किसी अंचल विशेष को आधार बनाकर लिखी जाने वाली औपन्यासिक कृति आंचलिक उपन्यास की श्रेणी में आती है। डॉक्टर धीरेंद्र वर्मा ने हिंदी साहित्य कोश में लिखा है कि ‘लेखक द्वारा अपनी रचना में आंचलिकता की सिद्धि के लिए स्थानीय दृश्यों, प्रकृति, जलवायु, त्योहार, लोकगीत, बातचीत का विशिष्ट ढंग, मुहावरे, लोकोक्तियां, भाषा के उच्चारण के विकृतियां, लोगों के स्वभावगत व व्यवहारगत विशेषताएं उनका अपना रोमांस, नैतिक मान्यताओं आदि का समावेश बड़ी सतर्कता और सावधानी से किया जाता है।’

आंचलिक उपन्यास को ‘रीजनल नोबेल’ का पर्याय माना जा सकता है। आंचलिकता शब्द अंग्रेजी के रिजन (region) शब्द का हिंदी पर्याय है। अंग्रेजी में टामस हार्डी आर्नल्ड बैनेट और विलियम फॉकनर जैसे आंचलिक उपन्यासकार हुए। अंग्रेजी में एक आनिस्थ अंग्रेज लेखिका मारिया एडवर्थ (1868 से 1849) आंचलिक उपन्यासकारों में एक है।

आंचलिकता का चित्रण समस्त भारतीय साहित्य में हुआ। बांग्ला में विभूतिभूषण बंद्योपाध्याय, सतीनाथ भादुड़ी, मराठी में गो० नी० दांडेकर, पंजाबी में गुरुदयाल सिंह आदि आंचलिकता का चित्रण अपनी रचनाओं में करते हैं। – “आंचलिक उपन्यास में किसी पिछड़े हुए अंचल या किसी अपरिचित या अर्धपरिचित जाति के जीवन को पूरी सहृदयता के साथ चित्रित किया जाता है। “1

आंचलिक उपन्यास के अंतर्गत किसी राष्ट्र के क्षेत्र विशेष (अंचल) में रहने वालों के निजी जीवन की विशेषताओं का चित्रण किया जाता है, जिनमें अन्य क्षेत्रों से भिन्न और विशिष्ट विशेषताएं होती हैं। आंचलिक उपन्यासकार उस अंचल या जाति के जीवन में रचा बसा होता है। वह उस अंचल के कोने-कोने से परिचित होता है जो उसके उपन्यास को आंचलिकता प्रदान करती है। उपन्यास के विकास के साथ-साथ आंचलिक उपन्यास की भावभूमि भी विस्तृत होती जा रही है। आंचलिक उपन्यास में उभरे अंचल की कथा विस्तार पूर्वक चित्रित की जाती है।

हिंदी में आंचलिक उपन्यासों की परंपरा का आरंभ फणीश्वरनाथ रेणु के मैला आंचल से माना जा सकता है। मैला आंचल (1954 ईस्वी) में रेणु ने पूर्णिया जिले के मेरीगंज को कथा का केंद्र बनाया है। मेरीगंज के विषय में कथा प्रचलित है कि डब्लू. जी. मार्टिन ने अपनी पत्नी मैडम मेरी के नाम पर इस क्षेत्र का नाम मेरीगंज रखा। मेरीगंज का वास्तविक नाम क्या था इसका ज्ञान उस क्षेत्र की सबसे बूढ़ी भैरो की मां को भी नहीं पता – “इस गांव का पुराना नाम किसी को याद नहीं अथवा आज भी नाम लेने में एक अज्ञात आशंका होती है।”2

यह क्षेत्र रौतहट स्टेशन से सात कोस पूरब में बूढ़ी कोशी को पार कर कमला नदी के किनारे स्थित है। जहां ताड़ और खजूर के पेड़ों से भरे जंगल को लोग ‘नवाबी तड़बन्ना’ कहते हैं। यद्यपि नदी का संबंध गांव की संस्कृति से है। मेरीगंज के लोगों का कमला नदी पर अटूट विश्वास है। उसके साथ कई प्रकार की मिथ (काल्पनिक) घटनाएं जुड़ी हुई हैं। मेरीगंज में कई कई टोलियां मौजूद हैं। तंत्रिमा, क्षत्रिय यदुवंशी गहलौत कुर्मी कुशवाहा आदि। परंतु शिक्षा के क्षेत्र में यहां के लोग बहुत पिछड़े हुए हैं। लेखक ने लिखा है – “सारे मेरीगंज में 10 आदमी पढ़े लिखे हैं – पढ़े-लिखे का मतलब हुआ अपना दस्तखत करने से लेकर तहसीलदारी करने तक की पढ़ाई। नये पढ़ने वालों की संख्या है पन्द्रह।”3

उपनिवेशवाद में पढ़े लिखे नहीं बल्कि अनपढ़ लोगों की आवश्यकता थी ताकि उन्हें अपना गुलाम बनाया जा सके। पूर्णिया जिले का मेरीगंज इस दृश्य को उजागर करता है। यह उनके शिक्षा नीति को भी दर्शाता है। संथाल टोली को गांव से अलग समझा जाता है। गांव इतना अधिक पिछड़ा हुआ है कि गांव के अत्यधिक लोग निरक्षर हैं। जिस कारण गांव में अंधविश्वास गरीबी, बीमारी भूखमरी फैली हुई है। सन् 1946 तक गांव के लोग मलेरिया सेंटर बनाने आए डिस्ट्रिक बोर्ड की टीम को देख डरकर भागने लगते हैं। बालदेव को पकड़कर लाने तथा शासक के द्वारा सम्मान दिए जाने पर एक दूसरी मानसिक गुलामी का पहलू उभर कर आता है। अर्थात सामान्य जन को मानसिक व शारीरिक रूप से गुलाम बनाना उनकी दमनकारी नीतियों का ही परिचायक है। अपने पिछड़ेपन के कारण ही गांव में तीन टोलियों (राजपूत, कायस्थ और यादव) का दबदबा है। इतना होने के बावजूद भी ब्राह्मण जो तीसरी शक्ति की भूमिका अदा करते हैं। अपना वर्चस्व बनाए हुए हैं। ब्राह्मणों की संख्या मुश्किल से 15-20 है परंतु वह अपना पुश्तैनी पेशा बरकरार रखे हुए हैं।

उपन्यास की कथा अंचल विशेष की कथा है परंतु रेणु ने यहां राजनीतिक गतिविधियों का जो स्वरूप अंकित किया है। उससे मेरीगंज के लोग अछूते नहीं हैं। उपन्यास जब सर्वप्रथम प्रकाश में आया तो आंचलिकता के प्रभाव में राजनीति को दबा दिया गया जबकि उपन्यास का आरंभ ‘मलेटरी ने चेथरू को गिरफ्तार कर लिया’4 से होता है। गांव में इस तरह की खबरें आग की तरह फैल गई। मलेटरी शब्द से स्पष्ट होता है कि ब्रिटिश औपनिवेशिक व्यवस्था तो थी ही उनकी दमनकारी नीतियों से दूर-दराज के गांव भी प्रभावित थे। मलेटरी के आतंक का भय उनके मन मस्तिष्क में छाया हुआ था। ‘रेणु ने उपन्यास में ब्रिटिश शासन तंत्र की व्यवस्था और उनके अत्याचारों का पर्दाफाश किया है।

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में कार्यरत विभिन्न राजनीतिक दल व उनकी सक्रिय विचारधाराओं और प्रवृत्तियों को उजागर किया है।’

गांव में दो मुख्य व्यक्तियों के माध्यम से राजनीतिक पार्टियों का प्रवेश होता है। 1942 तक राजनीतिक गतिविधियों की कोई छाया भी यहां दिखलाई नहीं पड़ती है। – ” 1942 के जन आंदोलन के समय इस गांव में न तो फौजियों का कोई उत्पात हुआ था और न आंदोलन की लहर ही इस गाँव तक पहुंच पाई थी।’’5

पूर्णिया जिले के मेरीगंज में सर्वप्रथम कांग्रेस के कार्यकर्ता बालदेव के माध्यम से सुराज की धारणा प्रवेश पाती है। बालदेव जिसे बांधकर ओवर सियर साहब के सामने इसलिए पेश किया गया था कि फरारी – सुराजी को पकड़वाने पर सरकार बहादुर की ओर से इनाम मिलेगा। ऐसे घोर पिछड़े गांव में राजनीतिक लहर उत्पन्न कर पाना कम साहस का कार्य नहीं है। जहां सिंघजी जैसे लोग निरक्षरता को कम और जाति को श्रेष्ठ मानते हैं। बालदेव का कांग्रेस पार्टी के स्वयंसेवक के रूप में चित्रित होने पर गांव में उसका मान सम्मान बढ़ जाता है। वहीं हरगौरी जैसे लोग भी मौजूद है जो सबों को एक जैसा समझते हुए पहले पहल ही बालदेव की धज्जियां उड़ा देता है – “आप तो लीडर ही हो गए आजकल कांग्रेस ऑफिस का चौका बर्तन कौन करता है।”….. अरे भाई सभी काशी चले जाओगे? पत्तल चाटने के लिए भी तो कुछ लोग रह जाओ। जेल क्या गए, पंडित जमाहिरलाल हो गए। कांग्रेस ऑफिस में भोंलटियरी करते थे अब अंधों में काना राजा बन यहां लीडरी छाँटने आया है। स्वयंसेवक न घोड़ा का दुम”….. बेईमान कहीं के! डिस्ट्रिक्ट बोर्ड से अस्पताल की मंजूरी हुई है, रुपया मिला है सब चुपचाप मारकर बेगार खोज रहे। चोर सब!…उठ जाओ दरवाजे पर से।”6

स्वतंत्रता के कुछ वर्षों पूर्व स्पष्ट रूप से किसी भी राजनीतिक पार्टी का व्यापक प्रभाव मेरीगंज गांव में नहीं पड़ा था। केवल कांग्रेस नेताओं का मूल रूप से महात्मा गांधी के व्यक्तित्व की हल्की छाया इनके मन में अवश्य दिखलाई देती हैl गांधी जी की सत्य और अहिंसावादी नीति भी बालदेव के माध्यम से ही गांव में प्रवेश पाती है। जहां यादव टोली के अंडोलन (आंदोलन) करने पर हिंसावाद को रोकने के लिए बालदेव अनशन करता है तथा यह बताता है कि भारथमाता का, गांधी जी का यह रास्ता नहीं है।

मैला आंचल को आंचलिक उपन्यास की श्रेणी में रखकर मूल्यांकन किया गया। स्वयं रेणु भूमिका में लिखते हैं – “यह है मैला आंचल, एक आंचलिक उपन्यास, कथानक है पूर्णिया, पूर्णिया बिहार राज्य का एक जिला है। इसके एक ओर है नेपाल, दूसरी ओर पाकिस्तान और पश्चिम बंगाल। विभिन्न सीमा रेखाओं से इसकी बनावट मुकम्मल हो जाती है, जब हम दक्खिन में संथाल परगना और पच्छिम में मिथिला की सीमा रेखाएं खींच देते हैं। मैंने इसके एक हिस्से के  एक गांव को पिछड़े गांव का प्रतीक मानकर इस उपन्यास – कथा का क्षेत्र बनाया है।”7

निसंदेह आंचलिकता की विशिष्टताओं से भरपूर मैला आंचल आंचलिक उपन्यास है। जिसमें भारथमाता जार बेजार हो रही है जिसका आंचल मैला है। पूर्णिया जिले का मेरीगंज का अंचल भी मैला है। कई प्रकार की कुरीतियों से अंधविश्वास और अवैध संबंधों से, पिछड़ापन गरीबी और गंदगी से, परंतु अंततः अत्यंत नाटकीय ढंग से उपन्यास का अंत दिखाकर रेणु ने सारे मैल को धो डाला है। फूल और शूल, धूल और कीचड़, चंदन और गुलाब से भरपूर यह कृति स्वतंत्रता पूर्व एवं पश्चात के राजनीतिक परिदृश्य को भी उजागर करती है। मैला आंचल में सन् 1942 की अगस्त आंदोलन की एक यंत्रणा पूर्व दीप्ति रूप में प्रस्तुत हुई है। तदुपरांत 1946 से आरंभ हो स्वराज आंदोलन से होते हुए 1947 में भारत की आजादी और 1948 में गांधी जी की तत्कालीन हत्या तक की कथा कहती है तथा तत्कालीन समय में पूर्णिया के मेरीगंज की स्थिति को उजागर करती है।

राजनीति का आरंभिक स्वरूप मेरीगंज गांव में जिस रूप में प्रवेश पाता है वह उत्तरोत्तर बढ़ता हुआ तथा निरंतर परिवर्तित होता रहता है। मेरीगंज में चार पार्टियों का विशिष्ट वर्चस्व है। कांग्रेस, सोशलिस्ट कम्युनिस्ट और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ( काली टोपी वाले) । परंतु इसमें भी मुख्य रूप से दो ही पार्टियों का वर्चस्व गांव में अधिक दिखलाई पड़ता है। कांग्रेस और सोशलिस्ट। कांग्रेस के कार्यकर्ता बालदेव कहता है -“हम तो सबों का सेवक है हम कोई बिदमान नहीं हैं, सास्तर पुरान नहीं पढ़े हैं। गरीब आदमी है, मूरख हैं। मगर महतमाजी के परताप से, भारथमाता के परताप से, मन में सेवा-भाव जन्म हुआ है और हम सेवक का बाना ले लिया। आप लोगों को तो मालूम है जयमंगल बाबूजी मेनिस्टर हुए हैं, अपना दस्तखत भी नहीं जानते हैं। बहुत छोटी जात का है वह भी गरीब आदमी थे, मूरख थे मगर मन में सेवा भाव था महतमाजी उसको मेनिस्टर चुन लिए।’ महतमाजी कहिन है-बैस्नव जन तो उसे कहते हैं जो पीर पराई जानता है रे।’ मोमेंट में जब गोरा मलेटरी हमको पकड़ा तो मारते मारते बेहोश कर दिया।”8

