मैत्रेयी पुष्पा का उपन्यास चाक जहॉं उनके उपन्यास इदन्नमम का प्रगतिशील विस्तार है, वहीं अपने में स्वतंत्र भी। गांव के समाज में नारी की पीड़ा तथा उसके संघर्ष को वर्णित करता यह उपन्यास संवेदनाओं से युक्त है। औरतों के अतीत और वर्तमान के जुल्म की कथा को सूचनात्मक रूप में दिया गया है कि इतिहास कागज के पन्नों पर उतरने से पहले मानव शरीरों पर लिखा जाता है। स्वतंत्रता के 70 वर्षों के पश्चात् भी गांव की स्त्रियों की स्थिति यथावत् बनी हुई है, उसमें कोई भी परिवर्तन नहीं आया है, किंतु चाक में सामाजिक बंधनों को तोड़ने का प्रयास किया गया है, उन संस्कारों को समाप्त करने का प्रयास किया गया है, जो स्त्रियों को दबाने व शोषण करने के लिए बनाये गए हैं।
चाक अर्थात् समय-चक्र। चक्र निर्माण भी करता है और विनाश भी किंतु इसके साथ वह समय का साक्षी भी होता है। उपन्यास का उद्देश्य उसके शीर्षक द्वारा जाना जा सकता है। पहले से चले आ रहे सामाजिक रूठ़ियों व संस्कारों में जब भी परिवर्तन होता है तो कुछ मूल्य और विश्वास टूटते हैं। हर विकास परम्परागत मान्यता अर्थात् रूढि को बदलता और तोड़ता है। उपन्यास चाक में कलावती चाची का संवाद इसी बात को पुष्ट करता है-
‘ ए भगमान, ऐसा दिन भी आना था जिन्दगानी में। चाल चलन बचाते-बचाते उमर निकल गई पर आज अपने ही मन से सुरग नसैनी चढ़ गई। जिन्दगानी घसीटनेवाले ताड़फड़े वाले लल्लू शीश उठाकर ठाड़े हो गए। सात जन्म के पुन्न कमाए मैंने कि मरता हुआ आदमी जिंदा हो गया। सारंग इससे बड़ा सुख क्या होगा। इतना जबर संतोष’।
समाज में अपने अस्तित्व, अपने वजूद व आत्मशक्ति की तलाश की जद्दोजहद सिर्फ स्त्रियॉं ही नहीं, कई पुरूष भी करते हैं और उनके इस प्रयास में एक स्त्री बाधक नहीं साधक, राह अन्वेषक बनती है। यहॉं ताडफड़े केलासीसिंह ऐसे ही पात्र हैं जो अपने आत्मविश्वास को खोकर स्वयं को एक हारा हुआ पुरूष मानकर जिंदगी के प्रति उदासीन हो बैठे हैं और कलावती चाची एक एसेी स्त्री पात्र है जो उन्हें उनका खोया आत्मविश्वास जगाकर उनमें जीवन के प्रति आशा का संचार करती है, उनको ऊर्जावान बनाती है।
मैत्रेयी जी इन पात्रों के माध्यम से यह बताने का प्रयास करती हैं कि स्त्री बिना किसी स्वार्थ के आत्मसंतोष के लिए किसी भी हद तक पुरूष की सहयोगी बन सकती है यदि समाज का उस पर विश्वास व भरोसा रहे।
कलावती चाची का ही एक अन्य संवाद भी इस बात का प्रमाण है कि परंपरागत मान्यता या रूढि को बदलता जो स्त्री के हक में हो।
‘अरी हम जाटिनी हैं, जेब में बिछिया धरे फिरती हैं। मन आया ता के पहर लिए। कौन सी पल्लौ ( प्रलय) हो गई?
भारतीय रीतिरिवाज में विवाह संबंधित कई चिह्न या मान्यताऍं हैं जिसे एक विवाहित स्त्री धारण करती है या प्रयोग करती है। यहां समाज की ऐसी ही रीति रिवाजों को चुनौति दी जाती है, जो मैत्रेयी जी अपने पात्रों के माध्यम से जगह-जगह दिखाती हैं।
बिछिया जेब में लेकर घूमना और मन करे तो पहन लेना’ इस बात को दर्शाता है कि समय का चाक अब बदल चुका है और निर्णय करने की बारी तो अब स्त्रियों की है कि वे कब वरण करें या त्यागें। चुनाव व वरण करने का जो अधिकार सिर्फ पुरूषों के पास था इसे चुनौती देते हुए वरण के अधिकार को अपने हक में रखने के प्रखर स्वर को सशक्तता से समाज के सामने रखने की वकालत मैत्रेयी जी करती हैं।
चाक में गांव का बदलता रूप विडंबना को दर्शाता है। चाक में स्त्री की अपनी सोच है और वो विकास के लिए संघर्ष करने से पीछे नहीं हटती। इसमें सिर्फ अतरपुर गांव की कथा ही नहीं बल्कि भारत के सभी पिछड़े गांव का दस्तावेज है। अपने रीति-रिवाजों, जाति संघर्षों,गीतों, उत्सवों, नृशंसताओं, प्रतिहिंसाओं प्यार, ईर्ष्या और कर्मकांडी अंध्विश्वासों कं बीच धड़कता हुआ अतरपुर गॉंव सारंग और रंजीत के आपसी संबंधों के उतार-चढ़ाव में समय को आत्मसात कर रहा है- ‘ सारंग पूछना चाहती है-रंजीत मैंने तुम्हारी कही हुई बात ही तो व्यवहार में उतार दी। तुम उसे चाल-चलन खराब होना मान बैठे। सफाई दूँ भी तो क्या कहकर?
पत्नी पति की अनुगामी बनती है। अपने पति की कही हुई बातों, आदर्शों, विचारों, लोक-व्यवहार आदि से प्रभावित होकर ही वह उन्हें अपने आचरण में ढालने का प्रयत्न करती है। समाज को देखने का नजरिया भी वह पति के अनुरूप ही बनाती है, परंतु इस सबके बावजूद भी जब उसे अपने व्यवहार की उलाहना मिलती है या उसपर कटाक्ष किया जाता है तो वह स्वयं को पराजित व अपराधी महसूस करने लगती है और यह सोचने पर विवश हो जाती है कि वास्तव में चूक कहां हो गई।
मैत्रेयी जी इसी बात को बताने का प्रयास करती हैं कि हर हाल में खरबूजे को ही कटना है अर्थात चाकू खरबूजे पर गिरे या खरबूजा चाकू पर। इसी प्रकार इस पुरूषवर्चस्ववादी समाज में स्त्री ही हर हाल में पीड़ित होती है।
इसी प्रकार सारंग के मन में चलनेवाला एक अन्य अंत:संवाद जो उसके अंतर्द्वंद्व का कारण बनता है-‘कभी-कभी इतने कठोर हो जाते हैं रंजीत कि उन्हें पहचानना मुश्किल पड़ता है। उनकी नीयत का खुलासा ऐसी घडि़यों में होगा, कहां पता था? इतने दिनों किस भ्रम में रही फिर? प्राणों से प्यारा पति दुश्मन हो उठेगा, यह समय की खोट है कि मेरा?’
समाज में विवाह एक सामाजिक संस्कार है जो आपसी तालमेल, विश्वास, भरोसे, प्रेम, आदर, सम्मान व समझौते पर टिका होता है। जब कहीं किसी एक मूल्य का असंतुलन दिखाई देने लगता है, तो स्त्री पुरूष संबंध में टकराहट शुरू होने लगती है। यहां रचनाकार सारंग के माध्यम से स्त्री पुरूष संबंध को समझाने का प्रयास करती है कि स्ंबंध समाज की दी हुई नियति है। संतुलन व समन्वय ही इस उतार चढ़ाव के तराजू को ठीक कर सकती है।
पुरूष प्रधान समाज में नारी की जो स्थिति है उसको चाक स्पष्ट करता है। चाक में पुरूष पात्रों की अपेक्षा स्त्री पात्र अधिक गतिशील है। यही गतिशीलता स्त्री पात्रों को आगे बढ़ाती है जिसका प्रमाण रेशम है। चाक पुरूष प्रधान समाज में स्त्री की अपनी पहचान का संकल्प पत्र है।
उपन्यास का प्रारंभ एक गर्भवती स्त्री रेशम की हत्या से होता है जो अतरपुर गांव का इतिहास है कि विद्रोह करनेवाली स्त्री की स्थिति क्या होती है। इसके ओर-छोर लोकगीतों की नायिका चंदना से लेकर रस्सी के फंदे पर झूलती रूकमणि, कॅुए में कूदनेवाली रामदेई, नदी समाधि लेनेवाली नारायणी और भविष्य में घटनेवाली हरिप्यारी तथा गुलकंदी के होलिका दहन तक फैले हैं- ‘ इस गांव के इतिहास में दर्ज दास्तानें बोलती हैं- रस्सी के फंदे पर झूलती रूकमणी, कुंए में कूदनेवाली रामदेई, करबन नदी में समाधिस्थ नारायणी…. ये बेबस औरतें सीता मइया की तरह ‘भूमि प्रवेश’ कर अपने शील-सतीत्व की खातिर कुर्बान हो गई। ये ही नहीं और न जाने कितनी…।‘
अतरपुर गांव में एक आकस्मिक घटना घटती है कि सारंग की फुफेरी बहन रेशम, जो गर्भवती है, उसे मौत के घाट उतार दिया जाता है क्योंकि वह स्वेच्छा से अपने बालक को जन्म देना चाहती है, इस घटना से दुखी होकर सारंग यह सोचने लगती है इस अतरपुर गांव का इतिहास कोई नया इतिहास तो नहीं है जिसमें एक स्त्री पीड़ित हुई है या उसके विद्रोह को कुचला गया है बल्कि यह तो स्त्री के साथ युगों-युगों से होता आया है। कभी अपने सतीत्व की खातिर, कभी इज्जत आबरू की रक्षा में तो कभी समाज की सवालिया नजरों से बचने के लिए एक स्त्री को ही पीड़ित होना पड़ा है। त्रेतायुग में रामराज्य जैसे आदर्श समाज में भी सीता जैसी देवी स्वरूपा नारी के पवित्रता पर प्रश्नचिह्न लगाकर उन्हें अग्निपरीक्षा के लिए मजबूर किया जाता है, इसके पश्चात भी उन्हें अपना घर-परिवार, राज-पाठ छोड़कर बनवास जाना पड़ता है। अंतत: अपने अस्तित्व की रक्षा की खातिर सीता मइया को भू समाधि लेनी पड़ती है, उसी प्रकार इस गांव के इतिहास में रूकमणि, नारायणी, रामदेई और न जाने कितनी ऐसी ही बेबस औरतों की दास्ताने दर्ज है जो हमेशा हर युग में पुरूष वर्चस्ववादी समाज में पीड़ित होती आई है और विद्रोह के फलस्वरूप उन्हें कुचल दिया गया है या स्वयं उन्होंने अपना बलिदान कर दिया है।
इस प्रकार मैत्रेयी जी ने स्त्री के प्रति हो रहे शोषण व पीड़ा को दर्शाया है।
चाक का प्रारंभ एक हत्या से होता है जो उपन्यास की नायिका सारंग की फुफेरी बहन है। पति की मृत्यु के पश्चात रेशम अपनी इच्छा से गर्भ धारण करती है। पारिवारिक व सामाजिक दबाव के पश्चात् भी वह अपना गर्भपात कराने से इंकार कर देती है और इसलिए उसे मौत के घाट उतार दिया जाता है। रेशम अपनी अनुभूति की अभिव्यक्ति देती हैं। इसके अतिरिक्त चाक में गांव अतरपुर की विभिन्न समस्याओं को वर्णित किया गया है। गांव में चाहे स्त्री हो या पुरूष, सभी परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित होते हैं।
