कोई भी कृतिकार सामान्यजन से इस अर्थ में विशिष्ट होता है कि वह अपने समय एवं समाज को सूक्ष्मता से पहचानते हुए उसकी विसंगतियों को अपनी रचनाओं में दर्ज करता है। अनुभूत रूप में उन समस्याओं से जूझता हुआ, टकराता हुआ वह एक प्रतिसृष्टि की रचना करता है जिसमें संबंधित समाज के मुक्ति की कामना होती है। किसी भी कृति को इसीलिए अपने समय एवं समाज की निर्मित मानी जाती है। इस निर्मिति में वही कृतिकार अपने समाज को प्रतिबिंबित कर सकता है जो अपने समय एवं समाज से वास्तविकता में जुड़ा हो। मोहन राकेश आधुनिक युग के ऐसे ही नाटककारों में प्रमुख थे जिन्होंने अपने समय एवं समाज की विडंबनाओं को भली-भांति पहचानते हुए अपनी रचनाओं की सृष्टि की। कोई भी रचनाकार अपने परिवेश से प्रभावित अवश्य होता है यानी उसकी रचना में उस कृतिकार का परिवेश जरुर उपस्थित रहता है। अपने समय की विसंगतियां से दूर होकर कोई साहित्य समाज को नई दिशा नहीं दे सकता। इस संदर्भ में प्रगतिशील रचनाकार मुक्तिबोध का यह कथन दृष्टव्य है कि, “मात्र भावोत्तेजित करने वाली कला हमारे वास्तविक जीवन पथ के लिए मूल्यवान भी हो यह आवश्यक नहीं है। हमारे लिए मूल्यवान कला वह है जिसमें मार्मिक जीवन विवेक, सूक्ष्म दृष्टियों तथा जीवन के वास्तविक पक्षों का उद्घाटन हो।” जीवन के वास्तविक पक्षों के उद्घाटन से तात्पर्य यहाँ मात्र आदर्श की उपस्थिति न होकर उसके यथार्थ पक्ष के उद्घाटन से है। स्वयं मोहन राकेश भी यह मानते थे कि रचना अपने समय समाज और वातावरण से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकती रचना की सृष्टि दरअसल उसके परिवेश की ही सृष्टि होती है मोहन राकेश उचित ही लिखते हैं कि, “इतिहास स्थान, समय और व्यक्ति निरपेक्ष नहीं होता। हालांकि सार्वकालिकता का नारा लगाने वाले लोग ऐसा ही कहते हैं लेकिन मैं उनके मत से सहमत नहीं हूं।” यह कथन दर्शाता है कि मोहन राकेश स्वयं किसी रचना के लिए देशकाल और सामाजिक वातावरण को कितना महत्वपूर्ण मानते थे। समाज और वातावरण में यदि बदलाव होता है तो साहित्य पर भी उसका प्रतिबिम्बन अवश्यंभावी हो जाता है। इस प्रकार सच्ची रचना और सच्चा साहित्य वही है जो अपने समय, समाज और परिवेश का ईमानदारी और सक्रियता के साथ प्रतिनिधित्व करे। अपने जीवन काल में उन्होंने जब से लेखन शुरू किया तब से जीवन पर्यंत अनवरत लेखन करते रहे और बदलते समय और समाज के साथ संवाद करते रहे। उनकी रचनाएं न केवल अपने परिवेश को बयां करती है वरन कालदर्शी होने के कारण आज तक अपनी अर्थवत्ता बनाए हुए हैं।

स्वतंत्रता के पश्चात हमारे नए बने समाज में जिन नए मूल्यों की स्थापना हुई मोहन राकेश उन मूल्यों के प्रतिनिधि रचनाकार हैं। नई राजनीतिक व्यवस्था होने के बावजूद देश की सामान्य जनता की हालत सुधरने की बजाय और बिगड़ती गई। भारतीय समाज में जिन्होंने नए सपनों की आकांक्षा पाल ली थी कुछ ही समय में वह बदले नजर आने लगे। भारत विभाजन और सांप्रदायिक दंगों के कारण देश में उपजी परिस्थितियों ने मानवीय सपनों और आदर्शों को छलनी कर दिया। एक के बाद एक आती संघर्ष की स्थितियों को देखते हुए मोहन राकेश ने लिखा है, “मेरा अपना विचार है कि विभाजन से संभवत: कुछ लाख लोग ही शिकार हुए जबकि इस देश के विभाजन के बाद की परिस्थितियों के तो करोड़ों लोग शिकार हुए। जिसने हम में से अधिकांश को तो कहीं अंदर भीतर से खत्म करके भी रख दिया था।…..हिंदुस्तान का विभाजन एक राजनीतिक विपत्ति थी, इसे केवल विपत्ति ही नहीं कहना चाहिए। इसे एक ‘राजनीतिक विपत्ति’ कहना पड़ेगा। …….लेकिन यह तो एक परिस्थिति मात्र थी, जबकि विभाजन के बाद जो कुछ हुआ वह एक साक्षात्कार था। हमें किसी परिस्थिति का नहीं बल्कि एक प्रक्रिया से साक्षात्कार करना था। और यह प्रक्रिया थी-जीवन के सभी पहलुओं में बढ़ता पतन। देश को गर्त में ले जाने वाले इस पतन से हमारे मूल्यों को ठेस नहीं पहुंची थी बल्कि हमें जीवन की डोर हाथों से फिसलती सी लग रही थी। रोजमर्रा की जिंदगी कहीं अधिक पराजित-सी लगती।” इस तरह मोहन राकेश ने न केवल अपनी रचनाओं में बल्कि सीधे तौर पर भी अपने समय एवं समाज को अभिव्यक्त किया है। मोहन राकेश ऐसे रचनाकार रहे हैं जिन्होंने निर्भीक और निडर होकर अपने समाज में पनप रही बुराइयों, कुरीतियों, लेखक की ईमानदारी, कलाकार की प्रतिबद्धता पर अपनी लेखनी चलाई है। वर्तमान के संशयग्रस्त लेखक का चित्रण बहुत कुशलता से उन्होंने अपने नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ में किया है। कालिदास को प्रतीक बनाकर लिखे गए इस नाटक में राजसत्ता के लोभ और अपने कर्म की प्रतिबद्धता के बीच पिस्ते कलाकार का मानस-संघर्ष दिखाया गया है। मोहन राकेश स्वयं इस नाटक के बारे में लिखते हैं, “मेरे विचार से ‘आषाढ़ का एक दिन’ कालिदास के बारे में नहीं है। मैं इस नाटक में आज के लेखक की दुविधा को चित्रित करना चाहता था। लेखक जो राज्य या इसी प्रकार की अन्य संस्थाओं द्वारा प्रस्तावित लोभ के प्रति आकर्षित होता है और दूसरी और कहीं अपने प्रति प्रतिबद्ध भी होता है और इसके लिए बेचारे कालिदास को बेकार ही नाटक में खींच कर ले आया गया और मैंने अधिकार क्षेत्र के लिए उनके ऊंचे स्थान से उन्हें थोड़ा गिरा भी दिया। लेकिन नाटक समकालीनता के बारे में ही है। मोहन राकेश ने वस्तुतः कालिदास के माध्यम से अपने ही परिवेश के रचनाकारों, कलाकारों की दोहरी मानसिकता पर व्यंग किया है। लेखकीय कर्म के प्रति इस प्रकार का करारा प्रहार आधुनिक साहित्य में इसके पहले कहीं नहीं मिलता है। स्वतंत्रता के बाद से कलाकारों का तेवर मानो कुंद सा पड़ता गया है। राज्याश्रय के लोभ में कलाकारों ने अपनी प्रतिबद्धता छोड़ शासन के प्रति वफादारी निभानी शुरू कर दी। वह अंदर से अपनी आत्मा की आवाज को अनसुना कर राजभक्ति में लीन होते गए। उनका विवेक उनके लोभ की भेंट चढ़ता गया। राज्याश्रयी रचनाकार अपनी सहज वृति को खोने लगा और राज्यानुरूप कृत्रिम वृत्ति को रचने लगा। कश्मीर का शासन करने से पूर्व कालिदास जिस तरह की हमने जिंदगी जीता था बाद में वैसा जीवन उसके लिए संभव नहीं था। प्रकृति की गोद में पले-बढ़े कालिदास के पास अब उसी     प्रकृति के लिए समय नहीं रह गया था। राज्य सत्ता प्राप्त करने के पूर्व और उसके बाद की स्थिति को निम्नलिखित संवादों से आसानी से समझा जा सकता है,

“मल्लिका : हमारा सौभाग्य होगा कि आप कुछ दिन इसे प्रदेश में रह जाएँ। यहां आपको असुविधा तो होगी परंतु…… ।

प्रियंगुमंजरी फिर विदग्धभाव से उसे देखती है।

प्रियंगुमंजरी : इस सौंदर्य के सामने जीवन की सब सुविधाएँ हेय हैं । इसे आँखों में व्याप्त करने के लिए जीवन भर का समय भी पर्याप्त नहीं। परंतु इतना अवकाश कहाँ है? कश्मीर की राजनीति इतनी अस्थिर है कि हमारा एक एक दिन वहाँ से दूर रहना कई कई समस्याओं को जन्म दे सकता है।….एक प्रदेश का शासन बहुत बड़ा उत्तरदायित्व है। हम पर तो और भी बड़ा उत्तरदायित्व है क्योंकि कश्मीर की स्थिति इस समय बहुत ही संकटपूर्ण है। वहाँ के सौंदर्य की ही इतनी चर्चा है परंतु हमें उसे देखने का अवकाश कहाँ रहेगा? इसलिए तुमसे स्पर्धा होती है, सौंदर्य का यह सहज उपभोग हमारे लिए केवल एक सपना है।” इस तरह प्रियंगुमंजरी एक कवि और कलाकार के राज्य सत्ता में आने के बाद आए परिवर्तनों को रेखांकित करती है।

कोई भी कवि अथवा कलाकार, नाटककार अपने समय और परिवेश की ही देन होता है। किसी भी उच्चस्तरीय कलाकृति या साहित्य की रचना अपने परिवेश से जुड़कर ही संभव हो सकती है। अपने काल और युग की चेतना के अभाव में रचना लंबे समय तक जीवित नहीं रह सकती है। ‘आषाढ़ का एक दिन’ में मोहन राकेश ने परिवेश के महत्व को कालिदास के माध्यम से व्यक्त किया है। कालिदास का वर्तमान परिवेश उसे प्रभावित नहीं कर पाता जब कि उसका पूर्व परिवेश रह रह कर उच्छ्वास भरता रहता है। अपने मूल से विच्छिन्न हो जाने के कारण कालिदास का मन स्थिर नहीं हो पाता है और इसकी पीड़ा बार-बार उसकी रचनाओं में दिखती है। मोहन राकेश कालिदास के माध्यम से कहलवाते हैं, “लोग सोचते हैं मैंने उस जीवन और वातावरण में रहकर बहुत कुछ लिखा है। परंतु मैं जानता हूँ कि मैंने वहाँ रह कर कुछ नहीं लिखा। जो कुछ लिखा है वह यहाँ के जीवन का ही संचय था। ‘कुमारसंभव’ की पृष्ठभूमि यह हिमालय है और तपस्विनी उमा तुम हो। मेघदूत के यक्ष की पीड़ा मेरी पीड़ा है और विरह विमर्दिनी यक्षिणी तुम हो। यद्यपि मैंने स्वयं यहां होने और तुम्हें नगर में देखने की कल्पना की …..मैंने जब जब लिखने का प्रयत्न किया तुम्हारे और अपने जीवन को फिर फिर दोहराया। और जब उसे से हटकर लिखना चाहा तो रचना प्राणवान नहीं हुई।” कालिदास का यह संवाद किसी लेखक से उसके परिवेश की अंतरंगता की अनिवार्यता को प्रमाणित करता है। इसी तरह ‘लहरों के राजहंस’ मोहन राकेश का एक नाटक है जिसमें उन्होंने अतीत कथा के माध्यम से आधुनिक जीवन की सम्वेदनाओं को उकेरने का सफल प्रयास किया है। पृष्ठभूमि