बालदेव की पीठ के निशान केवल उसकी यातना का नहीं बल्कि ब्रिटिश दमनकारी नीतियों का भी पर्दाफाश करते हैं। तत्कालीन समय में क्रांतिकारियों देशभक्तों और स्वतंत्रता सेनानियों पर सरकार किस प्रकार से अत्याचार करती थी। 1942 के मुक्ति आंदोलन को दबाने का जो कुचक्र ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने रचा उसका भी चित्रण मिलता है।

      रेणु ने आरंभ में कांग्रेस का जो स्वरूप दिखलाया है उस के माध्यम से गांव में अस्पताल खुलता है।चरखा सेंटर की स्थापना कपड़े बांटने की पुर्जी आदि कार्य संपन्न होते हैं ऐसा प्रतीत होता है कि गांव का विकास निश्चित है। अंततः इस विकास का चक्र समाप्त होता दिखलाई देता है।

 रेणु ने मुस्लिम लीग की स्थिति को भी अत्यंत संक्षिप्त परंतु महत्वपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया है। कपड़ा, तेल, चीनी की पुर्जी बांटने वाले कमलदाहा के कमरुद्दीबाबू आंख मूंद कर बिलेक (ब्लैक) करते हैं। खुशायबाबू ने हाकिम से कहा “पब्लिक बहुत शिकायत करती है।” कमरुद्दीबाबू ने हंसते हुए पूछा – “हिंदू पब्लिक या मुसलमान?” हाकीम जी समझ गए – कमरुद्दीबाबू लीगी हैं, इसीलिए लोग झूठ – मूठ दोख लगाते हैं,… अब तो बालदेव जी पुर्जी देंगे। बालदेव जी को बिलैती कपड़ा से क्या जरूरत? खध्धड़ को छोड़कर दूसरे कपड़े को छूते भी नहीं… छूते हैं, छूने में हर्ज नहीं…”9

मेरीगंज में एक भी मुसलमान परिवार नहीं है। देश की इतनी बड़ी आबादी के बीच जब भारत और पाकिस्तान का बंटवारा भी नहीं हुआ था मुसलमानों का न मिलना ऐसा तो नहीं कि उन्हें जानबूझकर हाशिए पर ढकेल दिया गया है अथवा उन्हें अनदेखा किया गया हो। प्रेमचंद के बाद ग्रामीण जीवन की सशक्त अभिव्यक्ति करने वाला उपन्यास मैला आंचल में भी मुसलमान नाम मात्र के नहीं है। रेणु ने भी उनकी उपेक्षा ही की है। हिंदी साहित्य का सशक्त उपन्यास गोदान जिसके बिना हिंदी साहित्य के उपन्यास विधा की चर्चा संभव नहीं जो ग्रामीण और शहरी क्षेत्र का विस्तृत स्वरूप अंकित करता है वहां भी मुसलमानों को हाशिए पर धकेल दिया गया है। राजनीतिक संदर्भ में यह बात सचमुच खटकती है कि स्वराज प्राप्ति में हिंदू-मुसलमान सब ने भाईचारे का परिचय दिया था। इतिहास साक्षी है कि उन्होंने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका देश को स्वतंत्र कराने में अदा की परंतु उनकी अनदेखा किया जाना कहीं ना कहीं खटकता है।

आर्य अर्थात शुद्ध हिंदू के विषय में काली टोपी वाले संयोजक जी बौद्धिक क्लास में रोज कहते हैं – “यवनों ने हमारे आर्यावर्त की संस्कृति, धर्म, कला कौशल को नष्ट कर दिया है। अभी हिंदू संतान म्लेच्छ संस्कृति की पुजारी हो गई है। शिवाजी, महाराणा प्रताप……”

हरगौरी कहता है – ” यवनों पर मुझे क्रोध नहीं होता। यवनों का पक्ष लेने वाले हिंदुओं की तो गर्दन उड़ा देने को जी करता है।”10 पूरे मेरीगंज में एक भी मुसलमान नहीं है।

उपन्यास में एक पात्र शहर का मौलवी दिखलाई देता है जो कचहरी की मोड़ पर फल की दुकान में बैठा इंकिलास जिंदाबाघ का नारा लगाते हुए जुलूस को देख हंसता है  – “सब कपड़ा लेने आए हैं! जाओ – जाओ, मिलेगा कपड़ा इंकिलाब बोलता है। मतलब भी समझता है या….”11

मेरीगंज के लोगों को हिंदुस्तान, आजादी और गांधीजी को छोड़कर और कोई बात समझ में नहीं आती। प्रदीप सक्सेना के शब्दों में – ” राजनीति गांव में जन्म लेती है और एक मूल उत्पादक वर्ग किसानों को केंद्र में रखकर चलती है, अतः हमें यह देखना होगा कि गांव को देखने परखने का यह नया अंदाज है। अगर यह नया न होता तो रेणु न होते! प्रेमचंद की कोई घिसी हुई कार्बन कॉपी होते।”12

      कालीचरण के माध्यम से रेणु में सोशलिस्ट पार्टी का रूप भी प्रस्तुत किया है। सोशलिस्ट पार्टी को क्षण भर में व्याख्या कर पार्टी के जिला मंत्री जी मेरीगंज में पहुंच बनाना चाहते हैं। पार्टी में कामरेड का अर्थ साथी अर्थात जहां सब साथी हैं वहां भी राजनीति में जाति पाति का भेदभाव दिखलाई देता है। – ‘‘मेरीगंज में सबसे ज्यादे यादवों की आबादी वहां आपका जाना ही ठीक होगा वहां ऑर्गेनाइज करने में कोई दिक्कत नहीं होगी।”13

कालीचरण जैसे अनपढ़ व्यक्ति के लिए समाज को कुछ घंटों में समझ लेना असंभव लगता है परंतु उसके समझने से ज्यादा सदस्यता ही काफी थी। अतः संघर्ष का मूल स्वरूप समझे बिना केवल यादवों की संख्या अधिक होने के कारण यादव को ही वहां भेजा जाना पार्टी के कार्यकर्ता को उचित प्रतीत होता है। 17 मई 1934 में नरेंद्र देव की अध्यक्षता में कांग्रेस सोशलिस्टों का जन्म एवं सम्मेलन हुआ। कालीचरण के माध्यम से रेणु ने स्पष्ट किया है कि जुलूस में आते वक्त कांग्रेस के सदस्य और जाते वक्त सोशलिस्ट इस बात को उजागर करता है कि कांग्रेस से ही सोशलिस्ट अर्थात समाजवादी पार्टी का जन्म हुआ। वहां जो सदस्य बने थे वह यहां से टूटकर ही गए थे। समाज की भलाई संघर्ष के बल पर अर्थात अहिंसा का त्याग कर बलपूर्वक कार्य करना ही उनका महत्वपूर्ण उद्देश्य था। कालीचरण को सोशलिस्ट पार्टी अंत में दूध की मक्खी की तरह निकाल फेंकती है। कॉमरेड वासुदेव, सुंदरलाल और सोशलिस्ट कालीचरण सभी को डकैती के केस में फंसा कर गिरफ्तार कर लिया जाता है।

कालीचरण से अत्यधिक लोग इसलिए भी प्रभावित होते हैं क्योंकि वह कमाने खाने और सबको साथ लेकर चलने की बात करता है।

“जो जोतेगा सो बोयेगा।

 जो बोएगा सो काटेगा।

 जो काटेगा वह बाँटेगा।”14

गांव में जहां चार – चार पार्टियां काम कर रही है वहीं गांव की दशा दिन प्रतिदिन दयनीय होती जाती है। गांव के वे लोग जिन्हें अर्थशास्त्र का साधारण ज्ञान नहीं है वह डिमांड और सप्लाई जैसी बातों से स्वयं को दरकिनार कर केवल इतना ही समझ कर खुश हो जाते हैं कि अनाज का दर बढ़ रहा है उसके साथ-साथ महंगाई भी बढ़ रही है यह उनकी समझ से परे है कि ₹15 में साड़ी मिलती है तो ₹12 मन धान। जबकि अनाज के बढ़ते दर से गांव के केवल तीन व्यक्तियों को ही फायदा पहुंचा है। तहसीलदार, सिंघजी और खेलावनसिंह यादव को। यह वह गांव है जहां – “कपड़े के बिना सारे गांव के लोग अर्धनग्न है। मर्दों ने पैंट पहनना शुरू कर दिया है और औरतें आंगन में काम करते समय एक कपड़ा कमर में लपेट कर काम चला लेती हैं। 12 वर्ष तक के बच्चे नंगे ही रहते हैं।”15

चरखा सेंटर खुलने के बाद भी गांव की स्थिति में कोई विशेष सुधार नहीं दिखलाई देता है। आरंभ में जब राजनीति की कोई विशिष्ट हलचल नहीं थी । तब तक सभी गांव वाले कांग्रेस पार्टी को ही तरजीह देते हैं परंतु जैसे ही कई पार्टियों का प्रवेश गांव में होता है तो सभी एक दूसरे पर लांछन लगाने लगते हैं। पार्टियों को लेकर आपस में ही झगड़े शुरू होते हैं और एक दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश की जाती है। – “भाई आदमी को एक ही रंग में रहना चाहिए। यह तीन रंग का झंडा… थोड़ा सादा थोड़ा लाल और पीला… यह तो खिचड़ी पार्टी का झंडा है। कांग्रेस तो खिचड़ी पार्टी है। इसमें जमींदार है, सेठ लोग हैं और पासंग मारने के लिए थोड़ा किसान मजदूरों को भी मेंबर बना लिया जाता है। गरीबों को एक ही रंग के झंडे वाली पार्टी में रहना चाहिए। “16

रेणु किसी भी पार्टी का पक्ष लेते नहीं दिखलाई पड़ते बल्कि सभी पार्टियों की वास्तविक स्थिति को चित्रित करते हैं। इतनी पार्टियां होने के बावजूद भी गांव में विकास केवल नाम के लिए ही रह जाता है। आरंभ में जो पार्टियां गरीबों मजदूरों के पक्ष के लिए खड़ी दिखलाई देती है वही बाद में जाकर कई टुकड़ों में बंट जाती है। उसके मूल तथ्य गायब हो जाते हैं। गायब होकर जाति पाति और उच्च वर्गों में बंट जाते हैं। कालीचरण जो आरंभ में बालदेव का संगी साथी बन कार्य करता है वही बाद में उसके विरुद्ध खड़ा हो जाता है। वहीं दूसरी ओर बालदेव कांग्रेस की, गांधी महात्मा की अहिंसा की नीति का हवाला देते हुए एकता की बात करते हैं। जमीन की नगदी के विषय में बालदेव बताते हैं – ” यदि बिना तूलफजूल किए ही जमीन नगदी हो रही है तो सोशलिस्ट पार्टी में जाने की क्या जरूरत है? कांग्रेस का राज है, जिस चीज की जरूरत हो, कांग्रेस के मंत्री जी से कहो कानून बना देंगे। तब एक बात है। इस तरह छिटपुट होकर कहने से कांग्रेस के मंत्री भी कुछ नहीं कर सकते हैं। सबों को एक जगह मिलना चाहिए, मिलकर एक ही बात बोलनी चाहिए। 10 मिलकर करो काज, हारो जीतो क्या है लाज!… गलती तो पबलि की है कोई कांग्रेस में तो कोई सुशलिट में तो कोई काली टोपी में, इस तरह तितर-बितर रहने से पबलि की कोई भलाई नहीं हो सकती। “17

कांग्रेस और सोशलिस्ट पार्टी दोनों अपना-अपना मेंबर बनाने में लगे रहते हैं। चक्की के दो पाटों में गरीब लोग ही पिस जाते हैं। उन्हें यह उम्मीद है कि दो दलों में यदि मुकाबला हो तो फायदा पब्लिक का होता है परंतु अंततः जमीन भी नहीं मिलती और किसानों का माटी से मोह नहीं छूटता। उनके हाथ से जमीन निकल जाती है। उनकी दरखास्तों को नामंजूर कर जमीन बंदोबस्ती कर दी गई थी।

 कांग्रेस के ईमानदार और निःस्वार्थ कार्यकर्ता के रूप में डेढ़ हाथ के बावनदास का चित्रण हुआ है परंतु उपन्यास के अंत तक आते-आते उसकी स्थिति भी संथालो सी हो जाती है। उपन्यास का मुख्य पात्र बावनदास (बावन भगवान) कांग्रेस के कार्यकर्ता के रूप में चित्रित है। जो अपना सर्वस्व अंततः सत्य और अहिंसा के मार्ग पर लुटा देता है। आजादी में जिन्होंने अपना सर्वस्व लगा दिया। उनका मोहभंग होता है। जिस भगवान से गांधी जी को भी ईर्ष्या होती है। बावनदास के माध्यम  रेणु भ्रष्टाचार का स्वरूप खींचते हैं -बिलैती कपड़ा के पिकेटिंन के जमाने में चानमल सागरमल के गोला पर पिकेटिंन के दिन क्या हुआ था, सो याद है तुमको बालदेव? चानमल मड़बाड़ी के बेटा सागरमल ने अपने हाथों सभी भोलटियरों को पीटा था। जेहल में भोलटियरों को रखने के लिए सरकार को खर्चा दिया था। वही सागरमल आज नरपतनगर थाना कांग्रेस का सभापति है और सुनोगे दुलारचंद कापरा को जानते हो न? वही जुआ कंपनीवाला। एक बार नेपाली लड़कियों को भगाकर लाते समय जो जोगबनी में पकड़ा गया था। वह कटहा थाना का सेक्रेटरी है.. भारथमाता और भी ज़ार बेज़ार रो रही है।”18

भारत माता के जिस स्वरूप को देखकर  बावनदास को लगता है कि भारत माता रो रही है उसी को एक नए दृष्टिकोण से डॉक्टर प्रशांत देखता है। उसे धरती का आंचल मैला नहीं बल्कि स्वर्णांचल लगता है। गेहूं की सुनहरी बलियाँ, ताड़ के पेड़, झरबेरी का जंगल, कमल के पत्तों से भरे कमला नदी के गड्ढे, कोयल की कूंके आदि की मिठास से धरती सुंदर हो उठी है। तीसरी ओर काली टोपी वाले का जो स्वरूप रेणु ने दिखाया है वह अत्यंत संक्षिप्त होने के बाद भी सशक्त है। वह अखंड हिंदुत्व की बातें करते हैं – ” जिस तरह तहसीलदारी कायस्थों के हाथों से राजपूतों के हाथ में आई है, उसी तरह सारे आर्यावर्त के राजकाज का भार हिंदुओं के हाथ में आएगा और उस दिन आर्यावर्त के कोने-कोने में हिंदू राज की पताका लहराएगी।”19

हिंदुत्व की बात करने वाले संयोजक जी का पर्दाफाश करते हुए रेणु ने बताया है कि संयोजक जी महीने में दो बार अपने घर मनी आर्डर भेजते हैं। सभी अपने-अपने पार्टी की आड़ में गरीब मजदूरों और किसानों को ही लूटते और अपना घर भरते नजर आते हैं।

कालीचरण का वक्तव्य जो युगों से पीड़ित उपेक्षित और दलित लोगों के दिलों में आग लगाना चाहता है उनको उनका अधिकार दिलवाने के लिए निरंतर संघर्षरत है। उसकी कही बातें लोगों के घाव में ठंडा लेप (मरहम) का काम करती है। – “मैं आपलोगों के दिल में आग लगाना चाहता हूं। सोए हुए को जगाना चाहता हूं। सोशलिस्ट पार्टी आपकी पार्टी है गरीबों की मजदूरों की पार्टी है। सोशलिस्ट पार्टी चाहती है कि आप अपने हकों को पहचानें। आप भी आदमी है आपको आदमी का सभी हक मिलना चाहिए। मैं आप लोगों को मीठी बातों में भुलाना नहीं चाहता वह कांग्रेस का काम है मैं आग लगाना चाहता हूं।”20

वह किसानों की जमीन उन्हें दिला देना चाहता है। पूंजीवाद का नाश की बातें करता है। उसकी बातों का प्रभाव केवल गांव के सभी टोलियों पर ही नहीं बल्कि संथालो पर भी पड़ता है। यहां तक कि कांग्रेस पार्टी में आई तल्खियों के कारण बालदेव भी उससे प्रभावित दिखलाई देता है। कांग्रेस अमीरों की पार्टी के रूप में अपना प्रभुत्व विकसित करती दिखलाई देती है। बालदेव चाहकर भी अपने को उससे अलग नहीं कर पाता क्योंकि कालीचरण को वह अपना चेला मानता है। – “चौधरी जी को वह सब दिन से गुरु की तरह मानता आ रहा है, कभी किसी काम में तरौटी नहीं होने दिया। इतना चौअन्नियाँ मेंबर बना कर दिया। गांव में चरखा सेंटर खुलवा दिया, लेकिन जिला कमेटी के मेंबर तहसीलदार हो गए। बालदेव को कोई खबर नहीं दी गई कपड़ों की मेंम्बरी भी नहीं रही। नीमक कानून के समय जेल जाने का यही बख्शीस मिला है। “21

      जिस जमीन का स्वप्न दिखाकर  मेरीगंज के किसानों में उम्मीद की ज्योति जलाई गई थी। उसकी जिम्मेदारी कांग्रेस नहीं उठाती बल्कि यह कहकर अपने आपको अलग कर लेती है कि लोगों का नैतिक पतन हो गया है। जिन लोगों ने जमीन का दावा किया होगा उनमें से पंचानवे सैकड़े लोगों ने गलत और झूठा दावा किया होगा जिस कारण हक वाले लोग बेमौत मर गए। कहने का अर्थ है कि इसमें कानून का कोई दोष नहीं। 1948 के पहले बालदेव, कालीचरण सभी सत्ता के प्रभुत्वशाली वर्ग के साथ खड़े दिखलाई देते हैं। परंतु संघर्ष में चार संथाल के मारे जाने पर भी कोई उनके साथ खड़ा होता नहीं दिखलाई देता। संथाल टोली को पूरी तरह से लूट लिया गया। -“संथाल लोग अच्छी तरह जानते हैं, कोई साथ देने वाला नहीं। धरमपुरा में देखा नहीं ? ऐसा ही हुआ। इसलिए बड़े बूढ़े ठीक कह गए हैं – यहां के लोगों का विश्वास मत करना जब जिसका फायदा हो ले लेना, मगर किसी के साथ मत होना। संथाल-संथाल है और दिक्कू दिक्कू पंचाय देह को पत्थल की तरह मजबूत बनाता है और पीकर देखो यहां का दारू, पत्थल को गला देगा। हरगिज़ नहीं। दिक्कू आदमी, भट्टी का दारू इसका बिसवास नहीं।…. अरे तीर तो है! यही सबसे बड़ा साथी है। साथी साथ छोड़ सकता है; तीर कभी चूकता नहीं।”22

विद्रोह के बाद जब संथालों को गिरफ्तार किया गया तब भी गैर संथाल लोगों में से किसी की गिरफ्तारी नहीं हुई क्योंकि पुलिस और प्रशासन दोनों ही प्रभुत्वशाली वर्गों का साथ देती हैं। यद्यपि डॉ प्रशांत पूरी सहानुभूति दिखलाता है परंतु उसके विषय में भी मिथ्या अफवाह फैला दी जाती है कि उसने भी संथालों के विरुद्ध रिपोर्ट दी थी। जिसका स्पष्टीकरण डॉ प्रशांत बाद में कालीचरण के सामने करता है।

संघर्ष संथालों और जमींदारों के बीच हुआ। न्याय का ताना-बाना उपन्यास के दूसरे खंड में बुना गया। संघर्ष ब्रिटिश शासन में हुआ और फैसला स्वतंत्र भारत में सुनाया गया। दो समय के संबंध सूत्र को जोड़ते हुए रेणु ने इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार किया है – “मुकदमा में भी सुराज मिल गया।

सभी संथालों को दामुल हौज ( आजीवन कैद) हो गया।”23

इससे स्पष्ट होता है कि आजादी तो मिल गई थी किंतु केवल सत्ता परिवर्तन हुआ था। व्यवस्थाएं वैसी की वैसी ही रह गई थी इसका एक मुख्य कारण यह भी था कि  कांग्रेस  अंग्रेजों की रणनीति से  बखूबी वाकिफ थी  और उसी  नीतियों का प्रयोग कमोबेश  स्वतंत्र भारत में  लागू कर रही थी  क्योंकि  स्वतंत्रता के पश्चात शासन सत्ता की बागडोर उन्हीं के हाथों में थी।  ‘रेणु ने जहां ब्रिटिश शासन व्यवस्था का चित्रण किया वहीं 1948 के बाद स्वतंत्र भारत में सत्ता परिवर्तन के पश्चात देश की सत्ता का परिचालन के स्वरूप को भी प्रस्तुत किया तथा व्यवस्था से परेशान उनके विरुद्ध जन संघर्षों का भी चित्रण किया है।’

रेणु ने यहां आजादी के समारोह और जश्नों का चित्रण भी किया है। उस के माध्यम से उन्होंने कई प्रश्नों को उजागर किया है। क्या वास्तव में आजादी मिली? स्वराज मिला? अथवा केवल सत्ता तंत्र परिवर्तित हुआ। रेणु ने सांकेतिक रूप से बहुत ही सुक्ष्म अंकन किया है।

‘रेणु ने उपन्यास में ब्रिटिश शासन व्यवस्था की तथा उस व्यवस्था की गुलामी से मुक्त हुए लोगों के संदर्भ में अर्थ केवल वर्ग बदला था या वर्ण इस प्रश्न को व्यापक तरीके से उद्घाटित किया है। सत्ता परिवर्तन तो हुआ परंतु व्यवस्थाएं वही रहीं जो ब्रिटिश शासन ने अपनी आवश्यकतानुसार निर्मित की थी।’

भारतीय शोषकों के लिए स्वाधीनता का अर्थ सत्ता का नाश और सुखभोग है। स्वाधीन भारत में संथालों को सर्वप्रथम न्याय मिलना चाहिए था क्योंकि उनके और जमींदारों के बीच का संघर्ष ही स्वतंत्रता पूर्व और पश्चात की कड़ी के रूप में उभरता है। ब्रिटिश शासकों के अत्याचारों के मध्य देशी शासकों का अत्याचार और भी बदतर रूप में उभरता है। जहां कालाबाजारी करते दुलारचंद कापरा बावनदास को जीवित की कुचलवा देता है।- “आइए सामने। पास कराइए गाड़ी। आप भी कांग्रेस के मेंबर हैं और हम भी। खाता खुला हुआ है। अपना-अपना हिसाब किताब लिखाइए। आज के इस पवित्तर दिन को हम कलंक नहीं लगने देंगे।”……

‘‘बावन ने दो आजाद देशों की हिंदुस्तान और पाकिस्तान की ईमानदारी को, इंसानियत को बस दो डेग में ही नाप लिया।’’24

कार्यकर्ता के रूप में बालदेव और बावनदास से सहयोग लेना परंतु सत्ता का तंत्र दुलारचंद कापरा जैसे लोगों को प्राप्त होना जो गांधी की मृत्यु के बाद भी कालाबाजारी में बावनदास को गाड़ी के नीचे कुचलवा देता है। आठ नौ महीने में ही कांग्रेस के शोषक और शासक का रूप उपन्यास में स्पष्ट दिखलाई देता है। स्वतंत्रता पूर्व और स्वातंत्र्योत्तर शासन व्यवस्था का चित्रण रेणु ने सशक्त रूप में प्रस्तुत किया है।

उपन्यास में कांग्रेस पार्टी के नेताओं का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप ब्रिटिश शासन के विरुद्ध चित्रित हुआ है। गांधी, जवाहर, राजेंद्र प्रसाद आदि का चित्रण और आजादी के साथ ही साथ भारतीयों के मोहभंग को भी चित्रित किया गया है। गांधी, जवाहर, रजिन्नर , जयप्रकाश की जय और जिंदाबाद के नारों के बीच किसी का कथन-

“यह आजादी झूठी है,

 देस की जनता भूखी है! “25

हर बात में लेकिन लगाना भी आवश्यक है। रेणु ने आजादी के बाद के अनेक प्रश्नों को उपन्यास में उठाया है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में जो राजनीति दल सक्रिय थे स्वतंत्रता के पश्चात उनकी मानसिकता उनकी कार्यप्रणालियां क्या थी? वह केवल प्रभुत्वशाली वर्ग तक ही सीमित रह गई थी? आदिवासी समुदाय के प्रति असंवेदनशीलता के पीछे का कारण क्या था?  संथालों के साथ अन्याय का कारण क्या था? क्या स्वतंत्रता के पश्चात देशी शासक भी ब्रिटिश शासन की बंधी बंधाई परंपरा पर ही चल रहे थे? रेणु ने अत्यन्त सुक्ष्मता एवं संवेदनशीलता के साथ इन प्रश्नों को अंकित किया है। -” दंगा हो रहा है सुनते हैं कि दिल्ली, कलकत्ता, लखनऊ, पटना सब जगह हिंदू मुसलमान में लड़ाई हो रही है। गांव के गांव साफ।…आग लगा देते हैं।”26

देश को जो स्वतंत्रता मिली वह बंटवारे के दम पर मिली थी। बंटवारे की आग ने हिंदुओं और मुसलमानों के दिलों में हमेशा के लिए दरारें पैदा कर दिया था पूरा देश सांप्रदायिकता की आग में झुलस रहा था। स्वतंत्रता संग्राम में एक साथ मिलजुल कर लड़ने वाले लोग स्वतंत्रता के बाद एक दूसरे के दुश्मन बन बैठे थे। ऐसी आजादी का क्या मोल था? जिसकी कीमत जान से ज्यादा थी। यह आजादी देश की भूखी जनता के मध्य झूठी ही लगती है। पूरे देश में अविश्वास, घृणा, स्वार्थ और हिंसा की लपटें दिखलाई पड़ती है। धर्म और जातिवाद की भावना प्रबल होती दिखलाई देती है। – “यह सब सिर्फ सुराज का नतीजा है।… जिस बालक के जन्म लेते ही मां को पक्षाघात हो गया और दूसरे दिन घर में आग लग गई। वह आगे चलकर और क्या-क्या करेगा देख लेना। कलियुग तो अब समाप्ति पर है। ऐसे-ऐसे ही लड़ झगड़ कर सब शेष हो जाएंगे।”27

सभी पार्टियों में वर्चस्व और सत्ता का लोभ प्रबल दिखलाई देता है। सभी एक जैसी हो गई थी झूठ फरेब अत्याचार भ्रष्टाचार का बोलबाला चारों ओर फैला हुआ था। सभी प्रभुत्वशाली जमींदार कांग्रेसी हो गए। ब्लैक मार्केटिंग आरंभ हो गया था। ऐसे समय में डॉ प्रशांत को कम्युनिस्ट पार्टी का बताकर उसे नजरबंद कर लिया जाता है। – “साला सब डाक्टरी किताबें हैं।… चिल्ड्रेन ऑफ यू. एस. एस.आर। लाल रूसी लेखक : बेनीपुरी।… लाल चीन, लेखक : बेनीपुरी।

” यह सब तो रूस की किताब है !”

” रूस की नहीं, रूस के बारे में।”

” दोनों एक ही बात है।”28

रेणु ने अत्यंत ही संवेदनशीलता के साथ दर्शाया है। डॉक्टर जो मेरीगंज स्वयं अपनी इच्छा से आता है और वहां प्रेम की खेती करना चाहता है। गांव के सभी सांस्कृतिक कार्यक्रमों में हिस्सा लेता है वहां की मिट्टी की सोंधी खुशबू में उसका मन बंध जाता है। हैजा के समय पूरे गांव को बचाने का अथक प्रयास, जी तोड़ मेहनत करता है। – “वह संतोष कितना महान है। जिसके सहारे यह वर्ग जी रहा है? आखिर वह कौन सा कठोर विधान है, जिसने हजारों हजार क्षुधितों को अनुशासन में बांध रखा है? …कफ से जकड़े हुए दोनों फेफड़े, ओढ़ने को वस्त्र नहीं, सोने को चटाई नहीं, पुआल भी नहीं; भागी हुई धरती का पर लेटा न्यूमोनिया का रोगी मरता नहीं है, जी जाता है! …कैसे? “29

प्रेम की खेती करने वाले उसी डॉक्टर प्रशांत का एक नया रूप रेणु ने चित्रित किया है। वह यवनिका के पीछे का मौन सूत्रधार प्रतीत होता है। – “डॉक्टर साहेब गिरीफ। …जुलुम बात! संथालों को डॉक्टर साहेब ने ही भड़काया था। गांव में हैजा भी उन्होंने फैलाया था।” गांव के लोगों को कमजोर कर दिया।…हाँ,  हैजा की सुई लेने के बाद….आज भी जब काम धंधा करने लगते हैं तो आंखों के आगे भगजोगनी उड़ने लगती है।… देखने में कैसा बमभोला था। मालूम होता था, देवता हो। भीतर ही भीतर इतना बड़ा मारखू आदमी था सो कौन जाने?”30

रेणु की कला कौशल और पैनी दृष्टि का नतीजा है कि डॉ प्रशांत का चरित्र आरंभ में गुप्त गहरा और संगठनात्मक रूप में दिखलाई देता है। वह पूरे गांव को मलेरिया और हैजा जैसे रोगों से बचाने के लिए निरंतर प्रयास करता है। उसी का एक नया स्वरूप पूरे उपन्यास में आलोचक और पाठक के मन में यह विचार आने ही नहीं देता कि डॉक्टर कम्युनिस्ट था। कम्युनिस्टों का सतत संघर्ष जिसके सूत्रधार के रूप में डॉ प्रशांत दिखलाई देता है, उस सशक्त क्रांति का कार्यकर्ता चलित्तर कर्मकार होगा। शोषण और उत्पीड़न की गहराई की सशक्त अभिव्यक्ति सशस्त्र संघर्ष के रूप में भी संभव है। सोशलिस्ट पार्टी ने संघर्ष नहीं करने दिया परंतु चलित्तर कर्मकार जैसे डकैतों को इसकी जिम्मेदारी मिल गई। जिसने भीषण लूटपाट और हत्या की। इसे हिंसावाद की संज्ञा नहीं दी जा सकती। नही बल्कि ऐसी स्थिति परिस्थितियों के वशीभूत हो जन्म लेती है। चलित्तर कर्मकार जैसी कई शक्तियां तत्कालीन समय में क्रांतिकारी के रूप में कार्य कर रही थी। जिसके पीछे इनाम भी था। – “नए एस.पी. साहब ने प्रतिज्ञा की है या तो चलित्तर को गिरफ्तार करेंगे अथवा नौकरी छोड़ देंगे। घर-घर में चलित्तर की कहानियां होती हैं।…कटदा के बड़े दरोगा से थाने पर जाकर, भेंट करके बातचीत करके, पान खाकर और नमस्ते करके जब उठा तो हंसकर कहा हम ही चलित्तर कर्मकार हैं। दरोगा साहब की दांती लग गई।”31

चलित्तर कर्मकार के लिए एक गहरी सहानुभूति दिखलाई पड़ती है और उससे डॉक्टर का संबंध स्थापित करना सचमुच साहस का कार्य है। रेणु ने अपनी सशक्त लेखनी से इस प्रकार के कार्य को संभव किया है। व्यवस्था के अनुसार चलित्तर देश और समाज का दुश्मन है। कम्युनिस्ट पार्टी चलित्तर के ऊपर से वारंट हटाने की मांग करती है। पूर्णिया अंचल में भूमिहीनों की संख्या अधिक है यदि भूमि मांगे से न मिले तो उसे छीन लेना गलत नहीं है। सोशलिस्ट किसानों का साथ नहीं देती। कम्युनिस्ट की संख्या कम थी जो मध्यवर्गीय परिवार से थे तथा भूमिहीन किसानों को किसी पर भरोसा ना था। 1936 में सोशलिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता के रूप में काम करते हुए चलित्तर कर्मकार ने देखा कि अकाल की स्थिति आने से पहले ही बड़े जमींदार बखारों में अनाज दबा रहे थे। तो उसने पार्टी से अनाज दिलाने की मांग की परंतु कोई कार्य न हुआ। वह बैठने वालों में से नहीं था। बखार खुलवाकर अनाज बंटवाना शुरू कर दिया। उसकी जबरदस्ती के न्याय के कारण सभी उससे डरते थे। 1942 में सबसे अधिक कार्य उसी ने किया। ‘स्वतंत्रता संग्राम में ब्रिटिश के विरूद्ध संघर्ष करने में यद्यपि कांग्रेस पार्टी की ही चर्चा की जाती है परंतु 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से लेकर आजादी के 1947 तक के संघर्ष में अनेक राजनीतिक धाराएं विचार व शक्तियाँ कार्य करती दिखलाई देती हैं। कई ऐसे आंदोलन भी हुए जो गांधी या कांग्रेस के नेतृत्व में नहीं हुए। जैसे सोशलिस्ट पार्टी अथवा नेताजी सुभाष चंद्र बोस का गरम दल आदि। परंतु कांग्रेस को व्यापक मंच मिला और उसने ब्रिटिश सरकार के अंतर्गत ही शासन करने की शिक्षा भी प्राप्त की। इसी कारण 1947 में आजादी देश के बंटवारे के नाम पर मिली और सत्ता परिवर्तन हो गया जिसके होते ही व्यवस्था परिवर्तन की बातें दरकिनार कर दी गई। समाजवाद और विकास का नारा लगाने के लिए था प्रशासन व्यवस्था वही रही, 1947 में शासन व्यवस्था की जो भूमिका कांग्रेस पार्टी ने निभाई उसका बीज उनके स्वतंत्रता संग्राम में ही मौजूद थे। जिस कारण सामान्य जन का मोहभंग हुआ। आजादी के तुरंत बाद संथालों को सजा होना, चलित्तर कर्मकार का वारंट वापस न लेना, डॉ प्रशांत को गिरफ्तार कर जेल भेजना आदि कार्य कांग्रेस की शासन व्यवस्था का  खुला चित्रण  प्रस्तुत करते हैं।’

1971 में रेणु का विचार था – “बदलाव से अपने को अलग कैसे किया जा सकता है ? मेरा तो अपना मत है कि निकट भविष्य के चार-पांच वर्षो के भीतर अपने देश में कोई नई राजनीतिक पार्टी जन्म लेने वाली है। तो वास्तव में राजनीतिक पार्टी हो नक्सलवाद तो प्रतीक है, एक गुस्सा है, इनके पास कोई नया समाधान नहीं है जमीन के लिए सही लड़ाई अभी बाकी है।”32

रेणु ने उपन्यास में अंग्रेज जमीदारों, देशी जमीदारों के सामंती शोषण, भूमिहीन किसानों की समस्याएं, सामाजिक असमानता और दुर्व्यवहार पर अपना ध्यान केंद्रित कर घोर राजनीतिक पहलुओं पर प्रकाश डाला है।

      रेणु की शैली की विशेषता यह है कि वह किसी भी सिद्धांत या विचारों को आरोपित नहीं करते अपितु उनका स्वरूप विश्लेषण कर सामने रख देते हैं। उनके चिंतन, भावना में आशावादी दृष्टिकोण दिखलाई पड़ता है। उनके पात्रों में एक अदृश्य, अपूर्ण आस्था दिखलाई पड़ती है। उनकी रचनाओं का स्वर मानवतावादी है। संपूर्ण उपन्यास की कथा चलचित्र की भांति प्रसारित होती दिखलाई पड़ती है। कथा का अंत बहुत ही नाटकीय ढंग से समाप्त होता है जहां तहसीलदार का हृदय परिवर्तन हो जाता है और वह अपनी जमीन गरीब किसानों में बांट देते हैं जबकि उसी जमीन के साथ उनका लगाव इतना गहरा होता है कि वह किसी भी कीमत में उसे छोड़ना नहीं चाहते हैं। हर तरह से अन्याय करने के बाद भी उनका हृदय जमीन के लिए लालायित रहता है। – “जिस दिन धनी, जमींदार, सेठ और मीलवालों को लोग राह चलते कोढ़ी और पागल समझने लगेंगे उसी दिन असल सुराज हो जाएगा। आप कहते हैं कि ऐसा जमाना आवेगा। जब जमाना आवेगा तो हमारी संपत्ति छीनी जाएगी ही और अभी संपत्ति बटोरने पर तो कोई प्रतिबंध नहीं तो फिर बैठा क्यों रहूँ?”33

कथा में यह नाटकीय रूप से हृदय परिवर्तन थोड़ा आश्चर्य चकित करने वाला है परंतु अन्य स्थानों पर कहीं भी कथा आरोपित नहीं है। गरीब किसानों की फसल नष्ट होने पर लगान न दे पाने के कारण जमीदारों के पास जमीन रहन रखी जाती थी। धीरे-धीरे जमीन खोती जाती और गरीब किसान जमींदारों का गुलाम बनकर रह जाता था। यह बड़े जमींदार अंग्रेजों की गुलामी करते रहें और गरीब किसानों पर अत्याचार। इनको अपनी शक्ति देकर अंग्रेजों ने शोषण व्यवस्था के हथियार के रूप में इनका इस्तेमाल किया।

रामचंद्र तिवारी ने लिखा है – “रेणु की रचना दृष्टि न तो शोषण के समस्त स्रोतों को देख पाती है, न गांव के गरीब किसानों मजदूरों के मन में शोषक शक्तियों के प्रति कोई संघटित आक्रोश या तल्खी पैदा कर पाती है। तत्कालीन समाजवादी और साम्यवादी संघटनों को रेणु ने हाशिए पर कर दिया है।”34

 ‘रेणु की पूरी ईमानदारी और सृजनशीलता के साथ कई महत्वपूर्ण रीजनीतिक सवालों को उठाया है और पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है उन्होंने इससे बचने की कोशिश नहीं की।’ रेणु ने जिस ईमानदारी से दो महत्वपूर्ण वर्णों का वर्णन मैला आंचल में भारतीय स्वाधीनता संग्राम के सार तत्व के रूप में प्रस्तुत किया है वह इसके महत्व को राजनीतिक रुप में अक्षुण्ण रखेगा।

चंद्रगुप्त विद्यालंकार , ‘आजकल’ के सितंबर 1955 के अंक में लिखते हैं – ” मेरी राय में यदि लेखक अपने इस उपन्यास को सामयिक राजनीति से पूरी तरह अनासक्त रख सकता, तो रचना और भी श्रेष्ठ बन पाती।”35

आंचलिकता के समस्त तत्वों से परिपूर्ण होने के बावजूद भी मैला आंचल  तत्कालीन राजनीतिक परिदृश्य को उजागर करने में पूर्णता सफल है। यद्यपि रेणु प्रेमचंद के उपरांत ग्रामीण क्षेत्र की सशक्त अभिव्यक्ति करते हैं परंतु उनकी रचना में मौलिकता, मार्मिकता और संवेदनशीलता उनकी अपनी लेखनी की उपज है।  रेणु की सूक्ष्म दृष्टि ने ग्रामीण क्षेत्र का वह कोना भी देख लिया जिसमें सामान्य जन की दृष्टि नहीं पहुंचती। निसंदेह मैला आंचल हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि है।

संदर्भ सूची

  1. तिवारी, डॉ रामचंद्र, हिंदी उपन्यास, द्वितीय संस्करण 2010, विश्वविद्यालय प्रकाशन, पृष्ठ संख्या-114
  2. रेणु, फणीश्वर नाथ, मैला आंचल, राजकमल प्रकाशन, प्रथम संस्करण 1984, तृतीय संस्करण 1987, पृष्ठ संख्या-11
  3. वही पृष्ठ-15
  4. वही पृष्ठ-9
  5. वही पृष्ठ–7
  6. वही पृष्ठ-18
  7. वही पृष्ठ-5
  8. वही पृष्ठ-29
  9. वही पृष्ठ-78
  10. वही पृष्ठ-124
  11. वही पृष्ठ-90
  12. मधुरेश,मैला आंचल का महत्व, द्वितीय संस्करण 2001, पृष्ठ संख्या-106 मैला आंचल की राजनीति अर्थात प्रतिरोध का सौंदर्य प्रदीप सक्सेना
  13. वही पृष्ठ-93
  14. वही पृष्ठ-124
  15. वही पृष्ठ-123
  16. वही पृष्ठ- 125
  17. वही पृष्ठ-126
  18. वही पृष्ठ- 134
  19. वही पृष्ठ-143
  20. वही पृष्ठ-156
  21. वही पृष्ठ- 156
  22. वही पृष्ठ-199
  23. वही पृष्ठ-177
  24. वही पृष्ठ-311/312
  25. वही पृष्ठ- 235
  26. वही पृष्ठ-242
  27. वही पृष्ठ- 242
  28. वही पृष्ठ-256
  29. वही पृष्ठ-183
  30. वही पृष्ठ-256
  31. वही पृष्ठ-257
  32. मधुरेश, मैला आंचल का महत्व, सुमित प्रकाशन, इलाहाबाद द्वितीय संस्करण-2001 पृष्ठ संख्या-125
  33. वही पृष्ठ-288
  34. तिवारी, डॉ रामचंद्र, हिंदी उपन्यास, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी द्वितीय संस्करण 2010, पृष्ठ संख्या-118
  35. वही पृष्ठ – 107
महमुदा खानम
असिस्टेंट प्रोफेसर 
हिंदी विभाग
खिदिरपुर कॉलेज
कोलकाता

 

 

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