‘रेशम ने सास का गोड पकड़ लिया, हो जाने दो स्वाहा। मैं तो भस्म होने को ही बैठी हूँ पर मेरा बालक जी जाग जाएगा। मैं जो फन्न कर रही हूँ अम्मा, उसे पाप न कहो। बिना बाप के बालक को भगवान पाप मानता तो कुंवारी विधokवा के कोख में सुखा डालता।
ईश्वर या प्रकृति द्वारा स्त्री को एक विराट शक्ति प्रदान की गई है और वह शक्ति सृजन करने की है अर्थात. स्त्री को ही मातृत्व का सौभाग्य मिला है। इस विराट शक्ति के छिन्न होने या उस पर आंच आने की स्थिति को ही स्त्री बर्दाश्त नहीं कर पाती और वह उस समय समाज ही क्या हर स्थिति, हर परिस्थिति तथा संकट से मुकाबल करने का साहस जुटा लेती है।
उपरोक्त पंक्तियों में इन्हीं तमाम चीजों का प्रतिफलन देखने को मिलता है। यहां प्रकृति की विराटता के आगे समाज की लघु सोच पर कटाक्ष किया गया है। मैत्रेयी जी अपने पात्रों के माध्यम से अपने इस स्वर को और मुखरित करती है।
गुरूकुल में छात्राओं के साथ किस तरह का व्यवहार किया जाता है, स्त्री पीड़ा का सजीव चित्रण इस उपन्यास में देखने को मिलता है। तपस्विनियों के बीच मांग-विलासिनियों का क्या काम? इस कुलटा से ब्रह्म्चारिणियों का स्पर्श वर्जित । शकुंतला को हवन से दूर, मंत्रों से अलग, कक्षा से निकालकर उस कोठरी में डाल दिया गया, जिसमें लकड़ी भरी रहती थी। थाली में ऊपर से खाना डाल दिया जाता। लोटे में ऊपर से ही पानी की धार……..।‘
समाज के प्रतिष्ठित व पूज्य माने जानेवाले संस्थान जैसे मंदिर मठ, आगम तथा शिक्षा के केंद्र गुरूकूल आदि भी स्त्री के हित को ध्यान में रखकर नहीं बनाए गए थे। यहां की स्त्री के प्रति उनकी सोच परंपरागत ही होती थी। जो विद्या के केंद्र थे वे पुरानी रूढियों के ढर्रे पर ही चले आ रहे थे जहॉ स्त्री को उसके स्त्रीत्व की शिक्षा देना ही उनका कर्तव्य था। लड़कियों के जीवन को कटोर नियमों की रस्सी से बांधना गुरूकूल की प्रथम शर्त थी। उन्हें वहां तपस्विनी बनाकर ब्रह्मचर्य नियम का कठोरता से पालन करने की सीख दी जाती थी। गुरूकुल में शिक्षा ग्रहण करनेवाली 11वी कक्षा की छात्रा जो बौद्धिक रूप से पूरी तरह परिपक्व नहीं मानी जाती। उसे उसकी भूल के परिणामस्वरूप समूह से अलग-थलग कर दिया जाना और उसके साथ अछूतों जैसा व्यवहार करना यह समाज की एक ऐसी व्यवस्था का कुचक्र प्रस्तुत करता है, वहां अपराध को मिटाने की कोशिश नहीं बल्कि अपराधी को खत्म करने की साजिश की जाती है। शिक्षा के नाम पर कठोरता, सहानुभूति के स्थान पर तिरस्कार, व असंवेदना, अनुशासन के नाम पर बंधनों की जकड़न, आत्मबल के विकास के नाम पर मानसिक विकास की अवहेलना, ये सभी कारक गुरूकूल में छात्राओं के विकास में बाधक बनते हैं।
इस प्रकार तिरस्कार किए जाने तथा अपने आत्मसम्मान के खंड-खंड हो जाने की पीड़ा में शकुंतला को आत्महत्या जैसा अनुचित कदम उठाने को मजबूर होना पड़ता है। कथा के विन्यास में गुलकंदी और विसुनदेवा की प्रेमकहानी योगदान देती है। बसंत पंचमी मेला देखने गुलकंदी श्रीधर के साथ जाती है और वहां से विसुनदेवा के साथ भागकर गंधर्व विवाह कर लेती है। अपने चचेरे भाई के बुलाने पर व अपनी मां हरिप्यारी के आग्रह पर होली के पर्व से दो दिन पहले वह आती है और अपने चचेरे भाई हरप्रसाद द्वारा धोखे से जलाकर मार दी जाती है। बिरादरी के नाम पर गुलकंदी का होलिका दहन कर दिया जाता है।
‘ लेकिन ये दो लाशें गांव पर भारी पड़ रही थी। गांव-गांव के रीति-रिवाजों को ललकारने चली थी। एक दहेज को अंगूठा दिखाती हुई, दूसरी अपनी इच्छा से जीने के लिए मंजि की ओर बढ़ गई। चलो खेल खत्म हुआ। गांव में आया जलजला थम जाएगा। भगवान ने खुद ही राक्ष्सिनियों को भस्म कर डाला। जब-जब होय धरम की हानि…….. सारंग पगला रही है। क्या मौका है? क्या सोच रही है?’