के रूप में ऐतिहासिक कथानक में सांसारिक सुखों और आध्यात्मिक शांति के पारस्परिक विरोध का चित्रण है। मनुष्य द्वारा संपूर्णता की अंतहीन खोज एक ऐसा जीवनानुभव है जो अपनी प्रकृति में सार्वकालिक है। अश्वघोष के प्रसिद्ध महाकाव्य ‘सौंदरनंद’ की कथा भूमि पर आधारित इस नाटक में द्विविधा ग्रस्त मनस्थिति का अत्यंत प्रभावशाली वर्णन किया गया है, “बुद्धि का गौरव उसे अपनी ओर खींच रहा था और सुंदरी का अनुराग अपनी ओर। इसी दुविधा में उससे न जाते बन रहा था ना रुकते। उसकी स्थिति लहरों पर डोलते हुए राजहंस की सी हो रही थी।” इस प्रकार अंतहीन चलने वाले मनुष्य के द्वंद्व के अतिरिक्त नाटककार ने ‘नंद’ के रूप में एक संशयी, अस्थिर और अनिश्चित मन वाले व्यक्ति को भी चित्रित किया है। इस व्यक्ति को स्वतंत्रता के बाद हुए मोहभंग की उपज माना जा सकता है। मोहभंग के बाद पैदा हुई परिस्थितियों ने आम जन को मझधार में फंसे रहने को विवश किया। आर्थिक सामाजिक असुरक्षा के कारण व्यक्ति के मानवीय मूल्यों में भी ह्रास हुआ। आमजन, नितांत अकेलेपन में रहने को मजबूर हुए। वर्गभेद बढ्ने लगा और अमीर गरीब के बीच अंतर भी बढ्ने लगा। मानवीय मूल्यों के ह्रास के बारे में धर्मवीर भारती ने लिखा है, “सांस्कृतिक संकट या माननीय तत्व के विघटन की जो बातें बहुधा उठाई जाती रही हैं, उसका तात्पर्य यही रहा है कि वर्तमान युग में ऐसी स्थितियाँ उत्पन्न हो चुकी हैं जिसमे अपनी नियति के, इतिहास निर्माण के स्रोत मनुष्य के हाथों से छूटते हुए लगते हैं। मनुष्य दिनों-दिन निरर्थकता की ओर अग्रसर होता  प्रतीत होता है। यह संकट केवल आर्थिक या राजनैतिक संकट नहीं है। वरन जीवन के सभी पक्षों में समान रुप से प्रतिफलित हो रहा है। यह संकट केवल पश्चिम या पूर्व का नहीं है वरन समस्त संसार में विभिन्न धरातलों पर विभिन्न स्वरों में प्रकट हो रहा है।” अपने मूल्यों के इस संकट का प्रभाव तत्कालीन सभी साहित्यकारों की रचनाओं के ऊपर पड़ा। ‘लहरों के राजहंस’ में नाटककार नंद के माध्यम से आम आदमी की विवशता को व्यक्त करता है, “तब नहीं लगा था पर अब लगता है कि केश काटकर उन्होंने मुझे बहुत अकेला कर दिया है। घर से और अपने आप से भी अकेला। जिस सामर्थ्य और विश्वास के बल पर जी रहा था उसी के सामने मुझे असमर्थ और असहाय बनाकर फेंक दिया गया है। लगता है मैं चौराहे पर खड़ा एक नंगा व्यक्ति हूं जिसे सभी दिशाएं लील लेना चाहती हैं और अपने को ढकने के लिए उसके पास कोई आवरण नहीं है। परंतु मैं इस असहायता की स्थिति में नहीं रह सकता। अस्तित्व अनस्तित्व के बीच मेरी चेतना को एक प्रश्नचिन्ह… केवल एक प्रश्नचिन्ह बना कर छोड़ दिया गया है।” एक आदमी का अनिश्चय से भरा जीवन मोहन राकेश के एक अन्य महत्वपूर्ण नाटक आधे-अधूरे में भी है। इस नाटक की कथावस्तु वर्तमान और आधुनिक जीवन स्थितियों पर आधारित है. यह समकालीन जिंदगी की विडंबना और उसकी समस्याओं के अनेक पहलुओं को चित्रित करता है। इस नाटक की केंद्रीय पात्र सावित्री पूर्णता की खोज में जीवन भर इधर उधर भटकती रह जाती है। अपने परिवार और समाज में अनेक लोगों की अपेक्षाओं आकांक्षाओं पर  खरा न उतर पाने का अफसोस भी किस कदर मनुष्य को सामाजिक रूप से तोड़ कर रख सकता है, इस नाटक में दिखाया गया है। यही स्थिति आगे चलकर अकेलेपन का भी कारण बनती है। इस नाटक में नई पीढ़ी के युवक की हताशा और असफलता से उत्पन्न आक्रोश एवं घृणा की स्थिति को आसानी से देखा जा सकता है। इस नाटक का केंद्रीय भाव मनुष्य की इच्छाओं के अधूरे रह जाने की नियति है। मोहन राकेश इसे इस तरह के संवादों से अभिव्यक्त करते हैं, “….क्योंकि तुम्हारे लिए जीने का मतलब रहा है कितना कुछ एक साथ होकर, कितना कुछ एक साथ पाकर और कितना कुछ एक साथ ओढ़ कर जीना। वह उतना कुछ कभी तुम्हें एक जगह न मिल पाता इसलिए जिस किसी के साथ भी जिंदगी शुरु करती तुम, हमेशा इतनी ही खाली, इतनी ही बेचैन बनी रहती।” इसी तरह ही एक नाटककार के रूप में उन्होंने जीवन और दुख के दर्शन को भी अपने पाठकों के सम्मुख रखने का प्रयास किया है। इस नाटक के शीर्षक में आए ‘आधे-अधूरे’ शब्द पर वह लिखते हैं कि अधूरे का मतलब ‘इनकंप्लीट’ और आधे का मतलब ‘हाफ’ है। यह आज के सामान्य वर्ग से संबंधित है जो अपने में आधा भी है और अधूरा भी। यह इस शहर के एक मध्यवर्गीय परिवार की कहानी है जिसे परिस्थितियाँ निचले वर्ग की ओर धकेलती जा रही हैं। उनके जोश, इच्छाएं, संघर्ष और इसके साथ साथ स्थिति का हाथ से फिसल जाना, मैंने सब कुछ इसमें दिखाने की कोशिश की है। इस तरह यह स्पष्ट कहा जा सकता है कि मोहन राकेश अपने समय ओर समाज से संपृक्त रचनाकार रहे हैं। उनके युग की परिस्थितियां उनकी रचनाओं में साफ झलकती हैं। स्वतंत्रता के बाद उपजी परिस्थितियों और सामान्य मनुष्य पर उसके प्रभाव का चित्रण जिन जिन साहित्यकारों ने किया है मोहन राकेश उनमें प्रमुख है। अपने युग, समय और समाज को सूक्ष्मता से समझने की दृष्टि उन्हें उनके समकालीन रचनाकारों से विशिष्ट बनती है।

संदर्भ ग्रंथ :

  1. समाज और साहित्य: मुक्तिबोध रचनावली,भाग-5। संपा० नेमिचन्द्र जैन,पृ० 66
  2. साहित्य और संस्कृति,मोहन राकेश,राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 1990, पृ० 53
  3. वही,पृ० 135
  4. आषाढ़ का एक दिन, मोहन राकेश, राजपाल एंड संस, दिल्ली, 2000, पृ० 68
  5. वही,पृ० 99
  6. लहरों के राजहंस (भूमिका),मोहन राकेश,राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1965
  7. मानव मूल्य और साहित्य,धर्मवीर भारती, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, 1990, पृ० 1
  8. लहरों के राजहंस,मोहन राकेश,राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1991, पृ० 121
  9. आधे अधूरे,मोहन राकेश, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 1990, पृ० 89

राकेश डबरिया
शोधार्थी
राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *