“बिशेश्वर| ऐ भाई बिशेश्वर! कौना सोच में डूबे हो भैया?”
“कुछ नहीं |” अनमने से बिशेश्वर ने बात टाल दी।
“चाह पियोगे?” जरनैल सिंह ने बात पलट दी| बिशेश्वर ने सर हिला, हामी भर दी | रात के एक बजे नींद और थकान, दोनों ही हावी होने लगते हैं | अगर आप वरिष्ठ नागरिक हैं और प्लेटफार्म पर ट्रेन का इंतज़ार कर रहे हैं, तो मामला और भी कष्टप्रद हो जाता है |
मुगलसराय रेलवे स्टेशन मुंबई शहर की तरह है, कभी नहीं सोता! रेलों के रेले और भीड़-झमेले यहाँ की ख़ासियत हैं| कहते हैं कि मुगलिया सल्तनत में आगरा और बंगाल के बीच यही जगह व्यापारियों और सेना के आराम करने की सबसे बड़ी जगह हुआ करती थी | अब इतिहास का क्या है – वो तो गुजरते लम्हों के साथ कहीं खो गया है | सच क्या है और झूठ क्या, ये तो भगवान ही जाने| आज की सच्चाई तो यही थी कि बचपन के दो यार – बिशेश्वर और जरनैल मुगलसराय स्टेशन पर “श्रवण एक्सप्रेस” के इंतज़ार में बैठे थे |
दोनों ने जब से होश संभाला, अपने को एक-दूसरे के साथ ही पाया| कब मिले, कैसे मिले, ये कभी नहीं सोचा| बस इतना याद है कि एक बार कौनो “लाल बाबू” आये थे| बोले कि हम चाहते हैं कि आप सब पढ़े, देश को आगे ले जायें| गाँव के प्राथमिक विद्यालय से निकल जरनैल बनारस चला गया था – आठवीं की परीक्षा देने| इसी बीच खबर आई कि चीनियों ने भारत पर हमला कर दिया है| कुछ समय बाद जब जरनैल लौटा तो फौजी वर्दी में था| युद्ध ने उसके लिए रोज़गार के दरवाज़े खोल दिए थे| कुछ दोस्त की प्रेरणा और कुछ तकदीर का खेल, बिशेश्वर भी किस्मत आज़माने भोले की नगरी – काशी चला आया| शादी-ब्याह-बच्चों के बीच बिशेश्वर ज़िन्दगी के मोर्चे पर तो जरनैल युद्ध के मोर्चे पर व्यस्त हो गया| देश एक ना’पाक पड़ोसी की साजिशों का सामना कर रहा था| इसी समय देश के प्रधानमंत्री जी ने नारा दिया – जय जवान, जय किसान! बिशेश्वर को याद आया कि ये तो वही “लाल बाबू” हैं जो उनके गाँव आये थे|
“यात्रीगण कृपया ध्यान दें| लखनऊ से चल कर पुरी को जाने वाली श्रवण एक्सप्रेस प्लेटफार्म संख्या चार पर आने वाली है|” उद्घोषणा ने बिशेश्वर को बचपन से वर्तमान में ला खड़ा किया था| दोनों ही खड़े होकर उस ओर देखने लगे जिधर से ट्रेन आने वाली थी| चूँकि यह एक विशेष यात्रा रेल थी, इसलिए कोई आपा-धापी नहीं थी| उनके अपने-अपने बर्थ पर लेटते ही नींद ने अपनी चादर पसार दी|
“बिशेश्वर| भईवा जागो| भोर होने को है|”
“हाँ भईया|”
“ई लौ, हम तोहरे खातिर चाह लिए रहे”
पत्नी के गुजर जाने के बाद आज ये पहला मौका था जब किसी ने उसके हाथ में अल-सुबह चाय का प्याला दिया था| कलावती की याद आते ही उसकी आँखें नम हो आईं| अपने आँसुओं को छिपाने के लिए वह बाहर की ओर देखने लगा| पटरियों के निकट की वस्तुएँ बड़ी ही तेजी से पीछे की ओर भाग रही थी| पर वो मकान और बांस का झुरमुट, जो दूर से सबको देख रहा था, बड़ी देर तक साथ चलता रहा| बिशेश्वर को लगा कि उसकी ज़िन्दगी के भी दो हिस्से हैं| एक वह जो तेजी से गुजर जा रहा है| दूसरा वह जो दूर खड़ा उसे ही देख रहा है| शादी के बाद चार लड़कियाँ हो गईं तो उसने और कलावती ने जाने कहाँ-कहाँ मन्नत मांगी थी| “मान” पैदा हुआ तो मानो समाज में उसका मान बढ़ गया| बच्चों की पढाई और उनकी शादी के बीच एक दिन कलावती चुपके से उसे अकेला छोड़ गई| उमर हुई तो खेती-किसानी बस की बात न रही| बस| एक दिन चल दिया बेटे के पास!
“बाबूजी आप!” मान को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था| उसने जैसे ही बिशेश्वर के पांव छुए, उसने बेटे को गले से लगा लिया| बेटे-बहु और पोता-पोती से साथ एक हफ्ता हो गए तो एक दिन उसने बेटे को बुलाया –
“देखो बिटवा, अब हमार उमर होई गई है| खेती-किसानी अब संभलता नहीं है| तुम्हारी अम्मा भी रही नहीं|”
मौन के बीच मान ने बाबूजी के हाथों को पकड़ा तो आँखों से कलावती की यादें बह निकली| भावनाओं का ज्वार उतरा तो पिता-पुत्र निकल पड़े गाँव की ज़मीन बेचने| कचहरी में अँगूठा लगाने के बाद बिशेश्वर आखिरी बार अपने गाँव की मिट्टी को अलविदा कहने आया| कहते हैं कि जब मौत आती है तो सारी ज़िन्दगी एक फिल्म की भांति आँखों के आगे से गुजर जाती है| गाँव की वो पगडंडियाँ जिस पर वो दौड़ा करता था, वो बंसवाड़ी जिसमे छिपे “कलुआ” को रोटी खिला आता था, वो बरगद जिसके नीचे उसने भूत देखा था, गाँव के छोड़ पर वो तालाब जहाँ छिपे “लकड़सुंघा” बच्चों को जादुई लकड़ी सुंघा कर उठा ले जाते थे | आँखों के आगे एक-एक मंज़र यूँ घूम रहा था मानो अभी-अभी घटित हुआ हो| घर की दहलीज़ पार करते हुए उसे वो दिन भी याद आया जब उसकी कलावती उसका हाथ थामे इस घर के अन्दर आई थी | वो आई तो डोली में थी और गई | वहीँ, उसी जगह तो उसे रखा था | बिशेश्वर की आँखों से अश्रुधारा बह निकली | अनायास ही जब उसने अपने आँसू पोंछे तो हाथों से चाय छलक गया | विचारों का कारवाँ अतीत से वर्तमान में आ चुका था |
नाश्ता-खाना-चाय के साथ सुबह से शाम होने को आई| आते-जाते स्टेशनों की तरह जरनैल भी आता-जाता रहता| इतने से सफ़र में ही उसने कई दोस्त बना लिए थे पर एक बिशेश्वर था कि माटी के पुतले की तरह एक ही जगह पर बैठा था| ट्रेन की रफ़्तार की तरह उसके विचार और भावनाएँ भी रफ़्तार पर थीं| घर-ज़मीन के बिकते ही “मान” अपमान में बदलने लगा था| बात-बेबात की चिक-चिक, चीखना-चिल्लाना|
“क्या यही दिन देखने के लिए हमने तुम्हे पैदा किया था?” अपमान की पराकाष्ठा ने बिशेश्वर का खून खौला दिया था| झगड़े में अब बहू कूद पड़ी थी और बस, वो हो गया जो अकल्पनीय था| बहू बच्चों समेत मायके गई और पिता-पुत्र का सुख-चैन साथ लेती गई| शाम की दिया-बाती करने वाला कोई नहीं था तो अँधेरे के पौ-बारह हो गए| उस दिन उसे कलावती की जबरदस्त कमी महसूस हुई थी| अँधेरे में वो घंटो रोया था| आज कोई भी नहीं था जो उसके आँसू पोंछ देता, उसे सहारा देता| अगले ही दिन जब बेटे ने उनके हाथ में “श्रवण एक्सप्रेस” का टिकट रखा, दुनिया से उनका भरोसा उठ गया|
गाड़ी जब भुवनेश्वर से खुली तो जरनैल आ कर बैठ गया|
“बस भईया अब आ ही गए समझो|”
“अब उतरना है का?” बिशेश्वर ने पुछा|
“अरे अभी नहीं| अभी टैम है| प्लेटफार्म पर एक जना कहि रहे थे कि भगवान जगन्नाथ के दरबार में जबरदस्त भंडारा लगता है| उनके प्रसाद का अंश पेट में जाए तो समझो मोक्ष मिल गया!”
“ऐसा?”
“हाँ भईया| कह तो ऐसा ही रहे थे|”
घड़ी में करीब आठ बजने को होंगे की तभी हलचल होने लगी| शायद पुरी स्टेशन आ रहा था| बिशेश्वर भी उठ कर मुस्तैद हो गए|
“का भईया बिसेसर| सामान नाही लोगे?”
“अरे भाई, आदमी ई दुनिया में अकेला आता है और अकेला ही चला जाता है| फिर हम ई सामान से मोह काहे करें? अच्छा भईया, तुम लौट कर मान को बता देना कि पुरी-धाम में बाबूजी को मोक्ष मिल गया| एतना दिन तुम्हरा साथ मिला – भूल-चूक लेनी-देनी माफ़ करना भईया|” बिशेश्वर ने जरनैल के दोनों हाथ पकड़ लिए थे| ट्रेन जैसे ही रुकी, बिशेश्वर तेज़ी से भीड़ में विलीन हो गया, ठीक वैसे ही जैसे शरीर पंचतत्वों में विलीन हो जाता है|
“शायद यहाँ उसे मोक्ष मिल जाए” जरनैल धीरे से बोला|
राजेश कमल