हिंदी भक्ति काव्य में ‘गिरधर गोपाल’ से अनन्य प्रेम करने वाली मीरा का स्थान महत्वपूर्ण है। वह भारत के कृष्ण भक्तों में एक प्रमुख स्त्री भक्त है। मीरा के सम्पूर्ण व्यक्तित्व में और ‘पदावली’ में भक्ति- साधना की प्रधानता है। मीराबाई ने किसी एक दार्शनिक परम्परा या भक्ति संप्रदाय को स्वीकार नहीं किया। डॉ. नगेन्द्र  द्वारा सम्पादित हिंदी साहित्य के इतिहास में भी मीराबाई को संप्रदाय- निरपेक्ष कृष्ण भक्त कवयित्री के रूप में स्थान प्राप्त है। उसकी पदावली का प्रत्येक पद् उसके प्रेमी हृदय की सच्ची कथा बन गया है। उसके पदों से यह बात भी स्पष्ट होती है कि उसके जीवन का एक मात्र कर्तव्य ‘गिरधर-नागर’ को रिझाना है। इसलिए मीरा की भक्ति सहज और स्वाभाविक रूप से अभिव्यक्त हो गई है। फिर भी मीरा पर कुछ सम्प्रदायों का प्रभाव दिखाई पड़ता है।

                मीरा उदार भक्त थी। उनके मन में उपास्य देव के लिए जब जैसे बहव निर्मित होते गये उन्हें वह अभिव्यक्त करती गयी है। जहाँ भक्ति- भाव का जो रूप अच्छा लगा उसे वह अपनाती गई है। इसलिए मीरा की भक्ति साधना में भक्ति के विभिन्न रूप स्पष्ट दिखाई देते है। मीरा क भक्ति के सन्दर्भ में आ.रामचंद्र शुक्ल जी लिखते है- मीराँबाई की उपासना ‘माधुर्य’ भाव की थी अर्थात् वे अपने ईष्ट देव श्री कृष्ण की भावना प्रियतम या पति के रूप में करती थीं।“1 वस्तुतः जीव ब्रह्म सम्बन्ध के अधार पर मीरा की कान्ताशक्ति, मधुराभक्ति के रूप में  प्रकट हुई है। मीरा द्वारा कृष्ण के लिए ‘भवनपति, स्वामी, जणम्- जणम् रो साथी, पिया, प्रीतम,  साजण आदि संबोधन इसी दाम्पत्य भाव मूला मधुराभक्ति के प्रतीक हैं। उनका समर्पण, प्रेम सेवा- भाव और मिलनातुरता सभी मधुराभक्ति से प्रेरित है।

                  सभी सम्प्रदायों ने मीरा की भक्ति को सगुण भक्ति के रूप में माना है। उसके प्रमाणिक पद और उसका जीवन वृत्त इस बात का प्रमाण है कि वह सगुण भक्त हैं। मीरा के पदों में उनका उपास्य देव सगुण रूप में चित्रित हुआ है। वह सगुण- साकार गिरधर की उपासिका हैं-

              –          वस्याँ  म्हारे  णेणण  मा  नंदलाल ।

                         मोर मुकुट मकराकृति कुंडल अरुण तिलक सोहाँ भाल ।

                         मोहन   मूरत   साँवराँ   सूरत   णेण   बीण्या    विशाल ।

                         अधर   सुधा   रस   मुरली   राजाँ   उर   बैजंति   माल ।

                         मीराँ   प्रभु   संताँ   सुखदायाँ,   भक्त   बछल   गोपाल ।

           मीरा  ने बचपन से ही सगुण- साकार कृष्ण की भक्ति को अपने हृदय में बसा लिया है। परशुराम चतुर्वेदी तथा विश्वनाथ त्रिपाठी मीरा के निर्गुणोपासना सम्बन्धी पदों को प्रमाणिक मानते हुए भी उन्हें सगुणोपासक भक्त मानते है। ‘मीराबाई की पदावली’ में परशुराम चतुर्वेदी जी लिखते हैं-मीराँबाई द्वारा किए गये इष्टदेव के निर्गुण मत निरूपण तथा उसकी प्राप्ति के लए प्रयोग में आने वाली चारित्रिक साधनाओं के आधार पर कुछ लोग उन्हें संतमत की अनुयायिनी मान लेना चाहते हैं; किन्तु ऐसा कहना उचित नहीं जान पड़ता। मीराँ ने अपने अनेक पदों में अविनाशी हरी, कृष्ण को ही परम ऐश्वर्यशाली एवं लीलामय भगवान् के रूप में अंकित किया है।2

