भारतीय सिनेमा पूरी विश्व में जाना जाता है। पिछले दो दशकों में भारतीय सिनेमा में क्षेत्रीय फ़िल्मों की तादाद बढ़ी है। भूमंडलीकरण के साथ आई नई तकनीकी, सिनेमाघर और कला से जुड़े नए लेखक, निर्देशकों ने सिनेमा निर्माण को पुन:व्याख्यायित किया है। जहाँ कम लागत में कथ्य और सिनेमा की भाषा की विशिष्टता की वजह से भारतीय सिनेमा में अन्य भाषाओं के फिल्में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय  जगत में अपनी  अलग पहचान बनाने में सफल रही है। लेकिन जहाँ तक मैथिली फ़िल्मों की बात की जाए तो ये फ़िल्में भारतीय सिनेमा के इतिहास में जगह नहीं बना पाई। यहाँ तक कि क्षेत्रीय फिल्मों के प्रसिद्ध फ़िल्मों की श्रेणी  में भोजपुरी फिल्में भी शामिल हो गयी है लेकिन मैथिली फिल्में अपनी जगह बनाने में असफल रही है।

मैथिली भाषा बोली जाने वाले इलाका जैसे दरभंगा मधुबनी  में आज़ादी के बाद से ही फ़िल्मों के प्रति लोग दीवाने रहे है, पर एक घोर वितृष्णा का भाव भी रहा है। आज भी इस इलाके में फ़िल्म निर्माण-निर्देशन या अभिनय से जुड़ने को सही नहीं माना जाता है। फिर भी कुछ लोग इस क्षेत्र में ऐसे होते हैं जो अभिनय की दुनिया में जाना चाहते हैं, पर उनका सारा ध्यान मुख्य धारा के भारतीय सिनेमा मतलब हिंदी सिनेमा में किस्मत अजमाने में लगा रहता है।

भारतीय सिनेमा में क्षेत्रीय भाषा की फ़िल्में आजादी के बाद ही विकसित होने लगी, वहीं मैथिली भाषा में सिनेमा का आरंभ  आजादी के बाद 60 के दशक में होता है। मैथिली की पहली फिल्म ‘कन्यादान’ है। वर्ष 1965 में फणी मजूमदार ने इस फिल्म का निर्देशन किया था। हरिमोहन झा के चर्चित उपन्यास ‘कन्यादान’ जो 1933 में लिखी गयी थी, पर यह फिल्म आधारित थी। इस फिल्म में बेमेल विवाह की समस्या को चित्रित किया गया था। रचनाकार फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ ने इस फिल्म का संवाद लिखा था। फिल्म में मैथिली भाषा  के साथ-साथ  हिंदी भाषा का भी प्रयोग किया गया था लेकिन  ‘नैहर भेल मोर सासुर’ नाम से पहली मैथिली फिल्म वर्ष 1963-64 में बननी शुरु हुई थी जिसके निर्देशक सी परमानंद थे। बाद में यह फिल्म काफी कठिनाइयों को झेलती हुई ‘ममता गाबए गीत’ नाम से 80 के दशक के मध्य में रिलीज हुई थी। इस फ़िल्म के गीत-संगीत को  महेंद्र कपूर, गीता दत्त और सुमन कल्याणपुर जैसे हिंदी फ़िल्म के प्रसिद्ध गायकों ने गाया था और मैथिली के रचनाकार रविंद्र ने इस फिल्म के गीत लिखे थे। ‘ममता गाबए गीत’  एक ऐसी फिल्म है, जिसे गीत-संगीत की वजह से मिथिला के समाज में आज भी याद किया जाता है। कुछ  समस्याओं के कारण इस फिल्म को पर्दे तक पहुंचने में 19 साल लग गए।  इसके कई साल बाद शुरू हुई ‘कन्यादान’ पहले पूरी हो गई और पहली  मैथिली फिल्म की उपाधि हासिल कर ली।

इसके बाद अगले 24 वर्षों तक एक भी मैथिली फिल्म नहीं बनी और ना ही किसी ने इस दिशा में प्रयास किया। कुछ लोग यह मानने लगे थे कि मैथिली फिल्में शायद अब कभी नहीं बन पाएंगी। लेकिन ऐसा नहीं कह सकते हैं कि इन वर्षों में मैथिली फ़िल्म नहीं बनी, फ़िल्में बनी तो होगी लेकिन दर्शकों पर कुछ खास असर नहीं कर पाई होगी। मैथिली  सिनेमा के इतिहास में प्रदर्शित होने वाली पहली रंगीन फिल्म ‘जय बाबा बैद्यनाथ’ थी। दरभंगा के प्रह्लाद शर्मा इस फिल्म के निर्माता-निर्देशक एवं गीतकार थे। 1979 में प्रदर्शित इस फ़िल्म में देवघर स्थित बाबा बैद्यनाथ धाम की महिमा को दिखाया गया था। भक्ति आधारित होने की वजह से यह  फिल्म ज्यादा कमाल नहीं दिखा सकी। इसके बाद  मुरलीधर ने दहेज प्रथा से समाज पर पड़ने वाले असर की कहानी पर आधारित एक फिल्म ‘सस्ता जिनगी महंग सेनूर’ बनाई जिसे दर्शकों द्वारा काफी पसंद किया गया महान रचनाकार विद्यापति के जीवन पर आधारित  फिल्म ‘कखन हरब दुख मोर’ बनी जो  दर्शकों के मन पर छाप छोड़ गयी। इस फिल्म में फूल सिंह के दमदार अभिनय ने जरूर कमाल कर दिखाया। फ़िल्म को लोगों ने काफी पसन्द भी किया था। लेकिन थियेटर नहीं मिलने के कारण यह फिल्म ज्यादा कमाई नहीं कर पाई। हालांकि बाद में टी सीरीज ने ऑडियो और वीडियो कैसेट जारी किए, जिसके बाद इस फ़िल्म को ज्यादा प्रसिद्धि मिली खासकर इसके गाने को। इस फिल्म के उपरांत भी कई फ़िल्में आई जैसे  ‘आऊ पिया हमर नगरी’, ‘सेनुरक लाज’, ‘दुलरुआ बाबू’,  ‘हमरो करा दए बियाह’, ‘पिया संग प्रीत कोना हम करबै’ जैसी फिल्में भी बनीं, मगर खराब प्रदर्शन और रुढ़िग्रस्त होने के कारण दर्शकों पर असर नहीं कर पाई। लेकिन इन फिल्मों में  आलोचनात्मक दृष्टि  नहीं मिलती है,  जो मिथिला के समाज, संस्कृति को पूर्ण रूपेण चित्रित कर  सके। इनमें से ज्यादातर फिल्में सामाजिक विषयों के इर्द-गिर्द ही रही, एक-दो फिल्में धार्मिक-पौराणिक महत्व के रहे।

मैथिली फिल्मों के विकास में न तो सरकार ने सहयोग किया और न ही मैथिलीभाषी दर्शकों ने। इसके बावजूद फ़िल्में बनती रही। इसके फलस्वरुप  निर्देशक विकास कुमार झा ने मिथिलांचल की सामाजिक व्यवस्था पर हास्य एवं कटाक्ष करती हुई पहली डिजिटल फ़िल्म ‛मुखिया जी’ बनाई। ‘मुखियाजी’ को दर्शकों ने काफी पसंद किया था। 2011 में प्रदर्शित इस फ़िल्म के निर्माता रुपेश कुमार झा थे। इस फिल्म में हास्य व्यंग्य के साथ समाज में व्याप्त कुरीति, भ्रष्टाचार,  शिक्षा,  स्वास्थ्य,  ऐतिहासिक दृष्टिकोण, औद्योगीकरण, सामाजिक विकास जैसे मुद्दे एक साथ चित्रित किए गए थे।

इधर कुछ वर्षों में नितिन चंद्रा निर्देशित  ‘मिथिला मखान’ (2015), रूपक शरर निर्देशित  ‘प्रेमक बसात’ (2018), और अचल मिश्र निर्देशित  ‘गामक घर’ (2019) फ़िल्में काफी चर्चा में थी।  ‘मिथिला मखान’ मैथिली में बनी एक मात्र ऐसी फ़िल्म है जिसे मैथिली भाषा में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है| इस फ़िल्म  की शूटिंग मिथिलांचल के विभिन्न क्षेत्रों के अलावा टोरंटो, स्विट्जरलैंड एवं नेपाल में भी हुई थी। फिल्म में क्रांति प्रकाश झा तथा अनुरिता झा ने मुख्य किरदार निभाया था। फिल्म की कहानी मिथिला की संस्कृति, बिहार के पलायन तथा वापसी के सिलसिले पर आधारित थी। फिल्म के सभी कलाकार मिथिला के ही थे। मैथिली में बनी इस फिल्म को मैथिली भाषा में  63 वां राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला था।

