोरे पै।

          गावति रिझावति हँसावति सवन हरि

          चंद चाव चैगुनों बढ़ाई वन घोरे पै।।

          वारि-वारि डारौं प्रान हँसनि मुरनि बत

          राम मुँह पान कजरारे दृग डोरे पै।।

          ऊनरी घटा में देखि दूनरी लगी है आहा,

          कैसो आजू चूनरी फबी है मुख गोरे पै।।’’13

          रथारूढ़ राधा-कृष्ण की कुँज-केलि की झाँकी में भी भक्ति और शृंगार का समन्वय अपनी माधुरी बिखेर रहा है –

          ‘‘रथ चढ़ि नंदलाल पिए करत हैं वन फेरा।

          आजु सखि लालन संग बिहरिब की बेरा।

          रतन खचित सुंदर रथ दिव्य वरन सोहै।

          छतरी ध्वज कलस चक्र सुर-नर-मन मोहै।।

          छाई घन घटा चारु आनंद बरसावें।

          अरु कोऊ सग नाहिं हरि अरु ब्रज-नारी।।

          हाँकत रथ अपने हाथ राधा सुकुमारी।

          कुँज-कुँज केलि करत डोलत हरि राई।

          ‘हरिचंद’ जुगुल रूप लखि के बलि जाई।’’14

          वियोग की समस्त दशाओं के चित्र चंद्रावली नाटिका में व्याप्त हैं, तो मान विषयक चित्र प्रेम माधुरी, राग संग्रह और वर्षा विनोद में संकलित हैं। रीतिकालीन शृंगारिक कवियों की भाँति भारतेंदु ने भी नखशिख परंपरा का निर्वाह सुंदर शैली में किया है। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि कवि ने रीतिकालीन कवियों की भाँति आकाश-पाताल के उपमानों को एकत्रित करके वर्ण्य विषय को चमत्कारी नहीं बनाया है, वरन् उन्होंने परंपरागत सीधे-सीधे उपमानों का प्रयोग करके सुंदर-सहज झाँकियों की रचना की है। प्रो. रामचंद्र श्रीवास्तव ‘चंद्र’ ने भारतेंदु काव्य के योगदान की चर्चा करते हुए लिखा है- ‘‘शृंगार और भक्ति को प्रधानता देते हुए भी उन्होंने साहित्य को सर्वतोन्मुखी बना दिया। उनका प्रेम एक आदर्श प्रेम है। उसमें विलासिता की भावना अथवा वासना गंध नहीं है। उसमें सरलता है, स्वाभाविकता है। इनके साथ ही महँगाई, अकाल, इंकम टैक्स, प्रेस एक्ट, आलस्य और विलासिता, कुप्रथा जैसे सामान्य सामाजिक विषयों पर रचना की। वास्तव में सामाजिक सुधार भी उनके काव्य का एक प्रमुख विषय था देश की पतनोन्मुखी दशा में सुधार लाने के लिए उन्होंने मतमतांतरों, छुआछूत, बाल-विवाह देशव्यापी कुरीतियों की बार-बार भर्त्सना की है।’’15

          ‘तरनि तनुजा तट‘ के निवासी भारतेंदु हरिश्चंद्र के काव्य में प्रकृति के मनोरम चित्रों का विराट चित्रण भी देखने योग्य है। उन्होंने अनेक स्थलों पर प्रकृति को विरहोद्दीपक के रूप में अपनाया है। कभी वे कहते हैं, ‘‘कूकि कूकि रही कारी कोइरिया, फूँकि फूँकि रही हिय विरह बदरिया’’ तो अन्य स्थल पर वे लिखते हैं, ‘‘हरिचंद्र कोइलें कुहूकि फिर वन बन, बाजे लाग्यो जग फेरि को नगारो हाथ दूनि प्रान-प्यारो काको कीजिए सहारो अब आयो फेरि सिर पै वसंत बजमारो हाय।’’ इसके अतिरिक्त वे सत्य हरिचंद्र में गंगा की सौंदर्य युक्त जलधारा का वर्णन करते हैं और चंद्रावली नाटिका में यमुना वर्णन में प्रकृति सौंदर्य के पुराने उपमानों लेते हुए लिखते हैं –

          ‘‘कहूँ तीर पर अमल कमल सोभित बहु भाँतिन।

          कहूँ सैवालन मध्य कुमुदिनि लगि रहीं पाँतिन।।

          मन दृग धारि अनेक जमुन निरखत ब्रज सोभा।

          के उभग प्रिय प्रिया प्रेम के अनगिन सोभा।।’’

