‘भया कबीर उदास’ उषा प्रियंवदा द्वारा रचित एक बहुचर्चित उपन्यास है। यह उपन्यास कैंसर जैसी खतरनाक जानलेवा बीमारी से लड़ती एक युवती की हिम्मत भरी दास्तान है, जो हर एक कैंसर के मरीज को मौत से लड़ने और विजय हासिल करने का हौसला देती है। उपन्यास की नायिका लीली जो बाद में यमन के रूप में अपनी नई पहचान बनाती है, हर एक कैंसर पेशेंट के लिए आइकॉन बन जाती है। प्रत्येक मरीज ही नहीं बल्कि प्रत्येक व्यक्ति के लिए यमन प्रेरणा स्रोत बनकर उभरती है और कैंसर पेशेंट को जिंदगी की एक नई राह दिखाती है। सन 2007 में छपी यह कथा कृति कैंसर के दुस्साध्य यानी लाइलाज होने के मापदंडों को तोड़ती है और लोगों में कैंसर से लड़ने की जीवनी शक्ति उत्पन्न करती है।

     उषा प्रियंवदा भारतीय एवं पाश्चात्य संस्कृति की साझी विरासत को आत्मसात करने वाली कथा शिल्पी रही हैं। उनकी कथा कृतियां भारतीय-पाश्चात्य संस्कृति को समाहित करके वैश्विक संस्कृति का परिदृश्य निर्माण करती हैं। विशेष रूप से नारी चिंतन पर आधारित उनकी कृतियां अपने समय की अनेकविध समस्याओं का समाधानात्मक चित्र प्रस्तुत करती हैं। खुद लेखिका का संबंध भारतीय और अमेरिकी संस्कृति से रहा है। भारतवर्ष में बचपन, कैशोर्य और यौवन का समय व्यतीत करके अंग्रेजी साहित्य में एम.ए., पीएच. डी. डिग्री हासिल करके अमेरिका में एक अमेरिकन नागरिक से शादी कर लेती हैं और वहीं बस जाती हैं। वह आधुनिक जीवन शैली अपनाकर उन्नत आधुनिक जीवन जीने वाली जागरूक जिम्मेदार कथाकार हैं। उनकी कथात्मक कृतियां तमाम प्राचीन सनातनी परंपराओं, नारी विषयक रूढ़ियों को तोड़ती हुई आधुनिक युग निर्माण का प्रस्ताव रखती हैं; जिसे स्वीकार करके आम जनमानस आधुनिक समाज बढ़ने और उन्नत परिमार्जित जीवन जीने की अपनी सारी जिम्मेदारियां निभाने का कृत संकल्प होता है।

       ‘भया कबीर उदास’ कैंसर पीड़ित युवती लीली की संघर्षमय जिंदगी की ऐसी दास्तान है जो उसे पूरी तरह से तोड़ के रख देती है। लेकिन अंत में मौत को मात देकर एक नई जिंदगी जीने का संकल्प दे जाती है। उपन्यास नायिका यमन उपन्यास के अंत में गंगा माता के चरणों में अपनी पराजय समर्पित करती हुई विजय की संकल्पना के साथ कहती है -“इसके साथ बिसारती हूँ रोग, क्षोभ और पराजय। वहां गंगा माता के सामने अंजुली भर पानी लेकर संकल्प करती है कि वह पीछे मुड़कर नहीं देखेगी और नए सिरे से जिंदगी जिएगी । बनारस के अस्सी घाट के अंतर्गत हरिश्चंद्र घाट पर पहुंचकर यमन जब जलती हुई लाश को देखती है तो जीवन सत्य से परिचित हो जाती है। वह समझ जाती है कि मौत ही जीवन की सच्चाई है और वह मौत हर किसी की जिंदगी में आखिर में दस्तक देगी। वहां कुछ लोग परिवार के किसी सदस्य की चीता पर आग लगाते हुए कबीर की वाणी उच्चारण कर रहे थे कि “हाड़ जलै ज्यों लाकड़ी, केश जलै ज्यों घास”01। तब यमन को कबीर की वाणी की अगली पंक्ति याद आ जाती है जिसे बचपन में स्कूल में रटा करती थी- “जलता देखी करी भया कबीर उदास।”02 कबीर की इसी साखी को मन ही मन याद करती हुई यमन किसी का अंतिम संस्कार कर रहे उन लोगों की उदासी, जो कबीर की उदासी कभी नहीं हो सकती, को आत्मसात करती है और मौत से भागने के बजाय उसे जीवन का चिरंतन सत्य मानकर भावी जिंदगी को पूरी जिंदादिली के साथ जीने का निश्चय करती है। 

     पाश्चात्य संस्कृति यानी अमेरिकी वस्तुवादी संस्कृति पर विश्वास रखने वाली यमन यहां बनारस में आकर भारतीय आध्यात्मिक संस्कृति पर आस्था रखने लगती है। वह ईश्वरीय सत्ता में विश्वास रखने लगती है और ईश्वर कृपा से सृष्टि संचालित होने का दर्शन स्वीकारने लगती है। अमेरिका की भागदौड़ वाली अर्थसर्वस्व जिंदगी से ऊबकर हिंदुस्तान आकर अपने बचपन के मित्र वनमाली का साहचर्य पाकर अमन जीवन में शांति सुकून महसूस करती है। भारतीय जीवन दर्शन उसे आकृष्ट करता है और जिंदगी की नई राह तलाशता है जिसे वह सहर्ष स्वीकार करती है। यमन अपने होने वाले पति वनमाली के साथ जीवन का एक नया सफर तय करने की संकल्पना के साथ विश्वकवि रवींद्रनाथ टैगोर की इन पंक्तियों को मन ही मन श्रद्धा भाव से उच्चारण करने लगती है-“प्रभु ! मैं ऐसे ही नत और प्रस्तुत रहूं और तुम मेरी अंजुली बार-बार भरते रहना।” 03

      हमारे भारतीय आध्यात्मिक चिंतन-दर्शन में आत्मा को अमर, चिरंतन, शाश्वत माना गया है। आत्मा कभी नहीं मरती केवल शरीर मरता है और मरने के बाद जलकर राख हो जाता है। चाहे शरीर की हड्डियां लकड़ी समान जल जायँ या  केश घास समान जलकर राख हो जायँ पर आत्मा तो अमर है, चिरंतन है। अमेरिका की धरती पर रहने वाली लीली को हो सकता है आत्मा- परमात्मा की समझ उस समय न रही हो। हिंदुस्तान में आकर उसे हमारे आध्यात्मिक चिंतन का सहारा मिलता है और उसकी जिंदगी में एक नया मोड़ आता है । अमेरिका की उपभोक्तावादी संस्कृति ने लीली को कैंसर से मुक्ति तो दिला दी लेकिन जिंदगी में अकेलापन और घुटन भर दिया था । अमेरिका में डॉक्टर जैकरी, डॉक्टर अंजिला ने उसे कैंसर से मुक्ति तो दिला दी लेकिन जीवन में शांति सुकून तो हिंदुस्तान आकर ही मिला। यहां कबीर के आध्यात्मिक चिंतन ने उसे जिंदगी जीने की जीवनी शक्ति प्रदान की और ईश्वर के प्रति पूर्ण आस्था भी जगाने का काम किया जो अमेरिका में रहकर संभव न था।

       लीली जब अमेरिका में पढ़ाई कर रही होती है, अचानक उसे अपने स्तन में गांठ महसूस होती है। यूनिवर्सिटी में इतिहास में पीएच.डी. करते हुए पूरी तरह से विद्यार्थी-शोधार्थी जीवन को अमेरिका जैसे संपन्न देश में जी रही होती है। पर जब उसे पता चलता है कि उसे ब्रेस्ट कैंसर हो गया है वह पूरी तरह से टूट जाती है। उसकी जिंदगी की दिशा ही बदल जाती है। बायोप्सी रिपोर्ट पॉजिटिव आने के बाद लीली के जीवन में दुख का पहाड़ टूट पड़ता है । डॉक्टर हैदर, डॉक्टर जैकरी और डॉक्टर अंजिला की टीम लीली का इलाज करती है। केमोथेरपी और रेडियोथैरेपी के भय से लीली आतंकित हो उठती है। फिर भी वह एक हिम्मतवर युवती की भांति कैंसर से लड़ने का हौसला रखती है। उसे अपने आप से, अपने सौंदर्य से बहुत प्रेम है, बहुत लगाव है। इसीलिए वह अपने आप से कहती है -“और मेरे एकदम वृत्ताकार, भरे-भरे स्वर्ण कटोरों से उरोज पूर्णेन्दु जैसे….। 04

     लीली के मन में कैंसर का खौफ शुरू होने लगता है।  उसे पता है कि कैंसर भले ही उसकी जान न ले पर उसकी खूबसूरती जरूर ले सकता है। वह बार-बार आईने के सामने खड़े होकर अपने रूप सौंदर्य को निहारती रहती है। वह अपनी काया को लेकर कितनी एक्टिव रहा करती है। अपनी खूबसूरती बरकरार रखने या बढ़ाने के लिए वह क्या-क्या नहीं करती। लेकिन जब उसे अपने रूप सौंदर्य के चले जाने का सच पता चलता है तब वह व्याकुल होकर कह उठती है -“इस शरीर को कितने यत्न से सजाया, संवारा। उबटन, साबुन, क्रीम में, व्यायाम, शुद्ध भोजन, फिर भी  शरीर धोखा दे गया।  छाती से कहीं भी चला जा सकता है । ग्रंथियों में, फेफड़ों में, कलेजे में, दिमाग में, हड्डियों में।”05 

      लीली मनोवैज्ञानिक रूप से इस खतरनाक जानलेवा बीमारी के सामने टूट जाती है। वह अन्ना टॉमस के पास रहकर अपना दुख कम करना चाहती है, मन हल्का करना चाहती है। वह अन्ना टॉमस के सामने अपने मन की पीड़ा इन शब्दों में व्यक्त करती है -“मेरे लिए मेरे बाल और मेरी ब्रेस्ट मेरी संपूर्णता के लिए आवश्यक है । उसके बिना मैं बदसूरत और अधूरी हो जाऊंगी।”06

       उपन्यास नायिका को पहले से ही पता है कि कैंसर का खौफ कितना भयानक है। यह बीमारी किस तरह से व्यक्ति को तिल-तिल  कर मारती है। क्योंकि उसकी सहेली अपर्णा इस जानलेवा बीमारी की शिकार हो चुकी है। अमेरिका जैसे भौतिकवादी विकसित राष्ट्र में रहते हुए भी लीली किस्मतवादी बन जाती है। वह अपनी किस्मत को कोसती रहती है और कैंसर की बीमारी से पीड़ित होने को अपने पूर्व जन्मों का फल मान बैठती है। आधुनिक शिक्षित आत्मनिर्भर युवती होते हुए भी वह यह तय नहीं कर पाती कि कैंसर की बीमारी के साथ उसकी किस्मत का कोई कनेक्शन नहीं है। किसी का बीमार होना उसकी बॉडी फिटनेस पर, भोजन व्यसन पर निर्भर करता है उसकी किस्मत पर नहीं।

         कैंसर की भयावहता को लीली अमेरिका में अकेली झेलती है। क्योंकि वह अपने मां-बाप की इकलौती बेटी है। उसके पिताजी का देहांत हो चुका है और मां यहां दिल्ली में रहती है। कैंसर का इलाज अमेरिका में हिंदुस्तान से बेहतर हो सकता, इसी मानसिकता से वह वहीं अकेली ठहरी हुई है और डॉक्टर हैदर से इलाज करा रही है। वह एक अकेली युवती अपने कमरे में लेटी हुई सोचती है -“यह सब कैसे हो गया। यह सब क्यों हो रहा है ? क्या यह सच में पूर्व जन्मों का कर्म फल है ? क्या मुझसे भगवान इस जन्म में सजा दे रहे हैं ? क्या किया होगा मैंने उस जन्म में इसलिए इतनी यातना मिलेगी ?07 इस कैंसर की पीड़ादायक बीमारी लीली को इतनी किस्मतवादी बना देती है कि वह पूर्व जन्मों के कर्मों पर विश्वास करना शुरू कर देती है। वह हमेशा अपनी किस्मत को कोसती रहती है कि उसके परिवार में दादी, नानी, मम्मी या और किसी औरत को तो यह जानलेवा बीमारी नहीं हुई, सिर्फ उसी को क्यों हुई। उसे ही क्यों इस तकलीफ झेलनी पड़ रही है।

      लीली अकेली कैंसर से लड़ती है। वह कई बार लड़खड़ाती है, गिरती है, फिर संभलती है। क्योंकि अभी उम्र ही उसकी बहुत कम है। महज तीस साल की उम्र में ब्रेस्ट कैंसर ने उसे अपने आगोश में ले लिया है।   संकोच स्वभाव की होने के कारण अब तक उसकी जिंदगी में कोई युवक नहीं आया है, जिसे अपने लाइफ पार्टनर के रूप में चुनने के बारे में सोच सके। यानी अभी तक उसका न कोई बॉयफ्रेंड है न कोई गर्लफ्रेंड।  वह बिल्कुल अकेली है। महज तीस साल की उम्र में अपने विद्यार्थी जीवन में प्रेम लोक में खुशियों का रोमांटिक जीवन जीने के समय में लीली कैंसर के खौफ की दुनिया में दहशत भरी जिंदगी जीने को मजबूर है। “बायोप्सी के बाद उसे लगा था कि वह एकदम विवश हो गई है। सारे विकल्प सहसा एक ही संकल्प में परिवर्तित हो गए हैं। युद्ध कैंसर से महायुद्ध।”08 

      लीली का अब एक ही संकल्प रह गया है – कैंसर से लड़ना और उसे हराना। अपनी युवावस्था में अपने सुंदर बाल और सौम्य तन के प्रति उसके मन में प्रेम आकर्षण है। जब डॉक्टरों की तरफ से कैंसर की पुष्टि हो जाती है और दोनों ब्रेस्ट को ऑपरेशन करके निकालने की अनिवार्यता सिद्ध हो जाती है तब लीली की मानसिक दशा इन शब्दों में फूट पड़ती है-“मेरे  ब्रेस्ट को खो देने का,बालों को झड़ जाने का, पर अल्टीमेटली मरने का नहीं । डर है घिसट-घिसट कर बेहद पीड़ा से मरने का।”09

      कैंसर की यातना भरी जिंदगी जीती हुई लीली इतनी अकेली पड़ जाती है कि किसी के सहारे की बात सोचने लगती है। वह अपना नाम बदलकर लीली से यमन रख लेती है और अपनी एक नई पहचान बनाती है। कैंसर के इलाज के खर्च के लिए वह यूनिवर्सिटी में ही पढ़ाने लगती है। वहां अपने ही स्टूडेंट के पिता शेषेंद्र के साथ संबंध स्थापित करके वह नारीत्व की भावना से पोषित होकर आत्म संतुष्टि प्राप्त करती है। किसी पुरुष का प्रेम, स्पर्श पाकर यमन का मन प्रसन्न हो उठता है। वह पुरुष साहचर्य का सुख इन शब्दों में बयां करती है – “मेरे लंबे लंबे बाल शेषेंद्र की छाती पर बिखरे हुए थे। मेरी आंखें थकान से मूंद रही थीं और वह मेरे बालों को हल्के हल्के थपकते हुए कुछ गुनगुना रहे थे। वह था चरम सुख का क्षण परिपूर्णता का क्षण।”10

       लेखिका ने कथा नायिका यमन के कैंसर संघर्ष की कथा-व्यथा व्यक्त करने के पश्चात उसे अमेरिका से लेकर हिंदुस्तान की जमीन पर खड़ा किया है। कैंसर की आत्मा से मुक्ति पाने की मकसद से यमन गोवा चली जाती है, जहां उसकी मुलाकात वनमाली से होती है। वैनमाली पैरागन रिसोर्ट कॉटेज का मालिक है,एक बिजनेसमैन है। वनमाली तलाकशुदा पति है। उसकी पूर्व पत्नी रेनी उसका बिजनेस पार्टनर है। वनमाली और यमन एक दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं और प्रेम बंधन में बंध जाते हैं। लेकिन यमन अपने अपूर्ण शरीर को लेकर चिंतित रहती है कि कहीं सच्चाई मालूम होने पर वनमाली उसे छोड़कर चला ना जाए। फिर अपनी अपूर्णता में भी वह उसे संपूर्ण दांपत्य सुख प्रदान करने की आकांक्षा लिए कह उठती है- “वह वनमाली को कब तक दूर दूर रखेगी।  एक न एक दिन तो निकट आना ही पड़ेगा। तब क्या वह क्षत-दग्ध शरीर देखकर उसे आश्वस्त नहीं होगी। पर बात करे भी तो कैसे।”11

        वनमाली बचपन से यमन से प्रेम करते थे। इसीलिए अपने प्यार को पाकर वह बहुत खुश होते हैं। शारीरिक अंग अपूर्णता में भी संपूर्णता की अवधारणा के साथ लीली यानी यवन को जीवनसाथी के रूप में स्वीकारने को तैयार हो जाते हैं। अंतर्विरोध की उधेड़बुन में शाम को अकेली बनारस की हरिश्चंद्र घाट पहुंचती है। वहां जीवन सत्य से सीधा साक्षात्कार होते ही कबीर की क्रांतिदर्शी वाणी से प्रेरित-प्रभावित होकर गंगा माता की गोद में रोग, शोक और पराजय तीनों को समर्पित कर अंजुलि भर पानी लेकर एक नई जीवन यात्रा शुरू करने का संकल्प लेती है। संत कबीर के जन्म स्थल,कर्म स्थल पवित्र काशी धाम यमन के जीवन में नई जीवनी शक्ति प्रदान करता है और मौत को मात देने वाली यमन का जीवन सफर निकल आगे गतिमान होने लगता है। यमन कैंसर की यातना भरी जिंदगी जीने के बाद वनमाली जैसे शरीफ इंसान के साथ खुशहाली की जिंदगी जीने का दृढ़ संकल्प लेती है।

        क्रांतिदर्शी संत कबीर हरिश्चंद्र घाट के शव दाह संस्कार को देखकर जीवन की नश्वरता सिद्ध करते हैं और मन में उदासी महसूस करते हैं। उसी उदासी को प्रसन्नता में तब्दील करके वहीं से आधी अधूरी जिंदगी की अपूर्णता को खत्म करके एक संपूर्ण परिवार को जीवन जीने की संकल्पना का साकार रूप है यह उपन्यास -“भया कबीर दास”। जीवन को एक नई कला का रूप देने वाली कथा नायिका यमन वाकई मृत्युंजय नारी का साकार एवं सार्थक रूप है। यह कथाकृति हमें यही जीवनी शक्ति प्रदान करती है कि शरीर की अपूर्णता और पूर्णता का प्रश्न किसी न किसी स्तर पर मन और जीवन की पूर्णता के प्रश्न से भी जुड़ जाती है।  हमारे सामने यह सवाल खड़ा होता है कि क्या सौंदर्य के प्रचलित मापदंडों और समाज की दूरदृष्टि के अनुसार एक अधूरे शरीर को उन सभी इच्छाओं को पालने का अधिकार है जो स्वस्थ और संपूर्ण देहवाले व्यक्तियों के लिए स्वाभाविक होती है।”12

संदर्भ ग्रंथ सूची-

  1. भया कबीर उदास, उषा प्रियंवदा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2006, पृष्ठ – 178
  2. भया कबीर उदास, उषा प्रियंवदा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2006,पृष्ठ- 181 
  3. भया कबीर उदास, उषा प्रियंवदा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2006,पृष्ठ- 184
  4. भया कबीर उदास, उषा प्रियंवदा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2006, पृष्ठ- 11 
  5. भया कबीर उदास, उषा प्रियंवदा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2006, पृष्ठ- 30 
  6. भया कबीर उदास, उषा प्रियंवदा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2006, पृष्ठ- 40 
  7. भया कबीर उदास, उषा प्रियंवदा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2006, पृष्ठ- 41 
  8. भया कबीर उदास, उषा प्रियंवदा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2006, पृष्ठ- 14 
  9. भया कबीर उदास, उषा प्रियंवदा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2006, पृष्ठ- 40  
  10. भया कबीर उदास, उषा प्रियंवदा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2006, पृष्ठ- 94  
  11. भया कबीर उदास, उषा प्रियंवदा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2006, पृष्ठ-170 
  12. www.pustak.org

डॉ. दयानिधि सा

सहायक प्राध्यापक व विभाग प्रमुख, हिंदी विभाग,

महात्मा गांधी स्नातक महाविद्यालय, भुक्ता।

जि-बरगढ़ (ओड़ीशा)

      

     

      

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