मुक्तिबोध, हिंदी साहित्य के क्षेत्र में एक ऐसा नाम है, जिसका लोहा हर कोई मानता है या कहिये कि हर किसी को मानना पड़ता है। कविता, कहानी, आलोचना हर क्षेत्र में मुक्तिबोध की रचनाधर्मिता ऐसी प्रखर है कि उसे नकारना या उससे मुह मोड़ पाना कठिन है। मुक्तिबोध सिर्फ़ कवि या लेखक ही नहीं थे वरन एक विचारक, बुद्धिजीवी और संघर्षशील व्यक्तित्व के स्वामी भी थे……किन्तु, एक संवेदनशील साहित्यकार और प्रखर विचारक के साथ ऎसी नीच ट्रेजिडी हुई कि वे आजीवन दुखों, अभावों और पीड़ाओं से जूझते रहे। उनके जीवन काल में उनका एक भी रचना संग्रह छप कर ना आ सका और ना तो हिंदी क्षेत्र नें उनके जीवित रहते उन्हें कोई विशेष महत्त्व ही प्रदान किया। किन्तु मुक्तिबोध अपने प्रति साहित्यिक जगत के ऐसे रवैये से विचलित नहीं हुए बल्कि उसके सम्मुख संघर्ष किया, वे अपने समय की विसंगतियों और उनके दूरगामी परिणामों से भली प्रकार परिचित थे। उन्होंने तत्कालीन साहित्यकारों और साहित्य के पाठकों को आगाह करते हुए लिखा भी कि; “आज का कवि एक असाधारण असामान्य युग में रह रहा है। वह एक ऐसे युग में है, जहाँ मानव सभ्यता संबंधी प्रश्न महत्वपूर्ण हो उठे हैं। समाज भयानक रूप से विषमता-ग्रस्त हो गया है। चारों ओर नैतिक ह्रास के दृश्य दिखायी दे रहे हैं। शोषण और उत्पीड़न पहले से बहुत अधिक बढ़ गया है। नोच-खसोट, अवसरवाद, भ्रष्टाचार का बाज़ार गर्म है। कल के मसीहा आज उत्पीड़क हो उठे है।… मानव-संबंध टूट-फूट गये हैं। समाज में, शोषकों, उत्पीड़कों और उनके साथियों का ज़ोर बढ़ गया है |

         मुक्तिबोध के विषय में अनेक आलोचकों का यह मानना है कि; वे जैसे एक ही कविता बार-बार लिखते हैं। गहरा रचनात्मक असंतोष और पूर्ण अभिव्यक्ति की इच्छा के कारण एक ही विषय को अलग-अलग रूप में अभिव्यक्त करते है, और हर बार कुछ नए आयाम जुड़ जाते हैं। रचना प्रक्रिया के तीन क्षणों के अपनें सिद्धांत में उन्होंने काफ़ी हद तक अपनी इस रचनात्मक बेचैनी से उत्पन्न, बार-बार लिखी जाती एक ही कविता के व्याख्या के सूत्र छोड़े हैं। वे लिखते हैं कि; “कला का पहला क्षण है- जीवन का उत्कट, तीव्र अनुभव क्षण। दूसरा क्षण है- इस अनुभव का अपने में कसकते दुखते हुए मूलों से पृथक हो जाना और ऎसी फैंटेसी का रूप धारण कर लेना मानो वह फैंटेसी अपनें में आँखों के सामने खड़ी है। तीसरा और अंतिम क्षण है- इस फैंटेसी के शब्दबद्ध होनें की प्रक्रिया की परिपूर्ण अवस्था तक की गतिमानता। शब्दबद्ध होनें की प्रक्रिया के भीतर जो प्रवाह रहता है वही समस्त जीवन और व्यक्तित्व का प्रवाह रहता है। जीवन के उत्कट, तीव्र अनुभवों से उत्पन्न वेदना जब अपने मूल से इतर हो फैंटेसी में शब्दबद्ध हो कर कविता बनती है तो मुक्तिबोध उसके प्रवाह और गतिमानता को जीवन का प्रवाह और गतिमानता मानते हैं और इसी प्रवाह की कोई अंतर्वस्तु उन्हें तब-तक मथती रहती है, जब तक कि वह अपनी पूर्णतर अभिव्यक्ति न प्राप्त कर ले.

           मुक्तिबोध आजीवन बाहरी और भीतरी द्वंदों से संघर्ष-आत्मसंघर्ष करते रहे, उन्हें जीवनानुभव कठोर और खुरदरे ही मिले। अतः अपनें अनुभवों की अभिव्यक्ति के लिए उन्होंनें पारंपरिक कला विधानों का चयन ना कर के अपनें नवीन कला मूल्यों को गढ़ा, उनकी रचनाएँ कोमलकान्त नहीं रहीं बल्कि वे बीहड़ों में, जंगलों में, दीवार की सीलनों में, गूलर और टगर की डालों पर और तालाब के भीतों में विचरती रही, गहरे अँधेरे में गई. उन्होंनें कठिन राहें चुनीं, खुरदुरा शिल्प चुना, पीड़ाएँ चुनीं. अपनें जीवन के अंत तक वो शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रोग-कृमियों से लड़ते रहे. इतनी बड़ी लड़ाई, इतनें गहरे द्वंद्व और नवीन शिल्प की पूर्ण अभिव्यक्ति एक बार में हो जाए, यह सरल नहीं था और यही मुश्किल मुक्तिबोध की बेचैनी का सबब बनी। सीढ़ी दर सीढ़ी वे अपनी अभिव्यक्ति को पूर्णता तक ले जाने का प्रयास करते रहे। अपनी एक कविता में मुक्तिबोध लिखते हैं;

“अपने में से उठे धुंएँ की ही चक्करदार

सीढ़ियों पर चढ़नें लगता हूँ.

और हर सीढ़ी पर लुढ़की पड़ी एक-एक देह

….भूतपूर्व भुगते हुए, अनगिनत ‘मैं’.”

मुक्तिबोध नें अपनें जीवन संघर्षों को ही अपनी रचनाओं में अभिव्यक्ति दी है। उनके जीवन काल में ना तो उनके संघर्षों पर विराम लगा और ना ही उनकी अभिव्यक्तियों को पूर्णता मिल सकी, और अपूर्णता नें उनके अंतर को एक बेचैन चील की मानिंद भटकनें पर विवश कर दिया, वे स्वयं ही कहते हैं की;

“बेचैन चील!!

उस जैसा मैं पर्यटनशील

प्यासा-प्यासा,

देखता रहूंगा एक दमकती झील, 

या पानी का कोरा झांसा…!

इस प्रक्रिया में वे ना केवल एक ही वस्तु-तत्व को बार-बार कविताओं में अभिव्यक्त करते हैं बल्कि वही विषय-वस्तु उनकी गद्य की विधाओं में भी अपनी पूर्णतर अभिव्यक्ति के लिए सक्रिय दिखता है। विधाओं के अंतर से एक ही विषय-वस्तु के कुछ आयाम किसी एक विधा में अधिक पूर्णता पाते हैं तो कुछ दूसरी विधाओं में। इसलिए न केवल उनकी कहानियों, निबंधों और डायरी के बीच विभाजन रेखा खींचना मुश्किल है, बल्कि अंतर्वस्तु पर भी उनके काव्य और गद्य में विभाजन बहुधा उनकी कहानियों, कविताओं के गंभीर और भव्य आशयों तथा अर्थ के सघन विस्तार तक पहुँचनें में मदद करती हैं। इस बाबत ‘एक साहित्यिक की डायरी’ में उन्होंने लिखा भी है कि, यह असम्भव नहीं कि कविता को अनेक क्रमबद्ध गद्य चित्रों में प्रस्तुत किया जाए अथवा अनेक क्रमबद्ध गद्य चित्र कुछ इस तरह आलोकित और दीप्तिमान हों कि छंद बन जाएं, गतिमान हो जाएं और एक विशेष दिशा की ओर प्रवाहित हो सकें। मुक्तिबोध कविता को संगीत के सिवाए, अन्य सभी कलाओं से अधिक अमूर्त मानते हैं। दूसरी ओर वे उन मूर्त वास्तविकताओं और जीवन जगत संबंधी कार्य व्यापार को भी कविता के भीतर खड़ा करना चाहते हैं जिनके आधार पर काव्य के भाव सत्य अथवा संवेदनात्मक पुंज निर्मित हुए हैं। इसी कारण उनकी कविता जगह-जगह सघन गद्यात्मक है और गद्य में काव्यात्मक प्रतीकात्मकता है, बिम्बात्मकता है। इस प्रकार मुक्तोबोध कविता और गद्य दोनों के पारम्परिक ढाँचे को तोड़ अपनी अलग रचनात्मक राह बनाते हैं.

             उन्होंनें अपनी रचनाओं में ना केवल एक ही विषय को बार-बार अभिव्यक्त किया है बल्कि अपनी पूर्व में की गई रचनाओं के विषय का विस्तार भी अपने आगे की रचनाओं में किया है। उनकी लगभग हर रचना, अगली रचना के लिए ‘कला के दूसरे क्षण’ की तरह से सामने आती हैं। ‘ब्रह्मराक्षस’ कविता जहाँ ख़त्म होती है वहीँ से ‘ब्रह्मराक्षस का शिष्य’ कहानी का आरम्भ होता है, और इस प्रकार इन दोनों की अंतर्वस्तु मिल कर एक समग्रता का आयोजन करती है। इसी प्रकार ‘क्लाड ईथरली’ कहानी जिस आध्यात्मिक अशांति और उद्विग्नता को प्रस्तुत करती है, वह मुक्तिबोध की कविताओं में बार-बार आने वाली थीम है, उदाहरण के तौर पर हम ‘अँधेरे में’ कविता का एक अंश, जो कि एक पागल के गीत के रूप में प्रसिद्ध है, को देख सकते हैं। ‘क्लाड ईथरली’ कहानी में एक संवाद कुछ इस प्रकार से आता है; “हमारे अपने-अपने मन-हृदय-मस्तिष्‍क में ऐसा ही एक पागलखाना है, जहाँ हम उन उच्‍च पवित्र और विद्रोही विचारों और भावों को फेंक देते हैं, जिससे कि धीरे-धीरे या तो वह खुद बदल कर समझौतावादी पोशाक पहन सभ्‍य भद्र हो जाए यानी दुरुस्त हो जाए या उसी पागलखाने में पड़ा रहे”.

              मुक्तिबोध नें शोषण और उत्पीड़न से मुक्ति के उद्देश्य को भी केन्द्रित करते हुए अपनी अलग-अलग रचनाओं में इस विषय को आरम्भ और विस्तार प्रदान किया है। जैसे-

“मेरे सभ्य नगरों और ग्रामों में

सभी मानव सुखी सुंदर व शोषणमुक्त

कब होंगे…!”

आगे इसी प्रश्न को व्यापकता प्रदान करते हुए लिखते हैं कि-

“बशर्ते तय करो, किस ओर हो तुम, अब

सुनहले उर्ध्व आसन के

दबाते पक्ष में, अथवा

कहीं उससे लुटी टूटी

अंधेरी निम्न कक्षा में तुम्हारा मन,

कहाँ हो तुम?

मुक्तिबोध जिस यथार्थ को, नए शिल्प के माध्यम से, उसकी वास्तविकता और अर्थवत्ता दोनों ही स्तरों पर अन्वेषित करना चाहते हैं, वह किसी एक रचना या विधा के माध्यम से संभव नहीं था। उनके परिपूर्ण क्षणों की सद्-चित-वेदना, उनकी कविताओं, कहानियों और लेखों में, अपूर्ण अभिव्यक्त्यों के रूप में धधकती रही।

 

सन्दर्भ ग्रन्थ –

  1. नयी कविता का आत्मसंघर्ष तथा अन्य निबन्ध पृ 14-15
  2. मुक्तिबोध, एक साहित्यिक की डायरी, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन संस्थान, पृष्ठ संख्या-२०
  3. गजानन माधव मुक्तिबोध, प्रतिनिधि कवितायेँ, राजकमल प्रकाशन, पृष्ट संख्या-१८०
  4. गजानन माधव मुक्तिबोध, प्रतिनिधि कवितायेँ, राजकमल प्रकाशन, पृष्ट संख्या-१८६
  5. चकमक की चिनगारियाँ, चाँद का मुँह टेढ़ा है, पृ 169
  6. चकमक की चिनगारियाँ, चाँद का मुँह टेढ़ा है, पृ 162

 

सौरभ कुमार यादव
शोधार्थी
दिल्ली विश्वविद्यालय

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