अचल मिश्र के निर्देशन में बनी फ़िल्म ‘गामक घर’ फिल्म को भी फिल्म समारोहों में सराहा गया और पुरस्कृत किया गया। मैथिली सिनेमा में ‘गामक घर’ जैसी फिल्मों की परंपरा नहीं मिलती है। निर्देशक ने इस फ़िल्म की कहानी को इस तरह से चित्रित किया है कि वह बस हमें कहानी नहीं लगती, बल्कि दृश्य सामने  घटित होने जैसा लगता है। डॉक्यूमेंट्री और फीचर फिल्म की शैली एक साथ यहां मिलती है। इस तरह की फिल्में मैथिली सिनेमा को कला प्रेमियों और देश-विदेश के समीक्षकों की नजर में लाने में कामयाब है।

आज के समय की बात करें तोनई फ़िल्मों में तकनीकी  के क्षेत्र में जबरदस्त बदलाव दिख रहा हैं। हाल की कुछ फिल्में जैसे ‘ललका पाग’ और ‘मिथिला मखान’  पुरानी घिसी-पिटी हुई पटकथा से हटकर प्रयोगात्मक रूप में चल रही हैं। मैथिली भाषा की फिल्में जरूर कम बनी हैं लेकिन इन फिल्मों में मिथिला के समृद्ध साहित्य, व्यवहार और संस्कार की छवि  हमेशा दिखाई देती है। मैथिली भाषी फिल्म भले ही अधिक नहीं बनी हो और भारतीय सिनेमा में इसका विकास न हुआ हो लेकिन जो भी फिल्में बनी उसमें रामधारी सिंह दिनकर, फणीश्वरनाथ रेणु व बाबा नागार्जुन की साहित्यिक परंपरा स्तम्भ के रूप में रही है। भले ही मैथिली फिल्मों को राष्ट्रीय स्तर पर विशेष पहचान नहीं मिल पाई है, लेकिन इसका इतिहास गौरवशाली रहा है जिसका आरंभ महान साहित्यकार फणीश्वरनाथ रेणु के ‛कन्यादान’ फिल्म में संवाद लेखन से होती है।

मैथिली सिनेमा विकसित न होने के कई कारण हैं। मिथिला इलाकों में जो भी सिनेमाघर हैं वहाँ आज के समय में भोजपुरी या हिंदी सिनेमा का बोलबाला है। इसके साथ ही मिथिला से बाहर देश-विदेश में जो मैथिली भाषा-भाषी हैं वे अपनी भाषा और संस्कृति के प्रति कुछ विशेष रूचि  नहीं रखते हैं,  भले ही वर्ष 2004 में संविधान की आठवीं अनुसूची में इसे शामिल कर लिया गया हो। हिंदी सिनेमा के वर्चस्व को लोगों ने बखूबी स्वीकार किया है। मनोरंजन के लिए ये हिंदी सिनेमा  की ओर ही देखते रहते हैं और इनमें मैथिली सिनेमा को लेकर कोई चिंता नहीं दिखती हैं, साथ ही मैथिली भाषा पर एक जाति विशेष की भाषा होने का आरोप लगता रहा है।  इन वजहों से मैथिली सिनेमा का विकास संभव नहीं हुआ।

मिथिला अपनी भाषा, साहित्य और संस्कृति के लिए पूरी दुनिया में जाना जाता है, पर आधुनिक समय में फिल्मों में इस समाज की अनुपस्थिति एक प्रश्नचिह्न बनकर खड़ी है।  मिथिला की संस्कृति  संपूर्ण विश्व में एक अलग पहचान बनाई हुई है इसके बावजूद मैथिली सिनेमा का विलुप्त हो जाना आश्चर्यजनक है।

                                                 प्रतिभा झा
                                       शोधार्थी (एम.फ़िल)
                                     हैदराबाद विश्वविद्यालय

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