                    संत सम्प्रदाय का प्रभाव मीरा की रचनाओं पर अवश्य पड़ा है। मीरा ने संतों के सामान ही, अपने प्रियतम(गिरधर गोपाल) को अविनाशी, निर्गुण, निरंजन, साहब आदि संबोधनों से पुकारा है।

          –            मीराँ  के  प्रभु  हरि  अविनाशी,  नैणां  देख्या  भावै  हो।

            मीरा के पदों से इतना तो स्पष्ट है कि उनकी भक्ति भावना पर निर्गुण सम्प्रदाय का प्रभाव पड़ा था। परन्तु अब प्रश्न यह उठता है कि निर्गुणोंपासना सम्न्धी पर्याप्त प्रमाणिक पद पाए जाने पर भी मीरा क्यों सगुणोपासक भक्त ही मानी जाती रही? नाथपंथ अथवा संतमत के पदों में भी ‘मीराँ के प्रभु गिरधर- नागर’ और ‘मीरा के प्रभु हरि अविनाशी’ टेक क्यों मिलता है। उदाहरण के लिए हम निम्न पदों को देख सकते हैं-

         –          म्हारो घर रमतो ही जोगिया तू आवाँ ।। टेक।।

                    कानाँ  बिच  कुंडल  गले  बिच  सेली, अंग भभूत रमाय ।

                    तुम  देख्या  बिन  कल न पड़त है, ग्रिह अँगणों न सुहाय ।

                    मीराँ  के प्रभु हरि  अविनाशी,  दरसण  धौन  मौकूँ आय ।

 

      –            जोगी मत जा मत जा मत जा, पाँई परु मैं तेरी चेरी हौं ।।टेक।।

                             मीराँ का व्यक्तित्व बड़ा प्रखर, स्वतन्त्र दृढ़ एवं क्रान्तिकारी भी था और साथ ही तरल- कोमल भी, मीरा के व्यक्तिव की यही द्वाभा निर्गुण-सगुण द्वंद्व का कारण है| उनकी पदावली में एक ओर संतों की स्वछंदता- साम्प्रदायिक भेद-भावों वर्ण जाति की उपेक्षा, बाह्याचारों, विधि-निषेधों, राज-मर्यादा की अवहेलना, निर्गुण का गान, रहस्य-साधन,   सब प्रकार के संतों साधों की संगति, निर्भय भ्रमण, नाथों-संतों के सहज योग, सतगुरु महिमा तथा अन्तः साधना को भक्ति तथा रहस्य-साधक का आंशिक साधन बनाना आदि बातें संत मत के प्रभाव की द्योतक है- दूसरी ओर मीराँ की पदावली माधुर्य भाव की सगुण भक्ति से ओत-प्रोत है- उसमें रूपासक्ति, विरहासक्ति आदि  नारदीभक्ति की सभी आसक्तियाँ, गोपिका-भाव कृष्ण की विविध लीलाओं का गान, अवतार वाद की मान्यता, स्मार्त वैष्णवी भावना आदि ऐसी बातें हैं जो मीराँ को सगुण भक्ति की साधिका सिद्ध करती है| इस सन्दर्भ में आ.हजारी  प्रासाद द्विवेदी जी का मत है कि-“उनके कुछ पदों में निर्गुण भाव की भक्ति भी मिलती है| परन्तु गिरधर नागर को उद्देश्य करके लिए गये भजनों में मीराँबाई जिस प्रकार सहज और स्व-स्थित दीखती हैं, उस प्रकार इन भजनों में नही दीखतीं| वस्तुतः अध्यंतरित, अनभिमानसिद्ध, सहज आत्मसमर्पण का वेग जितना  सगुण मार्ग के भजनों में है उतना निर्गुण मार्ग के भजनों में नही है|3

                     जिस प्रकार मीराँ का व्यक्तित्व विरोध-विद्रोह तथा विनम्र समर्पण के सामंजस्य का प्रतीक है, उसी प्रकार मीराँ की पदावली में सगुण-निर्गुण की दो विरोधी प्रवृतियों का सुखद सामंजस्य है| ये दोनों धाराएँ अटपटी और बेमेल नही हैं, अपितु मीराँ की प्रेमाभक्ति में दोनों का मणिकांचन योग है|

                   भाषा को लेकर भी विभिन्न विद्वानों के विभिन्न मत हैं| मारवाड़ी भाषा में राजस्थान की अन्य भाषा -ध्वनियाँ भी  विद्यमान हैं| फिर मीराँ की भाषा में गुजराती,ब्रज और पंजाबी भाषा के प्रयोग भी मिलते हैं| मीराँ अन्य संतों नामदेव, कबीर,रैदास आदि की भाँति मिली-जुली भाषा में अपने भावों को व्यक्त करती हैं|

                 वास्तव में नाथ-संत निर्गुण साधना का यह प्रभाव मीराँ की भक्ति-भावना को तीव्रता ही प्रदान करता है| प्रेमदीवानी मीराँ ने अपनी प्रेम-भक्ति की व्यंजना में इन सब साधनों को सहायक ही बनाया है, क्योंकि मीराँ ने कहीं भी निर्गुण वादीयों या नाथ पंथियों की तरह अन्तः साधना और सहजयोग को अपना अंतिम लक्ष्य नही बनाया|

                   वस्तुतः झिरमिट खेलना, त्रिकुटी महल, अनहद नाद, आदि अन्तः साधना की शब्दावली मीराँ ने अपनी भक्ति-भावना में वैचित्र्य लाने के लिए ही अपनाई है| आ.द्विवेदी इस सन्दर्भ में अपने विचार प्रस्तुत करते हुए कहते है कि-“मीराँबाई अत्यंत उदार मनोभावनापन्न भक्त थीं| उन्हें किसी पंथ-विशेष पर आग्रह नहीं था| जहाँ कहीं भी उन्हें भक्ति या चारित्र्य मिला है वहीँ उन्होंने उसे सिर माथे चढ़ाया है|“4  डॉ कृष्ण लाल  ने अपेक्षाकृत अधिक व्यापक दृष्टीकोण अपनाते हुए मीराँ के पदों का विश्लेषण कर उनमें सूर, तुलसी, कबीर, विद्यापति, चंडीदास, नाथपंथ आदि की विशेषताओं को देखते हुए यह निष्कर्ष दिया है की मीराँबाई के पदों में उस युग की सभी भावनाओं की अत्यंत सुन्दर व्यंजना मिल जाती है|5

                   अंततः उपर्युक्त विवेचन के पश्चात् यह कहना अधिक समीचीन लगता है कि मीराँ के मन पर  जैसा भी प्रभाव पड़ा भावों में जिस प्रकार की हिलोरें उठी, उसी प्रकार से उन्होंने अपने अराध्य का वर्णन किया| यही कारण है कि उनके पदों में भक्ति के विभिन्न रूप अभिव्यक्त हो गये हैं|

   संदर्भ :-

1.हिंदी साहित्य का इतिहास: आ. रामचन्द्र शुक्ल, लोकभारती प्रकाशन आठवाँ सं. 2012, पृष्ठ (124)

2.मीराँबाई की पदावली: परशुराम चतुर्वेदी, हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग, पृष्ठ (36-37)

3.हिंदी साहित्य उद्भव और विकास : आ.हजारी प्रसाद द्विवेदी, कपूर एंड संस, पृष्ठ (195)

4.वही……………………… पृष्ठ (194)

5.मीराँबाई :कृष्णलाल, संस्करण 2006, पृष्ठ (94-95)

संचना 
शोधार्थी
दिल्ली विश्विद्यालय

 

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