          प्रातःकालीन मंद-मंद बहती पवन का मानवीकरण करके वे उसे एक सज्जन साधु महंत के रूप में भी देखते हैं। एक स्थल पर ऐसा प्रतीत होता है, जैसे तुलसी के राम ‘खग मृग और मधुकर स्रेनी’ से अपनी मृग नैनी सीता को पूछते हैं वैसे ही भारतेंदु की चंद्रावली भी विरह-विधुरा होकर यमुना तटवर्ती वृक्षों को संबोधित करती हुई कहती हैं-

          ‘‘अहो कदम्ब अहो अम्ब निम्ब अहो बकुल तयाला।

          तुम देख्यौ कहुँ मनमोहन सुंदर नंदलाला।।’’

          भारतेंदु के काव्य का संबंध जनसामान्य से है। उनका काव्य लोक-रंजनकारी ही नहीं लोकोपकारी भी है। इसमें सामान्य जनता के सत्यों का कटु अनुभव है। भारतेंदु ने कविता को एक नया मोड़ दिया और उसे नई गति प्रदान की। यही कारण है कि उन्होंने काव्य रचना के लिए प्राचीन परंपरा का अनुसरण करते हुए ब्रजभाषा को माध्यम बनाया किंतु समय की माँग को समझते हुए उन शब्दों को अपनी भाषा से निष्कासित कर दिया, जिनका प्रयोग साधारण बोलचाल में नहीं हो रहा था। भारतेंदु की यह विशेषता है कि वे अपनी अभिव्यक्ति को प्रभावशाली बनाने के लिए स्वाभाविक भाषा का ही प्रयोग करते हैं। इसी कारण उनकी भाषा में विशुद्ध संस्कृत भाषा के शब्द भी दृष्टिगत होते हैं और तद्भव शब्द भी भाषा में प्रवाह, स्वाभाविकता और रवानगी लाने के लिए लोकोक्तियों और मुहावरों की शक्ति से भी वे पूर्णतः परिचित थे। उन्होंने भाषा और भाव दोनों ही दृष्टियों से जीर्ण-शीर्ण होती ब्रजभाषा को एक नया रूप प्रदान किया। उनकी भाषा प्राकृतिक है, उसमें कृत्रिमता का लेशमात्र भी अंश नहीं है। जहाँ कहीं अलंकारों का प्रयोग हुआ है, वहाँ पर सौंदर्य और भावाभिव्यक्ति में वृद्धि ही हुई है। भारतेंदु का वाङ्मय जन साधारण के लिए आह्लादकारी होने के कारण अत्यंत उपादेय है। उन्होंने किसी साहित्यिक कठघरे में बंद होकर साहित्य-रचना नहीं की। स्वच्छंद रूप में भावाभिव्यक्ति करने से उनकी कविता जन-जन तक पहुँचने में समर्थ बन गई। नवीन युग की आवश्यकताओं के अनुकूल काव्य-रचना करने वाले भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अत्यंत साहस के साथ नव जीवन के प्रभात में प्रवेश किया था।

संदर्भ – 

  1. भारतेंदु ग्रंथावली, संपा. ब्रजरत्न दास, भाग-2, पृ. 793-794
  2. वही, पृ. 708-709
  3. वही, पृ. 735
  4. भारतेंदु काव्यामृत, प्रो. रामचंद्र श्रीवास्तव चंद्र, पृ. 127
  5. भारतेंदु हरिश्चंद्र, डॉ. लक्ष्मीसागर वाष्र्णेय, पृ. 184
  6. भारतेंदु ग्रंथावली, भाग-2, पृ. 270
  7. वही, पृ. 280
  8. वही, पृ. 55
  9. वही, पृ. 56
  10. वही, पृ. 137
  11. भारतेंदु हरिश्चंद्र, ब्रजरत्नदास, पृ. 286
  12. भारतेंदु ग्रंथावली, संपा. ब्रजरत्नदास, पृ. 286
  13. वही, पृ. 446
  14. वही, पृ. 531
  15. भारतेंदु काव्यामृत, प्रो. रामचंद्र श्रीवास्तव चंद्र, पृ. 40
डाॅ. ममता सिंगला
एसोसिएट प्रोफेसर
भगिनी निवेदिता काॅलेज

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *