भारतीय संस्कृति और भारतीयता के प्रखर उद्घोषक मैथिलीशरण गुप्त (3 अगस्त 1886-12 दिसंबर 1964) हिन्दी आधुनिक हिंदी साहित्य में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। उनके द्वारा सृजित महत्वपूर्ण कृतियां हैं-
महाकाव्य- ( साकेत) , खंडकाव्य ( यशोधरा ,जयद्रथ वध , भारत-भारती, पंचवटी, द्वापर, सिद्धराज, नहुष, अंजलि और अर्घ्य, अजित, व्रजांगना, अर्जन और विसर्जन, काबा और कर्बला, रंग में भंग , राजा-प्रजा, वन वैभव, विकट भट , विरहिणी , वैतालिक, शक्ति, सैरन्ध्री, स्वदेश संगीत, हिडिम्बा , हिन्दू किसान, कुणाल गीत, गुरु तेग बहादुर, गुरुकुल , जय भारत, झंकार , पृथ्वीपुत्र,, सैरंध्री, , आदि) नाटक ( अनघ, चन्द्रहास, तिलोत्तमा, निष्क्रिय प्रतिशोध, विसर्जन ) अनुदित नाटक – संस्कृत से ( भास के चार नाटक-स्वप्नवासवदत्ता, प्रतिमा, अभिषेक, अविमारक ;हर्षवर्धन की रत्नावली ; ), बंगाली- से ( माइकल मधुसूदन दत्त की मेघनाथ वध, वज्रांगना ) ; फारसी से ( उमर खय्याम की रुबाइयात उमर खय्याम ) मैथिलीशरण गुप्त ग्रन्थावली (मौलिक तथा अनूदित समग्र कृतियों का संकलन 12 खण्डों में, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली से, प्रथम संस्करण-2008)
‘यशोधरा’ काव्य कृति में यशोधरा के चरित्र में उनकी नारी भावना मूर्तिमंत है। यशोधरा ( सन् 563 ईसा पूर्व -483 ईसा पूर्व ) राजा सुप्पबुद्ध और उनकी पत्नी पमिता ( राजा शुद्धोधन की बहन) की पुत्री थी। 16 वर्ष की आयु में यशोधरा का विवाह राजा शुद्धोधन के पुत्र सिद्धार्थ से हुआ। यशोधरा का देहावसान 78 वर्ष की आयु में हुआ था। ‘साकेत’ की प्रेरणा स्वरुप सृजित होने पर भी ‘यशोधरा’ में अधिक परिपक्वता -प्रौढ़ता मिलती है । गुप्त जी का मानना था कि समाज , देश और राष्ट्रीय चेतना का विकास तभी हो सकता है जब युग- युग से प्रताड़ित भारतीय नारी को नवीन, उज्ज्वल एवं सशक्त रूप में देखा व चित्रित किया जाएगा । उन्होंने अपने खंड काव्यों में नारी के विभिन्न रूपों – जननी , बहन ,पत्नी , स्वाभिमानी, वीरांगना, विरहिणी को लिपिबद्ध किया है। ‘साकेत’,’ विष्णुप्रिया’, ‘यशोधरा’ प्रत्येक में कवि की प्रेरणा नारी की पति के प्रति एकांन्त भक्ति रही है। तीनों नारियां पति वियोग में व्यक्तित्वहीन होकर जीती हैं । ये सभी सोचती हैं कि यदि मोक्ष जीवन का सर्वोच्च ध्येय है तो नारियां उससे वंचित क्यों रहे ? क्या पति और पत्नी साथ रहकर मुक्ति की साधना नहीं कर सकते? इससे पूर्व सृजित विरह काव्यों में कवियों की दृष्टि वैराग्य के केवल पुण्य पक्ष पर केन्द्रित रही । वह पाप पक्ष सर्वथा उपेक्षित रहा जो पत्नियों को जीवित वैधव्य झेलने के लिए विवश करता है। गुप्त जी ने उनका छीना हुआ व्यक्तित्व पुनः लौटाया है।
मैथिलीशरण गुप्त द्विवेदी युग के कवि हैं । इस समय नारी के दो प्रमुख, आदर्श एवं भव्य रूप उभरकर सामने आए -1 पत्नी रूप 2. जननी रूप । यशोधरा में ये दोनों ही रूपों है ।
“अबला जीवन हाय ! तुम्हारी यही कहानी
आंचल में है दूध और आंखों में पानी “(1 )
आधुनिक कवि नारी को केवल प्रेमिका रुप में नहीं देखता वरन् पत्नी को गृह लक्ष्मी के रूप में देखते हैं। पौराणिक नायिकाओं को अपनाकर भी उस ने स्मृतियों और पुराणों की उस भावना का परित्याग किया है जो स्त्री प्रेम को अस्थिर, मिथ्या व मात्र ऐन्द्रिक तृप्ति अथवा सन्तानोत्पत्ति का साधन भर बताती हैं। उसपर पतिभक्ति के क्रूर नियमों को लादकर उसके व्यक्तित्व व स्वतंत्रता का हनन करती हैं। इस युग के कवियों ने नारी की कतिपय विशेषताओं को रेखांकित किया है-
1. भारतीय पत्नी का एकांत, स्थिर, वासनारहित त्यागमय, कर्तव्यनिष्ठ , धर्मनिष्ठ और तपस्वी प्रेम।
2. अर्द्धांगिनी रूप
3. गृहिणी रुप
4. शक्तिरुप व प्रेरणा एवं सत्य पथ का प्रदर्शन करने वाली।
प्रेम नारी जीवन का प्रथम एवं अंतिम सत्य है । प्रेम की पूर्णता कवि ने उस कोमल बंधन में देखी है जहां नारी का आत्मसमर्पण अपनी चरम परिणति को प्राप्त करता है और उसकी विभूतियां घर आंगन को आलोकित करते हुए संसार में भी अपने ज्योति बिखेर देती हैं। गुप्त जी नारी को वैराग्य मार्ग की बाधा ना मानकर जीवन की सहचरी, समाज की इकाई और सृष्टि की अनिवार्यता के रूप में देखते हैं—
“वधू सदा मैं अपने वर की
पर क्या पूर्ति वासना भर की?
सावधान! हा निज कुल घर की
जननी मुझको जानो।” ( 2 )
यशोधरा गृहस्थ आश्रम के पालन की महत्ता को समझती हैं ।वह जानती है कि अपने कर्तव्यों का पूरी निष्ठा के साथ पालन करके ही हम अधिकारों की सिद्धि कर सकते हैं । वहअनुरागिनी है , गौतम के अर्ध रात्रि के समय उसे सोया छोड़कर जाने की अवस्था में बडबडाने लगती हैं । वह पति को मार्गच्युत ना करके स्वयं के अनुराग को विराग में परिवर्तित कर देती हैं । उस में मातृत्व की उज्जवलता है। सिद्धार्थ के सदमार्ग पर जाने से वह दुखी अवश्य हैं पर जानती हैं कि पुत्र राहुल के पालन पोषण का दायित्व उन्हीं पर है । कवि ने यशोधरा को नारी प्रतिनिधित्व रुप में व्यक्त किया है। यशोधरा उस मुक्ति का विरोध करती है जो सांसारिक कर्तव्यों को भुला दे-
” यदि हम में अपना नियम और शमदम है
तो लाख व्याधियां रहे स्वस्थता सम है
वह जरा एक विश्रांति जहां संयम है
नव जीवन दाता मरण कहां निर्मम है ?
भव भावे मुझको और उसे मैं भाऊं
कह मुक्ति भला किस लिए तुझे मैं पाऊं?” (3 )
यशोधरा के प्रति अपना सम्मान और श्रद्धा अर्पितकर कवि ने समस्त नारी जाति को सम्मान, श्रद्धा और स्वतंत्र व्यक्तित्व प्रदान कर उसे उत्थानशील प्रवृत्तियों से सम्पन्न किया है। उसमें त्याग, सहिष्णुता और मान के जिस रूप की स्थापना की गई है उससे उसमें भारतीय नारीत्व के सांस्कृतिक आदर्श की प्रतिष्ठा के साथ कवि की युगचेतना भी परिलक्षित होती है।यशोधरा पुत्र राहुल के लिए जीवित ही नहीं रहती अपितु गाती भी है। पुत्र के सभी अमंगलों को खुद सहकर उसको पीड़ा से बचाना ही उसका कर्तव्य है जिससे वह कभी भी विरत नहीं होती है। वह अपनी विरह जर्जरित जीर्ण जीवन नौका को विपरीत परिस्थितियों में भी राहुल के सहारे खेती रहती है-
” इस निधि के योग्य पात्र, यदि था यह तुच्छ गात्र
तो यही प्रतीति मात्र, दैव दया तेरी
जीर्ण तरी, भूरि भार, देख अरी,एरी।”(4 )
गुप्त जी ने गोपा के मातृ हृदय की समस्त आकांक्षाओं, अभिलाषाओं एवं राहुल की बाल क्रीडाओं का ऐसा स्वाभाविक अंकन किया है कि यशोदा के आंगन में बालकृष्ण याद आ जाते हैं । आहत, संतप्त पत्नीत्व को सहन करके भी वे राहुल को स्नेह, करुणा, मनुष्यता और सदाचार की शिक्षा देती है। ‘ मां कह एक कहानी’ गीत मे राहुल को व्याघ द्वारा पक्षी को आहत करने और एक दयालु के उसे बचाने की कथा सुनाकर उसमें वे संस्कार भरती है जो बाद में सिद्धार्थ,गौतम बुद्ध के रुप में अपने उपदेशों द्वारा संसार को देते हैं।
यशोधरा व्यक्तित्व का सबसे प्रखर पहलू उसका स्वाभिमान है। वह मानिनी व गर्विता है। यही वह मूल बिंदु है जिस पर उसका संपूर्ण व्यक्तित्व टिका है। उसे दुः ख है कि कल्याणी, अन्नपूर्णा ,लक्ष्मी ,सुभगे,भद्रे आदि संबोधनों से अभिहित नारी को अपने मन की इच्छा से अवगत कराना भी सिद्धार्थ ने उचित नहीं समझा। मृत्युबोध व क्षणबोध से त्रस्त ,आतंकित, सशंकित सिद्धार्थ मुक्तिमार्ग की खोज करने जाते समय यशोधरा को विरह वेदना देने में भी संकोच नहीं करते ।
“पड़ी रह तू मेरी भव भुक्ति
मुक्ति हेतु जाता हूं यह मैं मुक्ति, मुक्ति बस मुक्ति।
मेरा मानस हंस चुनेगा और कौन सी युक्ति?
मुक्ताफल निर्द्वन्द्व चुनेगा,चुन ले कोई शुक्ति।” (5 )
वे जानते हैं कि जब तक वे अमृत लेकर आएंगे ,यशोधरा मां – पिता दोनों के दायित्व का निर्वाह करने में समर्थ है-
यशोधरा मानती हैं कि जीवन क्षणभंगुर है और जिस शरीर के वृद्ध, असुंदर और अंत में समाप्त होने के भय से सिद्धार्थ मुक्ति की खोज में निकल पड़े ,वह शरीर नश्वर है । सिद्धार्थ के प्रति उनका प्रेम अनश्वर और सत्य है। यशोधरा में निर्वेद कहीं भी नहीं है । रति भाव ही उस के चिंतन के मूल में है ।
“भले ही मार्ग दिखाओ लोक को
गृह मार्ग ना भूलो हाय!
तजो हे प्रियतम , उस आलोक को
जो पर ही पर दरसाय।”(6 )
गृहस्थ आश्रम का परित्याग लोक कल्याणकारी हो सकता है इसे यशोधरा स्वीकार नहीं करती। वह तो सत्कर्म करते हुए जीने को ही जीवन का इष्ट मानती है । यशोधरा को गौतम का बिना बताए चोरी चोरी चले जाना कांटे सा चुभता है। वह क्षत्राणी हैं जो पति को सुसज्जित करके रण में विजय प्राप्त करने के लिए भेजतीं हैं।
“स्वयं सुसज्जित करके क्षण में
प्रियतम को प्राणों के पण में
हमीं भेज देती है रण में
क्षात्र धर्म के नाते।”(7 )
यशोधरा को सास -ससुर का सामना करना अत्यंत यंत्रणा पूर्ण लगता है क्योंकि उनके आक्षेपों और प्रश्नों के उत्तर में उसे केवल “मौन रहूंगी सहूंगी मैं” का विकल्प अपनाना पड़ता है। उसका यही मान उसके व्यक्तित्व को उद्दीप्त करता है।यशोधरा का यह मान उनके पुत्र राहुल से भी छिपा नहीं है। तभी तो वह कहता है
” अब जब तात यहां लौटकर आएंगे
और वे भी तेरा मुंह छोटा बताएंगे
तो मैं सुन उनसे कहूंगा बस इतना
मुंह जितना हो किंतु मानी मन कितना।”(8 )
यशोधरा विदूषी हैं। वे अपनी परिस्थिति के सभी पक्षों पर गंभीरतापूर्वक विचार करती हैं । राहुल जननी के रूप में गोपा के मातृत्व और सिद्धार्थ पत्नी के रूप में उस आजीवन वियोगिनी के आंसुओं की कथा ही यशोधरा का कथ्य है किंतु कवि ने पुनरुत्थानवादी युग के रंगों की झलक देकर उसे इतना कमनीय बना दिया है कि अमिताभ की आभा से चकाचौंध उस युग के चित्र फलक पर अंकित गोपा का यह चित्र अमर हो गया है और निरंतर यह सोचने पर विवश करता है कि क्या पुरुष की सिद्धि प्राप्ति के पीछे छिपी किसी यशोधरा की अश्रुपूरित तपश्चर्या कम है? मैथिलीशरण गुप्त ने नारी को पुरुषों के समकक्ष घोषित करते हुए उनकी पवित्रता और शक्ति को नमन किया है। भारतीय नारी वियोग को ईश्वरीय देन के रूप में स्वीकार करती हैं । उनका संपूर्ण जीवन एक साधना बन जाता है। यशोधरा का राग , रोग इसलिए बन जाता है क्योंकि सिद्धार्थ उसे बिना बताए गए थे । प्रिय इच्छा में स्वयं को लीन करके, मिलन की मादक आकांक्षा को विस्मृत कर , वह असीम धैर्य और दृढ़ता का परिचय देती है। ऐन्द्रिक तृप्ति वियोग में अंतर्मुखी होकर प्राणों में ढल जाती है , कुसुमदपि सुकुमारी वज्रादपि कठोर हो निज योग्यता सिद्ध करती है । पति को निज कर्तव्य पर अग्रसर देखकर संतुष्ट होती हुई वह आत्मशक्ति का परिचय देती है-
” जाएं सिद्धि पावें वे सुख से
दुखी न हो इस जन के दुःख से
उपालम्भ दूं मैं किस मुख से?
आज अधिक वे भाते।”(9 )
विरहिणी गोपा की इस निरवधि विरहवेदना की अभिव्यंजना ही यशोधरा का मूल प्रतिपाद्य है। कवि का उद्देश्य गोपा की स्वतंत्र सत्ता और महत्ता का आभास कराना है । सिद्धार्थ की सिद्धि के पीछे गोपा का सावित्री समान पुण्य है , मूक तपश्चर्या है । प्रसव वेदना जैसी जो मर्मान्तक पीड़ा गोपा ने सिद्धार्थ के लिए सही है उसी के कारण गौतम सिद्धि लाभ कर सके हैं । वह अंत तक निरीह अबला के रूप में दया की भीख नहीं मांगती । उसमें गर्व की गरिमा,आत्माभिमान का तेज और विश्वास की दृढ़ता है ।अपने अर्द्धांगिनी भाव के कारण वह प्रिय अभाव में भी अपने को अनाथ नहीं मानती । वह अपने अर्धभाग की अधिकार चेतना के लिए कहती है –
“देखूं स्वामी क्या लोगे
गोपा भी लेगी तुम दोगे
मेरे हो तो , मेरे होंगें , भूले हो पहचानो
चाहे तुम संबंध ना मानो।”(10
यशोधरा प्रतिक्षण सिद्धार्थ से मिलन के सपने देखती है । उसे पूरा विश्वास है कि उसकी विरह साधना अवश्य फलीभूत होगी।भक्त का अपने भगवान के प्रति जिस प्रकार पूर्ण समर्पण होता है उसी प्रकार का पूर्ण विश्वास और समर्पण हमें यशोधरा में दिखाई देता है। इसी प्रतीति के सहारे वह मान करती है, पर उसका मान रीतिकालीन नायिकाओं की काम भावना से प्रेरित मान से नितांत विभिन्न सिद्धांत युक्त है । वह अपने मान के समक्ष अमृत को भी हेय समझती है। उसके मान में प्रतिशोध की भावना नहीं है । वह तो प्रीतम के योग क्षेम की वेदी पर अपना सर्वस्व स्वाहा करने को तत्पर है –
“जाओ नाथ! अमृत लाओ तुम मुझमें मेरा पानी
चेरी ही मैं बहुत तुम्हारी ,मुक्ति तुम्हारी रानी
प्रिय तुम तपो सहूं मैं भरसक देखूं बस हे दानी
कहां तुम्हारी गुण गाथा में मेरी करुण कहानी?” (11 )
सती शिवा सी तपस्विनी, वैराग्य वेशभूषिता होने पर भी यशोधरा के माथे पर सदा दमकने वाला सिंदूर बिंदु पति के पथ बाधाओं को नष्ट करता है-
” चार चूड़ियां ही हाथों में पड़ी रहें चिरकाल
मेरी मलिन गुदड़ी में भी है राहुल सा लाल
बस सिंदूर बिन्दु से मेरा जगा रहे यह भाल
यह जलता अंगार जला दे उनका सब जंजाल।” (12 )
नारी केवल अबला,दीनहीन,निर्बल ही नहीं वह आत्मशक्ति से युक्त है अतः उसे स्वाबलंबी बनना होगा। जब तक वह मानसिक रुप से पुरुष पर आश्रित रहेगी उसके स्वाभिमान की रक्षा नहीं हो सकती। यशोधरा जहां अपने स्वाभिमान की रक्षा करने के लिए गृह कार्य और पुत्र के लालन-पालन में स्वयं को व्यस्त कर लेती है। नारी के आत्म बल को रेखांकित करते हुए गुप्त जी ने उसे पति सहचरी , मार्गदर्शक ,संतति को बल -बुद्धि संस्कार देने में समर्थ , कर्तव्य -परायण, कला- कौशल के प्रति प्रेमभाव रखने वाली , नेतृत्व करने वाली , धैर्या स्वीकार किया है। संपूर्ण ‘यशोधरा ‘ काव्य में यशोधरा को अपने अस्तित्व के प्रति संघर्ष करते लिपिबद्ध किया गया है। उसके मन में प्रश्न उठता है कि क्या उसकी पहचान मात्र पत्नी और जननी की है? उसके व्यक्ति होने का अर्थ नगण्य है ? सिद्धार्थ का उसे बता कर ना जाना एक तरह से उसके अस्तित्व को नकारना ही है और यही यशोधरा के दुख का कारण है। यशोधरा के माध्यम से गुप्त जी ने स्वयं अपने लिए मार्ग निश्चित करने वाली स्त्री की स्वायत्तता और नारी अस्मिता के प्रश्न को भी उठाया है । यहां अस्मिता अहंकार का सूचक ना होकर निजत्व का समानार्थी है। यशोधरा मानती है कि पुत्री,पत्नी,वधु,मां से इतर उसकी एक पहचान है।अपने आत्मसम्मान के लिए वह अपने पति के सामने एक चुनौती बनकर खड़ी हो जाती है। वह अपने विरह को अत्यंत साहस से झेलती है। गौतम को ढूंढने के लिए श्वसुर को रोकने वाली वह धैर्या पति के सन्यास ग्रहण की सूचना पाते ही अपने लंबे सुंदर केश कटवाकर ,आभूषणहीन तपस्विनी बन जाती है किंतु इस स्वाभिमानिनी का स्वाभिमान गौतम के प्रति उसकी श्रद्धा को किंचित भी कमतर नहीं करता । वह ऐसी प्रोषित पतिका नायिका है जो जीवन देकर जननी पक्ष की रक्षा करती है ।
‘ संधान ‘ शीर्षक 15वें अध्याय में यशोधरा को गौतमी आकर सिद्धार्थ की सिद्धि प्राप्त करने की कथा संक्षेप में सुनाती है। गोपा स्वीकार करती है कि उनका संधान आज मिल गया जिनके बिना खान-पान नीरस था और जीवन मरण तुल्य था। इसी समय राहुल, शुद्धोधन और महाप्रजापति यशोधरा को सिद्धार्थ के पास जाने के लिए बुलाने आते हैं किंतु वह गौतम के दर्शनार्थ जाने के लिए तैयार नहीं होती। एक आदर्श कुल ललना की भांति ही वह आयुपर्यंत उसी स्थान पर रहने का निश्चय करती है जहां वीतरागी गौतम उन्हें बिना बताए छोड़ कर गए थे।
” उनका अभिष्ट मात्र ! और कुछ भी नहीं
हाय !अम्ब ! आप मुझे छोड़कर वे गए
जब उन्हें इष्ट होगा आप आके अथवा
मुझको बुला के चरणों में स्थान देंगे वे।”(13 )
गौतम बुद्ध से मिलने के लिए यशोधरा को कोई बाधा नहीं है परंतु उसका अंतस इस बात की स्वीकृति नहीं देता । वे स्वीकार करती हैं कि-
” बाधा तो यही है मुझे बाधा नहीं कोई भी
विध्न भी यही है, जहां जाने से जगत में
कोई मुझे रोक नहीं सकता है -धर्म से
फिर भी जहां मैं आप इच्छा रहते हुए
जाने नहीं पाती! यदि पाती तो कभी यहां
बैठी रहती मैं ? छान डालती धरित्री को।”(14 )
गौतम कपिलवस्तु के राजभवन में पधारते हैं । सब उनके आदर सत्कार में लग जाते हैं, किंतु स्वाभिमानी यशोधरा अपने महल में ही उनकी प्रतीक्षा करती रहती हैं। उन्हें इस बात का विश्वास है कि उनके मान की रक्षा के लिए गौतम उनके महल तक अवश्य आएंगे ।
” रे मन आज परीक्षा तेरी
विनती करती हूं मैं तुझसे ,बात ना बिगड़े मेरी
दो पग आगे ही वह धन है
अवलंबित जिस पर जीवन है
पर क्या पथ पाता यह जन है?
मैं हूं और अंधेरी “।(15)
अन्ततः गौतम को यशोधरा की दृढ़ता के सम्मुख झुकना ही पड़ता है । अपनी दुर्बलता और यशोधरा की मूक तपस्या को स्वीकारते हैं- वे स्वयं यशोधरा के महल में आकर नारी के महत्व की उद्घोषणा करते हैं
“मानिनी मान तजो लो,रही तुम्हारी बान
दानिनी आया स्वयं द्वार पर यह तव तत्र भवाना
****** ******* ****** *******
क्षमा करो सिद्धार्थ शाक्य की निर्दयता प्रिय जान
मैत्री -करुणा- पूर्ण आज वह शुद्ध बुद्ध भगवान”। (16)
गौतम की यह स्वीकारोक्ति युग-युगांतरों से उपेक्षित नारी को न्याय प्रदान करती है । बुद्धदेव संपूर्ण नारी जाति के प्रति अपनी कृतज्ञता अर्पित करते हुए कहते हैं-
“क्षीण हुआ वन में क्षुधा से मैं विशेष जब
मुझ को बचाया मातृ जाति ने हीं खीर से
आया जब मार मुझे मारने को बार-बार
अप्सरा अनीकिनी ने सजाए हेम हीर से
तुम तो यहां थीं धीर ध्यान ही तुम्हारा वहां
जुझा मुझे पीछे कर ,पंच शर वीर से।”(17 )
यशोधरा आत्म -सम्मान की रक्षा करते हुए कभी रंच मात्र भी कर्तव्य पथ से डिगी नहीं और उसकी यही विशेषता उसके व्यक्तित्व को पूर्णता प्रदान करती है । बुद्धदेव द्वारा नारी के महत्व की स्थापना से मानों यशोधरा की तपस्या सफल हो जाती है। उसका आहत अस्तित्व इससे कुछ शांत होता है ,पर उसकी पीड़ा कम नहीं होती क्योंकि वह मानती है कि सिद्धार्थ उसे बिना बताए गए थे अतः उनके स्वागत का भी उसे अधिकार नहीं है। गृहस्थ जीवन को त्याग कर वैराग्य लेने की परंपरा पर भी प्रश्नचिन्ह लगाती हैं क्योंकि उनका मानना है कि गृहस्थों से ही जब वैरागी भिक्षा लेते हैं तो गृहस्थ जीवन हेय कैसे हो सकता है? कथांत में यशोधरा स्वयं पुत्र राहुल को बुद्ध की शरण में देकर अपने गौरवपूर्ण चरित्र का अंतिम उदात्त पृष्ठ लिखकर सदा के लिए अमर हो जाती हैं।
“कृत कृत्य हुई गोपा
पाया यह योग,भोग अब जा तू
आ राहुल बढ़ बेटा
पूज्य पिता से परंपरा पा तू । ” (18)
पत्नी रुप में यशोधरा ने अपना वर्तमान सिद्धार्थ को अर्पित किया था और जननी रूप में उन्होंने अपना भविष्य बुद्ध के चरणों में समर्पित किया था ।
” तुम भिक्षुक बनकर आए थे गोपा क्या देती स्वामी
था अनुरूप एक राहुल ही रहे सदा अनुगामी।”(19)
समाहारतः मैथिलीशरण गुप्त की नारी भावना भारतीय संस्कृति के उदात्त तत्वों से अनुप्राणित है। उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से नारी के आदर्श व मर्यादित रुप को लिपिबद्ध किया है। ‘ यशोधरा में नारी जीवन के समग्र व्यक्तित्व की प्रतिष्ठा हुई है। वह पति अनुरक्तता , मानिनी, और राहुल जननी के आदर्श रूप को प्रस्तुत करती है। उसके इस महिमामंड़ित व्यक्तित्व के समक्ष पाठक नतमस्तक हो उठता है।
संदर्भः
1.यशोधरा, मैथिलीशरण गुप्त , पृष्ठ 47
2 यशोधरा, मैथिलीशरण गुप्त , पृष्ठ 96
3 यशोधरा, मैथिलीशरण गुप्त , पृष्ठ 90-91
4 यशोधरा, मैथिलीशरण गुप्त , पृष्ठ 48
5 यशोधरा, मैथिलीशरण गुप्त , पृष्ठ 13
6 यशोधरा, मैथिलीशरण गुप्त , पृष्ठ 114
7 यशोधरा, मैथिलीशरण गुप्त , पृष्ठ 21
8 यशोधरा, मैथिलीशरण गुप्त , पृष्ठ 58
9 यशोधरा, मैथिलीशरण गुप्त , पृष्ठ 22
10 यशोधरा, मैथिलीशरण गुप्त , पृष्ठ 95
11 यशोधरा, मैथिलीशरण गुप्त , पृष्ठ 38
12 यशोधरा, मैथिलीशरण गुप्त , पृष्ठ 34
13 यशोधरा, मैथिलीशरण गुप्त , पृष्ठ 107
14 यशोधरा, मैथिलीशरण गुप्त , पृष्ठ 107
15 यशोधरा, मैथिलीशरण गुप्त , पृष्ठ 121
16 यशोधरा, मैथिलीशरण गुप्त , पृष्ठ 124
17 यशोधरा, मैथिलीशरण गुप्त , पृष्ठ 126
18 यशोधरा, मैथिलीशरण गुप्त , पृष्ठ 127
19 यशोधरा, मैथिलीशरण गुप्त , पृष्ठ 128