साहित्य जगत में भी नारी की स्थिति अच्छी नहीं थी। आदिकाल हो, भक्तिकाल हो या रीतिकाल प्राय: नारी के जो चित्र उभरकर सामने आते हैं, उससे यह स्पष्ट होता है कि उस समय वह एक भोग्या या मनोरंजन का साधन मात्र बनकर रह गई थी। आदिकाल में प्राय: जितने भी रासो ग्रंथों का निर्माण हुआ, जिसका मुख्य उद्देश्य तत्कालीन राजाओं की वीरता, उनके साहस, पराक्रम को दर्शाना ही था, किन्तु ऐसे युद्धों के मूल में किसी न किसी नारी की परिकल्पना अवश्य मौजूद होती थी। दरबारी कवि भी अपने आश्रयदाता राजाओं को खुश करने के लिए उनकी इच्छा के अनुरूप श्रृंगारिक रचनाएं करते थे, जिसमें नारी के देह या उसके अंग- उपांगो का वर्णन ही अधिक रहता था। रीतीकाल में तो जैसे नारी की श्रृंगारिक वार्णनों की भरमार ही है। प्राय: इन कवियों का ध्यान नारी की अस्मिता या उसके दु:ख दर्दों की ओर मुड़कर भी नहीं गया। भक्तिकाल में भी कबीर जैसे बड़े- बड़े संत- ज्ञानी एक तरफ तो यह कहते हैं कि वेद बड़ा और कुरान छोटा है, ऐसा भेद करना जितना बड़ा पाप है उतना ही बड़ा पाप स्त्री और पुरुष का भेद करना है-

 प्रेमचंद पूर्व के कथाकारों की एक पूरी की पूरी परंपरा है जिन्होंने हिंदी कथा साहित्य में प्रारंभिक प्रयास किए हैं | यह प्रयास अत्यधिक रूप से बहुत अधिक अनुशासित तथा पुष्ट नहीं है | लेकिन इनके अध्ययन के बिना हिंदी कथा साहित्य का अध्ययन अधूरा ही होगा | डॉ लक्ष्मण सिंह बिष्ट का यह कथन इस संदर्भ में सही माना जाना जाता है कि प्रेमचंद का उदय एक स्वतंत्र व्यक्तित्व के रूप में हुआ और हिंदी कथा साहित्य का प्रारंभ वहीं से हुआ इसमें कोई संदेह नहीं कि हिंदी कथा साहित्य का विकसित रूप हमें प्रेमचंद की रचनाओं के बाद ही देखने को मिला है| प्रेमचंद स्त्री को उसके गुणों के कारण पुरुष से श्रेष्ठ मानते थे । वे मानते थे कि त्याग और वात्सल्य की मूर्ति नारी के जीवन का वास्तविक आधार प्रेम है और यही उसकी मूल प्रकृति भी । वे नारी का बेहद सम्मान करते थे । प्रेमचंद के नारी पात्रों में शहरीय वर्ग, गांव का किसान समुदाय और अभिजात्य वर्ग के दर्शन होते हैं । प्रेमचन्द जी के उपन्यास स्त्रियों और पुरुषों के बीच ऐसे सामंजस्य और तालमेल की पड़ताल करते है जिससे सामाजिक व्यवस्था पुष्ट ओर स्थायी हो। भारत के पुरुष प्रधान समाज में स्त्रियां चाहे जिस भी भूमिका में हो बेटी हो, मां हो, बहू हो या भाभी, ननद और देवरानी हो, उनकी वास्तविक तस्वीर रूपायित करने में प्रेमचन्द जी ने अन्य लेखको के लिए एक चुनौतीपूर्ण कार्य किया हे। क्योकि जैसी जीवन्त नारी पात्रों का चित्रण प्रेमचन्द जी ने किया है, वैसी कही और नज़र नहीं आती। प्रेमचन्दोत्तर काल में चाहे वह साहित्य हो या फिल्म, प्रेमचन्द जी द्वारा  परिकल्पित नारी की छवि सर्वत्र दिखाई देती हे। उन्होंने स्त्रियों की सामाजिक और उनके विभिन्न स्वरूप को अपने साहित्य के माध्यम से प्रस्तुत किया है।

 प्रेमचंद का  अवतरण हिंदी कथा साहित्य के क्षेत्र में सन 1918 से माना जाता है उस समय यदि एक ओर विषम परिस्थितियों से जर्जर समाज था तो दूसरी ओर राजनीतिक आंदोलनों  से  भरा देश का  वातावरण, तत्कालीन समाज को ऊंचा उठाने के लिए तीन बड़ी शक्तियां काम कर रही थी आर्य समाज, ब्रह्म समाज और इंडियन नेशनल कांग्रेस |

आर्य समाज इसने उस समय नारी चेतना के लिए उल्लेखनीय कार्य किया | बाल विवाह पर्दा प्रथा छुआछूत अशिक्षा आंध्र रूढ़िवादिता आदि के विरुद्ध एक क्रांतिकारी पहल आर्य समाजियों ने की,   यही नहीं विधवा विवाह और स्त्री शिक्षा की पुरजोर वकालत भी आर्य समाज की ओर से की गई ब्रह्म समाज के संस्थापक राजा राममोहन राय ने अमानुविक सती प्रथा का अंत कर विधवा विवाह का पक्ष सबल किया | जातिवाद प्रथा के विष के प्रति सचेत करते हुए उन्होंने स्त्रियों को सामाजिक क्षेत्र में “के लिए प्रेरित किया | स्त्रियों के संपत्ति  संबंधी अधिकार और अंतर्जातीय विवाह के प्रति भी ब्रह्म समाज ने खासा बल दिया | सन 1985 ईसवी  में स्थापित इंडियन नेशनल कांग्रेस ने स्त्रियों की दशा में सुधार के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाए| नारी के समान अधिकारों के लिए आवाज उठाना तथा राजनीतिक क्षेत्र में उन्हें अग्रसर करना कांग्रेस का प्रमुख उद्देश्य बीसवीं शताब्दी की यह सबसे बड़ी उपलब्धि है कि नारियां स्वयं अपने अधिकारों की रक्षा के लिए सामने आई!  महात्मा गांधी नारी चेतना के सजग प्रहरी हुए गांधी जी ने बाल विवाह के भयंकर परिणामों की ओर नारी जाति का ध्यान दिलाकर देश की आशाएं विधवाओं के विषय में भी अपने विचार व्यक्त किए गांधी जी का कहना था -कि नारी पुरुष की गुलाम नहीं है| वह अर्धांगिनी है, दामिनी है| उसको मित्र समझना चाहिए, किंतु पुरुष वर्ग उसे अपना सहयोगी मित्र ना मानकर अपने को उसका स्वामी मानता है, शासक मानता है, यह सब पुरुष का अन्याय है| गांधीजी स्त्रियों और पुरुषों के लिए समान अधिकार चाहते थे | वह लड़के लड़कियों के साथ समान व्यवहार करते थे | वे चाहते थे कि महिला अनुचित कानूनों का विरोध करें तभी बुराई से बुराई को काटा जा सकता है| 1930 के आंदोलन में भारतीय नारी की स्थिति में बहुत परिवर्तन हुआ अब नारी वर्ग राजनीति में भाग लेने लगा | देश की जागृति ने हिंदी कथाकारों का ध्यान भी अपनी ओर आकर्षित किया | प्रेमचंद जी ने अपने कथा साहित्य का सृजन गांधी जी के विचारों से प्रभावित होकर किया! प्रेमचंद जी के सभी स्त्री पात्र इस नारी जागृति से प्रभावित हुए | सशक्त वर्ग की नारियों ने स्वयं को देशभक्ति के लिए बलिदान किया गोदावरी, मुन्नी, मृदुला आदि पात्र प्रेमचंद परंपरा के प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण को प्रस्तुत करते हैं सजग साहित्यकार अपने युग की हलचलों के साथ अपने समकालीन साहित्य परिदृश्य से भी प्रभावित रहे बिना नहीं रह सकता | प्रेमचंद भी अपने समकालीन विदेशी साहित्य और लोग इन परिस्थितियों से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके | नारी चेतना के विविध स्वरूप प्रेमचंद के कथा साहित्य में देखने को मिलते हैं | प्रेमचंद के मन में वैवाहिक रूढ़ियों को लेकर मन में शायद तीन प्रेरणाये रही होंगी, एक तो स्वयं प्रेमचंद को ही इस प्रथा का नरक भोगना पड़ा था, दूसरे इन कुरीतियों के दुष्परिणाम स्त्रियों को भुगतने पड़ते थे, स्त्री पुरुष समता के पक्षपाती प्रेमचंद इसे सहन नहीं कर सकते थे | तीसरे वे अपने वातावरण से प्रभावित थे जिसमें गांधीजी का प्रभाव था | इन्हीं प्रेरणाओं के फलस्वरुप प्रेमचंद जी ने “दो सखियां” कहानी में कहानी के नायक विनोद के द्वारा वर्तमान विवाह प्रथा के विरुद्ध विचार प्रस्तुत किए हैं| प्रेमचंद ने सुभागी एवं लांछन (मानसरोवर भाग-1)  उन्माद  (मानसरोबर भाग-2)  नैराश्य लीला (मानसरोवर भाग-3)  आदि कहानियों में बाल विवाह की बुराइयों का वर्णन किया है | सुभागी 11 साल की उम्र में ही विधवा हो जाती है और नैराश्य लीला की कैलाश कुमारी का तो अभी गौना भी नहीं हुआ था | अभी वह यह भी न जान पाई थी, कि विवाह का आशय क्या है | उसका सुहाग उठ जाता है| वैधव्य ने उसके जीवन की अभिलाषा का दीपक बुझा दिया प्रेमचंद ने हिंदुओं के दुधमुंहे बालकों तक के व्यवहार से क्षुब्ध होकर ही विचित्र देश पर व्यंग करते हुए कहा कि 5 साल के दुल्हे तुम्हें भारत के सिवा और कहीं देखने को ना मिलेंगे | नारी जाति के हरे भरे जीवन को भस्मसात करने वाली इस अनमेल विवाह की कुप्रथा की ओर भी प्रेमचंद जी का ध्यान गया और उन्होंने पाठकों को संवेदनात्मक भूमि पर लाकर स्थित कर दिया | वैवाहिक कुरीतियों का कारण उस समय की दहेज प्रथा ही थी | जो कोढ़ की तरह समाज में फैली हुई थी! लड़की के गुण और सौन्दर्य का दहेज के समक्ष कोई मोल नहीं था अतः गरीब घरों की सुन्दर सुशिक्षित लड़कियां दहेज के अभाव में कुपात्र के गले मढ़ दी जाती थी कितनी ही युवतियों| नया विवाह, नरक का मार्ग, उद्धार, आधार, आगा-पीछा, भूत आदि कहानी इस दिशा  में सराहनीय प्रयास है |

निर्मला की निर्मला अनमेल विवाह की प्रथा पर बलिदान होने वाली नारी की अत्यंत मार्मिक कथा है| कायाकल्प में भी अनमेल विवाह की समस्या पर प्रकाश डाला गया है- “लड़की कंगाल के दे दे पर बूढ़े को ना दें! गरीब रहेगी तो क्या, जन्म भर रोना जीतना तो ना रहेगा” | प्रेमचंद आदर्शवादी लेखक थे | अतः उन्होंने पुरानी पीढ़ियों का विश्लेषण तो किया परंतु वे नई आस्थाओं को भी पूर्ण रूप से ना स्वीकार पाए उनके नारी पात्र सभी प्रकार की सामाजिक रूढ़ियों से ग्रस्त है | किंतु वह कहीं भी विद्रोह करके समाज में एडजस्ट नहीं हो पाए! बाल विवाह, अनमेल विवाह, दहेज प्रथा | जय शिव शंभू दिनों से तंग आकर भी प्रेमचंद तलाक प्रथा का समर्थन नहीं कर पाए कायाकल्प में चक्रधर से यह कहलवा कर उन्होंने तलाक प्रथा की सीमा बांध दी है! “जब किसी पुरुष का एक स्त्री के साथ पति पत्नी का संबंध हो जाए तो पुरुष का धर्म है कि जब तक स्त्री की ओर से कोई विरुद्ध आचरण ना देखें उस संबंध को निभाएं” | गोदान के प्रोफेसर मेहता भी नारी को प्रपुरूष के समकक्ष लाने के पक्ष में नही है!

  अपने युग की सामाजिक कुरीतियों तथा विसंगति मान्यता का चित्रण करने में प्रेमचंद जी ने सफलता पाई है सामाजिक कुरीतियों में प्रेमचंद ने दहेज प्रथा को सबसे बड़ा अभिशाप माना है | हिंदू समाज की वैवाहिक तथा इतनी दूषित, इतनी चिंताजनक, इतनी भयंकर हो गई है कि कुछ समझ में नहीं आता! उनका सुधार क्यों कर रहे हो | विरले ही ऐसे माता-पिता होंगे, जिनके साथ पुत्रों के बाद भी एक कन्या उत्पन्न हो जाए, तो वह शहर उसका स्वागत करें | इसका कारण यह है कि दहेज की दर दिन दूनी रात चौगुनी पावस के जले के समान बढ़ती जा रही है | इतने ही माता-पिता उसे चिंता में घुल मिलकर अकाल मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं | कोई सन्यास ग्रहण कर लेता है | कोई कन्या को बूढ़े के गले मढ़ कर अपना गला छोड़ आता है | पात्र अपात्र विचार करने का मौका यहां ढेलम ढेल है |

इस युग में मध्यवर्ग की आर्थिक दशा शोचनीय थी | धन अभाव के कारण “भूत” की नायिका खिन्नी के मां-बाप उसका विवाह सीतानाथ जैसे 50 वर्षीय युवक के साथ करने को तैयार हो जाते हैं और “उदार” कहानी में मां-बाप लड़की की मृत्यु पर प्रसन्न होते हैं | “एक आंच की कसर” में प्रेमचंद ने उन समाज सुधारकों की पोल खोली है, जो चोरी-छिपे दहेज लेते थे और माल भी चुपके चुपके उड़ाते थे और यश भी कमाते थे| यह व्यवहार कुशल सुधारक एक ना एक ऐसा बहाना निकाल लेते कि कन्या का पिता निरुत्तर हो जाता साहब हमें तो दहेज से सख्त नफरत है यह मेरे सिद्धांत के विरुद्ध है, पर क्या करूं बच्चे की अम्मीजान नहीं मानती! प्रेमचंद ने दहेज समस्या को ही अनमेल विवाह का प्रमुख कारण माना है!  प्रेमचंद ने दहेज समस्या को ही अनमेल विवाह का प्रमुख कारण माना है!

प्रेमचंद की दृष्टि में दहेज नैतिक समस्या है आर्थिक नहीं, लोक नैतिक दृष्टि से इतने पतित हो गए हैं कि अपने पुत्र की पढ़ाई का खर्च और अपनी पुत्री के विवाह का व्यय अपने पुरुषार्थ की कमाई से नहीं दहेज की रकम से वसूलना चाहते हैं | “कुसुम”, में पति कुसुम से इसलिए नहीं बोलता कि कुसुम अपने पिता से उसके विलायत जाने का खर्च लाकर नहीं देती | ऐसे में प्रेमचंद कहते हैं बाहरी दुनिया और वाह रे हिंदू समाज,  तेरे यहां ऐसे ऐसे स्वार्थ के दास पड़े हुए हैं जो एक अबला का जीवन संकट में डाल कर उसके पिता पर ऐसा अत्याचार दबाव डालकर ऊंचा पद प्राप्त करना चाहते हैं| विद्यार्जन के लिए विदेश जाना बुरा नहीं ईश्वर सामर्थ्य तो शौक से जाओ किंतु पत्नी का परित्याग कर के ससुर पर भार रखना निर्णय ताकि पराकाष्ठा है तारीफ की बात तो तब थी कि तुम अपने पुरुषार्थ से जाते |

 प्रेमचंद जी ने ग्रामीण नारी में मुख्या पात्र के रूप में धनिया  का बर्णन किया है  । ‘गोदान ‘ में धनिया  के बारे में बताया है – ” धनिया  इतनी व्यवहार – कुशल न थी । उसका विचार था कि हम जमींदार के खेत जाते है, तो वह अपना लगान ही लेगा । उसकी खुशामद क्यों करे? “धनिया भारतीय नारी के समान दुःख और बिपदा में सदैब अपने पति की संगिनी रही है। वह अन्याय को सिर झुकाकर सहन नहीं करती है। वह होरी के साथ संघर्ष के स्थितियों से गुजरती है। उसके बराबर न और कोई परिश्रम करने वाली है और न किसी पर सरस्वती की ऐसी कृपा है ।

जब वह दातादीन के यहाँ मजदूरी  करते हुए हाँफ  रही है तो दातादीन हँसते हैं ‘ अगर यही हाल है जो भीख भी माँगोगी। धनिया तुरंत उत्तर देती है ‘ भीख माँगो तुम , जो  भिक्मंगी हो, की जाट हो। हम तो मजदूर ठहरे , जहाँ काम करेंगे , वहीँ चार पैसे पाएंगे ।’ इस प्रकार धनिया स्वाभिमानी  और तेजस्विनी नारी है । डॉ रामविलास शर्मा के शब्दों में – “वह ऊपर से कठोर है लेकिन ह्रदय वहुत कोमल है ।” अर्थात जब झुनिया पांच महीने का गर्भ लेकर धनिया के यहाँ आ जाती है , तो पहले वे वह बिगड़ती है किन्तु होरी के झुनिया पर नाराज होने पर उसका पक्ष लेती है । प्रेमचंद धनिया के इस रूप का वर्णन इन शब्दों में करते हैं – ‘ धनिया का मातृ – स्नेह उस अँधेरे में भी जैसे दीपक के समान उसकी चिंता जर्जर आकृति को शोभा प्रदान करने लगा। धनिया की यही मातृत्व भावना से झुनिया की  रक्षा करती रहती है । सिलिया चमारिन भी एक त्याग की मूर्ति है । मातादीन के लिए सब कुछ त्याग देने, छोड़ने को तैयार है । सिलिया कहती है – ” मजदूरी करुँगी , भीख मांगूंगी , लेकिन तुम्हे न छोडूंगी ।” इस प्रकार गांव की स्त्रियों को शोषण का शिकार बनना पड़ता । दातादीन, नोखेराम, झिंगुरी सिंह आदि महाजनों का भोग बनती है। यह भी प्रेमचंद का उद्देश्य रहा है की गांबों की स्त्रियों को अत्याचार से बचाया जाऍं।

प्रेमचंद विवाह को विकास का साधन मानते हुए कहते हैं – “मैं विवाह को आत्म विकास का साधन समझता हूं ! स्त्री के संबंध का अगर कोई अर्थ है तो यही है, वरना मैं विवाह की कोई जरूरत नहीं समझता | वे तद-युगीन सामाजिक रीति-रिवाजों को ढकोसला मानते हुए ऐसी विवाह पद्धति की संरचना करना चाहते हैं, जिसमें युवतियों की इच्छाओं को समझा जा सके “अपनी बालिकाओं के लिए मत देखो धन मत देखो जायदाद, मत देखो कुलीनता, केवल वर देखो ! उसके लिए जोड़ का वर नहीं पा सकते, तो लड़की को क्वारी रख छोड़ो, जहर देकर मार डालो, गला घोंटकर मार डालो, पर किसी बूढ़े भूषण से मत ब्याहों | “स्त्री सब कुछ सह सकती है, दारूण दुख, बड़े से बड़े संकट को | वो अगर नहीं सह सकती तो अपने यौवन काल की उमंगों का कुचला जाना” |

पति पत्नी में जब सच्चा प्रेम नहीं होता तब बहुत  बहुधा कलह व कपट आदि की भावनाएं उत्पन्न हो जाती हैं और दांपत्य जीवन दूबर हो जाता है| प्रेम का महत्व पुरुष के लिए भी बहुत है किंतु स्त्री के लिए जीवन का तो वह आधार ही है स्त्री को जीवन में प्यार ना मिले तो उसका अंत हो जाना ही अच्छा है! “बालक” कहानी में गंगू कहता है “जहां प्रेम नहीं है हुजूर, वहां कोई स्त्री नहीं रह सकती | केवल रोटी कपड़ा ही नहीं चाहती स्त्री कुछ प्रेम भी तो चाहती है |

 प्रेमचंद यह मानकर चले हैं कि पाश्चात्य शिक्षा के प्रभाव से युक्तियां दांपत्य जीवन को तुच्छ समझने लगी है | इस प्रवृत्ति को लेकर लिखी गई कहानी “विश्वास” में मिस जोशी कहती हैं | “मेरा पालन-पोषण जिस ढंग से हुआ उसका यह परिणाम होना स्वभाविक सब मालूम होता है, मेरी उच्च शिक्षा ने ग्रहस्त जीवन से मेरे मन में घृणा पैदा कर दी, मुझे किसी पुरुष के आधीन रहने का विचार अस्वाभाविक जान पड़ता था | मैं ग्रहणी की जिम्मेदारियों और चिंताओं को अपनी मानसिक स्वाधीनता के लिए विष तुल्य समझती थी | मैं पुरुषों की भांति स्वतंत्र रहना चाहती थी, क्यों किसी की पाबंद होकर रहूं, क्यों अपने इच्छाओं को किसी व्यक्ति के सांचे में डालो, क्यों किसी को यह कहने का अधिकार दूं कि तुमने यह क्यों किया वह क्यों नहीं किया दांपत्य मेरी निगाह में तुच्छ वस्तु था”

 विवाहित जीवन की पूर्णता संतान से ही होती है! “खून सफेद” कहानी में देवकी अपने पुत्र साधुओं की याद को कभी भी हृदय से भुला नहीं पाती और 14 वर्ष उपरांत साधु को पाकर देवकी की ममता उमड़ पड़ती है- “मैं अपने लाल को अपने घर में रखूंगी और कलेजे से लगा लूंगी इतने दिनों बाद मैंने पाया है, लड़के वालों ही के लिए आदमी पकड़ता है जब लड़का ही ना रहा तो भला बिरादरी किस काम आएगी”?

प्रेमचंद की यह मान्यता है कि प्रेम के उच्च आदर्श का पालन स्त्रियां ही कर सकती हैं | पुरुष नहीं, क्योंकि पुरुष बहुधा प्रेम को वासना से पृथक नहीं कर सकते “दो सखियां” का भुवन कहता है- प्रेम के ऊंचे आदर्श का पालन रमणिया ही कर सकती हैं! पुरुष कभी प्रेम के लिए आत्मसमर्पण नहीं कर सकता वह प्रेम को स्वार्थ और वासना से प्रथक नहीं कर सकता |

पर्दा प्रथा बहु विवाह अनमेल विवाह अथवा अन्य सामाजिक कुरीतियों के समानांतर प्रेमचंद कालीन समाज वेश्या समस्या से भी जूझ रहा था | प्रेमचंद मानते हैं कि कोई भी नारी स्वेच्छा से वैश्या नहीं बनती उसे बनने को बाध्य किया जाता है | नारी अपना बस रहते हुए कभी पैसों के लिए अपने को समर्पित नहीं करती यदि वह ऐसा कर रही है तो समझ लो कि उसके  लिए कोई आश्रय और कोई आधार नहीं है!

नारी की इन सभी निराशाजनक परिस्थितियों के लिए उत्तरदाई है समाज तथा पुरुष वर्ग 🚹  जो आयु पर्यंत उस पर अंकुश लगाकर शासन करता है पति प्रेम विहीन अनमेल विवाह की शिकार नरक का मार्ग की नायिका अपनी स्थिति का दोष माता-पिता समाज तथागत पति पर ही लगाती है मेरे अंता पतन का अपराध मेरे सिर पर नहीं मेरे माता-पिता और इस बूढ़े पर है जो मेरा स्वामी बनना चाहता था

उन्होंने अपनी कहानियों के माध्यम से विधवाओं की विवशता से भरी सामाजिक स्थिति का बड़ा करुण चित्रण प्रस्तुत किया है | वह बाल-विधवा हो या निःसंतान या निराश्रिता किसी भी स्थिति के कट्टर विरोधी रहे | वह विधवा नारी के ह्रदय में आत्मसम्मान देखना चाहते थे | इस प्रकार प्रेमचंद के साहित्य पर द्रष्टि डालने के पश्चात्  मैंने यह देखा| कि इस युग के सभी रचनाकारों ने प्रेमचंद का अनुसरण करके अपने साहित्य में, समग्रनारी-जीवन की सूक्ष्मताओं को बड़ी सफलता के साथ समेटने का प्रयत्न किया है और नारी को स्वतंत्रता दिलाने का भरसक प्रयास किया| नारी को उच्च पद पर बिठा दिया | प्रेमचन्द ने नारी जीवन को निकट से देखा। उसकी जटिलताओं को परखा है उनके समाधान के प्रयत्न भी किये हैँ। वे नारी जीवन की समस्याओं को सुलझाने के लिए आवश्यक मानते हैँ की नारी को पुरुष के समान अघिकार प्राप्त हों। दोनों में सदभाव एवं सहयोग की भावना से ही समाज एवं परिवार अपने विकास के पथ पर अग्रसर हो सकेंगे।

संदर्भ ग्रन्थ सूची –

1-प्रेमचंद पूर्व के कथाकार और उनका युग’

2- प्रेमचंद, कायाकल्प

3- प्रेमचंद, गोदान

4- प्रेमचंद, मानसरोवर भाग-2

5- प्रेमचंद,मानसरोवर भाग 3

6- प्रेमचंद, मानसरोवर भाग

डॉ.मयूरी मिश्रा
हिन्दी विभाग
केन्द्रीय विश्वविद्यालय ओड़िशा 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *