महेश कुमार केसरी ‘राज’ का कहानी-संग्रह ‘मुआवजा’ वर्ष 2020 में परिकल्पना प्रकाशन, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित हुआ है, जिसमें कुल बारह कहानियाँ – आखिरी फैसला, सुरेश बाबू, किस्सा कोयलांचल का, अंधविश्वास, सोशल नेटवर्किंग साइट, मुआवजा, घटना एक गाँव की, कैद, जाल, कफन, गिरफ्त, नामकरण संस्कार आदि हैं । भले ही लेखक का यह पहला कहानी-संग्रह है, किंतु पिछले बारह वर्षों से वह कहानी लेखन का कार्य कर रहे हैं और अब तक दर्जनों पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कहानियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं, इसीलिए इस संग्रह में उनके लेखन की परिपक्वता का स्पष्ट दर्शन होता है ।

लेखक ने अपनी कहानियों में बिहार और झारखंड प्रांतीय श्रमिकों के आर्थिक शोषण का यथार्थ बिम्ब प्रस्तुत किया है । चूँकि लेखक स्वयं झारखंड में वर्षों से प्रवास किए हुए हैं और दिन-प्रतिदिन हो रहे मजदूरों के शोषण के साक्षी हैं, इसलिए उनकी कहानियों में वर्णित घटनाएँ पाठक के समक्ष जीवित पात्रों के रूप में घटित होती दिखाई देती हैं । कहने को तो कहानी काल्पनिक होती है, लेकिन उनकी कहानियों को पढ़कर पाठक को ऐसा लगता है, जैसे घटनाएँ उसके आस-पास की हों और सच्ची हों ।

‘किस्सा कोयलांचल का’ कहानी में बुधनी एक सी०सी०एल कर्मी है, जिसकी तनख्वाह तीस हजार रुपये है । उसे दुर्गा पूजा का बोनस चालीस हजार रुपये मिले । बैंक से निकलते ही बुधनी किशोर मिश्रा, कल्लू कलाली और जटाशंकर साव को दस-दस हजार रुपये देती है । उसके पास शेष बचते हैं – दस हजार रुपये । उन रुपयों को वह अपने प्रेमी शमीम मियाँ की मनचाही बाइक ‘सुपर स्प्लेंडर’ खरीदने के लिए डाउन पेमेंट के रूप में देती है । सूदखोरों द्वारा किए गए आर्थिक शोषण से बुधनी के हाथ बिल्कुल खाली हो जाते हैं । उस स्थिति में बुधनी को जो मानसिक-पीड़ा होती है, उसे लेखक ने बड़े ही मार्मिक ढंग से अभिव्यक्त किया है । इस कथन में कितनी पीड़ा है ? कोई भी सहृदय व्यक्ति अनुभव कर सकता है :

” घर जाते हुए बुधनी सोच रही थी कि अभी उसके पास चालीस हजार रुपये थे और अब उसका हाथ बिल्कुल खाली है । वह राशन वाले को पैसा कहाँ से देगी ? ” [1]

‘घटना एक गाँव की’ कहानी में मुख्य पात्र भीम लाल है, जो सूदी का शिकार होकर, चौधरी के हाथों दो लाख रुपये का कर्जदार हो जाता है । जब वह कर्ज के पूरे रुपये चुकाने में असमर्थ होता है और जब पंचायत में ग्राम प्रधान चौधरी से पूछता है कि अब क्या किया जाए ? तो चौधरी कुटिलता से मुस्कुराते हुए कहता है :

” अगर भीम लाल पैसे नहीं दे सकता, तो अपना मकान मेरे नाम रजिस्ट्री करवा दे । ” [2]

अंत में मकान की कीमत तीन लाख रुपये लगाई जाती है तथा चौधरी शेष एक लाख रुपये भीम लाल को देकर, उसका मकान अपने नाम रजिस्ट्री करवा लेता है । असल में, चौधरी की नजर पहले से ही भीम लाल के मकान पर थी । सूदी रूपया देने के बहाने वह उसके मकान को सस्ते में हासिल करना चाहता था । यह कहानी इस तथ्य को उजागर करती है कि किस तरह आज भी महाजन गरीबों की मजबूरी का गलत फायदा उठा रहे हैं ?

लेखक के अनुसार, संग्रह में सम्मिलित कहानी ‘कैद’ सत्य घटना पर आधारित है । इस कहानी में बंधुआ मजदूरों की अत्यंत दयनीय स्थिति का यथार्थ और करुण चित्रण प्रस्तुत किया गया है । धनबाद जिले का युवक विष्णु अपने गाँव के मुखिया दुर्जन सिंह के झाँसे में पड़कर, अपने कुछ साथियों के साथ काम करने के लिए पटना जाता है और वहीं बंधुआ मजदूर बनकर कैद हो जाता है । वह जबसे काम शुरू किया था, उसे खाने के अलावा नगद रुपए कभी नहीं दिए गये और न ही उसके साथियों को ।

उस कैदखाने का मालिक दिलावर खाँ है । एक रात चमरू महार नाम का मजदूर भागने की फिराक में था लेकिन दिलावर खाँ के आदमियों ने उसे पकड़ लिया और इतना मारा कि वह अधमरा हो गया । वह अपने आखिरी दिनों में बस यही कहता था :

” मुझे घर जाने दो… मेरी आखिरी इच्छा यही है कि मैं एक बार अपनी माँ को देख लूँ । ” [3]

दिलावर खाँ ने उसकी बातों को नजरअंदाज कर दिया और उसकी लाश भी मरने के तीन दिन बाद जलाई गई । ठंड के कारण उसकी लाश ऐंठ गई थी । उस घटना के बाद तो विष्णु की भी कभी भागने की हिम्मत नहीं हुई । दस साल बीत जाने के बाद; जबकि उसकी जिंदगी के कुछ ही साल बचे हुए थे, वह अपनी पुत्री मुनिया और पत्नी सोनबतिया को याद करते हुए सोच रहा था :

” इन दस सालों में तो बहुत कुछ बदल गया होगा । क्या मुनिया बड़ी नहीं हो गई होगी ? क्या सोनबतिया मुझे देखने के बाद पहचान लेगी ? ” [4]

‘जाल’ कहानी में मंडन मिसिर नामक जालसाज को पुलिस पकड़ती है और पूछताछ के दौरान उसका भेद खुलता है कि वह सूद-ब्याज का धंधा करता था । जरूरतमंद गरीबों को दस प्रतिशत मासिक ब्याज पर कर्ज देता था और कर्ज के एवज में उनके खाते की पासबुक अपने पास गिरवी रख लेता था । इस तरह, वह ब्याज के पैसे से ही बहुत सारा धन कमाकर अमीर बन गया था । जब पुलिस कप्तान वीरेंद्र कर्ज से पीड़ित महिला सुनीता किस्कू से पूछताछ करते हैं, तो उस बेबस की आप बीती सुनकर हृदय द्रवित हो जाता है । पुलिस कप्तान के अचानक सवाल करने से सुनीता डरकर होने लगती है और भर्राए हुए गले से बोलती है :

” सर ! मेरे बच्चे का एडमिशन करवाना था, इसलिए मंडन मिसिर से कर्ज लिया था । कर्ज लेने के एवज में मंडन मिसिर ने मेरा पासबुक गिरवी रख लिया था । ” पुलिस कप्तान ने सुनीता से फिर पूछा – ” अच्छा बताओ, तुम्हारे पति क्या करते हैं ? इस सवाल पर सुनीता और जोर-जोर से रोने लगी और रोते हुए बोली – ” सर ! तीन साल पहले मेरे पति खान दुर्घटना में काम करते हुए मर गए थे । ” [5]

इस पुस्तक में संग्रहीत कहानी ‘कफन’ उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की कहानी ‘कफन’ से बिल्कुल अलग है । यह कहानी आधुनिक समाज के आधुनिक लोगों की संवेदनहीनता का यथार्थ बिंब प्रस्तुत करती है । सौ साल पहले की कहानी ‘कफन’ में घीसू और माधव को तो कफन के लिए पैसे मिल जाते हैं, लेकिन सौ साल बाद की इस ‘कफन’ कहानी में झींगुर अपने पिता चरकु रविदास की लाश लेकर मंदिर के पंडाल में लगे मेले में सारा दिन पड़ा रहता है, फिर भी उसे चवन्नी तक नहीं मिलती । जबकि वहीं बगल में रखे दान-पेटी में लोग मंदिर और मूर्ति के नाम पर हजारों रुपए का दान कर रहे थे । इस कहानी में लेखक का यह कथन द्रष्टव्य है :

”  उसने देखा, लोग दान देने के लिए एक-दूसरे पर चढ़े जा रहे थे । लोगों के पास जो भी रुपए, दो रुपए-चार रुपए हैं, उन्हें लोग दान-पेटी में डाल रहे हैं । इधर चरकु रविदास के कंकालनुमा शव के मुख पर मक्खियाँ भिनभिना रही हैं । झींगुर को लोगों की सोच और समाज की संवेदनहीनता पर अफसोस हो रहा था । वह सोच रहा था कि जिस देश में धर्म के नाम पर लाखों रुपए चढ़ावे और झूठी शान में खर्च किए जा रहे हों, उस देश और उस देश के लोगों से और क्या उम्मीद की जा सकती है ? ” [6]

इस प्रकार हम देखते हैं कि लेखक महेश कुमार केसरी ‘राज’ ने अपनी कहानियों के द्वारा भारतीय समाज में गरीब मजदूरों के शोषित और पीड़ित जीवन को बड़ी ही ईमानदारी के साथ यथार्थ रूप में चित्रित किया है । यही नहीं, लेखक ने गरीब मजदूरों की कुछ बुरी आदतों को भी वैचारिक ढंग से प्रस्तुत किया है । लेखक को ऐसा लगता है कि मजदूरों के दुःख का कारण कुछ तो उनकी बुरी आदतें हैं और कुछ सरकार की अनदेखी । ‘ कफन’ कहानी का शिल्प और संवेदना तो सभी कहानियों से अलग है । फिर भी कुछ कहानियों को छोड़कर शेष सभी कहानियाँ श्रमिक शोषण पर ही आधारित हैं । चूँकि इस पुस्तक के केंद्रीय भाव के रूप में श्रमिकों के शोषण की पीड़ा है, इसलिए हम कह सकते हैं कि कहानी-संग्रह ‘मुआवजा’ श्रमिक-शोषण का दस्तावेज है ।

 

संदर्भ :

[1] मुआवजा : महेश कुमार केसरी ‘राज’ पृष्ठ 36

[2] वही, पृष्ठ 68

[3] वही, पृष्ठ 76

[4] वही, पृष्ठ 76

[5] वही, पृष्ठ 83,84

[6] वही, पृष्ठ 90

देवचंद्र भारती ‘प्रखर’
हिंदी प्रवक्ता
हरिनंदन स्नातकोत्तर महाविद्यालय
चंदौली (उत्तर प्रदेश)

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