सारंग के मन में चल रही हलचल व तूफानों के बाद के शांति की मनःस्थिति है। इन दोनों की मृत्यु ( गुलकंदी व हरिप्यारी) ही तूफान की आगाज है। किसी सामाजिक रूढ़ि व विसंगतियों का आगाज करने के लिए कुछ लोगों को शहीद होना पडता है, ये उन्हीं में से हैं। दहेज प्रथा तथा अनमेल विवाह न केवल स्त्री जाति की बल्कि पूरे समाज की पीड़ा है।
सारंग यहां समाज के प्रति व्यंग्य कर रही है कि जो समाज का सुधारक, अग्रदूत चेतक हो सकता था उसे जलाकर ध्वस्त करके उसकी चेतना को अस्तित्व को मिटाकर समाज में मनुवादी विधिविधान को न्यायोचित ठहराया जा रहा है कि ईश्वर ने स्वयं ही राक्षसिनियों को भस्म कर दिया। इस रूढिवादी पुरूषवर्चस्ववादी समाज में इन दोनों नारी शक्तियों द्वारा किया गया आगाज धर्मविरोधी समाजविरोधी तो था ही जिसका उन्हें अच्छा फल मिल गया। सारंग द्वारा कहा गया यह वक्तव्य ऐसा ही प्रतीत होता है जैसे हाड़ फोडकर निकला हुआ व्यंग्य, जो इस समाज के थोथे मूल्यों व आदर्शों के विरूद्ध है।
चाक में नारी विद्रोह का चित्रण किया गया है। सारंग सभी सामाजिक नियमों के बंधन को नकारती है। वो रिश्तों में रहकर भी समाज के परिवर्तन की प्रक्रिया की साक्षी बनती है। वह श्रीधर से प्रेरणा प्राप्त कर प्रधान पद की उम्मीदवार बनती है। सारंग अकेले संघर्ष करती है। सारंग के सफल होने की आशंका से पुरूष प्रधान समाज में खलबली हो जाती है और कॅुवरपाल समर्थ लोगों के साथ मिलकर बूथ कैप्चरिंग की योजना बनाता है किंतु रंजीत उनके मंसूबों को पूरा होन से रोकता है। दूसरी तरफ सारंग को उसके ससुर गजाधर सिंह और श्रीधर मास्टर का साथ मिलता है जिससे सारंग उत्साहित होकर आगे बढ़ने का प्रयास करती है और स्त्री अस्मिता के लिए संघर्ष करती है।
इस प्रकार चाक नारी विकास यात्रा का जीवंत दस्तावेज है। उपन्यास में कथ्य और पात्र योजना का संयोजन बहुत अच्छा बन पड़ा है। सभी नारी और पुरूषपात्र अपनी-अपनी भूमिका में इतने बंधे हुए हैं कि अपने पक्ष को पाठकों के सामने रख देते हैं।
सारंग नारी शक्ति की प्रतीक है जो सभी रूढ़ियों और संस्कारों को तोड़ती है। रेशम और गुलकंदी की हत्या सामाजिक व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न खड़ा करता है। श्रीधर ज्ञान का प्रतीक है जो अन्याय का विरोध करता है और मानवीयता को प्रश्रय देता है। साथ ही सारंग के व्यक्तित्व को भी नई दिशा प्रदान करते हैं। डोरिया रेशम का हत्यारा है व हरप्रसाद गुलकंदी व हरिप्यारी का हत्यारा है। ‘सीता की कथा सुनी तो है। धरती में ही समा जाना है तो यह जद्दोजहद। अपने चलते कोई अन्याय न हो। जान की कीमत देकर इतनी सी बात छोटा सा संकल्प करके निभाने की इच्छा है, बस।‘
सारंग एक ऐसी स्त्री का प्रतिनिधित्व करती है जो समाज के तमान रूढियों से टकराती है वह एक प्रगतिशील नारी की भूमिका में है। वह इस बात को बखूबी समझती है कि जब तक स्त्री सशक्त नहीं होगी, अपने प्रति होने वाले अत्याचार के विरूद्ध आवाज नही उठाएगी, तब तक उस समाज से उपेक्षा ही मिलेगी। उसे पाने के लिए आंतरिक रूप से सबल होना पड़ेगा और इस गैर बराबरी की खाई को पाटने के लिए समाज की मुख्यधारा में अपनी जगह बनानी होगी। स्त्रियों के हक में फैसला लेने के लिए मजबूती से दृढ़ संकल्प के साथ स्त्री को ही आगे आना होगा तभी वह अपने खिलाफ होने वाले अन्याय के खिलाफ आवाज बुलंद कर सकेगी।
स्वातंत्रयोत्तर हिंदी उपन्यासों में नारी की इच्छाओं के स्वरूप में परिवर्तन को भी दिखाया गया है। सामाजिक संरचना में परिवर्तन आया है। सीमोन द बुआर के शब्दों में हम कह सकते हैं कि केवल आर्थिक स्थिति के बदलते ही स्त्री में पूर्ण परिवर्तन नहीं हो जाएगा बल्कि नैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक अवस्थाओं में भी परिवर्तन की आवश्यकता है। आधुनिक नारी को अपनी कर्मठता से परंपरागत जीवन व विचारों को बदलकर नवीन मार्ग का निर्माण करना है।
मैत्रेयी पुष्पा अपने चरित्रों को भाषा नहीं बल्कि दृष्टि देती है इसलिए चरित्र स्वयं अपनी भाषा के साथ चलते हैं। ब्रज प्रदेश के आंचलिक शब्दों का वर्णन स्वभाविक लगता है। उपन्यास में संस्कृत, उर्दू, अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग किया है। लोक कथाएं मुहावरे-लोकोक्तियॉं, तुकबंदी व पहेली का वर्णन है। बिम्ब के प्रतीक का प्रयोग किया गया है। उपन्यास में प्रयुक्त वर्णनात्मक शैली, किस्सागोई शैली, प्रश्नात्मक शैली, संस्मरणात्मक एवं पत्र शैली का बहुत कुशलता से प्रयोग किया गया है। निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि चाक न सिर्फ अतरपुर गांव की कहानी है बल्कि इससे पूरे भारत की स्थिति को समेटने का प्रयास किया गया है। चाक एक नई सोच, नई अवधारणा को प्रतिस्थापित करने का प्रयास करता है। स्त्री की स्वतंत्रता के लिए आवश्यक पक्ष रखता है, क्योंकि आज भी पुरूष प्रधान समाज में नारी अपनी अस्मिता व अपनी स्वतंत्रता, अपनी सोच व निर्णय को आदर दिलाने के लिए निरंतर संघर्ष कर रही है, जैसा कि चाक में सारंग अपने समाज अपने परिवार व अपनी संस्कृति से संघर्ष करती है। चाक में मानवीय संवेदनाओं के उतार-चढ़ाव का चित्रण भी अत्यंत मार्मिक ढंग से किया गया है। एक प्रकार से चाक उपन्यास पुरूष समाज में स्त्री की अपनी पीड़ा और विद्रोह की महागाथा है।
रजनी पाण्डेय / डॉ. सुशीला लड्ढा
शोधार्थी
मेवाड़ विश्वविद्यालय